27 October 2016

डोनाल्ड ट्रंप : भारत के कितने दूर... कितने पास


च्राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर में पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन में जमकर प्रदर्शन हुए। यह प्रदर्शन उसी च्हिंदू सेनाज् ने किया था, जिसने 14 जून को ट्रंप के जन्मदिन पर 7 किलो का बड़ा केक काटा था। प्रदर्शन के दौरान, इसके कार्यकर्ता ट्रंप के पक्ष में नारे लगा रहे थे। उन्हें मानवता का रक्षक बता रहे थे।ज्
रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी ट्रंप के मुस्लिम विरोधी बयानों ने एक तरफ जहां उन्हें विवादित किया है, वहीं दूसरी ओर, उनकी लोकप्रियता गैर मुस्लिम देशों में बढ़ा भी दी है। और हिंदु व हिंदुस्तान की तारीफ करने के बाद, तो उनके फैन क्लब में कट्टरपंथियों के साथ-साथ अनेक भारतीय व भारतवंशी (अमेरिका में रहने वाले) भी शामिल हो गए हैं।  ट्रंप ने भारत की शान में खूब कसीदे पढ़े हैं। वे कहते हैं- 'मैं हिंदू और भारत का प्रशंसक हूं, अगर मैं चुना जाता हूं तो हिंदू समुदाय को व्हाइट हाउस में सच्चा दोस्त मिल जाएगा। हम आतंकवाद के खिलाफ  लड़ाई में भारत का साथ देंगे, सैन्य सहयोग भी मजबूत करेंगे।Ó

ट्रंप के ऐसे विचारों से अभिभूत अनेक भारतीय व च्हिंदू सेनाज् जैसे संगठन चाहते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी के इस उम्मीदवार को अमेरिका का राष्ट्रपति बनना चाहिए। तो क्या भारत हितैषी होने भर से ट्रंप, भारतीयों के नैतिक समर्थन व भारतवंशियों के वोट के हकदार बन जाते हैं? क्या किसी व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व, उसकी विचारधारा गौण हो सकती है?  कोई व्यक्ति हमारी तारीफ करता है, इसलिए उसकी सारी चीजों को नजरअंदाज कर, हमें उसे समर्थन दे देना चाहिए... या फिर कथा सम्राट प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी च्पंच-परमेश्वरज् के किरदारों (अलगू चौधरी, जुम्मन शेख) की तरह व्यक्तिगत संबंधों के ऊपर सही व न्यायोचित चीजों के साथ हो लेना चाहिए?
दरअसल, ट्रंप को लेकर दुनिया भर में वैचारिक सुनामी चल रही है। उनके बयान व उन पर लग रहे आरोपों ने विश्व समुदाय को चिंता में डाल रखा है। ट्रंप मुस्लिमों के अमेरिका-प्रवेश पर प्रतिबंध के पक्षधर हैं। वे आतंकी गतिविधियों के लिए लगातार मुस्लिमों पर आरोप लगाते रहे हैं। उन्होंने कहा है- च् वे इस समुदाय के प्रवासियों की संख्या पर रोक लगाने सीमा पर नियंत्रण व्यवस्था मजबूत करेंगे।ज्  टं्रप अनेक देशों के तनावपूर्ण रिश्तों में बारूद भरने का काम भी करते रहे हैं। उन्होंने सत्ता में आने पर विवादित येरूशलम को इजराइल की 'वास्तविकÓ राजधानी के रूप में मान्यता देने का वादा किया है। उनके इस बयान को पूर्वग्रह से प्रेरित व इजराइल-फिलिस्तीन के सुलगते रिश्तों में घी डालने वाला माना जा रहा है। इसके अलावा, इस रिपब्लिक प्रत्याशी के महिलाओं के संबंध में विचार भी शर्मसार करने वाले हैं।  च्वॉशिंगटन पोस्टÓ के पास उनका 2005 का एक वीडियो मौजूद है। इसमें वे रेडियो एवं टीवी प्रस्तोता बिली बुश के साथ बातचीत के दौरान, बिना सहमति के महिलाओं को छूने और उनके साथ यौन संबंध को लेकर बेहद अश्लील टिप्पणियां करते दिखाई दे रहे हैं।ज्
मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ने कहा है, च्व्यक्ति के विचार उसके अंतर्मन का दर्पण होते हैं और ये ही उसके भविष्य को संचालित करते हैं।ज् ट्रंप के विचार उनके भीतर बैठे तानाशाह को उजागर करते हैं, इनसे सामंती सोच पता चलती है। महिलाओं के संबंध में उनकी हरकतें उनकी अय्याश तबीयत को नुमांया करते हैं। ऐसा शख्स जो सेलेब्रिटी स्टेटस का फायदा उठाकर, पूरी बेशर्मी के साथ महिलाओं को तंग करता है।  जो महिलाओं का सम्मान करना नहीं चाहता और अपनी इच्छा पूरी करने किसी भी हद तक जा सकता है। इसी तरह, उनके मुस्लिम विरोधी विचार उस मनोवृति को दर्शाते हैं, जिससे हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह कभी शासित हुए थे। हो सकता है, सत्ता में आने पर ट्रंप भी अपने इस्लामोफोबिया के चलते पूर्वग्रह से भरे फैसले लेते चले जाएं... नए सिरे से विश्व का इतिहास लिखने की कोशिश करने लगें। आखिर, कभी नाजी तानाशाह हिटलर ने भी तो आर्य रक्त को श्रेष्ठ मानकर, दोबारा विश्व का नक्शा खींचने की कोशिश की थी... अपनी सनक भरी नफरत के चलते लाखों यहुदियों को मौत के घाट उतारा था।
इन्हीं सब वजह से संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार उच्चायुक्त जैद राद अल हुसैन सहित अनेक लोग मानते हैं- च्ट्रंप का अमेरिका जैसे च्चौधरीज् राष्ट्र का महामहिम बनने से वैश्विक शांति, सहिष्णुता कभी भी दांव पर लग सकती है।ज् इसीलिए यह सवाल उठना भी लाजमी है, क्या ट्रंप का च्भारत प्रेमज् भारत व भारतवंशियों के लिए उनके समर्थन का एकमात्र आधार हो सकता है?
खैर, इस बात को भी छोड़ दें और स्वार्थी होकर सोचें, भारतीय नजरिए को तवज्जो दें... तब भी- इसकी क्या गारंटी है कि राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप भारत के लिए मुफीद ही होंगे? हो सकता है, अब तक की उनकी बातें चुनावी शिगूफा हों, लफ्फाजी हों।  यह संदेह इसलिए है क्योंकि यह हमारा सालों का तर्जुबा रहा है। हम भारत में देखते आए हैं, चुनावी घोषणा पत्र कैसे होते हैं और उनकी कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? अमेरिका भी कोई इससे अलग नहीं है।  यहां भी अनेक चुनावी वायदे च्हाथी के दांतज् बनकर रह जाते हैं।
खैर, यह भी मान लें कि ट्रंप का भारत-प्रेम सच्चा है, अपनी बातों को लेकर वे ईमानदार हैं। लेकिन, तब भी च्कुर्सी के तकाजोंज् के चलते क्या वे भारत के हितों का ख्याल रखने की स्थिति में होंगे? क्या अमेरिका की विदेश नीति इसकी इजाजत देगी? यह चिंता भी इसीलिए सर उठा रही है क्योंकि अनेक मर्तबा यह देखने में आया है कि नीयत होते हुए भी सत्ता शीर्ष में बैठे लोग अपने वायदों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं। हमें याद करना चाहिए, 2014 के भारत के लोकसभा चुनाव... जिसमें भाजपा ने काला धन वापस लाने का वादा किया था।  लेकिन अब तक नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली पूर्ण बहुमत की सरकार इसे पूरा नहीं कर पाई है, बावजूद इसके कि यह मुद्दा भाजपा व उसकी मातृसंस्था आरएसएस की नीति, छवि व एजेंडे के अनुकूल है।
