28 February 2012

वृक्ष और बच्चा

एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेते आते थे। उस पर फूल लगते थे तो तितलियां उड़ती चली आती थी। उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुंदर लगता था। एक छोटा सा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था। उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से  प्रेम हो गया।  बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है। अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े हैं। वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूं, वह पता सिर्फ आदमियों को होता है। इसलिए उसका प्रेम मर गया है, और वृक्ष अभी निर्दोष है निष्कलुष है उन्हें नहीं पता की मैं बड़ा हूं।  अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपनों से बड़ों से संबंध जोड़ता है। प्रेम के लिए कोई बड़ा-छोटा नहीं है। जो आ जाएं, उसी से संबंध जुड़ जाता है।   वह एक छोटा सा बच्चा खेलने आता था, उस वृक्ष के पास। उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया। लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊपर थीं। बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएं उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके। प्रेम हमेशा झुकने को राजी है, अहंकार कभी भी नहीं झुकने को राजी होता है।  अहंकार के पास जाएंगे, तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जायेंगे। ताकि आप उन्हें छू न सकें। क्योंकि जिसे छू लिया जाए। वह छोटा आदमी है। जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो, वह आदमी बड़ा आदमी है। उस वृक्ष की शाखाएं नीचे झुक आती थी, जब वह बच्चा खेलता हुआ आता उस वृक्ष के पास, और वह जब उसका  फूल तोड़ता, तब वह वृक्ष अंदर तक सिहर जाता, प्रेम की छुअन से सराबोर हो जाता। और खुशी के मारे उसकी शाखाएं नाचने झूमने लगती। उसके प्राण आनंद से भर जाते।  प्रेम जब भी कुछ दे पाता है, तो खुश हो जाता है।   अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है।   फिर वह बच्चा बड़ा होने लगा। वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बनाकर पहनता, वृक्ष उसे जंगल के सम्राट के रूप में देखकर गदगद हो जाता।   प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं, वही सम्राट हो जाता है वृक्ष के प्राण आनंद से भर जाते, उसकी छुआन उसे अंदर तक गुदगुदा जाती। हवा जब उसके पता को छूती, तो उससे मधुर गान निकलता। नए-नए गीत फूटते उस बच्चे के संग।    वह लड़का कुछ और बड़ा हुआ। वह वृक्ष के उपर चढऩे लगा। उसकी शाखाओं से झूलने लगा। वह उस की विशाल शाखाओं पर लेट कर विश्राम करता। वृक्ष आनंदित हो उठता। प्रेम आनंदित होता है, जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है। अहंकार आनंदित होता है, जब किसी की छाया छीन लेता है।
      लड़का धीरे-धीरे बड़ा होता चला गया। दिन पर दिन बीतते ही चले गए, मानो समय को पंख लग गए। ऋतु पर ऋतु, ऋतु पर ऋतु बदलती चली गयी। वृक्ष को पता ही नहीं चला उस समय का। जब हम आनंद में होते हैं, तो समय की गति तेज हो जाती है। मानो उसके पंख लग गये हो। तब  लड़का बड़ा हो गया, तो उसे और दूसरे काम भी उसकी दुनिया में आ गये। महत्वकांक्षाएं आ गई। उसे परीक्षाएं पास करनी थी। उसे मित्रों के साथ भी खेलना था। पढ़ाई में सब को पछाड़ कर अव्वल आना था। धीरे-धीरे उसका आना कम से कमतर होता चला गया। कभी आता कभी नहीं आता। लेकिन वृक्ष, तो हमेशा उसकी राह तकता रहता। कि वह कब आये और उसके उपर चढ़े उसकी टहनियों से खेले, उसके फूल तोड़े। उसके फल खाये। लेकिन वह हफ्तों महीनों बाद कभी आता। वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता कि वह आये। वह आये। उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ-आओ। प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है कि आओ-आओ।   प्रेम एक प्रतीक्षा है, एक अवेटिंग है।  लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास रहने लगा। प्रेम की एक ही उदासी है जब वह बांट नहीं सकता। तब वह उदास हो जाता है। जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है।  और प्रेम की एक ही धन्यता है कि जब वह बांट देता है, लुटा देता है, तो आनंदित हो जाता है।  फिर लड़का और बड़ा होता चला गया। और वृक्ष के पास आने के दिन कम होते चले गये।  जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है महत्वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है। उस लड़के की महत्वाकांक्षा बढ़ रही थी। कहां अब वृक्ष के पास जाना।  फिर एक दिन वह वहां से निकला जा रहा था, तो उस वृक्ष ने उसे पुकार की सुनो। हवाओं ने पत्तों ने उसकी आवाज को गुंजायमान किया। तुम आते नहीं, मैं प्रतीक्षा करता हूं, मैं रोज तुम्हारी राह देखता हूं, कि तुम इधर आओ, मेरी आंखें थक जाती है। पर तुम अब इधर नहीं आते क्यों?    उस लड़के ने एक बार घूर कर देखा उस वृक्ष को और कहा की क्या है तुम्हारे पास। जो मैं आऊं, मुझे तो रूपये चाहिए। हमेशा अहंकार पूछता है, कि क्या है तुम्हारे पास, जो मैं आऊं। अहंकार मांगता है कि कुछ हो, तो मैं आऊं। न कुछ हो, तो आने की जरूरत नहीं है। अहंकार एक प्रयोजन है, एक परप•ा है। प्रयोजन पूरा होता है, तो मैं आऊं। अगर कोई प्रयोजन न हो, तो आने की जरूरत क्या है।  और प्रेम निष्प्रयोजन है। प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं। प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वह बिलकुल पर्पजलेस है।   वृक्ष तो चौंक गया। उसने कहा, तुम तभी आओगे, जब मैं तुम्हें कुछ दूँ। मैं तुम्हें सब दे सकता हूं। क्योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता। जो रोक ले वह प्रेम नहीं है। अहंकार रोकता है। प्रेम तो बेशर्त देता है। उस वृक्ष ने कहा,  लेकिन ये रूपये तो मेरे पास नहीं है। ये रूपये तो आदमी की ईजाद है। उसी का रोग है अभी हमे नहीं लगा। हम बचे हैं अभी। इसीलिए तो देखो हम इतने आनंदित है। पर मनुष्य के संग-साथ रहकर हम उसके रोग को पाल लेते हैं। वरना तो हमारे उत्सव को देखो इन खिलें फूलों को देखो, इतने विशाल तने, इनकी छाया। इन पर पक्षियों का चहकना। अपने घर बनाना। खेलना -नाचना। कलरव करना। देखो हम कितने नाचते हैं आकाश में, कितने गीत गाते हैं। क्योंकि हमारे पास पैसा नहीं है। हम आदमी की तरह दीन-हीन मंदिरों में बैठ कर, शांति की कामना करते हैं। कि कैसे पाई जायें। सर टकराते हैं उसके चरणों में कि हमें कुछ तो दो, हम पड़े है तेरे द्वार...पर हमारे पास पैसा नहीं है।
      तो बच्चे ने कहा, फिर क्यों आऊं में तुम्हारे पास। जहां पर रूपये हैं मुझे तो वहीं जाना है। तुम समझते नहीं हमारी मजबूरी, क्योंकि तुम्हें पैसे की जरूरत नहीं है। पानी तुम्हें कुदरत से मिल जाता है, जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो वह तुम्हें मुफ्त में मिल गई है। हवा, धूप जो तुम्हें पोषण देती है उसके लिए तुम्हें कुछ देना नहीं होता। पर हमें तो सब पैसे से ही लेना है, हमारा जीवन तो पैसे से ही चला है.....अब ये बात तुम्हें कैसे समझाऊं।  अहंकार रूपये मांगता है। क्योंकि रूपया शक्ति है, सुरक्षा है।
      उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे ख्याल आया....तो तुम एक काम तो कर सकते हो, मेरे सारे फल तोड़ कर ले जाओ और बेच दो उसे बाजार में, फिर तुम्हें शायद पैसा मिल जाये।   उस लड़के की आंखों में चमक आ गई। उसे तो ये ख्याल ही नहीं आया था। वह खुशी से राजा हो गया। वह चढ़ गया उस वृक्ष पर और तोडऩे लगा फल, पर आज उसके हाथों में क्रूरता थी, उसके चढऩे से भी उस वृक्ष को कुछ भारीपन लग रहा था। उसने फलों के साथ तोड़ डालें हजारों पत्ते, टहनियां, वृक्ष को पीड़ा होती पर वह यह जान कर आनंदित होता कि ये पीड़ा उसके प्रेमी ने ही तो दी है। प्रेम पीड़ा में भी आनंद देख लेता है। और अहंकार उदारता में भी दुख। लेकिन फिर भी वह वृक्ष खुश था कि इस बहाने उसे उस का संग साथ तो मिला।
      टूटकर भी प्रेम आनंदित हो जाता है।  अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता। पाकर भी दुखी  होता है। ओर उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया और सारे फल ले कर चल दिया बाजार की ओर। वृक्ष उसे निहारता रहा। जाते हुए देखता रहा, अपने को तृप्त करता रहा पर उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।  लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला। उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उस लड़के ने उसके प्रेम को स्वीकार किया। और उससे फल तोड़े और उन्हें बेचकर उसे धन मिल जायेगा। वह यह सोच-सोच कर गदगद हो रहा था।
      लेकिन इसके बाद भी वह लड़का बहुत दिनों तक नहीं आया। उसके पास रूपये थे,और रुपयों से रूपये पैदा करने की  कोशिश में वह लग गया। वह भूल ही गया उस बात को। कि वह पैसा उसे उसी वृक्ष के प्रेम की देन है। सालों गुजर गये।  और धीरे-धीरे वृक्ष की उदासी उसके पत्तों पर भी उभरने लगी। तेज हवा ये उसे खडख़ड़ाती जरूर पर अब उनमें वह लयवदिता नहीं थी। एक मुर्दे की सी खडख़ड़ाहट थी। वह इसलिए जीवित था कि उसके प्राणों में रस का संचार हो रहा था। उसके प्राण को रस बार-बार पुकारता  उस लड़के को की तू मेरे पास आ मैं तुझे अपना रस दूँगा। जैसे किसी मां के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो जाये। और उसके प्राण तड़प रहे है कि उसका बेटा कहां है जिसे वह खोजे, जो उसे हलका कर दे। निर्भार कर दे। ऐसा उस वृक्ष के प्राण पीडि़त होने लगे कि वह आये—आये, आये। उसके प्राणों की सारी आवाज में यही गूंज रहा था। आओ-आओ।
      बहुत दिनों के बाद वह आया। वह लड़का प्रौढ़ हो गया था। वृक्ष ने उससे कहा आओ मेरे पास। मेरे आलिंगन में आओ। उसने कहा छोड़ो, यह बकवास। यह बचपन की बातें है। अब में बड़ा हो गया हूं, मेरे कंधों पर घर गृहस्थी का बोझ आ गया है। ये सब तुम नहीं समझ सकते।  अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है। बचपन की बातें समझता है। उस वृक्ष ने कहा, आओ मेरी डालियों से झूलों—नाचो, चढ़ो मुझ पर। दौड़ो भागो....    उसने कहा छोड़ो भी ये फजूल की सब बातें, क्या रखा इन सब में। समय खराब करना ही है।  मुझे एक मकान बनाना है। तुम मुझे मकान दे सकते हो?
  वृक्ष ने कहा, मकान? वह क्या होता है, हम तो कोई मकान नहीं बनाते। क्यों बनाओगे तुम मकान। क्या काम आयेगा। और भी पशु-पक्षी भी मकान, घोसला बनाते हैं, चींटियाँ, दीमक, पर वह तो आदमी की तरह दु:खी नहीं होती। वह तो बड़े आनंद उत्सव से उसके बनाने का आनंद लेती हैं। फिर तुम इतने उदास क्यों है? लेकिन एक बात हो सकती है, मैं क्या सहायता कर सकता हूं तुम्हारे मकान बनाने के लिए.....कोई हो तो कहो।  वह आदमी थोड़ी देर के लिए तो चुप हो गया। उसके दिल की बात ज़ुंबाँ पर आते-आते रूक गई। पर वह साहस कर के कहने लगा। तुम अपनी शाखाएं मुझे दे दो, तो में अपने मकान की छत आराम से डाल सकता हूं। वृक्ष मुस्कुराया और कहने लगा तो इसमें इतना सोचने की क्या बता है। तुम ले सकते हो मेरी शाखाएं। मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकूं, तो अपने को धन्य ही मानूँगा। और मुझे लगेगा की तुमने मुझे प्यार किया।  और वह आदमी गया और कुल्हाड़ी लेकिर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली। वृक्ष एक ठूंठ रह गया। एक दम मृत प्राय, नग्न, पर फिर भी वह वृक्ष आनंदित था। प्रेम सदा आनंदित रहता है। चाहे उसके अंग भी काटे जायें। लेकिन कोई ले जाये, कोई ले जाये,  कोई बांट ले, कोई सम्मिलित हो जाये, कोई साझीदार हो जाये। और उस आदमी ने पीछे मुड़ कर इस बार भी नहीं देखा।
      और वक्त गुजरता गया। वह ठूंठ राह देखता रहा, वह चिल्लाना चाहता था। कहना चाहता था, अपने ह्रदय की पुकार, पर अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे। शाखाएं भी नहीं थी। हवाएँ आती और वह उनसे बात भी नहीं कर पाता था। बुला भी नहीं पाता था अपने प्रेमी को। लेकिन प्राणों में अब भी एक गूंंज थी आओ-आओ.... एक बार फिर आओ। और बहुत दिन बीत गये। तब वह बच्चा अब बूढ़ा आदमी हो गया था। वह निकल रहा था उसके पास से। और वह वृक्ष के पास आकर खड़ा हो गया। बहुत दिनों बाद आये, पर तुम्हें मेरी याद सताती तो है। कहो सब ठीक है। कैसे उदास हो। कमर झुक गई है। बाल सफेद हो गये। आंखों पर चश्मा लग गया है। उसने कहा, मैं परदेश जाना चाहता हूं। यहां इतनी मेहनत की कुछ नहीं मिला। वहां जा कर खूब धन कमाऊगां। पर मैं नदी पार नहीं कर सकता। उसके लिए नाव चाहिए। तुम अपना तना मुझे दे दो तो मैं नाव बना जा सकता हूं। वृक्ष बोला- नाव तो तुम मेरी बना सकते हो, पर मुझे भूल मत जाना वहां जाकर। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम लौट कर जरूर इधर आना। मैं यहां तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। 
      और उसने उस वृक्ष के तने को काट कर नाव बना ली। वहां रह गया एक छोटा सा ठूंठ, और वह आदमी दूर यात्रा पर निकल गया। और वह ठूंठ उसकी प्रतीक्षा करता रहा की अब  आयेगा। अब आयेगा। लेकिन अब तो उसके पास कुछ भी नहीं था। उसे देने की लिए शायद वह कभी इधर नहीं आयेगा। क्योंकि अहंकार वहीं आता है, जहां कुछ पाने को है। मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ था। तो वह ठूंठ मुझसे बोला कि वह मेरा मित्र अब तक नहीं आया। और मुझे बड़ी पीड़ा होती है कि वह ठीक से तो है। वह मेरे तने की नाव बना कर परदेश गया था। कही मेरे तने में कोई छेद तो नहीं था। मुझे रात दिन यही चिंता सताये जाती है। बस एक बार यह  पता  चल जाये कि वह जहां भी है खुश है, तो में तृप्त हो जाऊँगा। एक खबर मुझे भर कोई ला दे। अब मैं मरने के करीब हूं। इतना पता चल जाये कि वह सकुशल है, फिर कोई बात नहीं। फिर सब ठीक है। अब तो मेरे पास देने को कुछ नहीं है। इसलिए बुलाऊं भी, तो शायद वह नहीं आयेगा। क्योंकि वह केवल लेने की ही भाषा समझता है। अहंकार लेने की भाषा समझता है। प्रेम देने की भाषा है। इससे ज्यादा और कुछ भी मैं नहीं कहूंगा। जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाये और उस वृक्ष की शाखाएं अनंत तक फैल जायें। सब उसकी छाया में हों और सब तक उसकी बाँहें फैल जायें, तो पता चल सकता है कि प्रेम क्या है। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं है। न कोई परिभाषा है। न ही प्रेम का कोई सिद्धांत ही है।

