09 April 2012

मैडमैन- खलील जिब्रान

सीरिया में पैदा हुए चिंतक-दार्शनिक खलील जिब्रान रहस्यमयी व्यक्ति थे। उनकी बातों से किसी और लोक की, किसी अनूठे एहसास का स्वाद लेकर लौटे व्यक्ति की महक आती है।  उन्होंने मैडमैन नामक एक किताब लिखी है, जिसमें 34 प्रतीक कथाएं हैं।  इसमें उन्होंने  एक पागल आदमी के ज़रिये कथा कहलवायी है। यह पागल वस्‍तुत: एक रहस्‍यदर्शी फकीर है और वह दुनियां की नजरों में पागल है। दूसरी तरफ से देखा जाये तो वह वास्‍तव में समझदार है क्‍योंकि उसकी आँख खुल गई है...
किताब की शुरूआत पागल की जबानी से होती है। वह कहता है, ‘’तुम मुझे पूछते हो मैं कैसे पागल हुआ। वह ऐसे हुआ, एक दिन बहुत से देवताओं के जन्‍मनें के पहले मैं गहरी नींद से जागा और मैंने पाया कि मेरे मुखौटे चोरी हो गये है। वे सात मुखौटे जिन्‍हें मैंने सात जन्‍मों से गढ़ा और पहना था। मैं भीड़ भरे रास्‍तों पर यह चिल्‍लाता दौड़ा, चौर-चौर। बदमाश चौर। स्‍त्री-पुरूषों ने मेरी हंसी उड़ाई। उनमें से कुछ डर कर अपने घर में छुप गये। और जब मैं बाजार मैं पहुंचा तो छत पर खड़ा एक युवक चिल्‍लाया, ‘’यह आदमी पागल है।‘’ उसे देखने के लिए मैंने अपना चेहरा ऊपर किया ओर सूरज ने मेरे नग्‍न चेहरे को पहली बार चूमा। और मेरी रूह सूरज के प्‍यार से प्रज्‍वलित हो उठी। अब मेरी मुखौटों की चाह गिर गई।
मदहोश सा मैं चिल्‍लाया, ‘’धन्‍य है वे चोर जिन्‍होंने मेरे मुखौटे चुराये।‘’
इस प्रकार मैं पागल हुआ।
और अपने पागलपन में मुझे सुरक्षा और आजादी, दोनों मिलीं। अकेलेपन की आजादी, और कोई मुझे समझे इससे सुरक्षा। क्‍योंकि जो हमें समझते है वह हमारे भीतर किसी तत्‍व को कैद कर लेते है।
लेकिन में अपनी सुरक्षा पर बहुत नाज़ नहीं करना चाहता। कैद खाने में एक चोर भी तो दूसरे से सुरक्षित होता है।
लीजिए, पढि़ए आप भी इस किताब की चंद कहानियां और उनकी परतों को खोलने की, उनकी गहराई नापने की कोशिश कीजिए...  

घास की पात ने कहा:
पतझड़ में एक पत्‍ते से घास की पात ने कहा, ‘’तुम नीचे गिरते हुए कितना शोर मचाते हो। मेरे शिशिर स्‍वप्‍नों को बिखेर देते हो।‘’
पत्‍ता क्रोधित हो बोला, ‘’बदज़ात, माटी मिली, बेसुरी, क्षुद्र कहीं की। तू ऊंची हवाओं में नहीं रहती, तू संगीत की ध्‍वनि को क्‍या जाने।‘’
फिर वह पतझड़ का पत्‍ता जमीन पर गिरा और सो गया। जब बसंत आया वह जागा, और तब वह घास की पात था। फिर पतझड़ आया, और शिशिर की नींद से उसकी पलकें भरी हुई उपर से हवा में से पत्‍तों की बौछार हो रही थी।
वह बुदबुदायी, उफ़, ये पतझड़ के पत्‍ते कितना शोर करते है। मेरे शिशिर-स्‍वप्‍नों को बिखेर देते है।
बिजूका
मैंने एक बार बिजूके से कहा, ‘’इस एकाकी खेत में खड़े होने से तुम ऊब गये होओगे।‘’
उसने कहा, दूसरों को डराने का मजा गहरा है और लंबा टिकता है। में कभी उससे थकता नहीं।‘’
एक मिनट सोचकर मैंने कहा, सच है, मैने भी यह मजा लिया है।
उसने कहा, ‘’जिनके अंदर घास भरी होती है वह ही इसे जान सकते है।
फिर मैं वहां से चला आया। पता नहीं उसने मेरी प्रशंसा की थी या मेरा अपमान किया था।
एक साल बीत गया। इस बीच वह बिजूका दार्शनिक हो गया था। और जब में दुबारा वहां से गुजरा तो दो कौवे उसके हैट के अंदर घोंसला बना रहे थे।‘’
दूसरी भाषा
पैदा होने के तीन दिन बाद, जैसे मैं अपने रेशमी झूले में लेटा हुआ था। अपने आसपास के नए जगत को आश्‍चर्य चकित नजरों से देखता हुआ—मेरी मां ने मेरी दाई से पूछा, ‘’मेरा बेटा कैसा है?’’
दाई ने कहा, ‘’बहुत बढ़िया मादाम। मैंने उसे तीन बार दूध पिलाया। इससे पहले मैंने कभी इतने छोटे बच्‍चे को इतना प्रसन्‍न नहीं देखा था।
मुझे गुस्‍सा आया। मैं चीखा, ‘’यह सच नहीं है मां, मेरा बिस्‍तर सख्‍त है। और जो दूध मैने पिया वह कड़वा था। और उस स्‍तन की बदबू मेरी नाक में आ रही थी। और मैं बहुत दुःखी हूं।
लेकिन मेरी मां नहीं समझी, और न ही मेरी दाई। क्‍योंकि यह भाषा जो मैं बोल रहा था वह उस जगत की थी जिस जगत से मैं आया था।
मेरे जीवन के इक्‍कीसवें दिन, जब मेरा बाप्‍तिस्‍मा हो रहा था, पादरी ने मेरी मां से कहा, ‘’आपको प्रसन्‍न होना चाहिए मादाम, आपका बेटा ईसाई ही पैदा हुआ।‘’
मुझे आश्‍चर्य हुआ और मैने फादर से कहा, ‘’फिर स्‍वर्ग में तुम्‍हारी मां को दुखी होना चाहिए, क्‍योंकि तुम ईसाई नहीं पैदा हुए थे।
लेकिन मेरी भाषा पादरी की भी समझ में नहीं आई।
सात चाँद गुजर जाने के बाद एक दिन एक ज्योतिषी ने मुझे देखकर मेरी मां से कहा, ‘’आपका बेटा राजनैतिक होगा। और मनुष्‍य जाति का बड़ा नेता बनेगा।‘’
मैं चीखा, ‘’यह भविष्‍यवाणी गलत है। मैं संगीतज्ञ बनुगां। और संगीतज्ञ के अलावा कुछ भी नहीं बनुगां।‘’
लेकिन उस उम्र में मेरी भाषा किसी की भी समझ में नहीं आई। इस बात का मुझे बड़ा ही आश्‍चर्य हुआ।
तैंतीस साल के बाद—इसके दौरान मेरी मां, दाई और पादरी मर चुके थे (ईश्‍वर उनकी आत्‍मा को शांति) लेकिन ज्‍योतिषी अभी तक भी जीवित था। मैं उससे एक मंदिर के पास मिला। बात करते-करते उसने कहा, ‘’मैं हमेशा जानता था तुम एक दिन बड़े संगीतज्ञ बनोंगे। तुम छोटे थे तभी मैंने इसकी भविष्‍यवाणी कर दी थी।‘’
और मैंने उस का विश्‍वास किया क्‍योंकि अब मैं भी उस जगत की भाषा भूल गया हूं।
सूली चढ़ा–
मैंने लोगों से कहा, ‘’तुम मुझे सूली चाढ़ा दो।‘’
उन्‍होंने कहा: ‘’तुम्‍हारा खून हम अपने माथे पर क्‍यों ले।‘’
मैंने कहा: ‘’पागलों को सूली दिये बगैर तुम श्रेष्‍ठ कैसे होओगे?’’
उन्‍होंने कबूल किया और मुझे सूली दी। सूली ने मुझे शांत कर दिया। और जब मैं धरती और आसमान के बीच लटका हुआ था, मुझे देखने के लिए उन्‍होंने अपने सिर ऊपर उठाये। और वे उन्‍मत्‍त हुए क्‍योंकि उनके सिर इससे पहले कभी ऊपर नहीं उठे थे।
जब वे मेरी और देख रहे थे तो एक ने पूछा, ‘’तुम क्‍या पाने की चेष्‍टा कर रहे हो?’’
दूसरे ने कहां, ‘’किस कारण तुम अपनी बलि दे रहे हो?’’
किसी तीसरे ने पूछा, ‘’क्‍या तुम यह कीमत देकर विश्‍व ख्‍याति पाना चाहते हो?’’
चौथा बोला, ‘’देखो, देखो, वह कैसे मुस्‍कुरा रहा है, क्‍या इस पीड़ा को माफ किया जा सकता है?’’
उन सब को एक साथ जवाब देते हुए मैंने कहा, ‘’इतना याद रखो कि मैं मुस्‍कुराया। न मैं कुछ पाने की चेष्‍टा कर रहा हूं। न अपनी बलि दे रहा हूं, न ख्‍याति की अभिलाष कर रहा हूं। और मुझे कुछ भी माफ नहीं करना। मुझे प्‍यास लगी है। और मैंने विनति की थी कि तुम मुझे मेरा खून पिलाओ। पागल की प्‍यास किस से बूझेगी सिवाय उसके खून से। मैं बुद्धू था और मैंने तुमसे जख्‍म मांगे। मैं तुम्‍हारे दिन और रातों में बंद था और मैंने उनसे भी लंबे दिन और रातों में प्रवेश करने का द्वार मांगा।‘’
और अब मैं जाता हूं, ‘’जिस तरह बाकी सब सूली-चढ़े हुए गये। यह मत सोचो कि हम सूली से थक गए। क्‍योंकि हमें बड़ी से बड़ी भीड़ के हाथों सूली मिलनी चाहिए—इससे भी बड़ी धरती और आसमान के बीच।‘’
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( य कहानियां मैंने  http://oshosatsang.org/ ब्लॉग से ली हैं, जिसका मैंने पहले भी जिक्र किया है। स्वामी मनसा प्रसाद का यह ओशो को उनके विभिन्न लेखों का समर्पित यह ब्लॉग है। ओशो-प्रेमियों के लिए ओशो-साहित्य मुहैया कराने का उनका यह अवदान अमूल्य है। इसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। )