तो कुल जमा यही निष्कर्ष निकलता है, ट्रंप भारत, विश्व व खुद अमेरिका के लिए कितना उपयोगी साबित हो पाएंगे, इसमें भारी संदेह है। वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं है कि डोनाल्ड ने मौजूदा चुनाव को काफी रोचक व चटखारेदार बना दिया है। भारत में दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव से इसमें समानता भी नजर आ रही है। आपको याद ही होगा, 2014 में हमारे यहां हुआ चुनाव मोदी बनाम अन्य में तब्दील हो गया था। इसमें प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत छवि बड़ा मुद्दा थी। 2002 में हुई गुजरात हिंसा का प्रेत तब भी उनका पीछा कर रहा था।  विपक्षी नेताओं ने उन्हें च्मगरूरज्, च्मौत का सौदागरज्  च्उग्र हिंदू नेताज् बताया था। अनेक व्यक्ति-संगठन उन्हें शांति-अखंडता के लिए खतरा मानकर, उनके खिलाफ कैंपेन चला रहे थे।  कुछ लोगों ने उनके पीएम बनने पर देश छोडऩे का एलान तक कर दिया था।
कुछ इसी तरह का इस बार ट्रंप के साथ भी हो रहा है। वे भी अपनी निगेटिव छवि को लेकर सबके निशाने पर हैं। उनके बयान, उनकी हरकतें... बड़ा मुद्दा बन चुकी हैं। ये चुनाव भी जबरदस्त ध्रुवीकरण का इशारा कर रहे हैं।  काउंसिल ऑन अमेरिकन-इस्लामिक रिलेशन्स (सीएआईआर) के सर्वे के अनुसार, अमेरिका में रहने वाले 33 लाख प्रवासी मुस्लिमों में से 72 प्रतिशत ट्रंप के विरोध में हैं। ऐसा ही एकतरफा विरोधी रुख महिला मतदाताओं का भी नजर आ रहा है।
बहरहाल, मोदी तो तमाम नकारात्मक प्रचार के बावजूद, अपने आभामंडल व एंटी इन्कंबंसी की लहर पर सवार होकर न केवल धमाकेदार जीत दर्ज कर चुके हैं, बल्कि प्रधानमंत्री बनकर नए रूप ( कम आक्रामक, ज्यादा समन्वयवादी, सुलझे हुए) में भी दिखाई पड़ रहे हैं... जबकि ट्रंप अभी इम्तिहान देने बैठ रहे हैं, लोगों का विश्वास जीतने, जुगत कर रहे हैं।
अब यह तो नवंबर में होने वाले चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि डोनाल्ड ट्रंप   33 लाख प्रवासी मुस्लिमों, 34 लाख भारतवंशियों सहित 200 मिलियन अमेरिकी वोटर में कितनों का दिल जीत पाते हैं?  लेकिन एक बात तय है, उन्होंने मौजूदा चुनाव को ऐसी लड़ाई में तब्दील कर दिया है, जिससे अछूता नहीं रहा जा सकता... या तो लोग उनके साथ होंगे या उनके विरोध में... यकीनन, ये चुनाव ट्रंप के लिए परीक्षा और अमेरिका के लिए अग्नि परीक्षा साबित होने वाले हैं...
एक बात और...
एक तरफ ट्रंप के समर्थन में 'एवीजी ग्रुप ऑफ  कंपनीजÓ के अध्यक्ष भारतीय-अमेरिकी शलभ कुमार हैं, जिन्होंने उनके चुनावी अभियान में 10 लाख अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा का योगदान दिया है, तो दूसरी तरफ ट्रंप विरोधी प्रवासी नेता राज मुखजी भी हैं, जो कहते हैं- च्यदि आप असली हिंदू हैं तो आप एक मुसलमान भी हैं... आप ईसाई व यहूदी भी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इसी में मेरा समुदाय विश्वास करता है।ज्
-000000000000000000






16 October 2016

पाक कलाकारों का विरोध... नफरत, जरूरत या नियति?

बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर आधारित, मशहूर लेखिका तसलीमा नसरीन का उपन्यास च्लज्जाज् 90 के दशक में बहुत मकबूल हुआ था। इसमें सांप्रदायिकता (मुस्लिम व हिंदू दोनों) को निशाना बनाया गया था और च्बाबरी विध्वंसज् को तत्कालीन उपद्रव की प्रतिक्रिया दर्शाया गया था। लेखिका का मानना था, च्भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) की आत्मा एक है और यहां कहीं भी कुछ होगा, तो उसका असर सब तरफ फैलेगा। भारत में यदि फोड़े का जन्म होगा, तो उसके प्रभाव से पड़ोसी देश भी अछूते नहीं रहेंगे। यहां का साझा इतिहास व साझा भविष्य है।ज्
भारत में इन दिनों पाकिस्तानी कलाकारों का जो विरोध हो रहा है, वह भी एक प्रतिक्रिया ही है। उरी सेक्टर में हुए हमले के बाद, यहां लोगों में जबरदस्त गुस्सा है।  वे आतंकियों, उनके सरपरस्तों, उनसे सरोकार रखने वाली किसी भी वस्तु-व्यक्ति के प्रति सीने में अंगार लिए बैठे हैं।  यह आम लोगों के जस्बात हैं। इसे भले ही सही-गलत या तार्किक-अतार्किक कहा जा सकता है, लेकिन आम प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है, स्वस्फूर्त... खुशी या गम से तुरंत आंदोलित होने वाली...।
और क्योंकि बॉलीवुड कलाकार भी क्रिया-प्रतिक्रिया, आवेग-मनोवेग से प्रभावित होते हैं, लिहाजा वे भी इस मामले से बेअसर नहीं हैं।  नाना पाटेकर, अनुपम खेर जैसे अनेक एक्टर हैं, जो चाहते हैं... पाक कलाकारों पर बैन लगे, वे यहां से चले जाएं। हालांकि इस मामले में बॉलीवुड का एक तबका पाक कलाकारों के समर्थन में भी खड़ा है। सलमान खान, करण जौहर जैसे लोगों का कहना है- च्कलाकार आतंकी नहीं होता व कला और राजनीति को अलग रखा जाना चाहिए।ज्
तो एक तरफ तो राष्ट्रवादी भावनाएं हैं और दूसरी तरफ पाक कलाकारों के पक्ष में दिए बयान....किसे सही माना जाए?
 यकीनन, किसी भी उदारवादी, खुले दिल वाले शख्स को पाक कलाकारों के समर्थन वाले तर्क सही लगेंगे... इनसे मन सहमत भी होता है, लेकिन राष्ट्रवादी भावनाओं का क्या?  क्या इससे खुद को अलग रखा जा सकता है? उदाहरण के तौर पर अगर भारत, पाकिस्तान पर हमला करके कत्लेआम कर दे... तब भी क्या पाकिस्तानी कलाकार भारत में इस घटना का असर लिए बिना काम कर पाएंगे? क्या उनका मन भारत, भारतीयोंं के लिए कसैला नहीं होगा?
यकीनन, ऐसा ही कुछ होगा... आम पाकिस्तानी मन की यही प्रतिक्रिया होगी। आखिर इसीलिए तो उरी हमले के बाद इधर, भारत में पाक कलाकारों का विरोध हो रहा है तो उधर कराची, इस्लामाबाद के सिनेमाघरों में भारतीय फिल्मों पर रोक लगी हुई है। लाहौर के सुपर सिनेमा ने फेसबुक में लिखा था- च्हम अपनी पाक सेना के समर्थन में भारतीय फिल्मों का विरोध करते हैं।ज्
दरअसल, राष्ट्रीय हित-अहित, पसंद-नापसंद से खुद को अलग नहीं रखा जा सकता है। इस तरह की प्रतिक्रियात्मक भावनाएं स्वाभाविक रूप से उपजती हैं। लेकिन दिक्कत तब खड़ी होती है, जब ये अतिवादी रुख अख्तियार कर निर्दोष लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं। यही इसका दुखद पहलू है। लेकिन इनके साइडइफेक्ट से बचना आम इंसान के लिए आसान भी नहीं होता, इसीलिए गेहूं के साथ घुन भी पिसता चला जाता है।
वैसे, देखा जाए तो खिलाडिय़ों, कलाकारों के रिश्ते... राष्ट्रीय संबंधों के आगे उथले ही होते हैं। ये एक समय तक ही संभाले जा सकते हैं। वास्तव में, राष्ट्रगत मामलों में राजनीतिक संबंध ही केंद्र पर होते हैं, इनके बनने-बिगडऩे से सारी चीजें अपने आप प्रभावित होने लगती हैं। इसके उलट, कला, संस्कृति, व्यापार, खेल या अन्य कोई संबंध एक पक्षीय होते हैं, जिसका क्षेत्र विशेष पर ही असर रहता है।
