28 September 2011

मोर्चे पर डटा रहने वाला लीडर

कई लोगों के लिए लीडर और मैनेजर शब्द का एक ही मतलब है। बेशक इनमें समानता है, लेकिन एक हद तक। असल में ये दोनों का$फी अलग हैं। इनमें वही अंतर है, जो औसत खिलाड़ी और बेहतरीन खिलाड़ी में होता है...


- मैनेजर मेंटेन करता है, जबकि लीडर विकसित। मैनेजर नीतियों और प्रक्रियाओं पर ही ध्यान देता है। काम का सुचारू चलना ही उसका लक्ष्य होता है, जबकि लीडर का जोर 'सही चीजÓ करने में होता है।
- मैनेजर अनुसरण या नकल करता है। वह नया करने की नहीं सोचता, जबकि लीडर प्रयोगधर्मी होता है। वह बेहतर करने के लिए वह अपनी टीम के लोगों व अन्य दूसरे लीडरों से मशवरा करता है, तरीकों के संबंध में चर्चा करता है,और बेहतर करने के लिए नियमों में बदलाव से पीछे नहीं हटता।
- मैनेजर प्रोडक्ट पर ध्यान देता है, जबकि लीडर प्रोसेस पर। मैनेजर कामकाज में सक्रिय भागीदारी नहीं निभाता, बल्कि अंत में आए नतीजे से ही सरोकार रखता है। लीडर, गुणवत्ता, उत्पादन और दक्षता के सिद्धांत को ध्यान में रखता है। इसके अनुसार वह कर्मचारियों की कोशिश और नतीजे को जानने में सक्षम होता है।
- मैनेजर कर्मचारियों का मूल्यांकन सकारात्मक प्रतिक्रिया के आधार पर करता है, उसका कर्मचारियों के कामकाज से सीधा जुड़ाव नहीं होता। लीडर कामकाज से सीधा वास्ता रखता है और सहज ज्ञान के आधार पर कर्मचारियों का मूल्यांकन करता है।
- मैनेजर अपने मातहत को सहायक  के रूप में देखता है। इसीलिए किसी सहायक के आगे बढऩे पर, वह असुरक्षाबोध से ग्रसित हो जाता है। इसके विपरीत, लीडर अन्य दूसरे लीडर विकसित करने का प्रयास करता है। सहायकों को प्रोत्साहित करता है।
- मैनेजर अपने सहायकों को 'क्या करना हैÓ यह बताकर आउटपुट मांगता है। लीडर यह भी बताता है कि वह काम कैसे हो पाएगा। वह सहायकों को एक विजन, एक नजरिया भी दे देता है।  कर्मचारियों से उनकी व्यक्तिगत कमियों पर चर्चा कर उसे दूर करने का रास्ता भी बताता है।
- लीडर कर्मचारियों में सुरक्षा का एहसास भरता है। $गलती होने पर इल्•ााम अपने सर लेने तैयार रहता है। मैनेजर कर्मचारियों को सीधे कटघरे में खड़ा कर देता है।
- लीडर एक ही लाठी से सबको नहीं हांकता। उसे पता होता है- कौन मक्कारी के कारण काम नहीं कर पाया, और कौन समस्या की वजह से रुका है। मैनेजर में यह समझदारी नहीं होती। 
- मैनेजर न सुनना पसंद नहीं करता, उसे केवल तारी$फ पसंद होती है। लीडर स्वस्थ माहौल में खुलकर काम करने व बात रखने की छूट देता है। अपनी बात कटने पर अन्यथा नहीं लेता।
- मैनेजर कंट्रोल पर यकीन रखता है जबकि लीडर विश्वास पर। जो सहायक अनुकूल नहीं लगते, मैनेजर उन पर दबाव बनाता है, जबकि लीडर स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर प्रोत्साहित करके काम लेता है। 

23 September 2011

धर्म का सार

 आज जहां अनेक लोगों व संस्थाओं पर जबरिया धर्मांतरण कराने के आरोप लग रहे हंै, वहीं किसी समय हिंदू धर्म ग्रहण करने आए एक अमेरिकी प्रोफेसर को, स्वामी विवेकानंद ने दीक्षा देने से इंकार करते हुए अच्छा ईसाई बनने कहा था। पढि़ए, एक रोचक किस्सा..
 बात उन दिनों की है, जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका में थे। लोग स्वामीजी को सुनने और उनसे धर्म के विषय में अधिक से अधिक जानने को उत्सुक थे। उनके धर्म संबंधी विचारों से प्रभावित होकर एक दिन एक अमेरिकी प्रोफेसर उनके पास पहुंचे। उन्होंने स्वामी जी को प्रणाम कर कहा- स्वामीजी,  आप मुझे अपने हिंदू धर्म में दीक्षित करने की कृपा करें।
उनकी बात सुनकर स्वामीजी बोले- मैं यहां धर्म-प्रचार के लिए आया हूं, न कि धर्म-परिवर्तन के लिए। मैं अमेरिकी धर्म-प्रचारकों को यह संदेश देने आया हूं कि वे धर्म-परिवर्तन के अभियान को बंद कर प्रत्येक धर्म के लोगों को बेहतर इंसान बनाने का प्रयास करें। यही धर्म की सार्थकता है। सभी धर्मों का मकसद यही है। हिंदू संस्कृति विश्व-बंधुत्व का संदेश देती है, मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानती है। इस पृथ्वी पर सबसे पहले मानव का आगमन हुआ था। उस समय कहीं कोई धर्म, जाति या भाषा न थी। मानव ने अपनी सुविधानुसार अपनी-अपनी भाषाओं, धर्म तथा जाति का निर्माण किया और अपने मुख्य उद्देश्य से भटक गया। यही कारण है कि समाज में तरह-तरह की विसंगतियां आ गई हैं। लोग आपस में विभाजित नजर आते हैं। इसलिए मैं तुम्हें यह कहना चाहता हूं कि तुम अपना धर्म पालन करते हुए अच्छे ईसाई बनो। हर धर्म का सार मानवता के गुणों को विकसित करने में है इसलिए तुम भारत के ऋषियों-मुनियों के शाश्वत संदेशों का लाभ उठाओ और उन्हें अपने जीवन में उतारो। वह प्रोफेसर उनकी बातों से अभिभूत हो गए।