ओशो डाइनैमिक ध्‍यान

ओशो डाइनैमिक ध्‍यान–
ओशो डाइनैमिक ध्‍यान ओशो के निर्देशन में तैयार किए गए संगीत के साथ किया जाता है। यह संगीत ऊर्जा गत रूप से ध्‍यान में सहयोगी होता है और ध्‍यान विधि के हर चरण की शुरूआत को इंगित करता है। इस संगीत की सीड़ीज़ व डाउनलोड( http://www.oshoba.org/ )करने सुविधा है।
निर्देश—
डायनमिक ध्‍यान आधुनिक मनुष्‍य को ध्‍यान अपलब्‍ध करवाने के लिए ओशो के प्रमुख योगदानों में से एक है।
ओशो डाइनैमिक ध्‍यान एक घंटे का है और उसमें पाँच चरण है। इसे अकेले किया जा सकता है, लेकिन शुरूआत में इसे अन्‍य लोगों के साथ करना सहयोगी होगा। यह एक व्‍यक्‍तिगत अनुभव है, इसलिए अपने आस-पास के अन्‍य लोगों को न देखें और पूरे समय अपनी आंखे बंद रखें। बेहतर होगा कि आंखों पर पट्टी लगा लें। ध्‍यान से पहले पेट खाली हो वह ढीले: आरामदेह कपड़े पहने।( पूना में इस ध्‍यान का समय है: सुबह 6 बजे)
पहला चरण: दस मिनट
नाक से अराजक श्‍वास लें: और सारा ध्‍यान श्‍वास बाहर छोड़ने पर रखें। श्‍वास भीतर लेने का काम शरीर स्‍वयं कर लेगा। आप जितनी तीव्रता और जितनी शक्‍ति लगा सकते है लगाएँ, जब तक कि आप श्‍वास-प्रश्‍वास ही न बन जाएं। अपने शरीर की स्‍वाभाविक गतियों को ऊर्जा को चरम बिंदू तक पहुंचते हुए महसूस करें, लेकिन इस चरण में उसे सम्‍हाल कर रखें।
दूसरा चरण: दस मिनट
विस्‍फोटक हो जाएं। जो कुछ भी बाहर फेंकने जैसा हो, उसे बाहर बह जाने दें। पूरी तरह पागल हो जाएं। चीख़ें, चिल्लाइए, कुंदें, कांपे, नाचे, गाएं, हंसे, रोंए, पूरी तरह से उद्वेलित हो जाएं। कुछ भी बचा कर न रखें; पूरे शरीर को गति करने दें। अपने रेचन को शुरूआत देने के लिए प्राय: थोड़ा अभिनय सहयोगी होता है। फिर जो कुछ भी हो उससे अपने मन को हस्‍तक्षेप ने करने दें। आपके भीतर से जो कुछ भी उठ रहा है। उसे देखें। अपनी पूरी समग्रता उंडेलें।
तीसरा चरण: दस मिनट
अपने हाथों को सीधा ऊपर उठाए हुए हूं…हूं…हूं…हूं मंत्र को जितनी गहराई से हो सके उतनी गहराई से चिल्‍लाते हुए ऊपर नीचे कुंदें। हर बार जब भी आपके पैर के तलवे जमीन को छुएँ, उस आवाज को गहरे अपने काम केंद्र पर चोट करने दें। आपके पास जितनी शक्‍ति हो लगा दें; स्‍वयं को पूरी तरह थका दें।
चौथा चरण: पंद्रह मिनट
ठहर जाएं जहां है, जिस स्‍थिति में है, वहीं जम जाएं। शरीर को किसी भी तरह से व्‍यवस्‍थित न करें। थोड़ी सी भी खांसी या हलचल आपके ऊर्जा के प्रवाह को क्षीण कर देगी और पूरा प्रयास खो जायेगा। आपके भी तर जो कुछ भी हो रहा है। उस के साक्षी होकर देखते रहे।
पांचवां चरण: पंद्रह मिनट
उत्‍सव मनाए, आनंदित हों, और पूर्ण के प्रति अपना अहो भाव व्‍यक्‍त करते हुए संगीत के साथ नाचे। अपने आनंद को पूरे दिन अपने साथ लिए हुए चलें।
आप जिस जगह ध्‍यान कर रहे है, वहां यदि आवाज करना संभव न हो, तो यह मौन विकल्‍प प्रयोग में ला सकते है। दूसरे चरण में आवाजें निकालने की उपेक्षा रेचन को अपनी शारीरिक गतिविद्यियों से भी कर सकते है। जैसे मुट्ठियों को जोर से कस कर भीचें, और क्रोध से भर जाये और मुट्ठियों के खोलने के साथ-साथ अपने तनाव और क्रोध को भी बहार बहने दे। जैसे अपने चेहरे को पूरे तनाव से भर ले जितना विकृत कर सकते है उतना कर ले। फिर धीरे-धीर उसे सामान्‍य अवस्‍था में आने दे। आप कुछ ही दिनों में अपने चेहरे पर तनाव व बुढ़ापे की परतें उखड़ी हुए पाएँगें। और लगा तार ऐसा करने से आपका चेहरा बात वत बन जायेगा। आपकी आंखे पार दर्शी स्फटिक हो जायेगी। इसी तरह तीसरे चरण में हूं..हूं की ध्‍वनि की चोट मौन के रूप में भीतर ही भीतर की जा सकती है। जिससे आपके आस पास के किसी मित्र या साथ को परेशानी न हो। और पांचवां चरण अभिव्‍यक्‍तिपूर्ण नृत्‍य बन सकती है।
ओशो
ध्‍यान प्रयोग: प्रथम और अंतिम मुक्‍ति

07 April 2012

अस्‍तित्‍व की आधारभूत संरचना

अब मैं तुम्‍हें तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व की एक परम आधारभूत यौगिक संरचना के बारे में बताता हूं।

जैसे कि भौतिकविद सोचते है कि यह सब और कुछ नहीं बल्‍कि इलेक्ट्रॉन, विद्युत-उर्जा से निर्मित है। योग की सोच है कि यह सब और कुछ नहीं वरन ध्‍वनि-अणुओं से निर्मित है। अस्‍तित्‍व का मूल तत्‍व, योग के लिए ध्‍वनि है। क्‍योंकि जीवन और कुछ नहीं बल्‍कि एक तरंग है। जीवन और कुछ नहीं बल्‍कि ध्‍वनि की एक अभिव्‍यक्‍ति है। ध्‍वनि से हमारा आगमन होता है और पुन: हम ध्‍वनि में विलीन हो जाते है। मौन, आकाश, शून्‍यता, अनस्‍तित्‍व, तुम्‍हारा अंतर्तम केंद्र,चक्र की धुरी है। जब तक कि तुम उस मौन, उस आकाश तक न आ जाओ, जहां तुम्‍हारे शुद्ध अस्‍तित्‍व के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं बचता,मुक्‍ति उपलब्‍ध नहीं होती। यह योग का संरचना तंत्र है।

वे तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व को चार पर्तों में बांटते है। मैं जो तुमसे बोल रहा हूं, यह अंतिम पर्त है। योग इसको च्ज्वैखरीज्ज् कहता है। इस शब्‍द का अर्थ है, फलित, पुष्‍पित हो जाना। लेकिन इसके पूर्व कि मैं तुमसे बोलूं, इसके पूर्व कि मैं किसी बात का उच्‍चारण करूं, यह मेरे लिए एक अनुभूति का आकार, एक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेती है। यह तीसरी पर्त है। योग इसे च्ज्माध्‍यमाज्ज्, बीच की कहता है। लेकिन इसके पूर्व कि भीतर कुछ अनुभव हो यह बीज रूप गतिशील होती है। सामान्‍यत: तुम इसका अनुभव नहीं कर सकते हो जब तक कि तुम बहुत ध्‍यान पूर्ण न हो, जब तक कि तुम पूरी तरह से इतने शांत न हो चुके हो कि ऐसे बीज में जो अंकुरित भी न हुआ हो। में होने वाले प्रकंपन को भी अनुभव कर सको, जो बहुत सूक्ष्‍म है। योग इसे पश्‍यंती कहता है। च्ज्पश्‍यंतीज्ज् का अर्थ है: पीछे लौट कर देखना, स्‍त्रोत की और देखना। और इसके परे तुम्‍हारा आधारभूत अस्‍तित्‍व है जिससे सब कुछ निकलता है, यह च्ज्पराज्ज् कहलाता है। परा का अर्थ है: जो सबसे परे है।

अब इन चार पर्तों को समझने का प्रयास करो। परा सभी रूपों से परे कुछ है। पश्‍यंती बीज के समान है। मध्‍यमा वृक्ष के जैसी है। वैखरी फलित हो जाने,पुष्‍पित हो जाने जैसी है।

मैं पुन: छान्‍दोग्‍य उपनिषाद से एक कथा तुम्‍हें सुनाता हूं:

उस वटवृक्ष से मेरे लिए फल तोड़ कर तो लाना, महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा।

यह लीजिए पिता श्री, श्‍वेतकेतु ने कहा।

इसे तोड़ो।

यह टूट गया, ऋषि वर।

इसके भीतर तुम्‍हें क्‍या दिखाई दे रहा है?

इसके बीज, असंख्‍य है ये तो।

उनमें से एक को तोड़ो।

यह टूट गया, ऋषि वर।

तुम्‍हें क्‍या दिखाई दे रहा है?

कुछ नहीं,ऋषि वर, बिलकुल कुछ नहीं।

पिता ने कहा: वत्‍स यह सूक्ष्‍म सार जिसको तुम यहां नहीं देख पा रहे हो, उसी सार-तत्‍व से यह वटवृक्ष आस्‍तित्‍व में आता है। विश्‍वास करो वत्‍स कि यह सार तत्‍व है। जिसमें सारी चीजों को आस्‍तित्‍व है। यही सत्‍य है। यही स्‍वय है। और श्‍वेतकेतु वहीं तुम हो—तत्व मसि श्‍वेतकेतु।

वटवृक्ष एक बड़ा वृक्ष है। पिता ने एक फल लाने को कहा,श्‍वेतकेतु उसे लेकिर आया। फल वैखरी है—वह चीज पुष्‍पित हो चुकी है। फल लग गया है। फल सर्वाधिक परिधिगत घटना है। मूर्तमान होने की पराकाष्‍ठा। पिता कहता है, इसे तोड़ो। श्‍वेतकेतु उसे तोड़ता है। लाखों बीज है उसके भीतर। पिता कहते है एक बीज चुन लो, इसे भी तोड़ो। वह उसे बीज को भी तोड़ता है। अब हाथ में कुछ न रहा। अब बीज के भीतर कुछ भी नहीं है।

उद्दालक ने कहा: इस शून्‍यता से बीज आता है, इस बीज से वृक्ष का जन्‍म होता है। वृक्ष में फल लगते है। लेकिन आधार है शून्‍यता,मौन, अमूर्त निराकार, पार,वह जो सबसे परे है।

