03 September 2012

विश्रांत होने के चार तल ( निष्क्रिय विधियां)

ऐसी परिस्थिति में, जब आप सक्रिय ध्यान विधियों का प्रयोग नहीं कर सकते, आप के लिये दो साधारण लेकिन प्रभावशाली निष्क्रिय विधियां उपलब्ध हैं। ध्यान रहे कि इसके इलावा आप हमारे साप्ताहिक स्तंभ ंइस सप्ताह के ध्यानं और ंव्यस्त व्यक्तियोंं के लिये में और भी विधियां पायेंगे।

श्वास को देखना

श्वास को देखना एक ऐसी विधि है जिसका प्रयोग कहीं भी, किसी भी समय किया जा सकता है, तब भी जब आप के पास केवल कुछ मिनटों का समय हो। आती जाती श्वास के साथ आपको केवल छाती या पेट के उतार-चढ़ाव के प्रति सजग होना है। या फिर इस विधि को आजमायें:

प्रथम चरण: भीतर जाती श्वास को देखना

अपनी आंखें बंद करें अपने श्वास पर ध्यान दें। पहले श्वास के भीतर आने पर, जहां से यह आपके नासापुटों में प्रवेश करता है, फिर आपके फेफड़ों तक।

दूसरा चरण: इससे आगे आने वाले अंतराल पर ध्यान

श्वास के भीतर आने के तथा बाहर जाने के बीच एक अंतराल आता है। यह अत्यंत मूल्यवान है। इस अंतराल को देखें।

तीसरा चरण: बाहर जाती श्वास पर ध्यान

अब प्रश्वास को देखें

चौथा चरण: इससे आगे आने वाले अंतराल पर ध्यान

प्रश्वास के अंत में दूसरा अंतराल आता है: उस अंतराल को देखें। इन चारों चरणों को दो से तीन बार दोहरायें- श्वसन-क्रिया के चक्र को देखते हुए, इसे किसी भी तरह बदलने के प्रयास के बिना, बस केवल नैसर्गिक लय के साथ।

पांचवां चरण: श्वासों में गिनती

अब गिनना प्रारंभ करें: भीतर जाती श्वास - गिनें, एक (प्रश्वास को न गिनें) भीतर जाती श्वास - दो; और ऐसे ही गिनते जायें दस तक। फिर दस से एक तक गिनें। कई बार आप श्वास को देखना भूल सकते हैं या दस से अधिक गिन सकते हैं। फिर एक से गिनना शुरू करें।

"इन दो बातों का ध्यान रखना होगा: सजग रहना, विशेषतया श्वास की शुरुआत व अंत के बीच के अंतराल के प्रति। उस अंतराल का अनुभव हैं आप, आपका अंतरतम केंद्र, आपका अंतस। और दूसरी बात: गिनते जायें परंतु दस से अधिक नहीं; फिर एक पर लौट आयें; और केवल भीतर जाती श्वास को ही गिनें।

इनसे सजगता बढऩे में सहायता मिलती है। आपको सजग रहना होगा नहीं तो आप बाहर जाती श्वास को गिनने लगेंगे या फिर दस से ऊपर निकल जायेंगे।