(नोट: अंदर तक भिगाने वाली यह लाजवाब कहानी ओशो के प्रवचन का एक हिस्सा है। ओशो के चाहने वालों के लिए एक बेहतरीन साइट है, जिसमें उनके प्रवचनों का आनंद लिया जा सकता है। ओशो के बारे में क्या कहा जा सकता है बताइए... ऐसे शख्स, जिसने हर पढऩे-सुनने वाले को असर लेने को मजबूर किया है....इसी एक कहानी की मिसाल ले लीजिए... उनकी टिप्पणी ... प्यार और अहंकार जैसी अतिसाधारण मानवीय  प्रवृत्ति (साधारण इस अर्थ में कि उसका दोहराव इतना ज्यादा है कि उसके महत्व को हम भूल चुके हैं) का अद्भुत चित्रण... ओशो प्रवचन संबंधी साइट्स की लिंक नीचे दी जा रही है....   

ऐ साकी


भूल  जाऊं मैं जमाने का गिला ऐ साकी
ला पिला और पिला और पिला ऐ साकी

बाँध कुछ ऐसा मोहब्बत की फिज़ा ऐ साकी
फिर बदल जाए ज़माने की हवा ऐ साकी

खनकते जाम का मोहताज मैं नहीं साकी
तेरी निगह सलामत मुझे कमी क्या है।
 




27 February 2012

पेंसिल की कहानी

पेंसिल बनानेवाले ने एक पेंसिल बनाई और डिब्बे में रखने के पहले उससे कहा-
इससे पहले कि मैं तुम्हें लोगों के हाथ में सौंप दूं, मैं तुम्हें पांच बातें बताने जा रहा हूं, जिन्हें तुम हमेशा याद रखना, तभी तुम दुनिया की सबसे अच्छी पेंसिल बन सकोगी। पहली बात- तुम महान विचारों और कलाकृतियों को रेखांकित करोगी, लेकिन इसके लिए तुम्हें स्वयं को सदैव दूसरों के हाथों में सौंपना पड़ेगा। दूसरी- तुम्हें समय-समय पर बेरहमी से चाकू से छीला जाएगा, लेकिन अच्छी पेंसिल बनने के लिए तुम्हें यह सहना पड़ेगा। तीसरी- तुम अपनी गलतियों को जब चाहे तब सुधर सकोगी। चौथी- तुम्हारा सबसे महत्वपूर्ण भाग तुम्हारे भीतर रहेगा।और पांचवी- तुम हर सतह पर अपना निशान छोड़ जाओगी। कहीं भी, कैसा भी समय हो, तुम लिखना जारी रखोगी। पेंसिल ने इन बातों को समझ लिया और कभी न भूलने का वादा किया। फिर वह डब्बे के भीतर चली गई।
अब उस पेंसिल के स्थान पर आप स्वयं को रखकर देखें। उसे बताई गयी पांचों बातों को याद करें, समझें, और आप दुनिया के सबसे अच्छे व्यक्ति बन पाएंगे। पहली बात- आप दुनिया में सभी अच्छे और महान कार्य कर सकेंगे, यदि आप स्वयं को ईश्वर के हाथ में सौंप दें। ईश्वर ने आपको जो अमूल्य उपहार दिए हैं उन्हें आप औरों के साथ बांटें।  दूसरी बात- आपके साथ भी समय-समय पर कटुतापूर्ण व्यवहार किया जाएगा और आप जीवन के उतार-चढ़ाव से जूझेंगे, लेकिन जीवन में बड़ा बनने के लिए आपको वह सब झेलना जरूरी होगा। तीसरी बात- आपको भी ईश्वर ने इतनी शक्ति और बुद्धि दी है कि आप अपनी गलतियों को कभी भी सुधार सकें और उनका पश्चाताप कर सकें। चौथी बात- जो कुछ आपके भीतर है वही सबसे महत्वपूर्ण और वास्तविक है। और पांचवी व अंतिम बात- जिस राह से आप गुजरें वहां अपने चिन्ह छोड़ जाएं। चाहे कुछ भी हो जाए, अपने कर्तव्यों से विचलित न हों।
पेंसिल की कहानी का मर्म समझकर स्वयं को यह बताएं कि आप साधारण व्यक्ति नहीं हैं और केवल आप ही वह सब कुछ पा सकते हैं जिसे पाने के लिए आपका जन्म हुआ है। कभी भी अपने मन में यह ख्याल न आने दें कि आपका जीवन बेकार है और आप कुछ नहीं कर सकते!
दिल से...
इस तरह की ज्यादातर प्रेरक कहानी मैंने निशांत का हिंदी जेन नामक ब्लॉग में पढ़ी है और वहीं से ली है। निशांत जी का यह बहुत ही खूबसूरत व सार्थक ब्लॉग है। जीवन में खुशबू बिखरने, खूबसूरत दुनिया बनाने की एक बेहतरीन कोशिश, बेहतरीन सोच है। जीवन से जुड़ी हुई, उसके विभिन्न आयामों को उजागर करने वाली छोटी-छोटी कहानियों का लाजवाब संग्रह है निशांत जी के इस ब्लॉग में। सकारात्मक सोच व सार्थकता की चाह रखने वाले अनेक बेहतरीन लेख भी इस ब्लॉग में बीच-बीच में आपको हीरे के जैसा दमकते मिलेंगे। इस ब्लॉग की एक और खूबसूरत बात यह है कि इसमें की तमाम सामग्रियों को लेने में किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगाई गई है। मानो फूल की खूशबू पर किसी का पहरा नहीं है, यह हर एक की है, जो चाहे, जब चाहे ले ले और खुशनुमा एहसास से भर उठे। एक बढिय़ा नीयत वाले व्यक्ति का बेहतरीन ब्लॉग... ऐसे लोगों के लिए, जो कांटो भरे जीवन की राहों में फूल बिनने के इच्छुक हैं... उनके ब्लॉग की लिंक नीचे दी जा रही है...    
 http://hindizen.com/

विदूषक से गया बीता शिष्य

चीन में एक युवा साधक रहता था। वह धर्म के पथ पर बहुत गंभीरता से अग्रसर था। एक बार इस युवा साधक के सामने कोई ऐसा विषय आ गया, जो उसे समझ में नहीं आया। वह अपने गुरू के पास समस्या लेकर पहुंचा। गुरू ने जब साधक का प्रश्न सुना, तो वह बहुत जोरों से हंसने लगे और हंसते-हंसते ही उठकर चले गए। युवा साधक अपने गुरू की ऐसी प्रतिक्रिया से बहुत विचलित हो गया। वह तीन दिनों तक खा-पी न सका और उसकी नींद भी उड़ गई। तीन दिनों के बाद वह गुरू के पास गया और अपनी दशा का वर्णन किया। गुरू उसकी बातें सुनकर बोले- पुत्र, तुम जानते हो तुम्हारी समस्या क्या है? तुम्हारी समस्या यह है कि तुम एक विदूषक से भी गए बीते हो। युवा साधक को यह सुनकर बहुत बड़ा आघात पहुंचा। वह अश्रुपूरित नेत्रों से बोला- आदरणीय, आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? मैं किसी विदूषक से भी गया-बीता कैसे हो सकता हूं? गुरु ने कहा- कोई विदूषक जब लोगों को प्रसन्न और हंसते हुए देखता है, तो उसे ख़ुशी मिलती है और तुम? तुम तो किसी दूसरे व्यक्ति को हंसते देखकर विषादग्रस्त ही हो गए? अब बताओ, क्या सच में ही तुम विदूषक से भी गए-गुजरे नहीं हो? तुम्हें यह समझना है कि समस्याएं हर व्यक्ति के जीवन में आती हैं। किसी के लिए यह बड़ी होती हैं, किसी के लिए छोटी। लिहाजा हर व्यक्ति की प्रतिक्रिया भी इसे लेकर अलग ही होगी। तो ऐसे में अस्वाभाविक प्रतिक्रियाओं से भी तनाव में क्यों आना। जीवन को खेल के जैसा सरलता से लेना चाहिए, न कि गंभीरता का पत्थर ढोकर। समस्या को भी खेल के जैसा ही आनंदित होकर लेना सीखो। यह सुनकर साधक को भी हंसी आ गई। उसके मन का भार हल्का हो गया।
दिल से...
गंभीरता  एक रोग है, लेकिन लोग इसे लादे  रहते हैं आभूषण की तरह। जितना  बड़ा पद, उतनी ज्यादा गंभीरता। 
विद्वता का पर्याय समझे जाने वाली  यह मनोवृत्ति जीवन की सहजता में  बाधा डालती है। व्यक्ति सहज रूप  से नाचना-हंसना भूल  जाता है और दूसरों को भी ऐसा करते देखकर उसे अचरज होता है।