वैखरी की अवस्‍था में तुम बहुत अधिक संशयग्रस्‍त होते हो। क्‍योंकि तुम अपने अस्‍तित्‍व से सर्वाधिक दूर हो। यदि तुम अपने अस्‍तित्‍व में थोड़ा गहरे उतरो,जब तुम च्ज्माध्‍यमाज्ज् के तीसरे बिंदु के निकट आते हो तब तुम अपने आस्‍तित्‍व के और समीप आ जाते हो। यही कारण है कि इसे माध्‍यमा सेतु कहा जाता है। इसी प्रकार से एक ध्‍यानी अपने आस्‍तित्‍व में प्रवेश करता है। इसी प्रकार से मंत्र का प्रयोग किया जाता हैज्ज्

जब तुम किसी मंत्र का प्रयोग करते हो और तुम लय पूर्वक दोहराते हो—ओम ओम –ओमज् पहले इसे जोर से दोहराना है: वैखरी। फिर तुमको अपने ओंठ बंद करने पड़ते है और अंदर इसे दोहराना होता है—ओम ओम और ओमज्ज्कोई ध्‍वनि बाहर नहीं आती: मध्‍यमा। फिर तुम्‍हें भीतर दोहराना भी छोड़ देना पड़ता है। इसके साथ तुम इस भांति लयबद्ध हो जाते हो कि जब तुम इसे दोहराना छोड़ देते हो और यह अपने आप से ही जारी रहता है—ओम..ओम..अब इसको दोहराने के स्‍थान पर तुम श्रोता बन जाते हो, तुम सुन सकते हो, निरीक्षण कर सकते हो और देख सकते हो: यह पश्‍यंती बन गया है। पश्‍यंती का अर्थ है: पीछे लौट कर स्‍त्रोत को देखना। आंखें स्‍त्रोत की और घूम गई तब धीरे-धीरे यह ओमज्ओमज्नहीं सुनते; तुम कुछ भी नहीं सुनते। न तो वहां सुनने के लिए कुछ होता है, न ही सुनने वाला होता है सभी कुछ तिरोहित हो चुका है।
च्ज्तत्व मसि श्‍वेतकेतु,उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा, तुम वही हो वहीं शून्‍यता जहां मंत्रोच्‍चारक और मंत्रोच्‍चार दोनों विलीन हो चुका है।
ओशो (पतंजलि: योग सूत्र- भाग—६)

विपश्‍यना2

प्रश्‍न—प्‍यारे ओशो, कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपश्‍यना ध्‍यान किया। इतनी उड़ान अनुभव हुई, कृपया विपश्‍यना के बारे में प्रकाश डालें।
ईश्‍वर समर्पण। विपश्‍यना मनुष्‍य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण ध्‍यान-प्रयोग है। जितने व्‍यक्‍ति विपश्यना से बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व हे। विपश्यना शब्‍द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे, इहि पस्‍सिको; आओ और देखो। बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्‍वर को मानना न मानना,आत्‍मा को मानना न मानना आवश्‍यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है दुनिया में जिसमें मान्‍यता,पूर्वाग्रह, विश्‍वास इत्‍यादि की कोई आवश्‍यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया उसे मानना थोड़े ही पड़ता है;मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रकिया थी। दिखाने की जो प्रकिया थी उसका नाम था विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा सरल प्रयोग है। अपनी आती जाती श्‍वास के प्रति साक्षी भाव। श्‍वास जीवन है। श्‍वास से तुम्‍हारी आत्‍मा और तुम्‍हारी देह जूड़ी है। श्‍वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्‍य है। मध्‍य में श्‍वास है। यदि तुम श्‍वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण अपरिहार्य रूप से शरीर से तुम भिन्‍न अपने को जानोंगे। श्‍वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्‍मचेतना में स्‍थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्‍मा को मानो। लेकिन श्‍वास को देखने का ओर कोई उपाय नहीं है। जो श्‍वास को देखेगा,वह श्‍वास से भिन्‍न हो गया। और जो श्‍वास से भिन्‍न हो गया। वह शरीर से भी भिन्‍न हो गया। क्‍योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्‍वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्‍वास को देखा तो श्‍वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए। शरीर से छूटों, श्‍वास से छूटों, तो शाश्‍वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊँचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊँचाइयों है जगत में न कोई गहराइयों है जगत में। बाकी तो व्‍यर्थ की आपाधापी है।
फिर श्‍वास अनेक अर्थों में महत्‍वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्‍वास एक ढंग से चलती है। करूणा में दूसरे ढंग से चलती है। दौड़ने में वह दूसरे ढंग से चलती है। आहिस्‍ता चलने में वह दूसरे ढंग से चलती है। चित ज्‍वर ग्रस्‍त होता है; एक ढंग ये चलती है। तनाव से भरा होता है, तो एक ढंग से चलती है। और चित शांत होता है,मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
श्‍वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलों, श्‍वास बदल जाती है। श्‍वास को बदल लो भाव बदल जाते है। जरा कोशिश करना। क्रोध आये,अगर श्‍वास को डोलने मत देना। श्‍वास को थिर रखना, शांत रखना। श्‍वास का संगीत अखंड रखना। श्‍वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्‍किल में पड़ जाओगे। क्रोध उठेगा भी तो गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए श्‍वास को आंदोलित होना। श्‍वास आंदोलित हो तो भीतर को केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित हो। चेतना आंदोलित हो तो जुड़ गये।
फिर इससे उल्‍टा भी सच है: भावों को बदलों, श्‍वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर। भाव शांत है। कोई तरंग नहीं है चित पर। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्‍वास का क्‍या हुआ। श्‍वास बड़ी शांत हो गई। श्‍वास में एक रस हो गया,एक स्‍वाद….एक छंद बंध गया। श्‍वास संगीत पूर्ण हो गयी।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्‍वास को बिना बदले….ख्‍याल रखना प्राणयाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्‍वास को बदलने की चेष्‍टा की जाती है। विपस्सना में श्‍वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांशा है। जैसी है—उबड़-खाबड़ है। अच्छी बुरी है। तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरती हे, जैसी है।
बुद्ध कहते है, तुम अगर चेष्‍टा करके श्‍वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्‍टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्‍टा तुम्‍हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्‍हारे हाथ छोटे है। तुम्‍हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्‍वास को तुम बदलों। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया। बुद्ध ने तो कहा3 तुम तो बैठ जाओ,श्‍वास तो चल ही रही है। जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्‍या करोगे?
आई एक बड़ी तरंग तो देखोगें और नहीं आई तरंग तो देखोगें। राह पर निकली कारें बसें तो देखोगें; गाय भैंस निकली तो देखोगें। जो भी है जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांशा आरोपित मत करना। शांत बैठ कर श्‍वास को देखते रहो। देखते रहो, श्‍वास और शांत हो जाती है। क्‍योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव—बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्‍न ही नहीं है। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आँख के सामने से हमारा उससे कुछ लेना देना नहीं है। तो उद्विग्‍न होने का कोई सवाल ही नहीं है। आसक्‍त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे है, निष्‍पक्ष देख रहे है। श्‍वास की तरंग धीरे-धीरे शांत होने लगेगी। श्‍वास भीतर आती है, अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण भर सब रूक जाना….अनुभव करो। उस रुके हुए क्षण को। फिर श्‍वास बाहर चली फेफड़े सुकड़े लगे अनुभव करो उस सुड़कने को फिर नासापुटों से श्‍वास बाहर गयी। अनुभव करो उतप्‍त श्‍वास नासा पुटों से बाहर जाती है। फिर क्षण भर सब ठहर जाता है। फिर नया स्‍वास आयी।
यह पड़ाव है, श्‍वास का भीतर आना,क्षण भर श्‍वास का भीतर ठहरना। फिर श्‍वास का बाहर जाना, क्षण भर फिर श्‍वास का बाहर ठहरना। फिर नई श्‍वास का आवागमन, यह वर्तुल है—वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने को कोई भी बात नहीं बस देखो। यहीं विपस्‍सना का अर्थ है।
क्‍या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित के सारे रोग तिरोहित हो जाते है। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं,इसकी प्रत्‍यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते। ही मैं मन नहीं हूं,इसका स्‍पष्‍ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्‍वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्‍तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे। मगर गूंगे को गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुन सुनाओगे भीतर ही भीतर, मीठा-मीठा स्‍वाद लोगे। नाचो गे मस्‍त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह नहीं पाओगे।
ईश्‍वर समर्पण, ठीक ही हुआ। कहा तुमने; इतनी उड़ान अनुभव हुई। अब विपस्‍सना के सूत्र को पकड़ लो। अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो। और विपस्‍सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होगी। बस में बैठे ट्रेन में सफर करते। कार में यात्रा करते। राह के किनारे। दुकान पर, बाजार में घर में, बिस्‍तर पर लेटे। लिखते, पढ़ते खोते नहाते…किसी को पता भी न चले। क्‍योंकि न तो कोई मंत्र का उच्‍चरण करना है। न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे……इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्‍यादा विपस्‍सना तुम्‍हारे जीवन में फैलती जायेगी उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अद्भुत आमंत्रण को समझोगे; इहि पस्‍सिको, आओ और देख लो।
बुद्ध कहते है: ईश्‍वर को मानना मत, क्‍योंकि शास्‍त्र कहते है; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते है। इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्‍ति दायी हे। मान्‍यताएं हिंदू बना देती है। मुसलमान बना देती है, ईसाई बना देती है। जैन बना देती है। बौद्ध बना देती है। दर्शन तुम्‍हें परमात्‍मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान,न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्मा मय हो। ओर वही अनुभव पाना है। वहीं अनुभव पाने योग्‍य है। ओशो,  मरौ हे जोगी मरौ