यदि आपको यह ध्यान विधि पसंद आती है तो इसे जारी रखें। यह बहुमूल्य है।" ओशो

व्यस्त लोगों के लिए ध्यान

बस "हां" कहो ((ओशो की ध्यान पद्धति.)
" जीवन को नकार से नहीं जिया जा सकता, और जो जीवन को नकार से जीने का प्रयत्न करते हैं वे जीवन को केवल गंवा देते हैं। आप नकार को अपना आशियाना नहीं बना सकते क्योंकि नकार पूरी तरह खाली है। नकार अंधेरे की तरह है। अंधेरे का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता; यह केवल प्रकाश की अनुपस्थिति है। इसलिए आप सीधे-सीधे अंधेरे के साथ कुछ नहीं कर सकते। आप इसे कमरे से बाहर धकेल नहीं सकते, आप इसे पड़ोसी के घर में नहीं फेंक सकते; और आप अपने घर में और अधिक अंधेरा नहीं ला सकते। अंधेरे के साथ सीधे कुछ नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह नहीं है। यदि आप अंधेरे के साथ कुछ करना चाहते हैं, तो प्रकाश को बुझा दें; यदि आप अंधेरा नहीं चाहते, प्रकाश को जला दें। लेकिन जो कुछ भी आपको करना है वह प्रकाश के साथ करना है।'
' ठीक उसी तरह, हां प्रकाश है, नकार अंधेरा है। यदि आप अपने जीवन में वास्तव मेम कुछ करना चाहते हैं, आप को हां कहना सीखना पड़ेगा। और हां कहना अत्यधिक सुंदर है; मात्र हां कहना अधिक शिथिल करने वाला है। इसे सहजतापूर्वक अपनी जीवन शैली बना लो। वृक्षों से, पक्षियों से और लोगों से हां कहना शुरु करो, और तुम आश्चर्य चकित हो जाओगे: जीवन एक आशीर्वाद हो जाएगा यदि तुम इसे हां कहने लगो। जीवन एक महान साहसिक कृत्य हो जएगा।
जोरबा दि बुद्धा
विधि:
समय: प्रत्येक रात्रि, सोने से पहले, कम से कमे 10 मिनिट ; फिर सुबह सबसे पहले कम से कम 3 मिनिट। दिन में भी, जब भी आप नकारात्मक महसूस करें, अपने बिस्तर पर बैठ जाएं और इसे करें।
पहला चरण: हां  में अपनी ऊर्जा लगना शुरु करें, हां को एक मंत्र बनालें। अपने बिस्तर पर बैठे हुए, हां... हां... दुहराना शुरु करें। इसए साथ एक धुन में हो जाएं। पहले आप इसे दुहरा रहेम होगे फिर इसके साथ लयबद्ध हो जाएं, इसके साथ झूमें।  इसे सिर से पांव तक अपने पूरे अस्तित्व को आच्छादित करने दें। इसे गहराई तक अपने में प्रवेश करने दें।
दूसरा चरण: " यदि इसे जोर से नहीं कह सकते, तो धीमे से हां...हां...हां दुहराएं!
(ओशो की ध्यान पद्धति... ओशो डॉटकॉम से साभार)

निर्विचार कैसे हुआ जाए?

जिसे निर्विचार होना हो, उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए । उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए। इसकी सजगता उसके भीतर होनी चाहिए कि वह व्यर्थ के विचारों का पोषण न करे, उन्हें अंगीकार न करे, उन्हें स्वीकार न करे और सचेत रहे कि मेरे भीतर विचार इक_े न हो जाएं। इसे करने के लिए जरूरी होगा कि वह विचारों में जितना भी रस हो, उसको छोड़ दे।

हमें विचारों में बहुत रस है। अगर आप एक धर्म को मानते हैं, तो उस धर्म के विचारों में आपको बहुत रस है।
जिसे निर्विचार होना है, उसे विचारों के प्रति विरस हो जाना चाहिए। उसे किसी विचार में कोई रस नहीं रह जाना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि विचार से कोई प्रयोजन नहीं, इसलिए उसमें कोई रस रखने का कारण नहीं। कैसे वह विरस होगा?

यह संभव होगा विचारों के प्रति जागरूकता से। अगर हम अपने विचारों के साक्षी बन सकें—और यह बन सकना कठिन नहीं है—अगर हम अपने विचारों की धारा को दूर खड़े होकर देखना शुरू करें, तो क्रमश: जिस मात्रा में आपका साक्षी होना विकसित होता है, उसी मात्रा में विचार शून्य होने लगते हैं।

विचार को शून्य करने का उपाय है विचार के प्रति पूर्ण सजग हो जाना। जो व्यक्ति जितना सजग हो जाएगा विचारों के प्रति, उतने ही विचार उसी भांति उसके मन में नहीं आते, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर न आएं। और घर में अंधकार हो तो चोर झांकें और अंदर आना चाहें।

भीतर जो होश को जगा लेता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं। जितनी मूर्च्छा होती है भीतर, जितना सोयापन होता है भीतर, उतने ज्यादा विचारों का आगमन होता है। जितना जागरण होता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं।