चाय का प्याला



अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में स्थापित हो चुके कुछ पूर्व छात्र अपने पुराने प्रोफेसर से मिलने पहुंचे। प्रोफेसर भी शिष्यों से मिलकर खुश थे। सभी ने अपने जीवन की घटनाओं को बांटना शुरू
किया। ज्यादातर युवकों के जीवन में व्यक्तिगत या कारोबारी समस्याएं थीं। एक दूसरे की तनावग्रस्त और मुश्किल जिंदगी का हाल सुनकर खुशनुमा माहौल खामोश उदासी में बदल गया। उन सबके वर्तमान जीवन की उलझनों को सुनने के बीच ही प्रोफेसर ने स्वयं उठकर उनके लिए चाय बनाई और एक बड़ी-सी प्लेट में एक केतली में चाय और आठ-दस खाली कप लेकर वे रसोईघर से उसे लेकर आए। प्लेट में रखे सारे खाली कप एक जैसे नहीं थे। उनमें मिट्टी के कुल्हड़ से लेकर साधारण चीनी मिट्टी के कप, चांदी की परत चढ़े कप, कांच, धातु, और क्रिस्टल के सुंदर कप शामिल थे।  कुछ कप बहुत सादे और अनगढ़ थे और कुछ बहुत अलंकृत और सुरुचिपूर्ण। यकीनन उनमें कुछ कप सस्ते और राजसी थे। प्रोफेसर ने अपने गिलास में चाय ली और सभी शिष्यों से कहा कि वे भी अपने लिए चाय ले लें। जब सभी चाय पीने में मशगूल थे तब प्रोफेसर ने उनसे कहा- क्या तुमने ध्यान दिया कि तुम सभी ने महंगे और दिखावटी कप में चाय ली और प्लेट में सस्ते और सादे कप ही बचे रह गए? शायद तुम्हारे इस चुनाव का संबंध तुम्हारे जीवन में चल रहे तनाव और तकलीफों से भी है।  क्या तुम इस बात से इंकार कर सकते हो कि कप के बदल जाने से चाय की गुणवत्ता और स्वाद प्रभावित नहीं होती। तुम्हें चाय का जायका और लज्जत चाहिए, लेकिन अवचेतन में तुम सबने दिखावटी कप ही चुने। जिंदगी इस चाय की तरह है। नौकरी-कारोबार, घर-परिवार, पैसा और सामाजिक स्थिति कप के जैसे हैं। इनसे तुम्हारी जिंदगी की असलियत और उसकी उत्कृष्टता का पता नहीं चलता। जीवन के उपहार तो सर्वत्र मुफ्त ही उपलब्ध है।  यह तुम पर ही निर्भर करता है कि तुम उन्हें कैसे पात्र में ग्रहण करना चाहते हो?
दिल से... 
जीवन में अहम खुशी-शांति, आनंद हैं। हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य भी इसी के लिए है।  जानकारों का कहना है कि खुशी या सुकून का सोता हमारे भीतर ही है, लेकिन व्यक्ति इन्हें बाहर खोजता है। साधन कब साध्य बन जाता है उसे पता नहीं चलता...