विधियों की विधि- विपस्‍सना

विपस्‍सना ध्‍यान—
विपस्‍सना का अर्थ है: अपनी श्‍वास का निरीक्षण करना, श्‍वास को देखना। यह योग या प्राणायाम नहीं है। श्‍वास को लयबद्ध नहीं बनाना है; उसे धीमी या तेज नहीं करना है। विपस्‍सना तुम्‍हारी श्‍वास को जरा भी नहीं बदलती। इसका श्‍वास के साथ कोई संबंध नहीं है। श्‍वास को एक उपाय की भांति उपयोग करना है ताकि तुम द्रष्‍टा हो सको। क्‍योंकि श्‍वास तुम्‍हारे भीतर सतत घटने वाली घटना है।
अगर तुम अपनी श्‍वास को देख सको तो विचारों को भी देख सकते हो।
यह भी बुद्ध का बड़े से बड़ा योगदान है। उन्‍होंने श्‍वास और विचार का संबंध खोज लिया।
उन्‍होंने इस बात को सुस्‍पष्‍ट किया कि श्‍वास और विचार जुड़ हुए है।
श्‍वास विचार का शारीरिक हिस्‍सा है और विचार शरीर का मानसिक हिस्‍सा है। वह एक ही सिक्‍के के दो पहलु है। बुद्ध पहले व्‍यक्‍ति है जो शरीर और मन की एक इकाई की तरह बात करते है। उन्‍होंने पहली बार कहा है कि मनुष्‍य एक साइकोसोमैटिक, मन:शारिरिक घटना है।
–ओशो
विपस्‍सना ध्‍यान की तीन विधियां—
विपस्‍सना ध्‍यान को तीन प्रकार से किया जो सकता है—तुम्हें कौन सी विधि सबसे ठीक बैठती है, इसका तुम चुनाव कर सकते हो।
पहली विधि—
अपने कृत्‍यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने ह्रदय के प्रति सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो, हाथ हिलाओ तो होश से हिलाओ,यह जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम उसे बिना होश के यंत्र की भांति भी हिला सकेत हो। तुम सुबह सैर पर निकलते हो; तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी चल सकते हो।
अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति सजग रहो। खाते समय,उन गतिविधियों के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूर होती है। नहाते समय जो शीतलता तुम्‍हें मिल रही है। जो पानी तुम पर गिर रहा है। और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग हो रहो। यह जागरूकता की दशा में नहीं होना चाहिए।
और तुम्‍हारे मन के विषय में भी ऐसा ही है। तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार गूजरें बस उसके द्रष्‍टा बने रहो। तुम्हारे ह्रदय के परदे पर से जो भी भाव गूजरें, बस साक्षी बने रहो। उसमें उलझों मत। उससे तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत करो कि क्‍या अच्‍छा है, क्‍या बुरा है; वह तुम्‍हारे ध्‍यान का अंग नहीं है।
दूसरी विधि—
दूसरी विधि है श्‍वास की; अपनी श्‍वास के प्रति सजग होना। जैसे ही श्‍वास भीतर जाती है तुम्‍हारा पेट ऊपर उठने लगता है, और जब श्‍वास बहार जाती है तो पेट फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी विधि है पेट के प्रति—उसके उठने और गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और गिरने का बोध हो……ओर पेट जीवन स्‍त्रोत के सबसे निकट है। क्‍योंकि बच्‍चा पेट में मां की नाभि से जूड़ा होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन को स्‍त्रोत है। तो जब तुम्‍हारा पेट उठता है, तो यह वास्‍तव में जीवन ऊर्जा हे, जीवन की धारा है जो हर श्‍वास के साथ ऊपर उठ रही है। और नीचे गिर रही है। यह विधि कठिन नहीं है। शायद ज्‍यादा सरल है। क्‍योंकि यह एक सीधी विधि हे।
पहली विधि में तुम्‍हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है, अपने मन के प्रति सजग होना है। अपने भावों, भाव दशाओं के प्रति सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हे। दूसरी विधि में एक ही चरण है। बस पेट ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, ह्रदय शांत हो जाता है। भाव दशाएं मिट जाती है।
तीसरी विधि—
जब श्‍वास भीतर प्रवेश करने लगे, जब श्‍वास तुम्‍हारे नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके पति सजग हो जाना है।
उस दूसरी अति पर उसे अनुभव करो—पेट से दूसरी अति पर—नासापुट पर श्‍वास का स्‍पर्श अनुभव करो। भीतर जाती हई श्‍वास तुम्‍हारे नासापुटों को एक प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्‍वास बाहर जाती है…..श्‍वास भीतर आई, श्‍वास बहार गई।
ये तीन ढंग हे। कोई भी एक काम देगा। और यदि तुम दो विधियां एक साथ करना चाहों तो दो विधियां एक साथ कर सकते हो। फिर प्रयास ओर सधन हो जाएगा। यदि तुम तीनों विधियों को एक साथ करना चाहो, तो तीनों विधियों को एक साथ कर सकते हो। फिर संभावनाएं तीव्र तर होंगी। लेकिन यह सब तुम पर निर्भर करता है—जो भी तुम्हें सरल लगे।
स्‍मरण रखो: जो सरल है वह सही है।
–ओशो
सरल विधि—
विपस्‍सना ध्‍यान की सरलतम विधि है। बुद्ध विपस्‍सना के द्वारा ही बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए थे। और विपस्‍सना के द्वारा जितने लोग उपलब्‍ध हुए हे उतने और किसी विधि से नहीं हुए। विपस्‍सना विधियों की विधि है। और बहुत सी विधियां है लेकिन उनसे बहुत कम लोगों को मदद मिली है। विपस्‍सना से हजारों लोगों की सहायता हुई है।
यह बहुत सरल विधि है। यह योग की भांति नहीं है। योग कठिन है, दूभर है, जटिल है। तुम्‍हें कई प्रकार से खूद को सताना पड़ता है। लेकिन योग मन को आकर्षित करता हे। विपस्‍सना इतनी सरल है कि उस और तुम्‍हारा ध्‍यान ही नहीं जाता। विपस्‍सना को पहली बार देखोगें तो तुम्‍हें शक पैदा होगा, इसे ध्‍यान कहें या नहीं। न कोई आसन है, न प्राणायाम है। बिलकुल सरल घटना—सांस आ रही है, जा रही है, उसे देखना बस इतना ही।
श्‍वास-उच्‍छवास बिलकुल सरल हों, उनमें सिर्फ एक तत्‍व जोड़ना है: होश, होश के प्रविष्‍ट होते ही सारे चमत्‍कार घटते है।

गुरु की खोज2

हम बड़े मजेदार लोग है। हम में से अनेक लोग गुरु को खोजते फिरते है। पूछो कहां जा रहे हो, वो कहते है हम गुरु की खोज कर रहे है।
आप कैसे गुरु की खोज करिएगा? आपके पास कोई मापदंड, कोई तराजू है? आप तौलिएगा कैसे कि कौन गुरु आपका? और अगर आप इतने कुशल हो गए है कि गुरु की भी जांच कर लेते है, तो अब बचा क्‍या है ? जिसकी हम जांच करते है। उससे हम ऊपर हो जाते है। तो आप तो गुरु पहले हो गए। परीक्षा तो होनी है गुरु की उतर जाएं, पास हो जाएं, उतीर्ण हो जाएं, तो ठीक। अनु तीर्ण हो जाए?
तो शिष्‍य घूम-घूम कर गुरूओं को अनुत्‍तीर्ण करते रहते है। कहते है, फलां गुरु बेकार साबित हुआ। अब वे दूसरे गुरु की तलाश में जा रहे है।
गुरु को शिष्‍य नहीं खोज सकता। यह असंभव हे। इसका कोई उपाय नहीं है। यह तो बात ही व्‍यर्थ है। हमेशा गुरु शिष्‍य को खोजता हे। वि बात समझ में आती है। तर्क बद्ध हे। तो गुरु शिष्‍य को खोजता है। तो जब भी आप शिष्‍य होने के लिए तैयार हो जाते है गुरू प्रकट हो जाता है। वह आपको खोज लेगा। फिर आप बच नहीं सकते। वह आपको खोज लेगा। फिर आपके बचने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए बड़ी चीज गुरु को खोजना नहीं है, बड़ी चीज शिष्‍य बनने की तैयारी है। आप गड्ढे बन जाएं; पानी बरसेगा और झील भर जायेगी। आप सीखने के गड्ढे बन जाएं; चारों तरफ से आपको खोजने वे सूत्र निकल पड़ेंगे जो आपके गुरु बन जाएंगे। शिष्‍य का गड्ढा जहां भी होता है, वहाँ गुरु की झील तैयार हो जाती है। लेकिन गड्ढे खोजने नहीं जा सकते। खोजने का कोई उपाय नहीं है।
दो-तीन आखिरी बातें। यह जरूरी नही हे कि आप गुरु को जांच सकें; यह जरूरी हे कि आप अपने शिष्‍य होने की जांच करें। जो आवश्‍यक है वह यह है कि आप यह जाँचते रहें कि मेरे शिष्‍य होने की पात्रता, मेरे सीखने की क्षमता निखालिस है, शुद्ध है।
बायजीद अपने गुरु के पास था। बायजीद के गुरु ने बायजीद के कहा कि बायजीद, तू जो मुझसे सीखने आया है, उसके अलावा मैं क्‍या हूं,यह भी तू जानना चाहता है? बायजीद ने कहा कि उससे मुझे क्‍या प्रयोजन है। जो मैं सीखने आया हूं वह आप हे। इतना मेरे जानने के लिए काफी है।
फिर एक दिन बायजीद आया है और गुरु शराब की सुराही रखे बैठा है। प्‍याली में शराब ढालता है ओर चुस्‍कियां लेता है। और बायजीद को समझाता जाता है। एक और शिष्‍य भी बैठा था। उसके बरदाश्‍त के बाहर हो गया कि हद हो गई। बरदाश्‍त की भी एक सीमा होती है। और भरोसे का भी एक अंत है। आखिर विश्‍वास कोई अंधविश्‍वासी तो नहीं हूं, मैं, उसने कहा यह क्‍या हो रहा है? यह अध्‍यात्‍म किस प्रकार का है?
गुरु ने उस शिष्‍य को कहा कि अगर तुम्‍हें नहीं सीखना हे, तुम जा सकते हो। मतलब यह कि हमारा गुरु शिष्‍य का संबंध टूट गया। लेकिन किस शर्त पर? मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं शराब नहीं पीऊंगा?
बायजीद की तरफ गुरु ने देखा और बायजीद से कहा कि तुम्‍हें तो कुछ नहीं पूछना?
बायजीद ने कहां नहीं मुझे कुछ नहीं पूछना।
बारह वर्ष बायजीद था। इस बारह वर्ष में बारह हजार दफे ऐसे मौके लाया होगा जब कि कोई भी पूछ लेता कि यह क्‍या हो रहा है। यह नहीं होना चाहिए। बारह साल बाद जिस दिन बायजीद विदा हो रहा था, उसके गुरु ने कि तुम्हें कुछ पूछना नहीं है मेरे और संबंधों में? मेरे बाबत?
बायजीद ने कहा कि अगर मैं पूछता दूसरी चीजों के संबंध मे तो मैं वंचित ही रह जाता तुमसे। मैंने उनके संबंध में नहीं पूछा। मैं तो उस संबंध में ही डुबता चला गया जिसके लिए आया था। और आज मैं जानता हूं कि वह सब जो क्या था वह कैसा नाटक था मैंने पूछा नहीं, लेकिन आज मैं जानता हूं कि वह सब नाटक था। अगर में उस नाटक के बाबत पूछता तो मैं वह जो असली आदमी था यहां मौजूद, उससे वंचित हर जाता।
तिब्‍बत में शिष्‍यों के लिए सूत्र है कि गुरु अगर पाप भी कर रहा हो सामने तो उसकी शिकायत नही की जा सकती। बड़ी अजीब है और उचित नहीं मालूम पड़ता। अंधविश्‍वास पैदा करने वाला है। लेकिन जो सीखने आया है। उसे व्‍यर्थ की बातों में रस लेना खतरनाक है। और उसकी सीखने की क्षमता नष्‍ट होती है।
नारोपा एक भारतीय गुरु तिब्‍बत गया। मिलारेपा उसका पहला शिष्‍य था। नारोपा बहुत ही अद्भुत व्‍यक्‍ति था। और वह मिलारेपा को ऐसे-ऐसे काम करने को कहता है कि किसी की भी हिम्‍मत टूट जाये। वह मिलारेपा से कहता है कि यह पहाड़ से पत्‍थर काटो। मिलारेपा का मन होता है कि मैं सत्‍य की साधना करने आया हूं। या पत्‍थर काटने। लेकिन नारोपा ने कहा कि जिस दिन तुझे संदेह उठे उसी दिन चले जाना; बताने मत आना कि संदेह उठा है। संदेह करने वालों के साथ मैं मेहनत नहीं करता।
लेकिन मिलारेपा भी नारोपा से कम अद्भुत आदमी नहीं था। उसने पत्‍थर काटे। फिर नारोपा ने कहा कि अब इसका एक छोटा मकान बनाओ। उसने मकान बनाया। जिस दिन मकान बन कर खड़ा हो गया, वह दौड़ा आया और उसने सोचा कि शायद आज मेरी शिक्षा शुरू होगी। यह परीक्षा हो गई। नारोपा के पास आकर चरणों में सिर रख कर कहा कि मकान बन कर तैयार हो गया है। नारोपा गया। और उसने कहा कि अब इसको गिराओं।
कहानी कहती है, ऐसे सात दफे नारोपा ने वह मकान गिरवाया। गिरवा कर वह पत्‍थर वापस फेंको खाई में। फिर चढ़ाओं, फिर मकान बनाओ। ऐसा सात साल तक चला। सात बार वह मकान गिराया गया और बनवाया गया। और सांतवीं बार जब मकान गिर रहा था, तब भी मिलारेपा ने नहीं कहा कि क्‍यो?
और कहते है कि नारोपा ने कहा कि तेरी शिक्षा पूरी हो गई। जो मुझे तुझे देना था, मैंने दे दिया। और जो तू पा सकता था वह तूने पा लिया है। मिलारेपा चरणों में गिर पडा।
मिलारेपा से बाद में उसके शिष्‍य पूछते थे कि हम कुछ समझे नहीं यह क्‍या हुआ। क्‍योंकि कोई और शिक्षा तो हुई नहीं। यह लगाना, यह गिराना, बस यही हुआ। मिलारेपा ने कहा कि पहले तो मैं भी यह समझता था। कि ये क्‍या हो रहा है? लेकिन फिर मेंने कहा कि जब एक दफा तय ही कर लिया, तो ज्‍यादा से ज्‍यादा एक जिंदगी ही जाएगी न। बहुत जिंदगी बिना गुरु के चली गई। एक जिंदगी गुरु के साथ सही। ज्‍यादा से ज्‍यादा, उसने कहा एक जिंदगी ही जाएगी न, तो ठीक है। बहुत जिंदगीयां ऐसे बिना गुरु के भी गंवा दीं। अपनी बुद्धि से गंवा दी। इस बार बुद्धि को गंवा कर दूसरे के हिसाब से चल कर देख लेते है। जिस दिन मिलारेपा ने कहा, मैंने यह तय कर लिया, उस दिन से मैं बिलकुल शांत होने लगा। वह पत्‍थर जमाना नही था, जन्‍मों–जन्‍मों का मेरा जो सब था। उसने जमवाय-उखडवाया, जमवाय-उखडवाया। वह सात बार जो मकान का बनना और मिटना था; तुम्‍हें मकार का दिख रहा था। वह मेरा ही बनना और मिटना था। और जिस दिन सांतवीं बार मैंने मकान गिराया उस दिन मैं नहीं था। इसलिए उसने मुझ से कहा कि जो मुझे तुझे देना था, दे दिया। और जो तू पा सकता था वह पा लिया। तुझे कुछ और चाहिए?
लेकिन जो न अपने गुरू को मूल्‍य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है,वह वही है जो दूर भटक गया है, यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।
अक्‍सर—यद्यपि नहीं—अक्‍सर वह विद्वान होता है।
यही सूक्ष्‍म वह गुह्म रहस्‍य है।
–ओशो
ताओ उपनिषाद भाग—3