निर्विचार होने का उपाय है: विचारों के प्रति साक्षी-भाव को साधना। कोई एक क्षण में सध जाएगा, यह नहीं कहता। कोई एक दिन में सध जाएगा, यह भी नहीं कह रहा हूं। लेकिन अगर निरंतर प्रयास हो, तो थोड़े ही दिनों में आपको पता चलेगा कि जैसे-जैसे आप विचारों को देखने लगेंगे...कभी घंटे भर को किसी एकांत कोने में बैठ जाएं और कुछ भी न करें, सिर्फ विचारों को देखते रहें। कुछ भी न करें उनके साथ, कोई छेड़-छाड़ न करें, सिर्फ उन्हें देखते रहें। और देखते-देखते ही धीरे-धीरे आपको पता चलेगा, वे कम होने लगे हैं। देखना जैसे-जैसे गहरा होगा, वैसे-वैसे वे विलीन होने लगेंगे। जिस दिन देखना पूरा हो जाएगा, जिस दिन आप अपने भीतर आर-पार देख सकेंगे, जिस दिन आपकी आंख बंद होगी और आपकी दृष्टि भीतर पूरी की पूरी देख रही होगी, उस दिन आप पाएंगे—कोई विचार का कोलाहल नहीं है, वे गए। और जब वे चले गए होंगे, उसी शांत क्षण में आपको अदभुत दृष्टि, अदभुत दर्शन, अदभुत आलोक का अनुभव होगा। वह अनुभव ही सत्य का दर्शन है। और वही अनुभव स्वयं का दर्शन है। स्वयं के माध्यम से ही सत्य जाना जाता है। और कोई द्वार नहीं है।

स्वयं के द्वार से ही सत्य को जाना जाता है। और सत्य को जान लेना आनंद में प्रतिष्ठित हो जाना है। असत्य में होना दुख में होना है। अज्ञान में होना दुख में होना है। और सत्य की उस ज्ञान-दशा में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद और आत्मा अलग न समझें। आनंद और सत्य अलग न समझें। स्वयं और सत्य अलग न समझें। ऐसी जो प्रक्रिया का उपयोग क्रमश: अपने जीवन में करेगा, वह कभी निर्विचार को अनुभव कर लेता है। निर्विचार को जो अनुभव कर लेता है, उसकी पूरी विचार की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसे च्रु मिल जाते हैं।

जैसे किसी ने अंधेरे में प्रकाश कर दिया हो या जैसे किसी ने अंधे को आंख दे दी हों, ऐसा उसे अनुभव होता है। यह अगर क्रमिक साधना इसकी हो तो निश्चित ही उपलब्ध हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है और हकदार है। जो अपने अधिकार को मांगेगा, उसे मिल जाता है। जो उसे छोड़े रखता है, वह खो देता है। ( ओशो अमृत की दिशा/ 2)

मन के बहुत चेहरे

मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार—ये क्या अलग-अलग हैं?
ये अलग-अलग नहीं हैं, ये मन के ही बहुत चेहरे हैं। जैसे कोई हमसे पूछे कि बाप अलग है, बेटा अलग है, पति अलग है? तो हम कहें कि नहीं, वह आदमी तो एक ही है। लेकिन किसी के सामने वह बाप है, और किसी के सामने वह बेटा है, और किसी के सामने वह पति है; और किसी के सामने मित्र है और किसी के सामने शत्रु है; और किसी के सामने सुंदर है और किसी के सामने असुंदर है; और किसी के सामने मालिक है और किसी के सामने नौकर है। वह आदमी एक है। और अगर हम उस घर में न गए हों, और हमें कभी कोई आकर खबर दे कि आज मालिक मिल गया था, और कभी कोई आकर खबर दे कि आज नौकर मिल गया था, और कभी कोई आकर कहे कि आज पिता से मुलाकात हुई थी, और कभी कोई आकर कहे कि आज पति घर में बैठा हुआ था, तो हम शायद सोचें कि बहुत लोग इस घर में रहते हैं—कोई मालिक, कोई पिता, कोई पति। हमारा मन बहुत तरह से व्यवहार करता है। हमारा मन जब अकड़ जाता है और कहता है: मैं ही सब कुछ हूं और कोई कुछ नहीं, तब वह अहंकार की तरह प्रतीत होता है। वह मन का एक ढंग है; वह मन के व्यवहार का एक रूप है। तब वह अहंकार, जब वह कहता है—मैं ही सब कुछ! जब मन घोषणा करता है कि मेरे सामने और कोई कुछ भी नहीं, तब मन अहंकार है। और जब मन विचार करता है, सोचता है, तब वह बुद्धि है। और जब मन न सोचता, न विचार करता, सिर्फ तरंगों में बहा चला जाता है, अन-डायरेक्टेड...। जब मन डायरेक्शन लेकर सोचता है—एक वैज्ञानिक बैठा है प्रयोगशाला में और सोच रहा है कि अणु का विस्फोट कैसे हो—डायरेक्टेड थिंकिंग, तब मन बुद्धि है। और जब मन निरुद्देश्य, निर्लक्ष्य, सिर्फ बहा जाता है—कभी सपना देखता है, कभी धन देखता है, कभी राष्ट्रपति हो जाता है—तब वह चित्त है; तब वह सिर्फ तरंगें मात्र है। और तरंगें असंगत, असंबद्ध, तब वह चित्त है। और जब वह सुनिश्चित एक मार्ग पर बहता है, तब वह बुद्धि है। ये मन के ढंग हैं बहुत, लेकिन मन ही है।