यह ऐसा ही है, जैसे दो परिवार के मुखिया के बीच विवाद होने पर अन्य सदस्यों के आपसी ताल्लुकात प्रभावित होने लगते हैं। यदि विवाद बड़ा न हो तो बच्चों व महिलाओं के बीच बोलचाल, लेनदेन जारी भी रहता है। लेकिन बात बढऩे पर महिलाएं-बच्चे भी अपने-अपने मुखिया के साथ खड़े हो जाते हैं, या उन्हें खड़ा होना पड़ता है। जैसे लडऩे वाले दो मुखिया के परिजनों के निजी संबंध कायम नहीं रह पाते, वैसा ही हाल राष्ट्रगत मामलों में कला, खेल जैसे संबंधों का होता है। यही महिलाओं-बच्चों, कलाकारों-खिलाडिय़ों के संबंधों की नियति है। लेकिन बदकिस्मती से इनसे बचने का कोई उपाय भी मालूम नहीं पड़ता है।
वैसे, सारे पहलुओं को ताक पर रखकर निजी रिश्ते को तरजीह देना, कोई सही चुनाव नहीं है। यह एकपक्षीय नजरिया है और इस तरह का अतिवादी रुख गैरव्यवहारिक होता है। जो लोग यह कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, पाक कलाकारों पर बैन लगना ही नहीं चाहिए... उन्हें यह समझना होगा कि किसी भी फैसले के पीछे बहुत सारे कारक होते हैं। ऐसा नहीं है कि पाक कलाकारों पर बैन, नफरत या आम लोगों के प्रतिक्रियात्मक रुख की वजह से ही हो। यह कूटनीतिक दबाव बनाने या असामान्य हालात में उनकी सुरक्षा के मद्देनजर भी हो सकता है।
इसी तरह, ऐसे लोग जो पाक कलाकारों का विरोध स्थायी नफरत के चलते कर रहे हैं, उन्हें अपने पूर्वग्रह से ऊपर उठकर चीजों को खुले रूप में देखने की जरूरत है। उन्हें समझना होगा कि नफरत का बीज ही राष्ट्रवाद, जातिवाद, नस्लवाद, क्षेत्रवाद भाषावाद की आड़ में अनिवार्य फसाद का कारण बनता है... जिसकी गवाह तारीखें बनती हैं और जिसका दंश सदियों को भुगतना पड़ता है।
सच तो यह है अच्छा या बुरा किसी भी तरह का एकपक्षीय रवैया घातक ही होता है। अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दकी को मुस्लिम होने के चलते रामलीला में भाग नहीं लेने देना जितना गलत है, उतना ही गलत मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते, ममता सरकार द्वारा मुहर्रम के दिन दुर्गा विसर्जन का समय तय करना भी है। दोनों के ही दीर्घकालिक नुकसान हैं।
वास्तव में एकपक्षीय नजरिए या अतिवादी रुख से जिंदगी नहीं चल सकती है, लेकिन हम अपने मत, धारणा के इतर चीजों को उसकी पूर्णता में देखना नहीं चाहते हैं। अभी पिछले दिनों अगस्त में कुत्तों के आतंक से परेशान, केरल में 65 साल की महिला को 50 कुत्तों ने नोचकर मार डाला था। इसके बाद, राज्य  सरकार ने कुत्तों को चुनकर मारने का फैसला लिया।  सुप्रीम कोर्ट ने भी खतरा बने आवारा कुत्तों को मारना जायज ठहराया था। लेकिन पशुप्रेमी केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी किसी भी हालात में, किसी भी कुत्ते को मारने के विरोध में हैं। बेशक, पशु प्रेम अच्छी बात है, लेकिन क्या उसे इंसानियत पर तरजीह दिया जा सकता है?
मेनका गांधी या उन जैसे अतिवादियों की ऐसी सोच के चलते ही चीजें एक समय बाद खतरनाक रुख अख्तियार कर लेती हैं। व्यक्तिगत या राष्ट्रगत मामले में भी ऐसा ही होता है। शांति, प्यार, सद्भावना जैसे आदर्श भी एक समय तक... एक सीमा तक ही निबाहे जा सकते हैं... वे अंतिम लक्ष्य या साध्य नहीं बन सकते...
