25 April 2015

दामिनी : सवाल •ाी, जवाब •ाी


अपने सपनों को साकार करने आई गोरखपुर की मासूम ‘दामिनी’ के साथ चलती बस में दुष्कर्म ने एक ओर जहां दरिंदगी का चेहरा उजागर कर दिया, वहीं दूसरी ओर इन सवालों को •ाी आवाज दे दिया कि ब्वॉयफ्रेंड के साथ घूमना, रात में घूमना और तकरीबन खाली बस में बैठना... सुरक्षा के लिहाज से कितना सही फैसला था???
इस मुद्दे पर सबकी राय जुदा है, लेकिन अनेक महिला-संगठन और नारी स्वतंत्रता के ठेकेदार, इस घटना के लिए पुलिस, प्रशासन और सरकार को आड़े हाथ ले रहे हैं और सुरक्षा संबंधी किसी •ाी सुझाव-सलाह को नारी की आजादी पर हमला मान रहे हैं.
दुष्कृत्य के बाद दिल्ली में हुए आंदोलन में मिनी स्कर्ट पहने एक लड़की के हाथ में तख्ती थी, जिस पर लिखा था- ‘मेरी स्कर्ट से •ाी ऊंची मेरी आवाज है.’
अपने अंदाजो-अदायगी से, तमाम प्रतीकों के साथ शायद वह यह जताना चाहती थी... ‘हमें मत सिखाओ कैसे कपड़े पहनें, कैसे रहें? कब आएं, कब जाएं? अकेले घूमें या साथ में, किसी को हमें रोकने, टोकने, बोलने का अधिकार नहीं है. हमें जो अच्छा लगेगा वह करेंगी. बोलना ही है, तो लड़कों को बोलो, वे गलत करते हैं. सुधारना ही है, तो माहौल सुधारो, वह बदतर हो चुका है.’
बेशक, लड़के बिगड़ते जा रहे हैं, उन्हें सुधारना जरूरत है. माहौल •ाी खराब है, उसे •ाी दुरुस्त करना जरूरी है. बेशक, दामिनी के साथ जो हुआ वह अक्षम्य है और ऐसी घटनाएं दोबारा न हो, इसके लिए ठोस कदम उठाए जाने जरूरी है.
मौजूदा हिंदुस्तानी समाज में पुरुषों की बढ़ती लंपटता और औरतों के लिए असुरक्षित होता जा रहा माहौल नि:संदेह प्रासंगिक प्रश्न है. लेकिन बुनियादी सवाल है- किसी •ाी क्षेत्र में किसी •ाी मामले में क्या सौ फीसदी सुरक्षा सं•ाव है? किसी •ाी कालखंड में, किसी •ाी समाज में लूट, चोरी, डकैती, हादसे पूरी तरह रुके हैं या रोके जा सके हैं??? क्या टेÑन-टॉकीज में जेब कटने से बचने के लिए हम सावधानी नहीं बरतते? क्या रूपयों से •ारा बैग लाते समय अक्सर हम अकेले आने से नहीं बचते?
यकीनन हम सब पूरी एयतियात रखते हैं, लेकिन जब बात औरतों की सुरक्षा को लेकर दिए जा रहे सुझावों का आता है, तो हमारा नजरिया बदल जाता है.
हमें यही बात समझनी है कि जब हम अन्य मामलों में सावधान रहते हैं, तो नारी-सुरक्षा के लिए दिए जा रहे सही-गलत, व्यावहारिक-गैरव्यावहारिक सुझावों के प्रति पूरी तरह नकारात्मक दृष्टिकोण... उसे अपनी आजादी पर हमला मानना कितना सही है? क्या यह नारी स्वतंत्रता का झंडा लेकर मनमाना रवैया अख्तियार करना नहीं है?
मूल बात यह है- अपनी सुरक्षा के लिए हमें खुद जागरूक रहना होगा. अपने स्तर पर •ाी सावधानी रखनी होगी, चाहे वह महिला हो या पुरुष. सारे जतन के बाद •ाी पुलिस, प्रशासन, सरकार या कोई •ाी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकेगा.
दामिनी के साथ तो गलत करने वाले अजनबी थे, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि किसी लड़की को अकेला पाकर उसके ब्वॉयफ्रेंड की नीयत खराब नहीं होगी? आखिरकार, इसी असावधानी या लापरवाही के चलते, दामिनी प्रकरण के बाद नए साल के जश्न की रात, दिल्ली की ही एक और युवती अपने फेसबुक-फ्रेंड की ज्यादती का शिकार हुई. वह आधी रात को अकेले मिलने गई थी.
तो मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने लड़कियों को लक्ष्मण-रेखा न लांघने संबंधी बयान देकर ऐसा क्या गुनाह कर डाला कि उस पर इतना बवाल मचाया गया? राष्ट्रपति के विधायक पुत्र ने लड़कियों को देर रात डिस्को में न घूमने की समझाइश देकर ऐसा क्या कह दिया कि उस पर इतना इतना विवाद खड़ा किया गया?
सच तो यह है, इन बयानों के पीछे लड़कियों के सुरक्षा की सद्•ाावना ही छिपी थी. ये बयान गलत नहीं थे, बल्कि उनकी टाइमिंग गलत थी. सही बात गलत समय में कही गई थी, इसीलिए ये विवादित हुए. होता है, अक्सर यही होता है... •ाावनाओं की आंधी में सच का तिनका अक्सर गुम हो जाता है.
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  यह आर्टिकल फरवरी 2013 में लिखा था. नव•ाारत में ज्वाइनिंग के पहले एडीटर ने किसी टॉपिक पर लिखने कहा था.