प्यार की $कीमत


एक बार सभी एहसास और भावनाएं एक आइलैंड पर छुट्टियां मनाने के लिए गए। अपने-अपने स्वभाव के अनुसार सभी वहां मौज कर रहे थे, तभी वहां तूफान आने की संभावना बनने लगी। यकायक सभी लोग तेजी से भागकर बोट में सवार होने लगे। 'प्यारÓ वहीं खड़ी थी, उस आइलैंड को छोडऩे को उसका मन नहीं हो रहा था। वो वहां बहुत काम करना चाहती थी, लेकिन जब उसने घटाटोप बादलों को देखा, तो वह जाने को हुई, लेकिन उसके लिए एक भी बोट नहीं बची थी, जिसमें वो सवार हो पाती।
'प्यारÓ मदद की आस में किनारे खड़ी हो गई और जाने वाले लोगों आशाभरी न•ारों से देखने लगी। तभी उसके पास से एक आलीशान बोट में 'सफलताÓ गु•ारी। 'प्यारÓ ने उससे कहा- क्या तुम मेरी सहायता करोगी, मुझे अपनी बोट में बिठा लोगी? 'सफलताÓ ने कहा- मा$फ करना, मेरे बोट में हीरे-जवाहरात भरे पड़े हैं, उसमें तुम्हारे लिए बिलकुल जगह नहीं है। यह कहकर 'सफलताÓ चली गई। थोड़ी देर बाद वहां $खूबसूरत बोट में 'घमंडÓ आया। 'प्यारÓ ने उससे भी अपनी बोट में जगह देने की गु•ाारिश की। घमंड ने इंकार करते हुए कहा- 'मेरी सुंदर बोट तुम्हारे मिट्टी से सने पैरों से खराब हो जाएगी।Ó जब वहां से '$गमÓ गु•ारा तो 'प्यारÓ ने उससे भी पनाह मांगी। '$गमÓ ने कहा- 'मंै तुम्हें नहीं ले जा सकता, क्योंकि मैं दुखी हूं और अकेले रहना चाहता हूं।Ó कुछ देर बाद वहां से '$खुशीÓ बोट में सवार होकर आई। 'प्यारÓ ने उसे चिल्लाया, हाथ दिखाकर रोकना चाहा, लेकिन $खुशी अपने आप में इतना मस्त थी कि उसे 'प्यारÓ की आवा•ा ही सुनाई नहीं दी। 
'प्यारÓ वहीं थक-हार कर बैठ गई, वह नाउम्मीद हो चुकी थी,। तभी उसे किसी ने कहा- आओ 'प्यारÓ तुम मेरे साथ मेरी बोट में आ जाओ। 'प्यारÓ उस शख़्स को नहीं जानती थी, लेकिन वह भागकर उसकी बोट में सवार हो गई। आगे एक सुरक्षित जगह पर उस शख़्स ने 'प्यारÓ को उतार दिया। वहां 'प्यारÓ की मुला$कात 'नॉलेजÓ से हुई। 'नॉलेजÓ को अपनी आपबीती सुनाकर 'प्यारÓ ने कहा- पता नहीं वह अजनबी मददगार कौन था, क्या तुम उसे जानते हो? 'नॉलेजÓ ने कहा- हां,  मैं उसे जानता हूं, वह 'टाइमÓ था।
'प्यारÓ ने चकित होकर कहा- 'टाइमÓ लेकिन उसने भला क्या सोचकर मेरी मदद की, रुककर मुझे बचाना बेहतर समझा! 'नॉलेजÓ ने मुस्कराते हुए कहा- क्योंकि केवल 'टाइमÓ ही तुम्हारे महत्व, क्षमता और महानता को जानता है। उसे ही पता है कि केवल प्यार ही है, जो विश्व में शांति और सच्ची $खुशी ला सकता है।

निष्कर्ष: जब हम सफल होते हैं, तो प्यार जैसी कोमल भावना को न•ारअंदाज कर देते हैं। जब हम हर जगह आदर-सम्मान पाते हंै, तब प्यार को भूल जाते हैं। यहां तक कि $खुशी और $गम के क्षणों में भी प्यार हमारे ख्य़ाल में नहीं रहता। केवल समय के साथ हम प्यार का महत्व उसकी उपयोगिता समझ पाते हैं।

बीमारी पर भारी कला



माना जाता है कि डिस्लेक्सिया की बीमारी से पीडि़त बच्चे की प्रतिभा और कला की धार को कुंद कर देता है। आगे चलकर भी उनके बहुत अच्छे की आशा नहीं की जाती, लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो इस रोग पीडि़त होने के बाद भी दुनिया में मिसाल बनकर उभरे...

डिस्लेक्सिया ने दुनियाभर के करोड़ो बच्चों और किशोरों को चपेट में लेने के साथ अमेरिका के ४ करोड़ बच्चों और किशोरों को प्रभावित किया है। आमतौर पर इस बीमारी से पीडि़त बच्चे अपनी कमियों के कारण अवसाद से घिर जाते हैं और अकेलापन महसूस करते हैं। डिस्लेक्सिया के रोगियों के बारे में कहा जाता है कि वे मंदबुद्धि और मूर्ख प्रवृत्ति के होते हैं, जिनसे किसी बड़े काम की अपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन कुछ लोगों ने इन धारणाओं को गलत साबित किया जैसे..
पाब्लो पिकासो
स्पेन के मलागा शहर में १८८१ को पैदा हुए पाब्लो पिकासो एक मशहूर, विवादित और चित्रकला के स्तंभ के रूप में जाने जाते हैं। बचपन में एक स्थानीय स्कूल में उन्होंने जाना शुरू किया और वहां बिताया गया उनकी वक्त मुश्किलों से भरा था। स्कूल में पाब्लो के बारे में कहा गया कि वे अक्षरों को पढऩे में असमर्थ हैं और उन्हें डिस्लेक्सिया का रोगी करार दे दिया गया। शुरूआती दिक्कतों के बाद पाब्लो पाठ्यक्रम पढऩे और समझने लगे। फिर भी, डिस्लेक्सिया के चलते उन्हें परेशानी होने लगी और अपनी बुनियादी तालीम का कोई फायदा नहीं उठा सके। इस बीमारी की वजह से उन्हें पूरी •िांद$गी परेशानी का सामना करना पड़ा।  पाब्लो के पिता मलागा में कला के शिक्षक थे और उन्होंने पाब्लो को भी कक्षा में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। पाब्लो की याद करने की क्षमता पर सवाल होने के बावजूद एक बात और साफ हो गई थी कि उनमें अतुल्य प्रतिभा है। शुरूआती जीवन में ही पाब्लो ने इस समझ को विकसित कर लिया था कि लोग $खुद को किस तरह दिखाना चाहते हैं और दूसरे लोग उन्हें किस तरह देखते हैं। समय गुजरने के साथ ही पाब्लो ने सौंदर्य की अद्भुत समझ विकसित कर ली थी। उन्होंने चित्रकारी उसी तरह की, जैसा उनकी आंखों ने देखा और मन ने समझा। उनकी चित्रकारी इंसान के मनोविज्ञान पर की गई रचनात्मकता, मनोभाव और कल्पना की शक्ति की एक बेहतरीन मिसाल है। पाब्लो पिकासो ने अपनी कल्पना शक्ति और समझ के बूते कला को एक नया आयाम दिया।

