25 February 2012

माहिर से इक्कीस साबित होते नौसिखिए


अगर यह कहा जाए कि आस्ट्रेलिया की उछाल लेती पिच पर, जहां सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग जैसे धुरंधर बल्लेबाज जीरो पर आउट होकर जा चुके हैं, वहां किसी दीगर क्षेत्र का कोई गैरपेशेवर नौसिखिया खिलाड़ी सेंचुरी ठोक दिया... तो किसी को भी स्वाभाविक हैरानी होगी। होगी कि नहीं...
sonia in road show
लेकिन यह देखने में आया है कि क्षेत्र विशेष में दूसरी पृष्ठभूमि का व्यक्ति स्थापित लोगों के मुकाबले ज्यादा बेहतर रिजल्ट देता है।  मिसाल के तौर पर सोनिया गांधी को लीजिए। कांग्रेस के बीते दो-ढाई दशक का उन्हें सबसे कामयाब कांग्रेस अध्यक्ष माना जाता है। एक आम गृहिणी, गैरराजनीतिक पृष्ठभूमि की महिला... जिसका राजनीतिक दांव-पेंच से पहले कोई वास्ता नहीं था। जो भारतीय सियासत के पेंचो-खम से पूरी तरह नावाकिफ थी। लेकिन वही सोनिया कांग्रेस के कई नामी दिग्गजों से, जमीन से जुड़े, तमाम तरह के ज्ञान और अनुभव से भरेे नरसिम्हाराव, सीताराम केसरी जैसे नेताओं से बेहतर साबित होती हैं।
यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस को फिर से खड़ा करने में सोनिया का बहुत बड़ा हाथ है। राजीव गांधी के निधन के बाद, 90-95 के दौर में कांग्रेसियों के आपसी भितरघात से घिरी कांग्रेस दम तोडऩे की कगार पर थी, जिसे समय-समय पर भंग करने की सलाहें छपती थीं। कांग्रेस छोड़कर जा चुके नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज कांग्रेसियों को दोबारा कांग्रेस में लाकर पार्टी में जान फूंकने का सोनिया ने ही किया था।
katreena kaif
इसी तरह, अभिनेत्री कैटरीना कैफ भी आज स्थापित हो चुकी हैं। ठीक से हिंदी न बोल पाने वाली, भारतीय फिल्म, अभिनय, नृत्य सभी से एक समय अनजान रही, ब्रिटेन में पली-बढ़ी यह हीरोइन अनेक देसी बालाओं पर आज भारी है। आइटम सांग से लेकर रोमांटिक-कॉमेडी रोल के लिए बड़े-बड़े बैनर उस पर दांव लगाना पसंद करते हैं। सच तो यह है कि लारा दत्ता, दीया मिर्जा, प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, असिन, सयाली भगत, नेहा धूपिया जैसी उसकी समकालीन हीरोइनों में एक-दो छोड़कर बाकी का तो कैरियर ही नहीं बन पाया है। ऐसे ही एक मीडिया ग्रुप ने एक दवाई कंपनी के एरिया मैनेजर को अपना मार्केटिंग जीएम बनाया था और उस पूर्व एरिया मैनेजर ने कमाल करते हुए अनेक पूर्व जीएम से बेहतर नतीजे दिए थे।
तो आखिर ऐसा क्योंकर होता है? किसी दीगर पृष्ठभूमि का व्यक्ति तकनीकी ज्ञान व अनुभव  से भरे लोगों से बेहतर नतीजे कैसे दे पाता है?
इसकी एक ठोस वजह जो नजर आती है, वो ये कि 'बाहरी व्यक्तिÓ में खुद को साबित करने का दबाव कहीं ज्यादा रहता है। जाहिर है दूसरे क्षेत्र के व्यक्ति के दखल को कोई भी सामान्यत: सकारात्मक रूप से नहीं लेता। उसकी क्षमताओं पर संदेह किया जाता है। उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उलाहने-ताने दिए जाते हैं। उसका अपमान किया जाता है। खुद उस 'बाहरी व्यक्तिÓ के भीतर कहीं-न-कहीं असुरक्षाबोध रहता है। लिहाजा ये सब चीजें उसकी प्रेरक शक्ति बन जाती हैं, उसके भीतर खुद को साबित करने का जस्बा पैदा होने लगता है। और वह अपना सौ फीसदी देने लगता है। उसकी उद्देश्य पर ही नजर रहती है। उसकी चेतना एक कतार पर आ जाती है। लगन, मेहनत, समर्पण, कोशिश जैसी तमाम चीजें उसके पीछे कहीं एक कतार में आने लगती हैं। इसके विपरीत, उस क्षेत्र विशेष के लोगों में क्षमताओं- सुविधाओं के चलते एक तरह की लापरवाही, बिंदासपन रहता है, खुद को साबित करने का दबाव अपेक्षाकृत कम रहता है। इसीलिए वे शायद अपना सौ फीसदी देने से रह जाते हैं और 'बाहरी व्यक्तिÓ के सामने फीके पड़ जाते हैं।
सोनिया की क्षमताओं पर भी शुरुआत में संदेह किया गया था, कैटरीना का भी काफी मखौल उड़ाया गया था। लेकिन बाद इन्होंने खुद को साबित किया है। लिहाजा यह
कहकर कि वह राजनीति का 'रÓ, फिल्म का 'फÓ या पत्रकारिता का 'पÓ नहीं जानता खारिज करना बिलकुल गलत होगा। जरूरत इन बाहरी पृष्ठभूमि के लोगों के लिए अपनी सोच का दरवाजा खोलने की है। हो सकता है उसके पास ऐसा कोई नया विचार, नई योजना हो जो पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के व्यक्ति के पास न हो। उसके प्रति लचीला रुख रखने का एक कारण और भी है कि हर व्यक्ति शुरुआत में तो 'बाहरीÓ ही होता है, चाहे व किसी क्षेत्र विशेष का विशेषज्ञ ही क्यों न हो? 
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इसी आर्टिकल को दूसरे अंदाजे बया के साथ भी पढ़ सकते हैं...