मन और आत्मा: चेतना के दो रूप
और वे पूछते हैं कि ये मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा अलग हैं या एक हैं? सागर में तूफान आ जाए, तो तूफान और सागर एक होते हैं या अलग? विक्षुब्ध जब हो जाता है सागर तो हम कहते हैं, तूफान है। आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं, मन है; और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं, आत्मा है। मन जो है वह आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था है; और आत्मा जो है वह मन की शांत अवस्था है। ऐसा समझें: चेतना जब हमारे भीतर विक्षुब्ध है, विक्षिप्त है, तूफान से घिरी है, तब हम इसे मन कहते हैं। इसलिए जब तक आपको मन का पता चलता है तब तक आत्मा का पता न चलेगा। और इसलिए ध्यान में मन खो जाता है। खो जाता है इसका मतलब? इसका मतलब, वे जो लहरें उठ रही थीं आत्मा पर, सो जाती हैं, वापस शांति हो जाती है। तब आपको पता चलता है कि मैं आत्मा हूं। जब तक विक्षुब्ध हैं तब तक पता चलता है कि मन है। विक्षुब्ध मन बहुत रूपों में प्रकट होता है—कभी अहंकार की तरह, कभी बुद्धि की तरह, कभी चित्त की तरह—वे विक्षुब्ध मन के अनेक चेहरे हैं। (जिन खोजा तिन पाइया / 2)