25 February 2012

माहिर से इक्कीस साबित होते नौसिखिए


अगर यह कहा जाए कि आस्ट्रेलिया की उछाल लेती पिच पर, जहां सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग जैसे धुरंधर बल्लेबाज जीरो पर आउट होकर जा चुके हैं, वहां किसी दीगर क्षेत्र का कोई गैरपेशेवर नौसिखिया खिलाड़ी सेंचुरी ठोक दिया... तो किसी को भी स्वाभाविक हैरानी होगी। होगी कि नहीं...
sonia in road show
लेकिन यह देखने में आया है कि क्षेत्र विशेष में दूसरी पृष्ठभूमि का व्यक्ति स्थापित लोगों के मुकाबले ज्यादा बेहतर रिजल्ट देता है।  मिसाल के तौर पर सोनिया गांधी को लीजिए। कांग्रेस के बीते दो-ढाई दशक का उन्हें सबसे कामयाब कांग्रेस अध्यक्ष माना जाता है। एक आम गृहिणी, गैरराजनीतिक पृष्ठभूमि की महिला... जिसका राजनीतिक दांव-पेंच से पहले कोई वास्ता नहीं था। जो भारतीय सियासत के पेंचो-खम से पूरी तरह नावाकिफ थी। लेकिन वही सोनिया कांग्रेस के कई नामी दिग्गजों से, जमीन से जुड़े, तमाम तरह के ज्ञान और अनुभव से भरेे नरसिम्हाराव, सीताराम केसरी जैसे नेताओं से बेहतर साबित होती हैं।
यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस को फिर से खड़ा करने में सोनिया का बहुत बड़ा हाथ है। राजीव गांधी के निधन के बाद, 90-95 के दौर में कांग्रेसियों के आपसी भितरघात से घिरी कांग्रेस दम तोडऩे की कगार पर थी, जिसे समय-समय पर भंग करने की सलाहें छपती थीं। कांग्रेस छोड़कर जा चुके नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज कांग्रेसियों को दोबारा कांग्रेस में लाकर पार्टी में जान फूंकने का सोनिया ने ही किया था।
katreena kaif
इसी तरह, अभिनेत्री कैटरीना कैफ भी आज स्थापित हो चुकी हैं। ठीक से हिंदी न बोल पाने वाली, भारतीय फिल्म, अभिनय, नृत्य सभी से एक समय अनजान रही, ब्रिटेन में पली-बढ़ी यह हीरोइन अनेक देसी बालाओं पर आज भारी है। आइटम सांग से लेकर रोमांटिक-कॉमेडी रोल के लिए बड़े-बड़े बैनर उस पर दांव लगाना पसंद करते हैं। सच तो यह है कि लारा दत्ता, दीया मिर्जा, प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, असिन, सयाली भगत, नेहा धूपिया जैसी उसकी समकालीन हीरोइनों में एक-दो छोड़कर बाकी का तो कैरियर ही नहीं बन पाया है। ऐसे ही एक मीडिया ग्रुप ने एक दवाई कंपनी के एरिया मैनेजर को अपना मार्केटिंग जीएम बनाया था और उस पूर्व एरिया मैनेजर ने कमाल करते हुए अनेक पूर्व जीएम से बेहतर नतीजे दिए थे।
तो आखिर ऐसा क्योंकर होता है? किसी दीगर पृष्ठभूमि का व्यक्ति तकनीकी ज्ञान व अनुभव  से भरे लोगों से बेहतर नतीजे कैसे दे पाता है?
इसकी एक ठोस वजह जो नजर आती है, वो ये कि 'बाहरी व्यक्तिÓ में खुद को साबित करने का दबाव कहीं ज्यादा रहता है। जाहिर है दूसरे क्षेत्र के व्यक्ति के दखल को कोई भी सामान्यत: सकारात्मक रूप से नहीं लेता। उसकी क्षमताओं पर संदेह किया जाता है। उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उलाहने-ताने दिए जाते हैं। उसका अपमान किया जाता है। खुद उस 'बाहरी व्यक्तिÓ के भीतर कहीं-न-कहीं असुरक्षाबोध रहता है। लिहाजा ये सब चीजें उसकी प्रेरक शक्ति बन जाती हैं, उसके भीतर खुद को साबित करने का जस्बा पैदा होने लगता है। और वह अपना सौ फीसदी देने लगता है। उसकी उद्देश्य पर ही नजर रहती है। उसकी चेतना एक कतार पर आ जाती है। लगन, मेहनत, समर्पण, कोशिश जैसी तमाम चीजें उसके पीछे कहीं एक कतार में आने लगती हैं। इसके विपरीत, उस क्षेत्र विशेष के लोगों में क्षमताओं- सुविधाओं के चलते एक तरह की लापरवाही, बिंदासपन रहता है, खुद को साबित करने का दबाव अपेक्षाकृत कम रहता है। इसीलिए वे शायद अपना सौ फीसदी देने से रह जाते हैं और 'बाहरी व्यक्तिÓ के सामने फीके पड़ जाते हैं।
सोनिया की क्षमताओं पर भी शुरुआत में संदेह किया गया था, कैटरीना का भी काफी मखौल उड़ाया गया था। लेकिन बाद इन्होंने खुद को साबित किया है। लिहाजा यह
कहकर कि वह राजनीति का 'रÓ, फिल्म का 'फÓ या पत्रकारिता का 'पÓ नहीं जानता खारिज करना बिलकुल गलत होगा। जरूरत इन बाहरी पृष्ठभूमि के लोगों के लिए अपनी सोच का दरवाजा खोलने की है। हो सकता है उसके पास ऐसा कोई नया विचार, नई योजना हो जो पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के व्यक्ति के पास न हो। उसके प्रति लचीला रुख रखने का एक कारण और भी है कि हर व्यक्ति शुरुआत में तो 'बाहरीÓ ही होता है, चाहे व किसी क्षेत्र विशेष का विशेषज्ञ ही क्यों न हो? 
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इसी आर्टिकल को दूसरे अंदाजे बया के साथ भी पढ़ सकते हैं...