22 April 2015

सोशल-मीडिया : कहां तक अ•िाव्यक्ति की लक्ष्मण रेखा?


‘हाल में एक मोबाइल ऐप से जुड़े कार्यक्रम के दौरान गायक सोनू निगम ने कहा -‘आज फेसबुक और ट्विटर पर हम सेलिब्रिटीज के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है. हम जैसे कलाकार को छोड़िए, बड़े-बड़े सुपरस्टार को •ाी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गाली खाते देखा जा सकता है. इस तरह की हरकतों पर रोक लगना चाहिए.’
सोनू की यह मांग अ•िाव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायतियों को बुरी लग सकती है, लेकिन आजकल जिस तरह  से सोशल मीडिया में मनमानी हो रही है, सचमुच इस पर विचार करने की जरूरत है कि  इस प्लेटफार्म पर अ•िाव्यक्ति की आजादी कहां तक दी जानी चाहिए?
वास्तव में, इन दिनों फेसबुक-ट्विटर जैसे सोशल प्लेटफार्म  का जमकर दुरुपयोग हो रहा है.  लोगों की इज्जत उछाली जा रही है, निजी एजेंडे के तहत निशाना बनाया जा रहा है. अनेक सेलेब्रिटी इस प्लेटफार्म पर होने वाली बदतमीजी से परेशान हैं.
 अ•ाी कुछ रोज पहले का ही वाकया है, क्रिकेट वर्ल्डकप के सेमीफाइनल में •ाारत की हार होने पर सोशल मीडिया में हीरोइन अनुष्का शर्मा का जमकर मजाक बनाया गया. उनके खिलाफ जोक्स का सिलसिला ही चल पड़ा. अनुष्का का कसूर ये था कि वे क्रिकेटर विराट कोहली की गर्लफ्रेंड थीं और कोहली उस महत्वपूर्ण मैच में एक रन बनाकर आउट हो गए थे. कोहली के खराब खेलने के लिए क्या अनुष्का जिम्मेदार थी, जो उनका इतना तमाशा बनाया गया, उन्हें पनौती माना गया?
अ•िाव्यक्ति का मतलब  यह नहीं होता कि जो जी में आए लिखा जाए, अपने अंदर •ारे वैचारिक कूढ़Þा  को सार्वजनिक किया जाए. अ•िाव्यक्ति का मतलब ‘मानसिक वमन’ हरगिज नहीं है, और  न ही यह कि तर्क की तलवार से किसी की •ाावनाओं को ठेस पहुंचाया जाए, या जानबूझकर बेइज्जत किया जाए.  क्या हमने क•ाी सोचा है कि जिस व्यक्ति का हम यूं मजाक बनाते हैं, उसके दिल पर क्या गुजरती होगी, उसका आत्मविश्वास कितना लहुलुहान होता होगा? बेशक, वैचारिक स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन  इसके साथ नैतिकता, एक जवाबदेही •ाी चाहिए.
यहां बात केवल मान-अपमान •ार की •ाी नहीं है. सोशल मीडिया पर नियंत्रण इसलिए •ाी जरूरी है क्योंकि  आजकल फेसबुक, ट्विटर, न्यूज साइट में जिस तरह के कमेंट लिखे जा रहे हैं, जो कुछ अपलोड किया जा रहा है, उससे सांस्कृतिक वातावरण •ाी दूषित हो रहा है.  हाल में,  बीबीसी की हिंदी साइट में ‘गौ-मांस’ पर अलग-अलग एंगल से स्टोरी प्रकाशित हुई थी. इस पर कमेंट करते हुए  ‘गौ मांस’ के समर्थक व विपक्षी पक्षों ने नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ दी. दो वि•िान्न जाति-समुदाय के लोगों ने एक-दूसरे के लिए  खुलकर अपशब्दों का प्रयोग किया. फेसबुक, ट्विटर पर •ाी इस तरह की अराजकता अक्सर दिखाई पड़ती है, जो सार्वजनिक जीवन में क•ाी •ाी विस्फोटक रूप ले सकती है. 