महात्‍मा गांधी और हरिदास

महात्‍मा गांधी  --ओशो
आप क्‍यों सुधारने के लिए इतने दीवाने है। ओर अगर किसी ने नही सुधरना है तो आप कुछ भी नहीं कर सकते हो। इस दुनियां में किसी को जबरदस्‍ती ठीक करने का कोई उपय नही है। जबरदस्‍ती ठीक करने की कोशिश उसको ओर जड़ कर सकती है। कई बार तो बहुत अच्‍छे बाप भी बहुत बुरे बेटों के कारण हो जाते है। महात्‍मा गांधी के लड़के सुधारने का बदला लिया है। अब महात्‍मा गांधी से अच्‍छा बाप पाना मुश्‍किल है। बहुत कठिन है। अच्‍छा बाप का जो भी अर्थ हो सकता है, वह महात्‍मा गांधी में पूरा है। लेकिन हरिदास के लिए बुरे बाप सिद्ध हुए। क्‍या कठिनाई हुई?
यह बड़ी मनोवैज्ञानिक घटना है। और इस सदी के लिए विचारणीय है। और हर बाप के लिए विचारणीय हे। क्‍योंकि गांधी जी कहते थे, हिंदू-मुसलमान सब मुझे एक है। लेकिन हरिदास अनुभव करता था कि यह बात झूठ है। यह बात है; फर्क तो हे। क्‍योंकि गांधी गीता को कहते थे माता; कुरान को नहीं कहते थे। और गांधी गीता और कुरान को भी एक बताते है, तो गीता में जो कहा है अगर वही कुरान में कहा है, तब तो ठीक है; और जो कुरान में कहा है और गीता में नहीं कहा, उसको बिलकुल छोड़ जाते है। उसकी बात ही नहीं करते। तो कुरान में भी गीता को ही ढूंढ़ लेते है। तभी कहते है ठीक हे; नहीं तो नहीं कहते है।
हरिदास मुसलमान हो गया; हरिदास गांधी सक वह हो गया अब्‍दुल्‍ला गांधी। गांधी को बड़ा सदमा पहुंचा। और उन्‍होंने कहा अपने मित्रों को कि मुझे दुःख हुआ। जब हरिदास को पता लगा तो उसने कहा, इसमें दुःख की क्‍या बता? हिंदू-मुसलमान सब एक है।
यह बाप देखते है? यह बाप ने ही धक्‍का दे दिया अनजाने। और हरिदास ने कहा, जब दोनों एक है तो फिर क्‍या दुःख की बात है? हिंदू हुए की मुसलमान, अल्‍ला-ईश्‍वर तेरे नाम, सब बरा बार,तो हरिदास गांधी कि अब्‍दुल्‍ला गांधी इसमें पीड़ा क्‍या है?
मगर पीड़ा गांधी को हुई।
गांधी स्‍वतंत्रता की बात करते है, लेकिन अपने बेटों पर बहुत सख्‍त थे, और सब तरह की परतंत्रता बना रखी थी। तो जो-जो चीजें गांधी ने रोकी थी, वह-वह हरिदास ने की। मांस खाया,शराब पी…वह-वह किया। क्‍योंकि अगर स्‍वतंत्रता है तो फिर इसका मतलब क्‍या होता है स्‍वतंत्रता का? यह मत करो, वह मत करो, यह कैसी स्‍वतंत्रता।
क्‍या मतलब हुआ? स्‍वतंत्रता है पूरी और सब तरह की परतंत्रता नियम की बाँध दी—इतने बजे उठो, और इतने बजे सौ वो। और इतने वक्‍त प्रार्थना करो, और इतने वक्‍त…..। और यह खाओ और यह मत खाओ और मत पीओ। सब तरह के जाल कस दिये। और स्‍वतंत्रता है पूरी। तो हरिदास ने जो-जो गांधी ने रोका था। वह-वह किया।
अगर कहीं कोई अदालत है तो उसमें हरिदास अकेला नहीं फंसेगा। कैसे अकेला? क्‍योंकि उसमें जिम्‍मेवार गांधी भी है। बाप भी है।
ध्‍यान रखना,अगर बेटा आपका फंसा, तो आप बच न सकोगे। इतना ही कर लो कि बेटा ही अकेला फंसे, तुम बच जाओ,तो भी बहुत है। हटा लो हाथ आपने दूर और बेटे को कह दे जो तुझे लगे। वहीं कर। अगर तुझे दुःख भोगना ही ठीक लगता है तो ठीक हे। दुःख भोग। अगर तुझे पीड़ा ही उठाना तेरा चुनाव है, तो तुझे स्‍वतंत्रता है, तू पीड़ा ही उठा। हमें पीड़ा होगी तुझे पीड़ा होगी तुझे पीड़ा में देख कर। लेकिन वह हमारी तकलीफ है। उसका फल हम भोगेंगे।
अगर मुझे दुःख होता है कि मेरा बेटा शराब पीता है। तो यह मेरा मोह है कि में उसे मेरा बेटा मानता हूं। इसलिए दुःख पाता हूं। इसमें उसका क्‍या कसूर है। मेरा बेटा जेल चला जाता है तो मुझे दुख होता है। क्‍योंकि मेरे बेटे के जेल जाने से मेरे अहंकार को चोट लगती है।
और आप अपने को बदलने में लगें। जिस दिन आप बदलेंगे, उस दिन आपका बेटा ही नहीं, दूसरों के बेटे भी आपके पास आकर बदल सकते है।
ओशो
ताओ उपनिषाद, भाग-3
प्रवचन—64