माहिर को मात दे देते हैं नए-नवेले
कैटरीना कैफ आज उस मुकाम पर हैं, जिससे किसी भी हीरोइन को रश्क हो सकती है। अग्निपथ पर उनके आइटम डांस को सराहा जा रहा है। शाहरुख-सलमान जैसे बड़े एक्टर के साथ वे फिल्में कर रही हैं। यश चोपड़ा, संजय लीला भंसाली जैसे कई बड़े फिल्मकार उन पर दांव लगाना घाटे का सौदा नहीं मानते हैं। कैटरीना के सामने अनेक देसी बालाएं आज फीकी नजर आती हैं। सच तो यह है कि लारा दत्ता, दीया मिर्जा, प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, असिन, सयाली भगत, नेहा धूपिया जैसी समकालीन हीरोइनों में एक-दो को छोड़कर बाकी का तो कैरियर ही ढलान पर है।
 कश्मीरी पिता और ब्रिटिश माता की संतान कैटरीना का टिकना कई मायनों में खास है। यह धारा के विपरीत मिली जीत है। खतरनाक पिच पर, जहां तेंदुलकर-सहवाग जैसे धुरंधर जीरो पर आउट होकर जा चुके हों, वहां कोई नौसिखिया-गैरपेशेवर खिलाड़ी आकर सेंचुरी ठोक दे... यह ऐसा ही मामला है। जब कैटरीना ने बॉलीवुड में करियर शुरू किया, तो सिवाय इच्छाशक्ति के उसके पास कुछ भी न था। न उसे हिंदी आती थी, न अभिनय का ज्ञान। ऊपर से क्षमताओं-योग्यताओं पर उठती उंगलियां... कदम-कदम पर डसने को तैयार बैठी संदेह भरी निगाहें। बॉलीवुड में चलना, नट की रस्सी पर चलने जैसा है। जहां चलते रहने पर तो तालियां मिलती हैं, लेकिन गिरने पर हंसी उड़ाई जाती है। सफलता के हाथ में जाम आता है, हार के हिस्से में अपमान का घूंट।
बहरहाल ये तमाम विषमताएं ही जैसे इस विदेशी बाला की प्रेरणा बन गईं। भीतर एक आग-सी जल उठी। खुद को साबित करने की जिद पैदा हो गई। और अगर यह हो जाए, तो फिर बचता ही क्या है। यही तो वह प्रेरक शक्ति है, जो व्यक्ति को सौ फीसदी देने के लिए तैयार करती है। उसके बाद तो सबकुछ पीछे-पीछे एक कतार में आ लगता है... लगन, मेहनत, समर्पण आदि। मजे की बात यह है कि जब क्षमताओं पर संदेह हो, अस्मिता पर चोट हो, तो व्यक्ति की प्रेरक शक्ति जल्दी जागती है। मानो इंसान के भीतर का घोड़ा इतना ढीट है कि वह पुचकारने से नहीं, चाबुक की मार से ही दौड़ता है। इंसानी मन फूल से ज्यादा कांटों का असर लेता है।
वैसे हर 'बाहरीÓ यानी दूसरी पृष्ठभूमि के व्यक्ति की यही नियति है। उसे उलाहना-अपमान सहना पड़ता है, खुद को साबित करने, ज्यादा जद्दोजहद करना पड़ता है। भारत के प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार की कुलवधू सोनिया गांधी भी इसकी अपवाद नहीं हैं। अद्भुत जीवटता से उन्होंने खुद की सार्थकता साबित की है। कभी राजनीति के ककहरा से अनजान सोनिया, नरसिहाराव, सीताराम केसरी जैसे माहिर खिलाडिय़ों से बेहतर साबित हुई हैं। वे कांग्रेस की बीते दो दशक की सबसे कामयाब पार्टी अध्यक्ष मानी जाती हैं।
वैसे सोनिया या कैटरीना की सफलता सांयोगिक नहीं है। सच तो यह है कि 'बाहरीÓ व्यक्ति ही आश्चर्यजनक रूप से, क्षेत्र विशेष में स्थापित लोगों के मुकाबले, बेहतर नतीजे देते हैं। खेल प्रशासक के रूप में धाक जमा चुके, 98 से फीफा अध्यक्ष सेप ब्लेटर ने कभी फुटबाल नहीं खेली। 2001 से ओलिंपिक खेलों के मुखिया बने जैक्स रोगे भी मूलत: सर्जन हैं। असल में पुराने या स्थापित व्यक्ति का मन बंधी-बंधायी लीक पर चलता है, फार्मूला-बेस्ड तरीके से काम करता है, जबकि 'नएÓ की आंख में ताजगी होती है। वो वह सब देख लेती हैं, जिससे 'पुरानेÓ चूक जाते हैं।
लेकिन इंसानी अहंकार की हद देखिए कि इन 'बाहरीÓ लोगों को यह कहकर खारिज करने की कोशिश होती है कि उन्हें राजनीति का 'रÓ या खेल का 'खÓ नहीं आता। लोग यह भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति शुरुआत में तो 'बाहरीÓ ही होता है, नौसिखिया ही होता है....और सफलता का रसायन, आबे जमजम... अलग ही चीज है।

पसंदीदा आर्टिकल : सरदेसाई के बहाने...