माहिर को मात दे देते हैं नए-नवेले
कैटरीना कैफ आज उस मुकाम पर हैं, जिससे किसी भी हीरोइन को रश्क हो सकती है। अग्निपथ पर उनके आइटम डांस को सराहा जा रहा है। शाहरुख-सलमान जैसे बड़े एक्टर के साथ वे फिल्में कर रही हैं। यश चोपड़ा, संजय लीला भंसाली जैसे कई बड़े फिल्मकार उन पर दांव लगाना घाटे का सौदा नहीं मानते हैं। कैटरीना के सामने अनेक देसी बालाएं आज फीकी नजर आती हैं। सच तो यह है कि लारा दत्ता, दीया मिर्जा, प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, असिन, सयाली भगत, नेहा धूपिया जैसी समकालीन हीरोइनों में एक-दो को छोड़कर बाकी का तो कैरियर ही ढलान पर है।
 कश्मीरी पिता और ब्रिटिश माता की संतान कैटरीना का टिकना कई मायनों में खास है। यह धारा के विपरीत मिली जीत है। खतरनाक पिच पर, जहां तेंदुलकर-सहवाग जैसे धुरंधर जीरो पर आउट होकर जा चुके हों, वहां कोई नौसिखिया-गैरपेशेवर खिलाड़ी आकर सेंचुरी ठोक दे... यह ऐसा ही मामला है। जब कैटरीना ने बॉलीवुड में करियर शुरू किया, तो सिवाय इच्छाशक्ति के उसके पास कुछ भी न था। न उसे हिंदी आती थी, न अभिनय का ज्ञान। ऊपर से क्षमताओं-योग्यताओं पर उठती उंगलियां... कदम-कदम पर डसने को तैयार बैठी संदेह भरी निगाहें। बॉलीवुड में चलना, नट की रस्सी पर चलने जैसा है। जहां चलते रहने पर तो तालियां मिलती हैं, लेकिन गिरने पर हंसी उड़ाई जाती है। सफलता के हाथ में जाम आता है, हार के हिस्से में अपमान का घूंट।
बहरहाल ये तमाम विषमताएं ही जैसे इस विदेशी बाला की प्रेरणा बन गईं। भीतर एक आग-सी जल उठी। खुद को साबित करने की जिद पैदा हो गई। और अगर यह हो जाए, तो फिर बचता ही क्या है। यही तो वह प्रेरक शक्ति है, जो व्यक्ति को सौ फीसदी देने के लिए तैयार करती है। उसके बाद तो सबकुछ पीछे-पीछे एक कतार में आ लगता है... लगन, मेहनत, समर्पण आदि। मजे की बात यह है कि जब क्षमताओं पर संदेह हो, अस्मिता पर चोट हो, तो व्यक्ति की प्रेरक शक्ति जल्दी जागती है। मानो इंसान के भीतर का घोड़ा इतना ढीट है कि वह पुचकारने से नहीं, चाबुक की मार से ही दौड़ता है। इंसानी मन फूल से ज्यादा कांटों का असर लेता है।
वैसे हर 'बाहरीÓ यानी दूसरी पृष्ठभूमि के व्यक्ति की यही नियति है। उसे उलाहना-अपमान सहना पड़ता है, खुद को साबित करने, ज्यादा जद्दोजहद करना पड़ता है। भारत के प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार की कुलवधू सोनिया गांधी भी इसकी अपवाद नहीं हैं। अद्भुत जीवटता से उन्होंने खुद की सार्थकता साबित की है। कभी राजनीति के ककहरा से अनजान सोनिया, नरसिहाराव, सीताराम केसरी जैसे माहिर खिलाडिय़ों से बेहतर साबित हुई हैं। वे कांग्रेस की बीते दो दशक की सबसे कामयाब पार्टी अध्यक्ष मानी जाती हैं।
वैसे सोनिया या कैटरीना की सफलता सांयोगिक नहीं है। सच तो यह है कि 'बाहरीÓ व्यक्ति ही आश्चर्यजनक रूप से, क्षेत्र विशेष में स्थापित लोगों के मुकाबले, बेहतर नतीजे देते हैं। खेल प्रशासक के रूप में धाक जमा चुके, 98 से फीफा अध्यक्ष सेप ब्लेटर ने कभी फुटबाल नहीं खेली। 2001 से ओलिंपिक खेलों के मुखिया बने जैक्स रोगे भी मूलत: सर्जन हैं। असल में पुराने या स्थापित व्यक्ति का मन बंधी-बंधायी लीक पर चलता है, फार्मूला-बेस्ड तरीके से काम करता है, जबकि 'नएÓ की आंख में ताजगी होती है। वो वह सब देख लेती हैं, जिससे 'पुरानेÓ चूक जाते हैं।
लेकिन इंसानी अहंकार की हद देखिए कि इन 'बाहरीÓ लोगों को यह कहकर खारिज करने की कोशिश होती है कि उन्हें राजनीति का 'रÓ या खेल का 'खÓ नहीं आता। लोग यह भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति शुरुआत में तो 'बाहरीÓ ही होता है, नौसिखिया ही होता है....और सफलता का रसायन, आबे जमजम... अलग ही चीज है।

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