फीलिंग्स

उफ, यह आदमी और इसके साथ होने का सौभाग्‍य।
(ओस्पेंस्की ने लिखा है उस दिन मैंने गुरूजिएफ को पहली बार देखा की ये आदमी कैसा अदभुत है। क्‍योंकि इतना खाली हो गया था में कि आब मैं कि अब मैं देख सकता था। भरी हुई आँख क्‍या देखती। उस दिन गुरूजिएफ को मैंने पहली दफा देखा कि ओफ़ यह आदमी और इसके साथ होने का सौभाग्‍य।)
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जो मुझे तुझे देना था, मैंने दे दिया। और जो तू पा सकता था वह तूने पा लिया है। मिलारेपा चरणों में गिर पडा।
(कहानी कहती है, ऐसे सात दफे नारोपा ने वह मकान गिरवाया। गिरवा कर वह पत्‍थर वापस फेंको खाई में। फिर चढ़ाओं, फिर मकान बनाओ। ऐसा सात साल तक चला। सात बार वह मकान गिराया गया और बनवाया गया। और सांतवीं बार जब मकान गिर रहा था, तब भी मिलारेपा ने नहीं कहा कि क्‍यो?और कहते है कि नारोपा ने कहा कि तेरी शिक्षा पूरी हो गई। जो मुझे तुझे देना था, मैंने दे दिया। और जो तू पा सकता था वह तूने पा लिया है। मिलारेपा चरणों में गिर पडा।ओशो, ताओ उपनिषाद भाग—3
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बरदाश्‍त की भी एक सीमा होती है। और भरोसे का भी एक अंत है।  
(एक दिन बायजीद आया है और गुरु शराब की सुराही रखे बैठा है। प्‍याली में शराब ढालता है ओर चुस्‍कियां लेता है। और बायजीद को समझाता जाता है। एक और शिष्‍य भी बैठा था। उसके बरदाश्‍त के बाहर हो गया कि हद हो गई। बरदाश्‍त की भी एक सीमा होती है। और भरोसे का भी एक अंत है। आखिर विश्‍वास कोई अंधविश्‍वासी तो नहीं हूं, मैं, उसने कहा यह क्‍या हो रहा है? यह अध्‍यात्‍म किस प्रकार का है?  ओशो, ताओ उपनिषाद भाग—3)
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फिर इससे उल्‍टा भी सच है: भावों को बदलों, श्‍वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर।
(श्‍वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलों, श्‍वास बदल जाती है। श्‍वास को बदल लो भाव बदल जाते है। जरा कोशिश करना। क्रोध आये, अगर श्‍वास को डोलने मत देना। श्‍वास को थिर रखना, शांत रखना। श्‍वास का संगीत अखंड रखना। श्‍वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्‍किल में पड़ जाओगे। क्रोध उठेगा भी तो गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए श्‍वास को आंदोलित होना। श्‍वास आंदोलित हो तो भीतर को केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित हो। चेतना आंदोलित हो तो जुड़ गये। फिर इससे उल्‍टा भी सच है: भावों को बदलों, श्‍वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर। भाव शांत है। कोई तरंग नहीं है चित पर। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्‍वास का क्‍या हुआ। श्‍वास बड़ी शांत हो गई। श्‍वास में एक रस हो गया,एक स्‍वाद….एक छंद बंध गया। श्‍वास संगीत पूर्ण हो गयी। ओशो, मरौ हे जोगी मरौ )
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सारी जीवन ऊर्जा को आवश्‍यकताओं के तल तक ले आओ। तुम आनंदित हो जाओगे।   (प्रसन्‍नता जीवन का स्‍वभाव है। प्रसन्‍न रहने के लिए किन्‍हीं कारणों की जरूरत नहीं होती। तुम्‍हारी आवश्‍यकताओं तक आ जाओ; इच्‍छाएं पागल होती है, आवश्‍यकताएं स्‍वाभाविक होती है। भोजन, घर, प्रेम; तुम्‍हारी सारी जीवन ऊर्जा को आवश्‍यकताओं के तल तक ले आओ। और तुम आनंदित हो जाओगे। ओशो, पतंजलि—योग-सूत्र, भाग—2)
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वह तुम्‍हें ले जाएगा जीवन के उस ढंग तक जो कि तुम्‍हारे अनुकूल पड़ सकता है। जो तुम्‍हें ले जाएगा सम्‍यक् अनुशासन की और। 
(जब तुम अनुभव कर सकते हो और वह स्‍वप्‍न पा सकते हो जो अति चेतन से उतर रहा होता है। तो उसे देखना,उस पर ध्‍यान करना। वहीं तुम्‍हारा मार्गदर्शन बन जाएगा। वह तुम्‍हें सद्गुरू तक ले जाएगा। वह तुम्‍हें ले जाएगा जीवन के उस ढंग तक जो कि तुम्‍हारे अनुकूल पड़ सकता है। जो तुम्‍हें ले जाएगा सम्‍यक् अनुशासन की और। वह सपना भीतर एक गहन मार्ग दर्शन बन जाएगा। चेतन के साथ तुम ढूंढ सकते हो गुरु को। लेकिन गुरु और कुछ नहीं होगा सिवाय शिक्षक के। अचेतन के साथ तुम खोज सकते हो गुरु को। लेकिन गुरु एक प्रेमी से ज्‍यादा कुछ नहीं होगा–तुम एक निश्‍चित व्‍यक्‍तित्‍व के, एक निश्‍चित ढंग के प्रेम में पड़ जाओगे। केवल अति चेतन तुम्‍हें सम्‍यक गुरु तक ले जा सकता है। तब वह शिक्षक नहीं होता; जो वह कहता है उससे तुम सम्‍मोहित नहीं होते; जो वह है उसके साथ अंधे सम्‍मोहन में नहीं पड़ते हो तुम। बल्‍कि इसके विपरीत तुम निर्देशित होते हो तुम्‍हारे परम चेतन के द्वारा कि इस व्‍यक्‍ति से तुम्‍हारा तालमेल बैठेगा और विकसित होने के लिए इस व्‍यक्‍ति के साथ एक सही संभावना बनेगी तुम्‍हारे लिए, कि वह आदमी तुम्‍हारे लिए आधार है भूमि बन सकता है। ओशो, पतंजलि :योग-सूत्र, भाग—2, प्रवचन-1, श्री रजनीश आश्रम पूना, 1 मार्च, 1975  )
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किसी प्रश्‍न का उत्‍तर नहीं दिया जा सकता है। मन की एक ऐसी अवस्‍था उपलब्‍ध करनी होती है जहां कोई प्रश्‍न नहीं उठते। मन की प्रश्न रहित अवस्‍था ही एक मात्र उत्‍तर है।
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(मेरी समझ ऐसी है कि मन की एक अवस्‍था है, जहां केवल प्रश्न होते है; और मन की एक अवस्‍था है, जहां केवल उत्‍तर होते है। और वे कभी साथ-साथ नहीं होती। यदि तुम अभी भी पूछ रहे हो, तो तुम उत्‍तर नहीं ग्रहण कर सकते। में उत्‍तर दे सकता हूं लेकिन तुम उसे ले नहीं सकते। यदि तुम्‍हारे भीतर प्रश्‍न उठने बंद हो गये है, तो कोई जरूरत नहीं है मुझे उत्‍तर देने की: तुम्‍हें उत्‍तर मिल जाता है। किसी प्रश्‍न का उत्‍तर नहीं दिया जा सकता है। मन की एक ऐसी अवस्‍था उपलब्‍ध करनी होती है जहां कोई प्रश्‍न नहीं उठते। मन की प्रश्न रहित अवस्‍था ही एक मात्र उत्‍तर है। ओशो, पतंजलि: योग-सूत्र, भाग: 3,  प्रवचन-20 )
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यथार्थ का एक प्रसंग लेकिन कवि उसमें मानवीय संवेदनाओं के रंग भरता है। और पढ़ने वाले को लगता है, हां, बिलकुल यही, ऐसा ही घटा होगा। फिर बुद्ध चरित्र धार्मिक नहीं, बहुत आत्‍मीय, बहुत मानवीय बन जाता है।
(लाइट ऑफ एशिया’’ अर्थात एशिया का प्रकाश। प्रश्‍न उठता है कि इस किताब में ऐसी क्‍या खास बात है जो पाश्‍चात्‍य पाठकों ने इसे सिर पर उठा लिया। एक तो बुद्ध का अद्भुत चरित्र और उसके बाद सर अर्नाल्‍ड की असाधारण काव्‍य प्रतिभा: इन दोनों के संगम के कारण यह काव्‍य निरंतर कल्‍पना और तथ्‍यों के बीच डोलता रहा। यथार्थ का एक प्रसंग लेकिन कवि उसमें मानवीय संवेदनाओं के रंग भरता है। और पढ़ने वाले को लगता है, हां, बिलकुल यही, ऐसा ही घटा होगा। फिर बुद्ध चरित्र धार्मिक नहीं, बहुत आत्‍मीय, बहुत मानवीय बन जाता है। ओशो, दि डिसिप्‍लिन ऑफ ट्रांसडेंस
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ये लोग अपनी गहन प्रज्ञा को बांटते है लेकिन उन्‍हें शब्‍दों में रहस्‍य भर देते है जो उसी रहस्‍य को आकार देते है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति रहस्‍यों को खुद ही उघाड़े—यही प्रकृति का नियम है। इसमें कोई किसी की मदद नहीं कर सकता ।
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(लेखिका कहती है- इस पुस्तक को पढ़ने वाले सभी पाठक यह स्‍मरण रखें कि उनमें से जो भी सोचेगा कि यह सामान्‍य अंग्रेजी में लिखी गई है उन्‍हें इसमें थोड़ा-बहुत दर्शन शास्‍त्र नजर आयेगा। लेकिन खास मतलब नहीं दिखाई देगा। जो इस तरह पढ़ेंगे उन्‍हें यह पुराना अचार नहीं बल्‍कि तीखा नमक मिला हुआ ऑलिव का फल प्रतीत होगा। सावधान इस तरह न पढ़ें। इसे पढ़ने का एक और तरीका है, जो कई लेखकों के बारे में सही बैठता है। दो पंक्‍तियों के बीच छिपा हुए गहन आशय को खोजें। वस्‍तुत: यह गहन, गुप्‍त भाषा का अर्थ खोलने की कला है। सभी रूपांतरण का रसायन प्रस्‍तुत करने वाली रचनाएं इसी गुप्‍त भाषा में लिखी जाती है। बड़े से बड़े दार्शनिकों और कवियों ने इसका उपयोग किया है। ये लोग अपनी गहन प्रज्ञा को बांटते है लेकिन उन्‍हें शब्‍दों में रहस्‍य भर देते है जो उसी रहस्‍य को आकार देते है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति रहस्‍यों को खुद ही उघाड़़े—यही प्रकृति का नियम है। इसमें कोई किसी की मदद नहीं कर सकता ।- लाइट ऑन का पाथ)