01 September 2012

तो पहले झुकना सीख कर आ।

मिश्र में एक अद्भुत फकीर हुआ है झुन्‍नून। एक युवक ने आकर उससे पूछा, मैं भी सत्‍संग का आकांक्षी हूं। मुझे भी चरणों में जगह दो। झुन्‍नून ने उसकी तरफ देखा—दिखाई पड़ी होगी बही बुद्ध की कलछी वाली बात जो दाल में रहकर भी उसका स्‍वाद नहीं ले पाती। उसने कहा, तू एक काम कर। खीसे में से एक पत्‍थर निकाला और कहा, जा बाजार में, सब्‍जी मंडी में चला जा, और दुकानदारों से पूछना कि इसके कितने दाम मिल सकते है।
वह भागा हुआ गया। उसने जाकर सब्‍जियां बेचने वाले लोगों से पूछा। कई ने तो कहां हमें जरूरत ही नहीं है। दाम का क्‍या सवाल? दाम तो जरूरत से होता है। हटाओं अपने पत्‍थर को। पर किसी ने कहा कि ठीक है, सब्‍जी तौलने के काम आ जाएगा। तो दो पैसे ले लो। चार पैसे ले लो, पत्‍थर रंगीन था। मन को भा रहा था।
पर झुन्‍नून ने कहा थ, बेचना मत, सिर्फ दाम पूछ कर आ जाना। ज्‍यादा से ज्‍यादा कितने दाम मिल सकते है। सब तरफ पूछकर आ गया, चार पैसे से ज्‍यादा कोई देने को तैयार नहीं हुआ।
आकर उसने झुन्‍नून से कहा की चार पैसे से कोई एक पैसा ज्‍यादा देने को तैयार नहीं है। बहुत तो लेने को ही तैयार नहीं थे। कईयों ने तो डांट कर भगा दिया। सुबह बोनी का वक्‍त है। आ गये पत्‍थर बेचने। चल भाग यहां से। हम ग्राहकों से बात कर रहे है बीच में अपने पत्‍थर को उलझाये हुए है। अभी तो सांस लेनी की भी फुरसत नहीं है। श्याम के वक्‍त आना। पर हमारे ये काम का ही नहीं है मत आना। किसी ने उत्‍सुकता भी दिखाई तो इस लिए सब्‍जी तौलने के काम आ जायेगा। इसका बांट बना लेगा। एक आदमी तो ऐसा भी मिला की काम को तो कोई नहीं है पर दे जा बच्‍चे खेल लेंगे। अब तुम ले आये हो तो चलो दे ही दो। और ये चार पैसे। बड़ी दया से चार दे रहे थे। जैसे मुझ पर बड़ा एहसान कर रहे हो। कहो तो बेच आऊं।
गुरु ने कहा, अब तू ऐसा कर, सोने चाँदी वाले बाजार में जा और वहां जा कर पूछ आ। लेकिन बेचना नहीं है। सिर्फ दाम ही पूछ कर आने है। चाहे कोई कितने ही दाम क्‍यों न लगाये। क्‍योंकि यह पत्‍थर मेरा नहीं यह मेरे पास किसी कि अमानत है। इसलिए मैं तुझे दिये देता हूं केवल इसे अमानत ही समझना और वह भी अमान पे अमानत। इसे बेचने का हक न तो मेरा है न तेरा। इस बात को गांठ बाद ले। वह बजार गया। वह तो हैरान होकर लौटा। सोने-चाँदी के दुकान दार हजार रूपये देने को तैयार है। भरोसा ही नहीं आ रहा कहां चार पैसे और कहां हजार रूपये। कितना फर्क हो गया। एक बार तो लगा की बैच ही दे। यह आदमी बाद में हजार दे या न दे। पर गुरु ने मना किया था इस लिए उसके हाथ बंधे थे वरना तो वह कब का बेच चुका होता। लौटकर आया और अपने गुरू को कहने लगा इस पत्‍थर के एक आदमी हजार रूपये देने को तैयार हो गया है। पाँच सौ से तो कम कोई देने को तैयार ही नहीं था। अब कहो तो इसे बेच आऊं।
गुरु ने कहा, अब तू ऐसा कर, इसे बेच मत देना। बात तुझे याद है न। यह मेरे पास अमानत है ये अमानत में तुझे दे रहा हूं। अब तू जा हीरे-जवाहरात जहां बिकते है। जौहरी और पारखी जहां है। वहां ले जा; लेकिन बेचना नहीं है। चाहे कोई कितनी भी कीमत क्‍यों न लगाये। तेरे मन में कितना ही उत्‍साह और लालच आ जाए। बस मोल-भाव करना है। कीमत पता करनी है। कितने का बिक सकता है।
वह गया तो और भी चकित रह गया। वहां तो दस लाख रूपया तक देने को तैयार है। इस पत्‍थर के। वह तो पागल ही हो गया। उसे लगा कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा। कहा दो पैसे, चार पैसे, और कहां हजार और कहां लाखों। इस बार उससे नही रहा जा रहा था। मन कर रहा था इससे सुनहरी मौका फिर नहीं आएगा। इसे बेच ही दे।
जल्‍दी-जल्‍दी लौट कर अपने गुरु के पास आया। और गुरु ने उसका चेहरा देखते ही कहा पत्‍थर कहां है पहले वो दे। और पत्‍थर दे दिया। फिर पूछा सब ठीक है। समझा जो पत्‍थर तुझे दिया था उसकी कीमत देखी,अब अपनी और देख सत्‍य का तू आकांक्षी है, इतने से ही सत्‍य नहीं मिलता; पारखी भी है या नहीं? नहीं है तो हम सत्‍य देंगे और तू दो पैसे दाम बताएगा । शायद दो पैसे का भी नहीं समझेगा। पारखी होना जरूरी है। पहले पारखी होकर आ। सत्‍य तो है हम देने को भी तैयार है। लेकिन सिर्फ इतना तेरे कहा देने से कि तू आकांक्षी है, काफी नहीं हल होता। क्‍योंकि मैं देखता हूं, अकड़ तेरी भारी है। पैर भी तूने झुककर छुए है। शरीर तो झुका, तू नहीं झुका। छू लिए है उपचार वश। छूने चाहिए इसलिए। और लोग भी छू रहे है इसलिए। झुकना ही तुझे नहीं आता। तो जिन हीरों की यहां चर्चा है। वह तो झुकने से ही उनकी परख आती है। तो पहले झुकना सीख कर आ।
ओशो एस. धम्‍मो सनंतनो, भाग-3, प्रवचन—23

अब तुम बताओ कहां गई ज्योति?