काफी दिन पहले राजदीप सरदेसाई का एक बढिय़ा आर्टिकल पढ़ा था।  नए भारत का फार्मूला वन... शीर्षक वाले इस लेख में कॉमनवेल्थ गेम्स से फार्मूला वन ग्रांपी रेस की तुलना करते हुए उनकी सफलता-असफलता के कारणों की पड़ताल की गई थी। आर्टिकल को जिस जगह ले जाकर खत्म किया गया था, वह बहुत ही विचारोत्तेजक और दिल खुश करने वाला बिंदु था। इस आर्टिकल में कई आयाम हैं। दोनों आयोजनों के अलग-अलग क्षेत्रों पर पडऩे वाले समग्र प्रभाव का चिंतन किया गया है।
अब तक पढ़े सामयिक मसलों पर आधारित लेखों में यह मेरा सबसे पसंदीदा आर्टिकल है। इस लेख में सरदेसाई जी का विश्लेषण बहुत ही लाजवाब है। उनकी भाषा भी वेदप्रकाश वैदिक की तरह ही पांडित्यरहित है। सरदेसाई की संवेदनाएं मुझे शुरू से आकर्षित करती हैं। वे धारा के विपरीत बह रहे ऐसे सत्य को, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया है, उसे दिखाते हैं। आमधारणा, विचारों की भेड़चाल को बदलने की कोशिश करते हैं। यह उनकी खासियत है, जो बहुत कम लेखकों में होती है। मुझे याद नहीं पड़ता इस तरह का क्रांतिकारी निष्कर्ष देने का वाला लेखन, भास्कर के संपादकीय में मैंने, उनके अलावा और किसी दीगर लेखक की कलम में नियमित रूप से पाया हो। यह ऐसी चीज है, जिसमें वे वैदिक जी सहित तमाम कॉलमनिस्ट पर भारी पड़ते हैं।
हां, वे तथ्यों और उदाहरणों का ज्यादा इस्तेमाल करते हंै। यही एक वजह है, जिसके चलते मेरा मन उन्हें वैदिक जी से एक पायदान नीचे रखता है। दरअसल, तथ्यों और उदाहरणों के ज्यादा इस्तेमाल से मुझे ऐसा महसूस होता है कि कोई बिल्डिंग ढेर सारे पिल्लरों के सहारे खड़ी हुई है। जाहिर है, इस तरह के आर्टिकल में लेखक को तथ्यों और उदाहरणों के लिए बाहरी तैयारी पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है। बाहरी तौर पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। यह चीज मेरे भीतर एक तनाव को पैदा करती है (शायद और लेखकों के भीतर भी ऐसे एहसास जगते हों) ज्यादा तथ्य या उदाहरण, मुझे आर्टिकल रूपी बिल्डिंग में ढेर सारी जुड़ाई यानी एक तरह की कमजोरी (कमजोरी शब्द का मतलब यहां कंटेट की कमजोरी से नहीं, बल्कि एहसास के तौर पर है) को दिखाते हैं। इसके विपरीत वैदिक जी का आर्टिकल मुझे ज्यादा अखंड, कम जुड़ाई वाली बिल्डिंग ज्यादा मजबूत (मजबूत शब्द का मतलब यहां कंटेट के अर्थ में नहीं बल्कि एहसास के तौर पर लिया गया है) मालूम पड़ता है।
वैसे मुझे प्रीतीश नंदी की संवेदनाएं भी आकर्षित करती हैं। उनका मन जीवन से जुड़े मसलों का ज्यादा असर लेता है। इसी तरह खुशवंत सिंह के लेखन की सादगी (कभी-कभी जरूरत से ज्यादा) भी पसंद आती है। इनके अलावा गोपाल गांधी और चेतन भगत भी मुझे रुचिकर लगते हैं, लेकिन कभी-कभी भगत जरा ज्यादा उपदेशक होने लगते हैं।
सबसे ज्यादा शिकायत मुझे मृणाल पांडे से रहती है। उनके लेख के मसलों-संवेदनाओं में पर्याप्त रुचि होने के बावजूद, जाने क्यूं उनका लेखन मुझे पांडित्य दिखाने की कोशिश ज्यादा लगता है। भारी-भरकम शब्दों का उपयोग, पांच-छह लाइन के बाद एक फुलस्टॉप.... आप किस लिए लिख रहे हैं भाई...? पंडिताई दिखाने या लोगों तक अपनी बात ज्यादा-से-ज्यादा पहुंचाने, खुद सोचिए। मृणाल पांडे की तरह भारी-भरकम शब्दों वाला लेखन (भास्कर के संडे जैकेट में प्रकाशित होने वाले लेख) मो. अकबर का भी है। इसके साथ ही वे पेंचो-खम के साथ, घुमावदार अंदाज में भी बातें करते हैं। पर पता नहीं क्यों ये सब उनकी स्टाइल लगती है, न कि केवल पांडित्य दिखाने की कवायद।  इनके अलावा और दूसरे राइटर भी हैं, जिनके लेख के विषय या तो मेरी रुचि के नहीं हैं, या फिर वे मेरी समझ के बाहर हैं।
बहरहाल, सरदेसाई के बहाने बड़े-बड़े लोगों के बारे में अपने सहज उद्गार जो भीतर कहीं खौलते रहते थे, उसे उड़ेल दिया... मुझे नहीं पता मेरे मत से कितने सहमत होंगे... मेरे एहसास दूसरों के भी सगे हैं या नहीं। लेकिन ये मेरी संवेदनाओं का पंछी है, जिसने बिना किसी परवाह के उड़ान भरी है...
(नीचे सरदेसाई जी के ... नए भारत का फार्मूला वन... आर्टिकल की लिंक दी जा रही है। उसके नीचे उनके अन्य आर्टिकल की लिंक वाले पेज की लिंक होगी)