06 April 2012

किरलियान फोटोग्राफी

किरलियान फोटो ग्राफी--ओशो किरलियान फोटोग्राफी में जब कोई व्‍यक्‍ति संकल्‍प करता है उर्जा का तो वर्तुल बड़ा हो जाता है। फोटोग्राफी में वर्तुल बड़ा आ जाता है। जब आप घृणा से भरे होते है, जब आप क्रोध से भरे होते है तब आपके शरीर से उसी तरह की ऊर्जा के गुच्‍छे निकलते है, जैसे मृत्‍यु में निकलते है। जब आप प्रेम से भरे होते है तब उल्‍टी घटना घटती है। जब आप करूणा से भरे होते है तब उल्‍टी घटती है। इस विराट ब्रह्मा से आपकी तरफ उर्जा के गुच्‍छे प्रवेश करने लगते है। आप हैरान होंगे यह बात जानकर कि प्रेम में आप कुछ पाते है, क्रोध में कुछ देते है। आमतौर से प्रेम में हमें लगता है कि कुछ हम देते है और क्रोध में लगता है हम कछ छीनते है। प्रेम में हमें लगता है कुछ हम देते है, लेकिन ध्‍यान रहे,प्रेम में आप पाते है। करूणा में आप पाते है, दया में आप पाते है। जीवन ऊर्जा आपकी बढ़ जाती है। इसलिए क्रोध के बाद आप थक जाते है और करूणा के बाद आप और सशक्‍त, स्‍वच्‍छ, ताजे हो जाते है। इसलिए करूण वान कभी भी थकता नहीं। क्रोधी थका ही जीता है।
किरलियान फोटोग्राफी के हिसाब से मृत्‍यु में जो घटना घटती है। वह छोटे अंश में क्रोध में घटती है। बड़े अंश में मृत्‍यु में घटती है, बहुत ऊर्जा बाहर निकलने लगती है। किरलियान ने एक फूल का चित्र लिया है जो अभी डाली से लगा है। उसके चारों तरफ ऊर्जा का जीवंत वर्तुल है। और विराट से, चारों और से ऊर्जा की किरणें फूल में प्रवेश कर रही है। ये फोटोग्राफ अब उपलब्ध है। देखे जा सकते है। और अब तो किरलियान का कैमरा भी तैयार हो गया है, वह जल्‍दी उपलब्‍ध हो जाएगा। उसके फूल को डाली से तोड़ लिया फिर फोटो लिया। तब स्‍थिति बदल गई। वे जो किरणें प्रवेश कर रही थीं। वे वापस लौट रही है। एक सेकेंड का फासला, डाली से टूटा फूल। घंटे भर से ऊर्जा बिखरती चली जाती है। जब आपकी पंखुडियां सुस्‍त होकर ढल जाती है। वह वही क्षण है जब ऊर्जा निकलने के करीब पहुंचकर पूरी शून्‍य होने लगती है।
इस फूल के साथ किरलियान ने और भी प्रयोग किये। जिससे बहुत कुछ दृष्‍टि मिलती है—तप के लिए, किरलियान ने आधे फूल को काटकर अलग कर दिया। छह पंखुडियां है तीन तोड़कर फेंक दीं। चित्र लिया है तीन पंखुड़ियों का, लेकिन चकित हुआ—पंखुडियां तो तीन रहीं,लेकिन फूल के आसपास जो वर्तुल था वह अब भी पूरा रहा। जैसा कि छह पंखुड़ियों के आस पास था। छह पंखुड़ियों के आसपास जो वर्तुल, आभा मंडल था, ऑरा था, ती पंखुड़ियों तोड़ दी, वह आभा मंडल अब भी पूरा रहा। दो पंखुडियां उसने ओर तोड़ दीं। एक ही रह गई, लेकिन आभा मंडल पूरा रहा। यद्यपि तीव्रता से विसर्जित होने लगा। लेकिन पूरा रहा।
इसलिए आप जब बेहोश कर दिए जाते है अनस्‍थीसिया से या हिप्रोसिस से—आपका हाथ काट डाला जाए, आपको पता नहीं चलता। उसका कुल कारण इतना है कि आपका वास्‍तविक अनुभव अपने शरीर का ऊर्जा शरीर से है। वह हाथ कट जाने पर भी पूरा ही रहता है। वह तो जब आप जगेंगे ओर कटा हुआ देखेंगे तब तकलीफ शुरू होगी। अगर आपको गहरी निद्रा में मार भी डाला जाए तो भी आपको तकलीफ नहीं होगी। क्‍योंकि गहरी निद्रा में सम्‍मोहन में या अनस्‍थीसिया मे आपका तादात्म्य इस शरीर से छूट जाता है और आपके ऊर्जा शरीर से ही रह जाता है। आपका अनुभव पूरा ही बना रहता है। और इसलिए अगर आप लंगड़े भी हो गए है पैर से, तब भी आपको ऐसा नहीं लगता कि आपके भीतर वस्‍तुत: कोई चीज कम हो गई है। बाहर तो तकलीफ हो जाती है। अड़चन हो जाती है लेकिन भीतर नहीं लगता है कि कोई चीज कम हो गई है। आप बूढ़े भी हो जाते है तो भी भीतर नहीं लगता कि आपके भीतर कोई चींजे बूढ़ी हो गई है। क्‍योंकि वह ऊर्जा शरीर है, वह वैसा का वैसा ही काम करता रहता है।
अमरीका मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक डा. ग्रीन ने आदमी के मस्‍तिष्‍क के बहुत से हिस्‍से काटकर देखे और वह चकित हुआ। मस्‍तिष्‍क के हिस्‍से कट जाने पर भी मन के काम में कोई बाधा नहीं पड़ती। मन अपना काम वैसा ही जारी रखता है। इससे ग्रीन ने कहा कि यह परिपूर्ण रूप से सिद्ध हो जाता है कि मस्‍तिष्‍क केवल उपकरण है, वास्‍तविक मालिक कहीं कोई पीछे है वह पूरा का पूरा काम करता रहता है। आपके शरीर के आसपास जो आभा मंडल निर्मित होता है वह इस शरीर का रेडिएशन नहीं इस शरीर से विकीर्णन नहीं है,वरन किरलियान ने वक्‍तव्‍य दिया है कि आन दि कांट्रेरी दिस बाड़ी अनली मिरर्स दि इनर बाड़ी, वह जो भीतर का शरीर है, उसके लिए यह सिर्फ दर्पण की तरह बाहर प्रगट कर देती है। इस शरी के द्वारा वे किरणें नहीं निकल रही है। वे किरणें किसी और शरी के द्वारा निकल रही है। इस शरी से केवल प्रगट होती है।
जैसे हमने एक दीया जलाया हो चारों तरफ एक ट्रांसपैरेंट कांच का घेरा लगा दिया हो, उस कांच के घेरे के बाहर हमें किरणों का वर्तुल दिखाई पड़ेगा। हम शायद सोचें कि यह कांच से निकल रहा है तो गलती है। वह कांच से निकल रहा है, लेकिन कांच से आ नहीं रहा। वह आ रहा है भीतर के दीये से। हमारे शरी से जो ऊर्जा निकलती है वह इस भौतिक शरीर की ऊर्जा नहीं है, कयोंकि मरे हुए आदमी के शरीर से समस्‍त भौतिक तत्‍व यही का यही होता है, लेकिन ऊर्जा का वर्तुल खो जाता है। उस ऊर्जा के वर्तुल को योग सूक्ष्‍म शरीर कहता है। और तप के लिए उस सूक्ष्‍म शरीर पर ही काम करने पड़ते है। सारा काम उस सूक्ष्‍म शरीर पर है।
लेकिन आमतौर पर से जिन्‍हें हम तपस्‍वी समझते है, वे वह लोग है जो इस भौतिक शरीर को ही सतानें में लगे रहते है। इससे कुछ लेना देना नहीं है। असली काम इस शरीर के भीतर जो दूसरा छिपा हुआ शरीर है—ऊर्जा शरीर,एनर्जी बाड़ी—उस पर काम का है। और योग ने जिन चक्रों की बात की है, वे इस शरीर में कहीं नहीं है, वे उस ऊर्जा शरीर में है।
इस लिए वैज्ञानिक जब इस शरीर को काटते है, फिजियोलाजिस्‍ट तो वे कहते है—तुम्‍हारे चक्र कहीं मिलते नहीं। कहां है अनाहत चक्र, कहां है स्‍वाधिष्‍ठान, कहां है मणिपूर… कहीं कुछ नहीं मिलता। पूरे शरीर को काटकर देख डालते है, वह चक्र कहीं मिलते नहीं। वे मिलेंगे भी नहीं। वे उस ऊर्जा शरीर के बिंदु है। यद्यपि उन ऊर्जा शरीर के बिन्‍दुओं को करस्‍पांड करने वाले उनके ठीक समतुल इस शरीर में स्‍थान है—लेकिन वे चक्र नहीं है।

लुकमान वैद्य ओर बबुल

लुकमान वैद्य ओर बबुल
लुकमान के जीवन मे उल्‍लेख है कि एक आदमी को उसने भारत भेजा आयुर्वेद की शिक्षा के लिए और उससे कहा कि तू बबूल के वृक्ष के नीचे सोता हुआ भारत पहुच। और किसी दूसरे वृक्ष के नीचे न तो आराम करना और न ही सोना। वह आदमी जब तक भारत आया, क्षय रोग से पीड़ित हो गया था। कश्‍मीर पहुंचकर उसने पहले चिकित्‍सक को कहा कि मैं तो मरा जा रहा हूं। मैं तो सीखने आया था आयुर्वेद, अब सीखना नहीं है। सिर्फ मेरी चिकित्‍सा कर दें। मैं ठीक हो जाऊं तो अपने घर वापस लोटू। उस वैद्य न उससे कहा, तू किसी विशेष वृक्ष के नीचे सोता हुआ तो नहीं आया?
उस आदमी ने तपाक से कहा: हां मुझे मेरे गुरु ने आज्ञा दी थी कि तू बबूल के वृक्ष के नीचे सोता हुआ जाना।
वह वैद्य हंसा। उसने कहा, तू कुछ मत कर। तू अब नीम के वृक्ष के नीचे सोता हुआ वापस लौट जा।‘’
वह नीम के वृक्ष के नीचे सोता हुआ वापस लौट गया। वह जैसा स्‍वास्‍थ चला था, वैसा स्‍वास्‍थ लुकमान के पास पहुंच गया।
लुकमान ने उससे पूछा: ‘’तू जिन्‍दा लौट आया, अब आयुर्वेद में जरूर कोई राज है।
उसने कहा—‘लेकिन मैंने कोई चिकित्‍सा नहीं की।
उसने कहा—इसका कोई सवाल नहीं है। क्‍योंकि मैंने तुझे जिस वृक्ष के नीचे सोते हुए भेजा था। तू जिन्‍दा लौट नहीं सकता था। तू लौटा कैसे। क्‍या किसी और वृक्ष ने नीचे सोत हुआ लौटा है।
उसने कहा—‘ मुझ आज्ञा दी कि अब बबूल से बचूं। और नीम के नीचे सोता हुआ लौट जाऊं। तो लुकमान ने कहा कि वह भी जानते है।
असल में बबूल सक-अप करता है एनर्जी को। आपकी जो एनर्जी है, आपकी जो प्राण ऊर्जा है, उसे बबूल पीता है। बबूल के नीचे भूलकर मत सोना। और अगर बबूल की दातुन की जाती रही है तो उसका कुल कारण इतना है कि बबूल की दातुन में सर्वाधिक जीवन एनर्जी होती है। वह आपके दांतों को फायदा पहुंचा देती है। क्‍योंकि वह पाता रहता है। जो भी निकलेगा पास से वह उसकी एनर्जी पी लेता है। नीम आपकी एनर्जी नहीं पीता है। बल्‍कि अपनी एनर्जी आपको दे देता है। अपनी ऊर्जा आप पर उड़ेल देता है।
लेकिन पीपल के वृक्ष के नीचे भी मत सोना। क्‍योंकि पीपल का वृक्ष ज्‍यादा एनर्जी उड़ेल देता है कि उसकी वजह से आप बीमार पड़ जाएंगे। पीपल का वृक्ष सर्वाधिक शक्‍ति देने वाला वृक्ष है। इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि पीपल का वृक्ष बोधि-वृक्ष बन गया, उसके नीचे लोगों को बुद्धत्‍व मिला। उसका कारण है कि वह सर्वाधिक शक्‍ति दे पाता है। वह अपने चारों और से शक्‍ति आप पर लुटा देता है। लेकिन साधारण आदमी उतनी शक्‍ति नहीं झेल पाएगा। सिर्फ पीपल अकेला वृक्ष है पृथ्‍वी पर जो रात में भी और दिन में भी पूरे समय शक्‍ति दे रहा है। इसलिए उसको देवता कहा जाने लगा। उसकी और कोई कारण नहीं है। सिर्फ देवता ही हो सकता है जो ले न और देता ही चला जाए। लेता नहीं, लेता ही नहीं देता ही चला जाता है।
यह जो आपके भीतर प्राण ऊर्जा है, इस प्राण-ऊर्जा को…यही आप है।
–ओशो