टॉम क्रू•ा
संघर्ष के साथ टॉम क्रू•ा का रिश्ता उनके पैदा होने के साथ ही जुड़ गया था, वे घोर गरीबी में पैदा हुए और पले-बढ़े। वे और उनका परिवार काम की तलाश में लगातार भटकते रहे। टॉम अपनी बुनियादी शिक्षा के लिए किसी स्कूल से लंबे वक्त तक जुड़े नहीं रह सके, क्योंकि काम की तलाश परिवार हमेशा एक जगह से दूसरी जगह भटकता रहता था। मां की तरह टॉम भी डिस्लेक्सिया से पीडि़त थे। उन्हें ऐसे स्कूल में डाला गया था, जहां उनकी बीमारी का इलाज भी हो सके। स्कूल में ज्य़ादा वक़्त न बिता पाने के कारण टॉम ने अपना भविष्य एथलेटिक्स में तलाशना शुरू किया और कई खेलों में भाग लिया। लेकिन घुटने में लगी चोट ने एथलेटिक्स में उनके करियर की सारी उम्मीदें $खत्म कर दीं। इसके बाद टॉम ने $करीब एक साल तक फ्रांस्सिकन मोनेस्ट्री (मठ) में बिताया, लेकिन उनकी किस्मत में पुजारी का काम करना भी नहीं लिखा था। जब वे हाईस्कूल में पहुंचे, तो कई प्ले में अभिनय किया और अपनी मां के कहने और प्रोत्साहित करने पर एक्टिंग में करियर संवारने के लिए तैयार हुए। टॉम ने अपना पूरा ध्यान और ऊर्जा अभिनय की दुनिया में नाम कमाने के लिए लगा दिया। उन्होंने इस साधना में अपनी शारीरिक अपंगता को कभी आड़े नहीं आने दिया और आज हॉलीवुड में स्टंट के सबसे बड़े स्टार माने जाते हैं। 

रिचर्ड बैंसन
लंदन स्थित वर्जिन समूह के संस्थापक और चेयरमैन रिचर्ड बैनसन स्कूल की मौज-मस्ती का हिस्सा कभी नहीं बन सके। ह$की$कत तो यह है कि स्कूल उनके लिए किसी बुरे स्वप्न से कम नहीं था। मानक परीक्षा में उनके अंक बहुत निराश करने वाले थे, जो उनके निराशाजनक भविष्य की ओर इशारा कर रहे थे। डिस्लेक्सिया का रोगी होने के कारण वे बहुत शर्मिंदगी महसूस करते थे और पढ़ाई-लिखाई में उन्हें कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था। हालांकि उनके शिक्षक उनकी असली प्रतिभा तो तब तक समझ पाने में नाकाम रहे, जब तक रिचर्ड बैनसन ने अपने एक स्कूल के साथी के साथ मिलकर छात्रों  के लिए एक अ$खबार शुरू किया। डिस्लेक्सिया पीडि़त होने के कारण तमाम कठिनाईयों और चुनौतियों का सामना करने के साथ उन्होंने अपना पूरा ध्यान अपने भीतर छुपी प्रतिभा को निखारने में लगाया और सफलता ने उन्हें सारी कठिनाईयों से ऊपर उठा दिया। सफलता के पहले स्वाद और खुद के भरोसे के कारण रिचर्ड बैनसन ने दुबारा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा।
लियोनार्दो दा विंची
दा विंची ने $खुद को प्रकृति के रहस्य समझने के लिए समर्पित कर दिया था। विज्ञान और तकनीक में उनका योगदान अविस्मरणीय है। नवजागरण काल का एक कलाकार होने के नाते उन्होंने दुनिया को अंधविश्वास के अंधेरे से निकालकर विज्ञान और तर्क के प्रति सोचने के लिए उन्मुख किया। वे अपने समय के एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अविष्कारक, वैज्ञानिक, इंजीनियर, शिल्पकार, चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतकार, गणितज्ञ, खगोलविद और दार्शनिक थे। माना जाता है कि दा विंची भी डिस्लेक्सिया सहित कई तरह की बीमारियों सेे पीडि़त थे। दा विंची की पांडुलिपियां और पत्र उनके डिस्लेक्सिया से पीडि़त होने का समर्थन करते हैं। पांडुलिपियों और पत्रों में उनकी लिखावट और वर्तनी की अशुद्धियां बताती हैं कि उनमें भी डिस्लेक्सिया जैसी बीमारी का असर था। लेकिन दा विंची ने उन सारी बीमारियों से ऊपर उठकर अपने विचारों को जिस रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह उनकी अद्वितीय प्रतिभा की गौरवशाली कहानी का ठोस प्रमाण है।

थॉमस एडिसन
दुनिया के महान अविष्कारकों में से एक थॉमस एडिसन को १२ साल की उम्र में स्कूल से बाहर निकाल दिया गया था, क्योंकि स्कूल प्रबंधन ने उन्हें मूर्ख मान लिया था। डिस्लेक्सिया के लक्षण होने के बावजूद उनके अविष्कारों ने दुनिया का नक्शा ही बदल दिया। लाइट बल्ब, फोनोग्राफ और मोशन पिक्चर कैमरा जैसे महत्वपूर्ण थॉमस एडिसन के नाम पर ही दर्ज हैं। इन बीमारियों से पीडि़त होने वाली महान विभूतियां जे लीनो और व्हूपी गोल्डबर्ग जैसे नाम भी शामिल हैं।
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नवीनता के राजदूत