पसंदीदा कॉलमनिस्ट


 मेरे पसंदीदा कॉलमनिस्ट में वेदप्रकाश वैदिक का नाम अव्वल है। उनके बाद राजदीप सरदेसाई भी मुझे बहुत भाते हैं। वैदिक जी का किसी भी मुद्दे पर विश्लेषण बहुत ही जबरदस्त है। वे लेखन के लिए जिस तरह के मुद्दे चुनते हैं वे आमतौर पर दिलचस्प होते हैं। विदेश मामलों में तो उनकी पकड़ लाजवाब है ही, इसके इतर वे भारतीय जनमानस को आंदोलित करने वाले मसलों पर भी साधिकार लिखते हंै और बहुत बढिय़ा लिखते हैं। एक बार फिर कहना पड़ रहा है कि उनका विश्लेषण बहुत ही सहज होता है। इसके बाद भाषा का चयन... इसमें भी वे सरल, बोधगम्य भाषा का उपयोग करते हैं। उनके किसी भी आर्टिकल को पढि़ए, आपको कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि वे पांडित्य दिखाने के लिए लेखन कर रहे हैं।
चुनाव सुधारों पर बेतुकेपन का पर्दा, अफसरों का ही मरण क्यों?... सामाजिक सद्भाव या तनाव?, लोकपाल का भविष्य क्या?, लोकायुक्त पर बुरे फंसे... जैसे भारत के ज्वलंत मसलों पर जुड़े आर्टिकल तथा भारत का कूटनीतिक दांव, उत्तर कोरिया में पट परिवर्तन, लीबिया की बगावत के मायने, अफगान की अबूझ पहेली, पश्चिम में पैर पसारता दक्षिण पंथ, परमाणु मोहभंग का मौका... जैसे विदेशी मामलों से जुड़े लेख भी समय-समय पर भास्कर के संपादकीय पेज में प्रकाशित हुए हैं।  इन आर्टिकलों के लिंक वाले पेज की लिंक यहां नीचे दी जा रही है...
http://www.bhaskar.com/abhivyakti/hamare_columnists/ved_pratap_vaidik/

24 February 2012

पाकिस्तान

http://www.bhaskar.com/article/ABH-pakistan-islam-is-a-fake-like-2892182.html
  पाकिस्तान पर पिछले दिनों एक दिलचस्प लेख पढऩे को मिला। वेदप्रकाश वैदिक जी का लिखा हुआ यह लेख पिछले दिनों भास्कर में प्रकाशित हुआ था। इसका लिंक ऊपर दिया गया है। 
पाकिस्तान पर पिछले दिनों एक दिलचस्प लेख पढऩे को मिला। वेदप्रकाश वैदिक जी का लिखा हुआ यह लेख पिछले दिनों भास्कर में प्रकाशित हुआ था। इसका लिंक ऊपर दिया गया है।

शरीर

एक स्वस्थ शरीर आत्मा के लिए अतिथिशाला के समान है और अस्वस्थ शरीर बंदीगृह के समान।

14 February 2012

पत्नी- मैंने तुम्हें देखे
बिना शादी के लिए हां कर दी थी। है ना, कितनी
 हिम्मत की बात।
पति- मैंने तो तुम्हें
 देखकर भी हां कर दी थी। यह कम हिम्मत का काम
 है क्या...?

सच्चा फकीर

हद में रहे सो औलिया,  बेहद सो पीर
हद-बेहद के पार जो, वो ही सच्चा फकीर