एक बात और...
महाभारत युद्ध के दौरान, मृत्युशैय्या पर पड़े भीष्म से चर्चा के दौरान भगवान कृष्ण ने कहा था- च् आपने शांति कायम रखने और युद्ध से बचने के लिए दुर्योधन की हर गलती हो नजरअंदाज किया था।  लेकिन न युद्ध टाला जा सका, न शांति कायम रह पाई। अगर आप दुर्योधन की नाजायज हरकतों का... महत्वाकांक्षाओं का शुरू में ही विरोध कर देते... उसे रोक देते तो शायद युद्ध नहीं होता... भरत वंश का नाश नहीं होता...
0000000000000000

04 October 2016

सारा जमाना....गोरे रंग का दीवाना.


..
च् मान्यताएं-धारणाएं कब सोच में घर कर जाती हैं, पता ही नहीं चलता। लेकिन गाहे-बगाहे, औपचारिक-अनौपचारिक मौकों पर हमारा व्यवहार-प्रतिक्रिया हमारे अवचेतन का आईना बन ही जाते हैं। ज्
हाल में टीवी शो 'कॉमेडी नाइट्स बचाओÓ में एक्ट्रेस तनिष्ठा चटर्जी के सांवले रंग को लेकर जमकर मजाक बनाया गया था। उन्हें इतना कुछ कहा गया कि वे नाराज होकर... शो बीच में छोड़कर चली गईं।  तनिष्ठा को चिढ़ाते हुए कहा गया- आपने  बचपन में जामुन बहुत खाया होगा। उनके सरनेम चटर्जी का जिक्र कर व्यंग्य किया गया कि वे ब्राह्मण होकर भी सांवली हैं।
पश्चिम से आयातित इस शो का स्वरूप इसी तरह का है। इसमें आने वाले मेहमानों की जमकर खिंचाई की जाती है।  उनकी कमियों-कमजोरियों को निशाना बनाया जाता है। तनिष्ठा के साथ जो कुछ हुआ उसकी स्क्रिप्ट भी पहले से तय होगी। माना जा सकता है, उन्हें जो कुछ कहा गया, उसके पीछे जानबूझकर अपमानित करने की नीयत नहीं होगी। शो के एंकर्स का इरादा अपनी च्स्टाइलज् में केवल कॉमेडी करना होगा।
लेकिन इसके बाद भी तनिष्ठा के रंग को लेकर किया गया तंज कहीं-न-कहीं हमारे अवचेतन में छिपे गोरे रंग के प्रति आग्रह को ही दर्शाता है।  इससे यही बात जाहिर होती है कि हम भले कितने ही खुले विचारों वाले... कितने ही विकसित हो जाएं, लेकिन हमारी सोच में कहीं-न-कहीं गौरवर्ण के लिए महीन आकर्षण बरकरार रहता है।
और इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि सोच में जड़ जमाए इस तरह के विचार हमारे व्यवहार-प्रतिक्रिया पर भी असर डालते हैं।  आखिरकार, कुछ समय पहले अभिनेत्री नंदिता दास ने सांवलेपन के कारण फिल्में न मिलने की बात कही ही थी। समानांतर सिनेमा का परिचित चेहरा कोंकणा सेन शर्मा ने भी माना था कि फिल्म इंडस्ट्री में रंग को लेकर भेदभाव होता है।  वास्तव में, त्वचा के रंग को लेकर भारतीय जनमानस में कुंठा नई बात नहीं है। आज भी गोरे रंग व गोरे लोगों को स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ माना जाता है।  आज भी हमारे यहां शादी के लिए लड़की का रंग महत्वपूर्ण पैमाना होता है। अधिकांश मां-बाप गोरी लड़कियों को ही तरजीह देते हैं।