     
यूं तो •िांदगी चलते रहने का नाम है, लेकिन एक समय बाद अधिकतर इंसान के भीतर कुछ नया करने का ज•बा खत्म हो जाता है, उसकी सोच कुंद हो जाती है। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने सारे अनुमानों और अटकलों के विपरीत कुछ ऐसा कर दिखाया, जिसके बारे में किसी ने सोचा न था। नए साल के मौके पर आइए मिलते हैं, ऐसे ही कुछ नवीनता के राजदूत से... 
अमिताभ बच्चन: जवानी की नई परिभाषा
अगर जवानी का मतलब जोश, सक्रियता, उत्साह और ऊर्जा है, तो अमिताभ बच्चन और जवानी का अर्थ भी एक ही है। भारतीय सिने जगत की इस सर्वाधिक मशहूर श$िख्सयत ने जवानी की नई परिभाषा पेश की है। उम्र की ढलान में जब लोग रिटायर होकर घर पर बैठ जाते हैं, वे पूरे जोशो-खरोश के साथ काम कर रहे हैं। बच्चन साहब वर्तमान में 68 साल के हैं, लेकिन वे जिस ऊर्जा और उत्साह से लबरेज होकर काम करते हैं, वह सबको हैरत में डाल देता है। काम के प्रति समर्पण और चपलता के मामले में 20-25 साल के युवा कलाकार भी उनके आगे फीके न•ार आते हैं। बिग-बी ने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव झेला है और अपने जीवट स्वभाव के बूते उन्होंने हर चुनौतियों से पार पाया है। १९97 में अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड (एबीसीएल) में तगड़ा नु$कसान झेलने के बाद वे कर्जे में डूबे। काफी संघर्षों के बाद 2000 में टीवी शो 'कौन बनेगा करोड़पतिÓ (केबीसी) ने उन्हें वित्तीय संकट से उबारने में संजीवनी का काम किया। और तब से ही वे उम्र को मात देते हुए  काम कर रहे हैं। वो इस समय में एनर्जी लेवल के प्रतिनिधि बनकर उभरे हैं। यह गौरतलब है कि युवाओं के देश में ऊर्जा का प्रतिनिधि साठ पार कर चुका एक आदमी है।
सचिन तेंदुलकर: उम्र को मात देती सफलता
न जाने किस मिट्टी के बने हैं सचिन... कि जब-जब आलोचक उन्हें चूका हुआ करार देते हैं, वे अपने बल्ले से रनों की बारिश कर उनका मुंह बंद कर देते हैं।  क्रिकेट का 'भगवानÓ, 'स्कूलÓ 'प्रोफेसरÓ, 'रनमशीनÓ और न जाने कितने विशेषणों से नवा•ो गए तेंदुलकर ने यह साबित किया है कि सफलता का उम्र से कोई सरोकार नहीं है। उन्होंने यह मिथक तोड़ा है कि 30-35 साल के बाद क्रिकेटर को बल्ला टांग देना चाहिए। 36 साल की उम्र में भी उनके भीतर लाजवाब कर देने वाली रनों की भूख है। इस उम्र में भी वे रिकार्ड पर रिकार्ड बनाए जा रहे हैं, उनका बल्ला लगातार रन उगल रहा है। अपनी लगन और मेहनत से लिटिल मास्टर ने जता दिया कि उम्र 16 की हो या 36 की, करियर का शुरुआत हो या फिर अंत... वे जो चाहते हैं उसे हासिल कर सकते हैं, किसी तरह का 'अंकगणित Ó या 'समीकरणÓ उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।
आमिर खान: नएपन की $खुशबू
आमिर खान हमेशा कुछ नया करने में य$कीन रखते हैं, चाहे फिल्में हों या और कुछ, उनके हर काम में एक ता•ागी, एक नएपन की $खुशबू है। थ्री इडियट, रंग दे बसंती, तारे •ामीं पर, लगान, मंगल पांडे, दिल चाहता है, अर्थ 1947  हो या फिर पीपली लाइव ... वे अपनी हर फिल्म में कुछ हट के, कुछ नया करते हैं, दर्शकों को कुछ नया देते हैं। 90 के दशक में जब शाहरुख, सलमान जैसे अन्य साथी कलाकार धड़ाधड़ फिल्में साइन कर बैंक बैलेंस बढ़ा रहे थे, उन्होंने प्रतिद्वंद्विता छोड़कर कुछ बेहतर, कुछ सार्थक करने की सोची, पैसे का आकर्षण छोड़कर साल में एक फिल्म करने का जोखिम लिया। दिलचस्प बात यह है कि आमिर के भीतर की रचनाधर्मिता और मौलिकता ने मसाला फिल्म बनाने वाले हुसैन-बंधु (चाचा नासिर हुसैन और पिता ताहिर हुसैन) के 'गुणसूत्रोंÓ का •ारा भी असर नहीं लिया। असल में उनके भीतर नवीनता के प्रति, कुछ अलग करने के प्रति जन्मजात आकर्षण है और उनके हर काम में प्रयोगधर्मिता, कुछ हट के काम करने की •िाद झलकती है। शायद इसीलिए लंदन स्थित मैडम तुसाद के संग्रहालय से उनकी मोम की मूर्ति बनाने का प्रस्ताव आया, तो उन्होंने 'मेरी रुचि नहीं हैÓ कहकर उसे ठुकरा भी दिया, जबकि उनसे पहले अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय ने वहां अपनी मूर्ति बनवाई थी।
जूलिया राबर्टस और मैडोना: चलते रहने का नाम •िांदगी
हालीवुड की दो सेलेब्रिटी जूलिया राबर्टस और पॉप स्टार मैडोना भी सारी दुनिया को हमेशा कुछ नया कर चौंकाती रहती हैं। इन दोनों का हाल ही में आध्यात्मिकता की ओर गहरा रुझान बढ़ा है। शांति की तलाश में जूलिया ने जहां हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है, वहीं मैडोना हिंदू दर्शन को समझने में लगी हैं। मर्लिन मुनरो के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय माने जाने वाली जूलिया, यूं तो अभिनय के अलावा भी यूनिसेफ को दान देने, सोशल एक्टीविटीज में भाग लेने जैसा कुछ नया करती हैं। लेकिन जब  फिल्म 'इट प्रे लवÓ की शूटिंग के दौरान उनका भारत आना हुआ था, तब से उनका झुकाव हिंदू दर्शन की ओर हुआ और वे हिंदू बन गई। कमोबेश यही कहानी 20वीं सदी की सर्वाधिक बिकने वाली महिला रॉक कलाकार मैडोना की भी है। 'लाइक अ वर्जिनÓ और 'ट्रू ब्लूÓ जैसे स्टूडियो ऐल्बमों से पॉप आइकॉन के रूप में वैश्विक मान्यता पाने वाली मैडोना बहुत प्रयोगधर्मी हैं। एलबम 'लाइक अ प्रेयरÓ में धार्मिक कल्पना का व्यापक प्रयोग के अलावा उन्होंने फिल्म 'एविटाÓ में नायिका की भूमिका भी निभाई है। इन दिनों उनका हिंदू धर्म के प्रति रुझान बढ़ा है, वे  गुस्से पर काबू पाने और तनाव भगाने के लिए धार्मिक परामर्शदाताओं की मदद ले रही हैं। 
नारायणमूर्ति: ईमानदारी के प्रतीक