एक सूफी फकीर हुआ हसन। जब वह मरने लगा तब उससे उसके कुछ शिष्‍यों ने पूछा कम से कम अब तो आप जा रहे हो इस दुनियां को छोड़ कर। और हम आपके संग सालों रहे है। और आपके जीवन में जो खीला हुआ, जो सुगंध उठ रही है। वो हमने पल-पल जानी है। पर एक बात मन में हमेशा उठती रही की आपका गुरु कोन है। आज तक कभी न वह आपसे मिलने के लिए आया और न ही आप उससे कभी मिलने के लिए गये। क्‍या आपने ये सब बिना गुरु के ही पा लिया।
तब हसन ने कहां की फहरिस्‍त बहुत लम्‍बी है। उसे बताना इतना आसन नहीं है। शायद बता भी न पाऊँ। और मेरे पास अब जीवन भी नहीं बचा की मैं वो सब आप को बता दूँ। क्‍योंकि साँसे मेरे पास कम हे। और अगर सारे गुरूओं की बात कुरू तो मुझे उतनी ही जिन्‍दगी चाहिए। जितनी में जी चुका हूं। क्‍योंकि क्षण-क्षण उनसे मुलाकात होती रही। प्रत्‍येक कदम, प्रत्‍येक डगर पर। जहां भी जाऊँ हर जगह।
फिर भी शिष्‍यों ने कहा कम से कम कुछ तो कहो ताकि हम भी पाता चले की हमारे गुरु को गुरु कोन था। एक गुरु को तो नाम बता ही दो जिससे की तुम्‍हें परमात्‍मा की पहली झलक मिली होगी। तब हसन ने कहां: हां याद है, वो एक श्‍याम थी, मैं एक गांव के पास से गुजर रहा था। सुर्य डूब रहा था। किसान खेतों से अपने घर जा रहे थे। पशु-पक्षी भी अपने-अपने रैन बरसों में जा विश्राम करना चाहते थे। मैं भी मीलों चल चुका था। तब कहीं वो गांव आया था। मैं उस समय बहुत अकड़ा हुआ था। क्‍योंकि मैंने फलसफा पढ़ा था, दर्शन शस्‍त्र पढ़ा थे। शस्‍त्र कंठ हस्त हो गये थे। तर्क सीख लिया था। अपने को बहुत ज्ञानी समझने लगा। जो भी कहीं पर मिलता उससे खूब तर्क करता और उसके सारे प्रश्न को खत्म कर हरा देता। तब अंदर एक अहं की तृप्‍ति मिलती। पर अकड़ खूब हो गई थी। अपने को दुनियां का सबसे ज्ञानी आदमी मानने लगा था। तभी मैं देखता हूं कोई 10-।2 साल एक छोटा सा लड़का हाथ में दीपक लिए जा रहा था। शायद संध्‍या के समय किसी शिवालय में जलाने जा रहा होगा।
मैने उसके पास जा कर उससे पूछा क्‍या ये दीया तूने ही जलाया है? उसने कहां हां-हां मैने ही जलाया है। तब मैने उससे पूछा मैं तुझसे एक प्रश्न पुछता हूं। पर तू तो अभी बच्‍चा है। तेरी तो समझ में शायद वो प्रश्‍न ही नहीं आये। उत्‍तर का तो सवाल ही नहीं उठता। पर शायद जीवन में कभी काम आ जायेगा। जीवन बहुत ही उलझा हुआ है। प्रश्न थोड़ा दार्शनिक है—कि जब तूने ये दीपक जलाया है तो तुझे जरूर पता होगा, कि इस की ज्‍योति जो पहले नहीं है। और तू उसे जला रहा है। तो यह तो जनता ही होगा की वो कहां से आई। इस दीपक की और देख। शायद तेरी समझ में आ जाये। और मैं अंदर ही अंदर बहुत प्रश्नन था कि अब मजा आयेगा। जब ये बच्‍चा निरूत्‍तर हो मेरे सामने खड़ा होगा।
तब उस बच्‍चें ने कहा एक मिनट ठहर जाओ। मैं आपको बताता हूं। और जरा मेरे करीब आओ,और बड़े ध्‍यान से देख इस दिये को फिर न कहना की मैंने देखा नहीं है। ये फिर दोबार मैं उत्‍तर न दे सकूंगा। उस बच्‍चें न जब ये कहा तो उसकी आंखों की चमक देखने जैसी थी। और उस बच्‍चे ने दीपक हसन के सामने कर के उसे जोर से फूंक मार दी। और जो दीपक में ज्‍योति थी वह क्षण में बुझ गई। एक धुएँ की लकीर पीछे रह गई। शायद जैसे उस ज्योति के पद चाप हो। और उसने पूछा हसन से अब बताओ ज्योति जो आपके सामने जल रही थी। मेंने उस को बुझा दिया। फूँक मार कर। अब बताओ कहां गई। आना तो अचानक हुआ किसी भी दशा से हो सकता है। में जान न पाया हूं। पर जो चीज तुम्हारे सामने से जा रही है। उसका तो तुम पता लगा ही सकते है। यह तो पहले से थोड़ा आसान है।
हसन ने कहां, मेरी अकड़ पल में टुट गई एक छोटे से बच्‍चें ने मुझे निरूत्तर कर दिया। मेरे सारे तर्क सारे शस्‍त्र मेरे कुछ काम न आये। उस बालक में मुझे आपने उस गुरु की पहली झलक मिली जिस ने पहली झलक परमात्‍मा की दी। और मैंने झुक कर उसके चरण स्‍पर्श किये। एक छोटे से बच्‍चे ने मेरे सारे दर्शन शस्‍त्र को कूड़े करकट में डाल दीया। और मेरी आंखे खोल दी। एक छोटा बच्‍चा समझ में उसे सिखाने की चेष्‍टा कर रहा था। और शायद जानता में कुछ भी नहीं था। और अपने को गुरु होने के मार्ग पर ले जा रहा था। वह मार्ग उसने पल में एक झटके से तोड़ दिया।
और ये देखना चमत्‍कार की मैं उसी पल, उसी समय गुरु हो गया।