कुछ लोग तर्क देते हैं, 150 साल तक अंग्रेजों (गोरों) की गुलामी ने हमारे भीतर  हीनभावना भर दी है। हमारे अवचेतन ने अंग्रेज, अंग्रेजी, अंग्रेजियत को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार कर लिया है। इसीलिए हमारे भीतर गोरे रंग को लेकर इतना लगाव है। यह बात कितनी सच है, यह तो नहीं पता, लेकिन गौरवर्ण के चाहने वाले सारी दुनिया में हैं।  समाजवादी कहे जाने वाले चीन में भी इसके शैदाई हैं। पिछले दिनों वहां एक विज्ञापन ने बहुत सुर्खियां बटोरी थी।  उसमें च्एक चीनी औरत एक काले आदमी को डिटर्जेंट खिलाकर वॉशिंग मशीन में डाल देती है, जिसमें धुलने के बाद वो नीग्रो गोरा होकर निकलता है। महिला यह देखकर खुश हो जाती है और मुस्करा कर उसका स्वागत करती है।ज्
इस एड की चीन में जमकर आलोचना हुई थी, इसे काले लोगों के प्रति नस्लीय रवैये का उदाहरण माना गया था। इस तरह के विज्ञापन का विरोध बिलकुल सही है।  वास्तव में, गोरे रंग के प्रति आकर्षण बहुत ही घातक है। इससे जबरदस्त विभाजन पैदा होता है।  इतिहास गवाह है, इसके चलते ही नस्लीय भेदभाव हुए हैं। टेनिस स्टार सेरेना विलियम्स, अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी से  लेकर दिवंगत बॉक्सर मोहम्मद अली, महात्मा गांधी तक इसके शिकार हो चुके हैं।  शायद, इन्हीं सब खतरे को देखकर हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रंगभेद के प्रति उदार रवैया अपनाया था और आजादी के तुरंत बाद अफ्रीकी छात्रों के लिए शिक्षण संस्थाओं के द्वार खोल दिए थे। प्राचीन हिंदू समाज भी शायद रंगभेद की गंभीरता को समझता था। इसीलिए, संभवत: हमारे अनेक देवी-देवताएं श्याम वर्ण के बताए गए हैं।
लेकिन बदकिस्मती से ये विचार हमारी सोच में जगह नहीं बना पाए। मजे की बात यह है कि हम सब, प्रत्यक्ष (चेतन ) रूप  से कई चीजों को जानते-समझते हैं, लेकिन उसके बाद भी परोक्ष  (अचेतन) रूप से हम उसे बढ़ावा देते चले जाते हैं।  जैसे, हम अच्छी तरह जानते हैं, त्वचा के रंग के लिए भौगोलिक परिवेश जिम्मेदार होते हैं। हम यह भी जानते हैं, रंग कभी भी योग्यता का पर्याय नहीं बन सकते। बावजूद इसके, हमारे अंदर गोरे होने की ललक बनी रहती है... काले रंग के प्रति कमतरी का भाव बना रहता है।
पिछले दिनों, एक मार्केट रिसर्च कंपनी ग्लोबल इंडस्ट्री एनालिस्ट इनकॉर्पोरेटेड ने दावा किया कि विश्व में 2020 तक गोरे होने वाले उत्पादों का कारोबार 23 बिलियन डॉलर्स तक जा पहुंचेगा और उसमें सबसे बड़ी भागीदारी एशियाई देशों की होगी। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि त्वचा के रंग को लेकर हमारे मन में किस तरह की हीनता, किस तरह के पूर्वग्रह हैं।
और जब तक हमारी सोच इस तरह की होगी, तब तक तनिष्ठा चटर्जी जैसे लोग अपनी त्वचा के रंग को लेकर अपमानित होते रहेंगे...
और जिस दिन हम फेयर क्रीम खरीदना बंद कर देंगे, उस दिन शायद माना जा सकेगा कि हमारा अवचेतन रंगों की गुलामी से मुक्त हो चुका है...
                                                                   एक बात और...     

कोच्चि, केरल की जया ने इस साल 26 जनवरी से 100 दिन का मिशन शुरू किया था। वे  रंगभेद को लेकर जागरुक करने रोजाना चेहरे पर कालिख पोतकर सड़कों पर घूमा करती थीं।  मांट्रियल, कनाडा में भी काली लड़कियां गोरी जितनी खूबसूरत, स्मार्ट व आकर्षक मानी जाती हैं। यहां के क्लबों में अफ्रीकन नृत्यांगनाओं को गोरी लड़कियों से ज्यादा दाम दिए जाते हैं।
000000