एक ओर जहां दुनिया भर में उद्योगपतियों पर अपना काम निकालने के लिए सरकारी तंत्र से नापाक तालमेल के आरोप लगते रहते हैं, वहीं साफ्टवेयर कंपनी इंफोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति ईमानदारी और नैतिक मूल्यों की शुचिता के प्रतीक बनकर उभरे हैं। उन्होंने सिखाया है कि ईमानदारी पुराने जमाने का मूल्य नहीं है और व्यक्ति अगर मेहनती हो तो सफल हो सकता है। उनकी छवि को देखते हुए ही अनेक लोगों ने कंपनी 'सत्यमÓ को बचाने, उस पर लगे दाग को साफ करने मूर्ति को उसका सीईओ बनाने का सुझाव दिया था। बताते हंै कि चेन्नई के कारोबारी पट्टाभिरमण ने अपनी सारी दौलत इंफोसिस को ही दान कर दी है। वे नारायणमूर्ति को भगवान की तरह पूजते हैं और उन्होंने अपने घर में मूर्ति लगा रखी है। १९८१ में अपनी पत्नी से 10 हजार रुपए मुंबई के एक अपार्टमेंट में कंपनी की नींव रखने वाले मूर्ति की लगन और मेहनत से 1999 में कंपनी को उत्कृष्टता और गुणवत्ता का प्रतीक एसईआई-सीएमएम मिला और इसी साल उनकी कंपनी के शेयर अमरीकी शेयर बाजार एनएएसडीएक्यू में रजिस्टर होने वाली पहली भारतीय कंपनी बनी। अनेक देशी-विदेशी सम्मानों से नवाजे गए मूर्ति को 2005 में को विश्व का आठवां सबसे बेहतरीन प्रबंधक भी चुना गया।
मार्क जकरबर्ग: बदलाव की बयार
टाइम मैगजीन द्वारा इस साल का 'पर्सन आफ द ईयरÓ चुने गए फेसबुक के संस्थापक और सीईओ मार्क जकरबर्ग बदलाव के, नवीनता के सूत्रधार हैं। जब उन्हें लगा कि फेसबुक में मेलफीचर की •ारूरत है, तो उन्होंने उसे जोडऩे में देर नहीं लगाई। जब उन्हें लगा कि भाषा दीवार बन रही है, तो उन्होंने चायनी•ा सीखने की कोशिश शुरू कर दी। उनकी उम्र महज 26 साल है, और 'पर्सन आफ द ईयरÓ चुने जाने वाले वे दुनिया के दूसरा सबसे कम उम्र व्यक्ति हैं।  टाइम पर्सन ऑफ द इयर का सम्मान पाने वाले 25 वर्षीय चाल्र्स लिंडबर्ग विश्व के सबसे कम उम्र के व्यक्ति हैं, उन्हें यह सम्मान 1927 में दिया गया था। जकरबर्ग को यह सम्मान सबसे कमउम्र का अरबपति होने व १०करोड़ डालर शिक्षा में सुधार के लिए दान देने के लिए दिया है। मालूम हो, फेसबुक के रजिस्टर्ड युजर्स की कुल संख्या 55 करोड़ है और विश्व के हर 12वें व्यक्ति के पास फेसबुक एकाउंट है। भारत में यह नंबर वन सोशल नेटवर्किंग साइट है। रोजगार वेबसाइट 'ग्लासडोर डॉट कॉमÓ द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण में फेसबुक को सबसे बेहतर नियोक्ता भी चुना गया है।
राजकुमार हिरानी: दिल से जीयो, दिल से करो
थ्री ईडियट्स और मुन्नाभाई एमबीबीएस के मशहूर डायरेक्टर राजकुमार हिरानी ने भेड़चाल चलने वाले बालीवुड को बता दिया कि सब्जेक्ट में दम हो और अगर स्क्रिप्ट में कसावट हो, तो बिना किसी कमर्शियल एलीमेंट के भी फिल्म हिट हो सकती है। उन्होंने जो अच्छा लगा वो किया, लेकिन जो किया, वो सबको अच्छा लगा। डायरेक्टर, पटकथा लेखक, एडीटर और एडफिल्म निर्माता रहे हिरानी ने बालीवुड के दिग्गज कलाकारों का 'ब्रेनवाशÓ कर दिया। तेजाब, अंकुश, वजूद, युगांधर जैसी विचारोत्तेजक विषयों पर फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशक एन चंद्रा इस बात को स्वीकारते भी हंै। उन्होंने 'मुन्नाभाई...Ó हिट होने के बाद हिरानी को बधाई देते हुए कहा था-'अगर यह स्क्रिप्ट लेकर आप मेरे पास आते, तो मैं यह कहकर भगा देता कि इसमें कमर्शियल एलिमेंट नहीं है, अस्पताल, मरीज और डॉक्टर को कौन देखेगा? लेकिन फिल्म देखने के बाद लगा कि जो दिल को अच्छा लगे, वही करना चाहिए। बेशक, हम दूसरों की पसंद के बारे में नहीं जानते हैं, लेकिन हम अपनी पसंद के अनुसार बेहतर काम कर सकते हैं।Ó
ए. आर. रहमान: संगीत का नया सुर
रहमान यानी प्रयोग, प्रयोग और केवल प्रयोग... वे हमेशा नए रास्ते बनाते हैं, लीक से हटकर काम करते हैं।  नए गायकों को मौका देते हैं, नए वाद्य यंत्रों के माध्यम से प्रयोग करते हैं। वे सिंथेसाइजर से बेहद प्रभावित हैं और उसे कला और टेक्नोलॉजी का अद्भुत संगम मानते हैं। टाइम्स पत्रिका द्वारा 'मोजार्ट ऑफ मद्रासÓ की उपाधि से सम्मानित रहमान की फिल्मों से परंपरागत संगीत की बजाय फ्यूजन की ओर रुझान •यादा न•ार आता है। चेन्नई में जन्मे रहमान तमिलभाषी हैं, उन्हें न तो हिंदी आती है और न ही चीनी... वे तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ भी नहीं जानते, लेकिन वे इन भाषाओं की फिल्मों में भी संगीत दे रहे हैं। भाषाई सरहदों को लांघकर वे विश्व संगीत में योगदान दिया है और यह दिखाया है कि संगीत की कोई भाषा नहीं होती। उनकी हमेशा नया करने की कोशिशों को देखकर ही फिल्म समीक्षकों ने उन्हें नया पंचम दा (आर.डी बर्मन) भी कहा था। गौरतलब है कि उनकी पहली फिल्म 'रोजाÓ के संगीत को टाइम्स पत्रिका ने 'टॉप टेन मूवी साउंडट्रेक ऑफ ऑल टाइम इन 2005Ó में जगह दी थी। वे विश्व संगीत में योगदान के लिए 2006 में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी से सम्मानित हुए और पिछले साल उन्हें फिल्म 'स्लमडॉग मिलिनेयरÓ के लिए संगीत की दुनिया का ऑस्कर माने जाने वाला 'गोल्डन ग्लोब अवार्डÓ भी मिला।
स्टीवन स्पीलबर्ग: इंज्वाय भी, क्रिएटिविटी भी
स्पीलबर्ग का नाम अंतरराष्ट्रीय फिल्म जगत में गुणवत्तापूर्ण मनोरंजन, नॉलेज, एंटरटेनमेंट और क्वालिटी का पर्याय माना जाता है। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, स्क्रीन राइटर से लेकर वीडियो गेम डिजाइनर, स्टुडियो एक्जीक्यूटिव तक रह चुके स्पीलबर्ग असल में विविधता के प्रेमी हैं। उन्होंने क्रिएटिवटी को साधा है  और यह सिखाया है कि मुख्यधारा में रहते हुए भी क्रिएटिव काम किया जा सकता है, विविधता दी जा सकती है, काम के साथ भरपूर इंज्वाय किया जा सकता है। 'टाइमÓ व 'लाइफÓ पत्रिका द्वारा शताब्दी के सौ महत्वपूर्ण व्यक्तियों में शामिल स्पीलबर्ग की फिल्म की हर विधा में पकड़ है और बीते चार दशकों में उन्होने साइंस फिक्शन, एडवेंचर्स, बलि, गुलामी, युद्ध और आतंकवाद जैसे विषयों पर फिल्में दी हैं। १९९३ में फिल्म 'शिंडलर्स लिस्टÓ व 1998 में 'सेविंग प्राइवेट रेयानÓ के लिए उन्हें बेस्ट डायरेक्टर का अकादमी अवार्ड भी मिल चुका है। अपनी फिल्मों में मानव प्रयासों को चित्रित करने के कारण वे 'लिबर्टीÓ मेडल से भी नवा•ो गए हैं। जुरासिक पार्क, जॉ•ा इंडियना जोंस उनकी अन्य प्रसिद्ध फिल्में हैं।