खोल और गिरी और संत बाबा शेख फरीद

शेख फरीद के पास कभी एक युवक आया। और उस युवक ने पूछा कि सुनते है कि हम जब मंसूर के हाथ काटे गये, पैर काटे गये। तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई। लेकिन विश्‍वास नहीं आता। पैर में कांटा गड़ जाता है, तो तकलीफ होती है। हाथ-पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी? यह सब कपोल-काल्‍पनिक बातें है। ये सब कहानी किसे घड़े हुये से प्रतीत होते है। और उस आदमी ने कहां, यह भी हम सुनते है कि जीसस को जब सूली पर लटकाया गया,तो वे जरा भी दुःखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए, कांटों के छिदे हुए, हाथों में कीलों से बिंधे हुए, लहू बहते हुए उस नंगे जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्‍वास के योग्‍य नहीं है। उस आदमी ने कहा, जीसस ने यह कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है।
यह वाक्‍य आपने भी सुना होगा। और सारी दुनिया में जीसस को मानने वाले लोग निरंतर इसको दोहराते है। यह वाक्‍य बड़ा सरल है। जीसस ने कहा कि इन लोगों को क्षमा कर देना परमात्‍मा, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है। आम तौर से इस वाक्‍य को पढ़ने वाले ऐसा समझते है कि जीसस ने यह कहा कि ये बेचारे नहीं जानते कि मुझे अच्‍छे आदमी को मार रहे है। इनको पता नहीं है।
नहीं यह मतलब जीसस का नहीं था। जीसस का मतलब यह था कि इन पागलों को यह पता नहीं है कि जिसको ये मार रहे है, वह मर ही नहीं सकता है। इनको माफ कर देना। क्‍योंकि इन्‍हें पता नहीं है कि ये क्‍या कर रहे है। यक एक ऐसा काम कर रहे है, जो असंभव है। ये मारने का काम कर रहे है, जो असंभव है।
उस आदमी ने कहा कि विश्‍वास नहीं आता कि कोई मारा जाता हुआ आदमी इतनी करूणा दिखा सकता है। उस वक्‍त तो वह क्रोध से भर जाएगा।
शेख फरीद खूब हंसने लगा। और उसने कहा कि तुमने अच्‍छा सवाल उठाया। लेकिन सवाल का जवाब मैं बाद में दूँगा, मेरा एक छोटा सा काम कर लाओ। पास में पडा हुआ एक नारियल उठाकर दे दिया उस आदमी को, और कहा कि इसे फोड लाओ, लेकिन ध्‍यान रहे,इसकी गिरी को पूरा बचा लाना, गिरी टूट न जाये। लेकिन वह नारियल बिलकुल ही कच्‍चा था। उस आदमी ने कहा,माफ कीजिए, यह काम मुझसे ने होगा। नारियल बिलकुल कच्‍चा है। और अगर मैंने इसकी खोल तोड़ी तो गिरी भी टूट जायेगी। तो उस फकीर ने कहां की उसे रख दो। दूसरा नारियल उसने दिया जो कि सूखा था और कहा कि अब इसे तोड़ लाओ। इसकी गिरी तो तुम बचा सकोगे। उस आदमी ने कहा, इसकी गिरी बच सकती है।