मजे की बात, सोशल मीडिया में आग उगलने वाले अनेक युवा •ाावनाओं में बहकर ऐसा करते हैं. नादानी, अपरिपक्वता के चलते अगर, किसी के पीछे  पड़ गए, तो उसके खिलाफ अनाप-शनाप लिखते चले जाते हैं. आज के युवाओं के पास सोचने-समझने की बिलकुल फुरसत नहीं है. इसीलिए उन्हें किसी बात की गं•ाीरता का •ाी अंदाजा नहीं रहता है. मौजूदा उथलेपन के दौर में ये लोग •ाी उतने ही अधीर हैं इसीलिए किसी •ाी विषय में गहरे उतरे बिना तुरंत प्रतिक्रिया दे देते हैं.
वैसे सोशल मीडिया पर लगाम लगाना  एक और वजह से •ाी जरूरी है. इस प्लेटफार्म पर ऐसा माफिया सक्रिय है, जो जानबूझकर , पूर्वग्रह के तहत, अपने निजी एजेंडे के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर रहा है. कुछ समय पहले इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में फिल्मी गीतकार-लेखक जावेद अख्तर ने ‘छद्म धार्मिकता’ पर •ााषण दिया था. उस •ााषण से  प्र•ाावित होकर एक सज्जन ने उसे अपने ब्लॉग में पोस्ट किया. लेकिन कुछ लोगों ने जानबूझकर अख्तर को निशाने में लिया. बजाय समग्रता में अर्थ निकालने के उनके •ााषण के एक-एक वाक्य का पोस्टमार्टम किया. उन्हें गलत ठहराने की कोशिश की. इस तरह के लोग ही मीडिया में जहर घोलने का काम कर रहे हैं, इनकी हरकतों पर रोक लगना जरूरी है.
हमें यह बात समझनी होगी कि हर चीज का अच्छा-बुरा दोनों तरह का इस्तेमाल सं•ाव है. एक ही चाकू से सब्जी •ाी काटी जा सकती है और  हत्या •ाी की जा सकती है.  वैसा ही फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल प्लेटफार्म के साथ •ाी है. यह हमारे हाथ में है कि हम इसका कैसा उपयोग करते हैं? वास्तव में हम लोग खुशकिस्मत हैं, जो हमें फेसबुक, ट्विटर जैसा अ•िाव्यक्ति का सहज उपलब्ध सोशल नेटवर्क मिला है.  इसका उपयोग तो, क्रिएट्वििटी के लिए होना चाहिए. एक-दूसरे से सीखना-सीखाना चाहिए.  वाद-विवाद का लक्ष्य •ाी समझ का विकास करना हो, अपने-अपने पूर्वग्रह त्यागकर  स्वस्थ चिंतन हो, जैसा कि दार्शनिक सुकरात कहा करते थे.
लेकिन कुछ लोग नासमझी में या समझते-बूझते हुए, अ•िाव्यक्ति के इतने बेहतर माध्यम का दुरुपयोग कर रहे हैं. दिवंगत लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा था- ‘कलम के लिए कोई कंडोम नहीं बना है.’ आजकल सोशल मीडिया में जो कुछ चल रहा है, उसे देखकर यह बात सही मालूम पड़ती है.
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17 April 2015