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कैसी अच्छाई, कैसी प्रशंसा..


सीटा के ईसाई मठ में महंत लूकास ने एक दिन सभी शिष्यों को प्रवचन के समय कहा- ईश्वर करे कि तुम सभी भुला दिए जाओ! उनमें से एक ने कहा- यह आप क्या कह रहे हैं? क्या इसका अर्थ यह है कि कोई भी हमसे जगत के कल्याण करने की सीख नहीं ले पाएगा? महंत ने कहा- तुम सभी यह जानते हो कि पुराने जमाने में सभी सत्य के मार्ग पर चलते थे और ऐसा कोई भी नहीं था जिसके चरित्र और व्यवहार को सभी अनुकरणीय मानते। सभी धर्म के मार्ग पर चलते थे, शुभ कर्म करते समय कोई यह नहीं सोचता था कि उन्हें धर्म-सम्मत कार्य करने के निर्देश दिए गए हैं? वे अपने पड़ोसी से इसलिए प्रेम करते थे क्योंकि इसे वह जीवन का अनिवार्य अंग समझते थे। वे प्रकृति के नियमों का पालन ही तो करते थे! आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वे इस दुनिया में केवल एक अतिथि के रूप में आए थे और ज्यादा बोझ नहीं ढो सकते थे। वे एक-दूसरे के साथ स्वतंत्रतापूर्वक चीजों का आदान-प्रदान करते थे, न तो वे किसी वस्तु पर अधिकार जताते थे, न ही वे किसी से ईष्र्या रखते थे। यही कारण है कि उनके जीवन के किसी भी पक्ष के बारे में कुछ भी कहा-लिखा नहीं गया। उनका इतिहास भी नहीं है और वे कहानियों में भी नहीं मिलते। जब अच्छाई इतनी ही सर्वसुलभ और साधारण हो जाती है, तो उसका पालन करनेवालों की प्रशंसा कौन करता है!

सपनों का पासवर्ड


सपने अधिकांश इंसान के लिए दूर के तारे के समान होते हैं। वो केवल इन्हें देख पाता, इनके बारे में सोच पाता है। पर कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो अपने सपनों को जीते हैं, उन्हें उसका पासवर्ड पता है...
इस दुनिया का हर इंसान सपने देखता है, और इसके पूरा होने की चाह भी रखता है। लेकिन कुछ बिरले ही होते हैं, जिनके सपनों पर हकीकत का रंग चढ़ता है। आखिर क्या है सपनों का पासवर्ड? कब होते हैं किसी व्यक्ति के सपने पूरे...
कहते हैं, सपने और उपलब्धियां उतनी ही साधारण हैं, जितना कि एक कप काफी या चाय पीना। और सपनों का पासवर्ड भी उतना ही साधारण है, खुद पर यकीन करना.... हम हर वो चीज हासिल कर सकते हैं जो हम पाना चाहते हैं। बस शर्त यह है कि अपने सपनों-लक्ष्य पर यकीन करना, यह विश्वास करना कि वे पूरा हो सकते हैं। इसे प्रार्थना बना लीजिए... रोज प्रे कीजिए कि मेरे सपने व लक्ष्य पूरा हो रहे हैं,और इस विश्व की बेहतरी में योगदान दे रहे हैं।
धीरू भाई अंबानी, बिल गेट्स या जिस भी व्यक्ति के सपने पूरे हुए हैं। उसका उन सपनों के पूरा होने पर यकीन रहा है, उनसे आत्मीय जुड़ाव रहा है। उसे पूरा करने कोशिश की है। तब जाकर उसके सपनों ने हकीकत का जामा पहना है। लेकिन अधिकांश लोग सपने देखते हैं, पर उन्हें भरोसा नहीं होता कि वो पूरा हो पाएगा, इसलिए वे अपेक्षित प्रयास भी उस दिशा में नहीं करते। इसी वजह से उनके सपने झूठे हो जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है, सपने वे नहीं हैं, जो नींद में आते हैं, सपने तो वे होते हैं जो सोने नहीं देते।
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21 September 2011

मालिक बनो...