तब बाबा फरीद ने कहा मैंने तुम्‍हें जवाब दिया, कुछ समझ में आया? उस आदमी ने कहा, मेरी कुछ समझ में नहीं आया। नारियल से और मेरे जवाब का क्‍या संबंध है? मेरे सवाल का क्‍या संबंध है। बाबा शेख फरीद ने कहा, यह नारियल भी रख दो, कुछ फोड़ना-फाड़ना नहीं है। मैं तुमसे यह कहा रहा हूं। कि एक कच्‍चा नारियल है, जिसकी गिरी और खोल अभी आपस में जुड़ी हुई है। अगर तुम उसकी खोल को चोट पहुंचाओगे तो उसकी गिरी टुट जायेगी। फिर एक सुखा नारियल है। सूखे नारियल और कच्‍चे नारियल में फर्क ही क्‍या है? एक छोटा सा फर्क है कि सूखे नारियल की गिरी सिकुड़ गई है भीतर और खोल से अलग हो गई है। गिरी और खोल के बीच में एक फासला, एक डिस्‍टेंस हो गया है। एक दूरी हो गई है। अब तुम कहते हो कि इसकी हम खोल तोड़ देंगे तो गिरी बच सकती है। तो मैंने तुम्‍हारे सवाल का जवाब दे दिया।
मैं फिर भी नहीं समझा, आपने जो कहा है। तब बाबा फरीद ने कहा जाओ मरो और समझो। इसके बिना तुम समझ नहीं सकते। लेकिन तब भी तुम समझ नहीं पाओगे, क्‍योंकि तब तुम बेहोश हो जाओगे। खोल और गिरी एक दिन अलग होंगे,लेकिन तब तुम बेहोश हो जाओगे। अगर समझना है तो अभी खोल और गिरी को अलग करना सिख लो। अभी मैं भी जिंदा हूं। और अगर खोल और गिरी अलग हो गये तो समझना मोत खत्‍म हो गई। वह फासला पैदा होते ही हम जानते है कि खोल अलग,गिरी अलग। अब खोल टूट जायेगी तो भी में बचूंगा। तो भी मेरे टूटने का कोई सवाल नहीं है, मेरे मिटने का कोई सवाल नहीं है। मृत्‍यु घटित होगी, तो भी मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकेगी। मेरे बाहर ही घटित होगी। यानी वही मरेगा जो मैं नहीं हूं, जो मैं हूं वह बच जायेगा।
ध्‍यान या समाधि का यही अर्थ है कि हम अपनी खोल और गिरी को अलग करना सीख जाएं। वे अलग हो सकते है। क्‍योंकि वे अलग है, वे अलग-अलग जाने जा सकते है। दोनों का स्‍वभाव भिन्‍न है ये कुदरत को एक चमत्‍कार ही है कि दोनों कैसे मिले है। एक सूक्ष्‍म है एक स्‍थूल है।
इसलिए ध्‍यान को मैं कहता हूं, स्‍वेच्‍छा से मृत्‍यु में प्रवेश, बालेंटरी एन्‍ट्रेंस इनटू डेथ। अपनी ही इच्छा से मौत में प्रवेश। और जो आदमी अपनी इच्‍छा से मौत में प्रवेश कर जाता है, वह मौत का साक्षात्‍कार कर लेता है। कि यह रही मौत और मैं अभी भी हूं।
–ओशो मैं मृत्‍यु सिखाता हूं, प्रवचन—2, संस्करण—1991,