18 July 2012

बिछड़े सभी बारी-बारी

राजेश खन्ना, जगजीत सिंह, मेहदी हसन, देवानंद, शम्मी कपूर, भूपेंद्र हजारिका, नवाब पटौदी और जाने कितने नामचीन-गुमनाम चेहरे...। बहुत लंबी लिस्ट है। आज राजेश खन्ना गुजर गए। पुराने जमाने के सुपर स्टार। उनसे जुड़े आर्टिकल पढ़ते-देखते जीनत अमान के जवानी और बुढ़ापे की तसवीर भी दिखाई दी। उसे देखकर समय की ताकत का एहसास एक बार फिर हुआ।
जब भी कोई व्यक्ति गुजरता है, तो उसके, इस मरने की खबर सुनकर भी, एक तरह की दूरी का एहसास बना ही रहता है। तथ्यात्मक रूप से ऐसा महसूस नहीं होता कि हमारे साथ भी ऐसा ही होने वाला है, हमें भी मरना है। जाने क्यूं मौत को लेकर एक तरह की निश्चिंतता-सी बनी रहती है कि फौरी तौर पर तो मैं इससे बचा हुआ हूं। ऐसा भाव कहीं गहरे में, अंतस में, अवचेतन में बना रहता है। जीनत अमान अपनी जवानी में जितनी मांसल और खूबसूरत थी, बुढ़ापे में अब उतनी ही निस्तेज और हड्डियों की गठरी बनकर रह गई हैं। वैजयंती माला का जवानी-बुढ़ापा भी इसी तथ्य को दोहराता है कि शरीर या शारीरिक सुंदरता भी और चीजों की तरह क्षणभंगुर ही हैं।
लेकिन इन सार्वभौमिक और सनातन सत्यों के प्रति वैसा, आत्मिक रूप से, पूरी तरह, भीतर से, गहराई से, पूरी तरह स्वीकारभाव पैदा नहीं हो पाता। केवल सैद्धांतिक रूप से, बौद्धिक रूप से ही स्वीकार्यता बन पाती है। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यदि पूरी तरह मेरे अंदर यह तथ्य ख्याल में रहने लगता, तो यह मेरे बोध का हिस्सा बन जाता, यानी मेरे ख्याल में यह  24 घंटे रहने लगता। मैं इस तथ्य को कभी नहीं भूल पाता।  अगर ये तथ्य मेरे भीतर रहने लगते, तो व्यर्थ की चीजें, जो भी निरर्थक है, सब गिरना शुरू हो जातीं और सार्थक चीजों को (ऐसी गिनी-चुनी चीजें, जो जीवन में अहोभाव पैदा करने में, शांति लाने में मदद करती हैं) करने में मेरे अंदर ब्रेकर नहीं आते...। कोई अगर-मगर, ऑप्शन, आलस, भय, चिंता, द्वंद्व, या दूसरे क्या सोचेंगे जैसी विकल्प बचा के रखने जैसी स्थिति नहीं आती।
मरना तो है ही। मुझे भी, सबको भी... आज नहीं तो कल। अलकेमिस्ट   में एक जगह लेखक लिखता है कि कल मरना किसी और दिन मरने से बदतर नहीं है।
तो मरने का डर वैसा नहीं है मुझे। लेकिन मेरी चाहत है कि पूरी स्वस्थता के साथ मौत आए। जब मरूं तो कोई बीमारी न रहे, कोई चीज तंग करने वाली न हो। अच्छे ढंग से, तनावरहित, बिना किसी टेंशन के, जैसे यह भी एक काम है जो कि हो रहा है वैसे मरूं। मौत शॉकिंग नहीं होनी चाहिेए। चौंकाने वाली नहीं, पूरी एवेयरनेस के साथ हो।
खैर, आज राजेश खन्ना गए हैं, तो उनके जाने का गम मनाएं और अपने जाने के पहले, चीजों को फैलाने की बजाय अपनी अनुकुलता, सार्थकता तलाशने की कोशिश करें अपने स्तर पर...।

10 July 2012

लालू और जासूस

एक बार लालू को जासूस बनने की धुन सवार हुई और इस पोस्ट के लिए अप्लाई करने वह पटना पहुंचे।
उनसे पूछा गया: महात्मा गांधी को किसने मारा?
लालू: मैं आपको कल बताता हूं सर।
लालू घर आए और अपनी पत्नी से कहा: मुझे जॉब मिल गया है और पहला काम मुझे गांधीजी के हत्यारे का पता लगाने का मिला है।

नदी में कूदी पड़ीं सास

एक सासू मां अपने तीनों दामादों का प्यार देखने के लिए नदी में कूद गईं।
जब पहले दामाद ने उनकी जान बचाई तो उसने अपने दामाद को मारुति दी।
दूसरे दिन वह फिर नदी में कूद पड़ीं, तो दूसरे दामाद ने उनकी जान बचाई।
खुश होकर सासू मां ने उसको बाइक ‍दी।
जब तीसरे दिन वह फिर कूदीं...।
तो तीसरे दामाद ने सोचा - अब तो साइकल ही रह गई है मेरे लिए।
...‍तो फिर जान जोखिम में डालने का क्या फायदा और सासू मां डूब गईं।
अगले दिन तीसरे दामाद को मर्सिडीज़ मिली। बताओ कैसे?