हाल ही में एक बात बंटी को बहुत शिद्दत से महसूस हो रही थी...
दरअसल, बंटी एक कंपनी में काम करता है, वहां पर उसे सब तरह की दिक्कतों का, शोषण का सामना करते हुए नौकरी करना पड़ता था। हालांकि दिक्कतें या शोषण उसी के साथ हो ऐसा नहीं था, साथ काम करने वाले सभी लोग उसी हालात में जी रहे थे। जैसे- जब छुट्टी चाहो, छुट्टी नहीं मिलती थी, छुट्टी को लेकर हमेशा मारामारी। घर-परिवार को समय देना सभी के लिए मुश्किल। दूसरी अहम बात थी सेलरी की समस्या। मेहनत के अनुसार या अन्य दूसरे सेक्टर के मुकाबले पर्याप्त पगार नहीं थी। हां जिन लोगों का गॉडफादर था या जिनको अपनी मर्केटिंग करनी आती थी, वे लोग खूब चांदी काट रहे थे। ऐसा नहीं था कि छुट्टी या पगार की कंपनी के सामने कोई बड़ी दुविधा थी। दरअसल, सीनियर लोगों का रवैया तानाशाहीपूर्ण था, उनकी कृपा के अनुसार सबकुछ होता था।
ऐसे ही एक बार सीनियर लेवल पर एक मीटिंग के दौरान सीनियर अधिकारी ने मंझौले कद के तमाम कर्मचारियों को खड़े रखककर मुलाकात की। वे खुद बैठे रहे और एक-एक कर सभी कर्मचारियों से आधा-पौन घंटा तक मिलते रहे। इस दौरान उन्होंने किसी को भी बैठने के लिए नहीं कहा।
यह बात बंटी सहित कई साथियों को नागवर गुजरी। एक अन्य वरिष्ठ कर्मचारी से जब उन्होंने उस घटना की चर्चा की, तो उसने एक मार्के  की बात कही... 'एक बात मत भूलो कि 10 हजार तन्ख्वाह वाला भी नौकर है  और जिसकी दो-तीन लाख रुपए पगार है वह भी नौकर है।Ó
बंटी को यह बात गहरे तक प्रभावित कर गई। वह उस वरिष्ठ कर्मचारी की बातों की गहराई को समझ गया था कि  मोटी तन्ख्वाह में काम करने वाला सीनियर अधिकारी भी आखिरकार है तो नौकर ही। यानी वह भी मालिक के रहमो-करम पर ही है और कभी भी उसका पत्ता भी कट सकता है। लेकिन वह इस बात को भूल गया है और खुद को मालिक समझकर कर्मचारियों के साथ बेरुखा व्यवहार कर रहा है।
बंटी को लगा कि 20-30 साल नौकरी कर के टॉप पर पहुंचे शख्स में भी अगर इनसिक्योरिटी है, तो नौकरी का क्या औचित्य। बड़ी कंपनी में बड़ी पगार पर नौकर बनने की बजाय क्यों न मालिक  बना जाए, खुद कुछ बिजनेस किया जाए। (आखिर व्यक्ति नौकरी छोडऩा क्यों नहीं चाहता? या बिजनेस करने से कतराता क्यों है? दरअसल, वह जोखिम लेने से डरता है। खुद का बिजनेस करना एक तरह की लीडरशिप है, उसमें तमाम चीजों को, हर परिस्थितियों को फेस करना पड़ता है, हर चीज पर ध्यान रखना पड़ता है। जबकि नौकरी में केवल अपने काम से ही सरोकार रहता है। बस अपना काम करो और छुट्टी पाओ। इसी वजह से अधिकांश नौकरी करने वाले बिजनेस करने जैसा जोखिम लेने से बचते हैं, क्योंकि उनमें अपेक्षित दबाव झेलने की मानसिक ताकत और रिस्क  लेने के हौसला का अभाव होता है। बिजनेस में, हर परिस्थिति में खुद को ढालने की क्षमता, अपने पूर्वग्रह छोड़कर सोच को लचीला बनाकर वक्ते-जरूरत कदम उठाने का, यानी भगवान कृष्ण के समान कूटनीतिज्ञ भी होना पड़ता है, जो कि हर किसी के बस की बात नहीं है।)
बंटी को यही बात 'मालिक बनोÓ बहुत गहरे से आकर्षित कर रही थी। मालिक बना जाए, मालिक बनो, अपना भी मालिक बनो, खुद अपने आप पर अपनी मालकियत हो। बंटी को महसूस हो रहा था कि यह मालिक बनने वाली बात केवल पेशे भर से जुड़ी नहीं है। मालिक  बनना मतलब केवल पेशे भर में मालिक  बनना नहीं है, बल्कि इसका मतलब जीवन के सभी आयामों में, यह कई अलग-अलग तलों में मालकियत से अपनी अपनी कमियों, कमजोरी, असुरक्षा से परे निर्भय होना, खुद अपना भी मालिक बनना है, अपनी इच्छाओं का मालिक बनना।
इसीलिए बंटी अपनी केंचुली उतारने को... असुरक्षा, कुंठा, डर आदि के मकडज़ाल को तोडऩे को... खुले आसमान के राजा के समान विचरण करने को.... बेताब है। कम-से-कम उसकी सोच तो ऐसा ही बन रही है। मालिक बनने की... अपना मालिक... ऐसा व्यक्ति जो हर चीज से निर्भय हो... जिसे किसी चीज का भय न हो....

20 September 2011

एहसास


मैं रहूंगा आपके हर एहसास में
आपकी जीत में, आपकी हर हार में
जब सताए अकेलापन
याद कर लेना हमको
चुपके से आ जाएंगे
हम आपके ख्याल में
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जन्मदिन

मिले जमाने भर की खुशियां, ना रहो कभी उदास
हर दिन बन जाए उत्सव, हर रात हो जाए खास।

सबका दिल जीतो, सबसे प्यार करो
हर चीज से ऊपर उठो, बन जाओ आकाश।

तुमको पाकर खुश हूं, बहुत है तुम पर नाज
वादा करता हूं तुमसे, दूंगा हमेशा प्यार।

ढेर सारी खुशियां, ढेर सारा प्यार
जन्मदिन पर तुम्हारे,मेरी ओर से उपहार।।
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ए दोस्त

तुम्हे क्या हो गया है ऐ दोस्त, लगते हो तुम खफा-खफा
हम तो तलबगार हैं तुम्हारे, चाहिए तुम्हारा प्यार और वफा

हमें तो पता भी नहीं कि हमसे क्या हो गई गुस्ताखी
हो गई हो कोई गलती तो दे दो हमें माफी

जैसे ही तुम दिखे, दिल में एक तरंग सी उठ गई
अजनबियों के बीच, अपने से मिल बांछे खिल गई

तुम्हे क्या हो गया है ऐ दोस्त,
बड़ी उम्मीद थी कि मिलेगा प्यार, अपनापन, विश्वास
हम तो हमेशा से रहे थे, तुम्हारे अपने, बहुत खास

लगा था मिलोगे तो दिल को करार आएगा
पुरानी बातें निकलेगीं यादों से प्यार आएगा

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, तुमने तो बना ली थी एक दूरी
ऐसा लगा, तुम नहीं बल्कि बात कर रही तुम्हारी मजबूरी

तुम्हे क्या हो गया है ऐ दोस्त,
न कोई शिकवा, न कोई शिकायत बस रस्म भरी बातें
जितना पूछा, बता दिया, और नहीं की कुछ बातें

हमने ऐसा क्या किया, अब तुम ही बता दो
हमसे क्या हुई गुस्ताखी हमको जता दो

बस इतना जान लो कि करते हैं तुमसे मुहब्बत
नहीं जी सकेंगे जो इतना हुए बेमुरव्वत।।
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पता नहीं क्या हो जाता है....