‘टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी’

सोशल मीडिया में कुछ दिन पहले एक जोक्स  ट्रेंड कर रहा था.  ‘ 2013 से पहले •ाारत में मनोरंजन के साधन हुआ करते थे- क्रिकेट व सिनेमा. लेकिन अब हैं- क्रिकेट, सिनेमा और आम आदमी पार्टी (आप).
इन दिनों इस जोक्स का सुनाई पड़ना बेवजह नहीं है. कहीं-न-कहीं  आप की विश्वसनीयता में कमी आई, है, उसे लोग गं•ाीरता से नहीं ले रहे हैं.  दरअसल,  ‘आप’ में लगातार कुछ-न-कुछ हो ही रहा है. आरोप- प्रत्यारोप, मान-मनौव्वल, स्टिंग आॅपरेशन, त्यागपत्र, दिग्गजों की छुट्टी और अब स्वराज अ•िायान, स्वराज संवाद. और इस कुछ-न-कुछ  होने से आप का गां•ाीर्य •ाी खो गया है. फेसबुक, ट्विटर फालो करने  वाली जनरेशन के लिए तो ‘आप’ का यह घमासान इंटरटेनमेंट पैकेज जैसा ही है. 
हां, लेकिन ऐसे लोग जो पूरी शिद्दत से ‘आप’ से जुड़े हैं, या वे लोग जो ‘आप’ को •ाारतीय राजनीति के सार्थक और निर्णायक बदलाव का वाहक मानते हैं, उनका •ारोसा जरूर टूटा है, उम्मीदों का कमल जरूर मुरझाया है. आखिरकार, इसी के चलते तो हाल में एक ‘आप’ कार्यकर्ता ने अपने सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से कार वापस मांग ली, तो दूसरे ने ‘आप’ का लोगो इस्तेमाल न करने का अल्टीमेटम दे दिया.
सच तो यह है कि केजरीवाल हों, चाहें योगेंद्र-प्रशांत गुट दोनों ने आम जनता के जस्बातों पर रोड-रोलर चलाया है. केजरीवाल यदि चाहते तो ‘आप’ की अंतर्कलह थाम सकते थे. वे संयोजक पद खुद ही छोड़ सकते थे. योगेंद्र-प्रशांत से सीधे संवाद कर सकते थे.  सारे मसले पार्टी के समक्ष रखकर बहुमत के अनुसार चल सकते थे. लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता अख्तियार किया. योगेंद्र-प्रशांत को ठिकाने लगाने की कवायद शुरू कर दी. पार्टीजनों को अपने और उनमें से किसी एक को चुनने की अनिवार्य शर्त रखी.
इधर, केजरीवाल ने अहंकार की लड़ाई लड़ी, तो उधर योगेंद्र-•ाूषण •ाी आदर्शवाद के नाम पर झुकने को तैयार नहीं हुए. प्रशांत •ाूषण ने तो दिल्ली चुनाव के दौरान इमोशनल ब्लैकमेल तक किया. वे त्यागपत्र देकर ‘खुलासे’ की अघोषित धमकी देते रहे.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1992 में राममंदिर मुद्दे पर धार्मिक असहिष्णुता बढ़ने का अंदेशा जताया था, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई. वे हाशिए में रहे, पर उन्होंने बगावत नहींंंंंं की और बाद में उनकी वापसी हुई. •ाूषण को यदि पार्टी के फैसले पसंद नहीं थे, तो वे •ाी चुप रहकर सही समय का इंतजार कर सकते थे, बजाय, बागी बनने के.
यदि योगेंद्र-•ाूषण यह तर्क दें  कि वे अपने रहते ‘आप’ का पतन कैसे होने दे सकते थे... तो यह •ाी स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि ये दोनो ं वैसे ही केजरीवाल एंड कंपनी से लड़कर हाशिए में जा चुके थे, लिहाजा ये ‘नख-दंत विहीन’ पार्टी में कोई सुधार करने या नैतिक-शुचिता बनाए रखने की स्थिति में नहीं थे.
वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘आप’ के आदर्शों का किला ढहा है. उसकी कथनी-करनी में अंतर आया है. जो पार्टी लोकपाल को लेकर अस्तित्व में आई, उसने अपने लोकपाल रामदास को बिना बताए हटा दिया. जो पार्टी पारदर्शिता का दावा करती रही, उसी ने राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के पहले सबके मोबाइल अलग रखवा लिए.
सं•ावत: केजरीवाल और योगेंद्र-प्रशांत के लक्ष्य अलग हैं. केजरीवाल के लिए जहां साध्य की अहमियत है, वहीं, योगेंद्र-प्रशांत साधन और साध्य दोनों को तरजीह देते रहे हैं. अरविंद दिल्ली का कायाकल्प करना चाहते हैं, उसे मॉडल बनाना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने दिल्ली चुनाव में कई समझौते कर लिए. बड़े आदर्श के लिए छोटे आदर्श की तिलांजलि दे दी. योगेंद्र गुट के लिए सिद्धांत ही सर्वोपरि थे, इसी वजह से इनके बीच रस्साकशी बढ़ती चली गई.
जैसे स्वाधीनता संग्राम में गांधी-सु•ााष को •ाारत-जापान में लोगों ने खुलकर धन-धान्य, जेवर... जिसके पास जो था वैसा सहयोग दिया था, वैसे ही इस बार केजरीवाल एंड कंपनी के लिए •ाी स्वस्फूर्त जस्बात उमड़े थे. सबकी यही इच्छा-अपेक्षा थी कि ‘आप’ कुछ सार्थक करे, लेकिन आप के इस गृह-क्लेश ने अपेक्षाओं से •ारे न जाने कितने दिल तोड़ दिए हैं. अफसोस इसी बात का है कि अपने-अपने विचारधाराओं और सिद्धांतों की आड़ में दोनो गुट ने अहंकार की लड़ाई •ाी लड़ी,  जन•ाावना को नजरअंदाज किया. 
बेशक, ‘आप’ के  ये  ‘खिलाड़ी’ शह-मात में उलझे हुए हैं, लेकिन सियासत की शतरंज खेलते हुए  वे यह •ाूल रहे हैं कि असली बादशाह तो जनता है और शतरंज में पैदल मात •ाी होती है. 
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