27 February 2012

चाय का प्याला



अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में स्थापित हो चुके कुछ पूर्व छात्र अपने पुराने प्रोफेसर से मिलने पहुंचे। प्रोफेसर भी शिष्यों से मिलकर खुश थे। सभी ने अपने जीवन की घटनाओं को बांटना शुरू
किया। ज्यादातर युवकों के जीवन में व्यक्तिगत या कारोबारी समस्याएं थीं। एक दूसरे की तनावग्रस्त और मुश्किल जिंदगी का हाल सुनकर खुशनुमा माहौल खामोश उदासी में बदल गया। उन सबके वर्तमान जीवन की उलझनों को सुनने के बीच ही प्रोफेसर ने स्वयं उठकर उनके लिए चाय बनाई और एक बड़ी-सी प्लेट में एक केतली में चाय और आठ-दस खाली कप लेकर वे रसोईघर से उसे लेकर आए। प्लेट में रखे सारे खाली कप एक जैसे नहीं थे। उनमें मिट्टी के कुल्हड़ से लेकर साधारण चीनी मिट्टी के कप, चांदी की परत चढ़े कप, कांच, धातु, और क्रिस्टल के सुंदर कप शामिल थे।  कुछ कप बहुत सादे और अनगढ़ थे और कुछ बहुत अलंकृत और सुरुचिपूर्ण। यकीनन उनमें कुछ कप सस्ते और राजसी थे। प्रोफेसर ने अपने गिलास में चाय ली और सभी शिष्यों से कहा कि वे भी अपने लिए चाय ले लें। जब सभी चाय पीने में मशगूल थे तब प्रोफेसर ने उनसे कहा- क्या तुमने ध्यान दिया कि तुम सभी ने महंगे और दिखावटी कप में चाय ली और प्लेट में सस्ते और सादे कप ही बचे रह गए? शायद तुम्हारे इस चुनाव का संबंध तुम्हारे जीवन में चल रहे तनाव और तकलीफों से भी है।  क्या तुम इस बात से इंकार कर सकते हो कि कप के बदल जाने से चाय की गुणवत्ता और स्वाद प्रभावित नहीं होती। तुम्हें चाय का जायका और लज्जत चाहिए, लेकिन अवचेतन में तुम सबने दिखावटी कप ही चुने। जिंदगी इस चाय की तरह है। नौकरी-कारोबार, घर-परिवार, पैसा और सामाजिक स्थिति कप के जैसे हैं। इनसे तुम्हारी जिंदगी की असलियत और उसकी उत्कृष्टता का पता नहीं चलता। जीवन के उपहार तो सर्वत्र मुफ्त ही उपलब्ध है।  यह तुम पर ही निर्भर करता है कि तुम उन्हें कैसे पात्र में ग्रहण करना चाहते हो?
दिल से... 
जीवन में अहम खुशी-शांति, आनंद हैं। हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य भी इसी के लिए है।  जानकारों का कहना है कि खुशी या सुकून का सोता हमारे भीतर ही है, लेकिन व्यक्ति इन्हें बाहर खोजता है। साधन कब साध्य बन जाता है उसे पता नहीं चलता...

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