नहीं चाहता तुम्हारा दिल दुखाना, पता नहीं क्या हो जाता है
करना चाहता हूं कुछ और पर कुछ और हो जाता है

नहीं चाहता तुम्हारा दिल दुखाना, पता नहीं क्या कर जाता हूं
करना चाहता हूं कुछ और,  कुछ और कर जाता हूं


बस एक यही तमन्ना है कि तुम हमेशा खुश रहो
पर मजा देखो कि मैं ही तुम्हे रुला जाता हूं

अब मैं क्या कहूं मुझे कुछ समय नहीं आता
अब तुम्ही बता दो, तुम्हे रोते देख मैं उदास हो जाता हूं

...खट्टी-मीठी बातें

खट्टी-मीठी बातें, तो जीवन का रसधार
दोनों का आनंद लो, दोनों में है सार। 

भावनाएं तो आती-जाती, ये तो मन का ज्वार
दुख-सुख तो ऐसे होते, जैसे दिन और रात

अपनों से रहता प्यार, अपनों से रहती आस
शिकवा, शिकायत, उलाहना सब 'अपनेपनÓ के साथ।

गैरों से तो दूरी रहती, लंबी और अपार
उनसे कहां कहता कोई, अपने मन की बात।

मस्त रहो बिंदास रहो, झूम लो मेरे साथ
ज्यादा मंथन छोड़ के, ले लो हाथ में हाथ। 

आप हमारे अपने, आप हमारे खास
इसीलिए कह रहे, आपसे दिल की बात।

...न रहे उदास मन

 बिखरे हर ओर खुशियां, बरसे प्यार का रंग
खिलखिला उठे हर चेहरा, न रहे उदास मन।

क्या खोज रहा तू दूर-दूर, सबको पीछे छोड़
रह गया है अकेला, न है कोई उमंग।

किसने रोका है तुझको, किसने टोका है तुझको
सारे मुखौटे उतार फेंक, आ झूम ले मेरे संग।

दो और दो का जोड़ है कितना, किसको यहां फिकर
हम तो अपने में रहते हैं, बाबा मस्त मलंग।

न जगती है न उठती है, कैसी भी  प्यास
सुध-बुध सारा खो बैठे हैं, लागी भंग-तरंग

मत ढूंढ़ कहीं सहारा, ये सब है छलावा
खुद पर यकीं कर, खुद अपनी लाठी बन।

न चली है किसी की, न कभी ही चलेगी
मत इठला इतना, मत इतना तन।

हंसी-खुशी है सच्ची दौलत, पे्रम-प्यार है सार
इनके पीछे भाग पगले, इनका साथी बन।

... तुमको भी मुझको भी



 इस दुनिया का कोई इंसान पूरा नहीं होता
कमियां-खूबियां सबमें होती हैं
इस बात को समझना जरूरी है
तुमको भी मुझको भी।

किसी के सौ फीसदी सही या अच्छा होने की
अपेक्षा करना गलत है, नासमझी है
यह बात समझाना है अपने मन को
तुमको भी मुझको भी।

कभी लड़ाई ही न होना महत्वपूर्ण नहीं किसी रिश्ते में
अहम है दिल से दिल का मिलना, अपनेपन के फूल खिलना
यह बात जानना जरूरी है
तुमको भी मुझको भी।

जैसे एक मां और बच्चे का रिश्ता होता है
जहां प्यार के अलावा शिकवा-शिकायत भी होता है
यह बात अपने दिल को बताना है
तुमको भी मुझको भी।

केवल अच्छा ही अच्छा या सच्चा ही सच्चा
जीवन का सच नहीं, सच पूछो तो इसमें वो मजा भी नहीं
प्यार-तकरार, रूठने-मनाने का है अपना आनंद
यह बात महसूस करना है, तुमको भी मुझको भी

साहस क्या है?


सिकंदर या अशोक महान की तरह होना ही साहस का पर्याय नहीं है, यह तो सतही अर्थ है, जीवनपथ पर विचलित हुए बिना अपने लक्ष्य पर डटे रहना ही सच्ची बहादुरी है...
साहस की बात निकलती है तो सामान्यत:, दुनिया भर में अपने बाहुबल का डंका बजाने वाले किसी सम्राट या शहंशाह का जिक्र आता है। या इससे इतर, कई लोगों से अकेले लडऩे वाला शक्तिशाली पुरुष, या बिना किसी भय के शेर से लोहा लेने वाला नौजवान या खतरनाक परिस्थितियों में जूझने वाले व्यक्ति की बात हो जाती है। अमूमन ऐसे ही लोग वीर-साहसी कहे जाते हैं।
दरअसल, वीर या साहसी होने का मतलब सिकंदर या अशोक महान की तरह होना नहीं है। यह तो सतही अर्थ है, असल में इसका दायरा बहुत बड़ा है। जैसे साहसी होने का एक मतलब यह है.. जो कुछ हमें सही लगता है, उसे पूरे तन-मन से, दृढ़ विश्वास और लगन के  साथ अंजाम तक पहुंचाते हैं।
दरअसल, साहस मन व भावना के स्तर पर होती है, और इसका प्रक्षेपण भी हर क्षेत्र में होता है। किसी काम को पूरा करना अपने आप में चुनौती है, और उसके लिए साहस की जरूरत पड़ती है, चाहे वो काम छोटा हो या बड़ा। हर मौसम में धूप- बारिश की चिंता किए बिना रोज काम पर जाने वाला मजदूर या किसान, या फिर उद्देश्य को पाने के लिए मूर्ति को ही गुरु मानकर अभ्यास करने वाला एकलव्य। ये सभी साहसी कहे जाएंगे।
दरअसल मनुष्य स्वभावगत आलसी वृत्ति के कारण हर चीज को टालता है। या कई मर्तबे किसी काम को करने के दौरान आने वाली मुश्किलें उसकी राह का पत्थर बन जाती हैं। तब लक्ष्य से भटककर उसे वह अधूरा ही छोड़ देता है। ऐसे समय में विचलित हुए बिना काम को पूरा करना साहस ही है। साहस का मतलब ही मनोबल, आत्मबल, दृढ़संकल्प बनाए रखना है। दरअसल, व्यक्ति को बाहरी जगत से ज्यादा अपने भीतरी वृत्तियों से खतरा रहता है। आलस्य-प्रमाद, नकारात्मक विचार, गुस्सा ही व्यक्ति के भीतर की शांति को खत्म करते हैं, उसे लक्ष्य से भटकाते हैं। ऐसे में  अपने दैनिक जीवन में अपने उद्देश्य को बिना भटके हुए पूरा करने वाला ही सही मायने में साहसी कहा जाएगा। साहस और कुछ नहीं मनोबल, आत्मबल, एकाग्रता दृढ़संकल्प का दूसरा नाम है।