सोना

सोना एक मात्र धातु है जो सर्वाधिक रूप से प्राण ऊर्जा को अपनी तरफ आकर्षित करता है। और यही सोने का मुल्‍य है, अन्‍यथा कोई मुल्‍य नहीं है। इसलिए पुराने दिनों में, कोई दस हजार साल पुराने रिकार्ड उपलब्ध है, जिनमें सम्राटों ने प्रजा को सोना पहनने की मनाही कर रखी थी। कोई आदमी दूसरा सोना नहीं पहन सकता था। सिर्फ सम्राट पहन सकता था। उसका राज था कि वह सोना पहनकर दूसरे लोगों को सोना पहनना रोककर ज्‍यादा जी सकता था। लोगों की प्राण ऊर्जा को अनजाने अपनी तरफ आकर्षित कर सकता था। जब आप सोने को देखते है। तो सिर्फ सोने को देखकर आकर्षित नहीं होते, आपकी प्राण ऊर्जा सोने की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। इसलिए आकर्षित होते है। इसलिए सम्राटों ने सोने का बड़ा उपयोग किया और आम आदमी को सोना पहनने की मनाही कर दी गई था। कि कोई आदमी सोना नहीं पहन सकता है।
सोना सर्वाधिक खींचता है प्राण ऊर्जा को। यही उसके मूल्‍य का राज है अन्‍यथा…..अन्‍यथा कोई राज नहीं है। इस पर खोज चलती है। संभावना है कि बहुत शीध्र जो प्रेशियन स्‍टोन से, जो कीमती पत्‍थर है, उनके भीतर भी कुछ राज छिपे मिलेंगे। जो बता सकेंगे कि वे या तो प्राण ऊर्जा को खींचते है, या अपनी प्राण ऊर्जा ने खींची जा सके, इस लिए कोई रेजिस्टेंस खड़ा करते है। आदमी की जानकारी अभी बहुत कम है। लेकिन जानकारी कम हो या ज्‍यादा, हजारों साल से जितनी जानकारी है उसके आधार पर बहुत काम किया जाता रहा है। और ऐसा भी प्रतीत होता है कि शायद बहुत सी जानकारियाँ खो गई है।
–ओशो

तोते में प्राण

आप चकित होंगे जानकर—आपने पुरानी कहानियां पढ़ी होंगी, बच्‍चों की कहानियां, उनमें उल्‍लेख मिलता है। कि एक राज के प्राण तोते में थे। आज की नई कहानियों में ये उल्‍लेख लगभग खत्‍म हो गया है। क्‍योंकि इसके कोई कारण नहीं मिलते। पुरानी कहानियां कहती है। कि कोई सम्राट है, उसके प्राण किसी तोते में बंद है। अगर उस तोते को मार डालों तो सम्राट मर जायेगा। यह बच्‍चों के लिए ठीक है। हम समझते है कि ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन आप हैरान होंगे, यह सम्‍भव है। वैज्ञानिक रूप से सम्‍भव है। और यह कहानी नहीं है, इसके उपयोग किए जाते रहे है। अगर एक सम्राट को बचाना है मृत्‍यु से तो उसे गहरे सम्मोह न में ले जाकर यह भाव उसको जतलाना काफी है, बार-बार दोहराना उसके अन्‍तरतम में कि तेरा प्राण तेरे शरीर में नहीं है। इस सामने बैठे तोते के शारीर में है। यह भरोसा उसका पक्‍का हो जाए यह संकल्‍प गहरा हो जाए तो यह युद्ध के मैदान पर निर्भय चला जाएगा। और वह जानता है कि उसे कोई भी नहीं मार सकता। उसके प्राण तो तोते में बंद है। और जब वह जानता है कि उसे कोई नहीं मार सकता तो इस पृथ्‍वी पर मारने का उपाय नहीं, यह पक्‍का ख्‍याल। लेकिन अगर उस सम्राट के सामने आप उसके तोते की गर्दन मरोड़ दोगे तो वह उसी वक्‍त मर जाएगा। क्‍योंकि ख्‍याल ही सारी जीवन है। विचार है, संकल्‍प जीवन है।
सम्‍मोहन ने इस पर बहुत प्रयोग किए है। और यह सिद्ध हो गया है कि यह बात सच है। आपको कहा जाए सम्‍मोहित करके कि यह कागज आपके सामने रखा है, अगर हम इसे फाड़ देंगे तो आप बीमार पड़ जायेगे,बिस्‍तर से न उठ सकोगे। इससे आपको सम्‍मोहित कर दिया जाए, कोई तीस दिन लगेंगे। तीस सिटिंग लेने पड़ेंगे—तीस दिन पन्‍द्रह-पन्‍द्रह मिनट आपको बेहोश करके कहना पड़ेगा कि आपकी प्राण ऊर्जा इस कागज में है। और जिस दिन हम इसको फाड़ेगे,तुम बिस्‍तर पर पड़ जाओगे। उठ न सकोगे। तीसवें दिन आपको…..होश पूर्वक आप बैठे, वह कागज फाड़ दिया जाए। आप वहीं गिर जाएंगे। लकवा खा गए। उठ नहीं सकेंगे।
क्‍या हुआ? संकल्‍प गहन हो गया। संकल्‍प ही सत्‍य बन जाता है। यह हमारा संकल्‍प है जन्‍मों-जन्‍मों का कि यह शरीर मैं हूं। यह संकल्‍प वैसे ही जैसे कागज में हूं। यह तोता मैं हूं। इसमें कोई फर्क नहीं है। यह एक ही बात है। इस संकल्‍प को तोड़े बिना तप की यात्रा नही होगी। इस संकल्‍प के साथ भोग की यात्रा होगी। यह संकल्‍प हमने किया ही इसलिए है कि हम भोग की यात्रा कर सकें। अगर यह संकल्‍प के साथ भोग की यात्रा नहीं हो सकेंगी।
अगर मुझे यह पता हो की यह शरीर में नहीं हूं। तो इस हाथ में कुछ रस न रह गया कि इस हाथ से मैं किसी सुन्‍दर शरीर को छुऊं। यह हाथ मैं हूं ही नहीं। यह तो ऐसा ही हुआ जैसे एक डंडा हाथ में ले लें और उस डंडे से किसी का शरीर छुऊं। तो कोई मजा नहीं आएगा। क्‍योंकि डंडे से क्‍या मतलब है। हाथ से छूना चाहिए। लेकिन तपस्‍वी का हाथ भी डंडे की भांति हो जाता है। जैसे वह संकल्‍प को खीज लेता है। भीतर कि यह हाथ में नहीं हूं। हाथ डंडा हो गया। अब इस हाथ से किसी का सुन्‍दर चेहरा छुओ कि न छुओ यह डंडे से छूने जैसा होगा। इसका कोई मूल्‍य न रहा। इसका कोई अर्थ न रहा। भोग की सीमा गिरनी और टूटने और सिकुड़नी शुरू हो जाएगी।
–ओशो

03 April 2012

नन्ही-सी संवेदना

सुशोभित सक्तावत... शरीर से युवा लेकिन मन से प्रौढ़, भास्कर ब्लॉग में समय-समय पर उन्होंने अनेक पठनीय आलेख लिखे हैं। दैनिक भास्कर के एडिट पेज के इंचार्ज सुशोभित के भीतर एक्युरेसी की चाह, सर्वश्रेष्ठ करने की, हीरा बीनने की, निर्दोष वर्क की चाह है। उनके लिखे आर्टिकलों से उभरने वाले सतह के भीतरी स्वर... जो मेरे भीतर कहीं स्पंदित हुए... उनके आधार पर यह कह रहा हूं।
उनका हर आर्टिकल एक कलाकार की कृति जैसा है। लेख को वे एक पेंटर जैसा ही पेंट करते हैं। हालांकि शब्दों के आभामंडल से वे भी नहीं बच पाते हैं और भाषाई चमत्कार अपने लेखन में दिखाते रहते हैं। लेकिन यह बहुत बड़ी बात नहीं है। शुरुआत ऐसे ही होती है... सरल से कठिन और कठिन से फिर सरल...। असल चीज है संवेदनाएं...। इसकी सच्ची झलक उनमें मिल रही है। हाल ही में उन्होंने एक आर्टिकल लिखा था, गली-मोहल्ले के नामों पर आधारित...। हालांकि यह तथ्यात्मक ज्यादा था, लेकिन फिर भी लेखन के नजरिए से इसे कीमती कहा जा सकता है। एक नन्ही-सी संवेदना को जिस तरह से परिधान-युक्त किया है, वह पठनीय है।
शुरुआत फिल्मी गीत के उदाहरण से... इसके बाद मोहल्ले के तथ्यों के बीच गालिब का जिक्र...। फिर एक-आध मोहल्ले की रोचक बात,,  उनके विचित्र नामों पर खुद की टिप्पणी, उसके बाद भोपाल का जिक्र आने पर उससे संबंधित एक बुक का जिक्र। अंत में पूरे मैटर को मुकाम तक ले जाने की कोशिश यह कहकर कि... कोई भी शहर अपनी अंगुली के पोरों पर नहीं, बल्कि हथेली की गुदैली पर बसता है।  वहीं होते हैं, मुहल्ले पाड़े, जो हर शहर का नमक होते हैं।
मैटर के अंत में उधारी के शब्द (संवेदनाएं) और साहित्यिक अंदाज की झलक जरूर मिलती है। ज्यादा बेहतर सार्थक अंत तक वह नहीं पहुंचाया जा सका, निजी संवेदनाओं के साथ,  लेकिन ओवरआल पूरे मैटर का शरीर-सौष्ठव मुझे ठीक लगा। जैसा कि मैंने कहा एक छोटी-सी संवेदना को आकार देना और सार्थक अंजाम तक पहुंचाना अपेक्षाकृत कठिन पड़ता है, इसीलिए यह मैटर मुझे आकर्षित किया। सुशोभित के मेरे पढ़े और दीगर आलेख, जाने क्यों मुझे उनकी व्यक्तिगत संवेदनाएं नहीं लगीं।(हो सकता है, मैं यहां पूरी तरह गलत होऊं, पूर्वग्रह से बात नहीं कर रहा हूं, पर मुझे ऐसा लगा।) लेकिन वे बेहतर की कोशिश में हैं, यही बात बेहतरीन हैं।   
उनके मोहल्ले वाले आर्टिकल को पढऩे यहां क्लिक करें... http://www.bhaskar.com/ gali-mohalle