31 December 2011

शुभकामना


नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं

27 December 2011

रोना


फकत दो चार बार का रोना हो तो रो लूं फाकिर
 मुझे हर रोज के सदमात ने रोने ना दिया
रोने वालों से कहो उनका भी रोना रो लें
जिन्हें मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया

12 December 2011

क्रांतिनाद

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क, हर गली में, हर नगर, हर गांव में
हाथ लहराते हुए, हर लाश चलनी चाहिए

के सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
 मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

और मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
- स्व. दुष्यंत कुमार त्यागी

सत्य का स्वाद

एक राजा ने एक महात्मा से कहा-  कृपया मुझे सत्य के बारे में बताइए। इसकी प्रतीति कैसी है? इसे प्राप्त करने के बाद की अनुभूति क्या होती है? राजा के प्रश्न के उत्तर में महात्मा ने राजा से कहा- ठीक है, पहले आप मुझे एक बात बताइए, आप किसी ऐसे व्यक्ति को आम का स्वाद कैसे समझाएंगे, जिसने पहले कभी आम नहीं खाया हो? राजा सोच-विचार में डूब गया।  उसने हर तरह की तरकीब सोची पर वह यह नहीं बता सका कि उस व्यक्ति को आम का स्वाद कैसे समझाया जाए, जिसने कभी आम न खाया हो। हताश होकर उसने महात्मा से ही कहा- मुझे नहीं मालूम, आप ही बता दीजिए। महात्मा ने पास ही रखी थाली से एक आम उठाया और उसे राजा को देते हुए कहा- यह बहुत मीठा है, इसे खाकर देखो।।।

09 December 2011

जागरण


आंखे बंद किया हुआ हर आदमी सोया नहीं रहता और हर खुली आंख वाला व्यक्ति जागा हुआ नहीं होता।

भुलक्कड़

सोनू-मोनू की बीवियां आपस में बतिया रही थीं। सोनू की बीवी- मेरे पति इतने भुलक्कड़ हैं, एक दिन मुझे मार्केट में मिले, तो कहने लगे, बहिनजी शायद मैंने आपको कहीं देखा है।
मोनू की बीवी- बस, इतना ही... मेरे पति तो और बड़े वाले हैं। एक दिन वो पान खाकर घर में आए, बिस्तर में पान को थूक दिया और खुद खिड़की से कूद गए।

03 December 2011

सपने

सपने वे नहीं हैं, जो नींद में आते हैं
सपने तो वे हैं, जो सोने ही नहीं देते। 

पहले क्यों नहीं बताई यह बात

एक दिन मुल्ला नसीरुद्दीन अपने घर में फुरसत में बैठे थे और अपने चाहने वालों से गप्पबाजी कर रहे थे। उसी समय एक भिखारी ने उनके घर का दरवाजा खटखटाया। मुल्ला उस समय घर की ऊपरी मंजिल पर थे। उन्होंने खिड़की खोली और देखा तो वह फटेहाल भिखारी नीचे दरवाजे के पास टहल रहा था। उन्होंने ऊपर से ही उससे चिल्लाकर पूछा- क्या हो गया, क्यों दरवाजा खटखटा रहे हो, क्या चाहिए?
भिखारी ने कहा- मुल्ला आप नीचे आइए, तो मैं आपको बताऊंगा? मुल्ला ने कहा- अरे भाई चिल्लाकर बता दो। भिखारी ने इंकार किया, तो वे
नीचे उतरकर आए और दरवाजा खोलकर बोले- अब बताओ क्या चाहते हो? भिखारी ने फरियाद करते हुए कहा- कुछ पैसे दे दो, बड़ी मेहरबानी होगी।  नसीरुद्दीन घर में ऊपर गया और खिड़की से झांककर भिखारी से बोला- अरे, वहां क्यों खड़े हो, यहां ऊपर आ जाओ। भिखारी सीढिय़ां चढ़कर ऊपर गया और मुल्ला के सामने जा खड़ा हुआ। मुल्ला ने कहा- माफ करना भाई, अभी मेरे पास खुले पैसे नहीं हैं। एक काम करो, किसी और रोज आकर ले जा लेना। भिखारी को यह सुनकर बहुत बुरा लगा। वह चिढ़कर बोला- मुझे बेवजह  इतनी सारी सीढिय़ां चढऩी पड़ी। आपने ये बात जब मैं नीचे खड़ा था, उसी समय क्यों नहीं बता दी? आपको तो ऊपर जाने पर मालूम चल ही गया था कि आपके पास खुले पैसे नहीं है। मुल्ला भी उसी सुर में बोले- तो फिर तुमने भी मुझे पहले क्यों नहीं बताया? जब मैंने ऊपर से तुमसे पूछा था कि तुम्हें क्या चाहिए! भिखारी भुनभुनाते हुए वहां से चला गया। लेकिन मुल्ला मंद-मंद मुस्करा रहे थे और उनके चेले थोड़ा अनमने से बैठे थे।

30 November 2011

फादर फारगेट्स : हर पिता यह याद रखे

 इस आर्टिकल को सालों पहले डब्लू लिविंगस्टोन लारनेड ने लिखा है। गहन अनुभूति के क्षणों में लिखा जाने वाला यह लेख एक पिता की अपराधस्वीकारोत्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पिता-पुत्र रिश्तों की कसौटी और मानवीय संवेदनाओं की दरकार को भी रेखांकित  करता है। सच तो यह है कि यह लेख केवल एक पिता से नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव समाज से बालमनोविज्ञान को समझने का, प्रकृति के इन फूलों की कोमलता को बनाए रखते हुए, इनका विकास करने का आग्रह करता है... प्रस्तुत है यह पत्र...  
सुनो बेटे, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा-सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल में दबा है। और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लाइब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं, किसी अपराधी की तरह।
जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वह ये हैं, बेटे। मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा... तुमने टॉवेल के बजाय पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे, इस बात पर भी मैंने तुम्हे कोसा। तुमने फर्श पर इधर-उधर चीजें फेंक रखी थीं... इस पर भी मैंने तुम्हें भला-बुरा कहा।
नाश्ता करते वक्त भी मैं तुम्हारी एक-के-बाद एक गलतियां निकालता रहा। तुमने डाइनिंग टेबल पर खाना बिखरा दिया था। खाते समय तुम्हारे मुंह से चपड़-चपड़ की आवाज आ रही थी। मेज पर तुमने कोहनियां भी टिका रखी थीं। तुमने ब्रेड पर बहुत-सा मक्खन भी चुपड़ लिया था। यही नहीं जब मैं ऑफिस जा रहा था और तुम खेलने जा रहे थे... और तुमने मुड़कर हाथ हिलाकर 'बॉय-बॉय, डैडीÓ कहा था, तब भी मैंने भृकुटी तानकर टोका था- 'अपनी कॉलर ठीक करोÓ
शाम को भी मैंने यही सब किया। ऑफिस से लौटकर मैंने देखा कि तुम दोस्तों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे। तुम्हारे कपड़े गंदे थे, तुम्हारे मोजों में छेद हो गए थे। मैं तुम्हें पकड़कर ले गया और तुम्हारे दोस्तों के सामने तुम्हें अपमानित किया... 'मोजे महंगे हैं- जब तुम्हें खरीदना पड़ेंगे, तब तुम्हें इनकी कीमत समझ में आएगी।Ó  जरा सोचो तो सही, एक पिता अपने बेटे का इससे ज्यादा दिल किस तरह दुखा सकता है?
क्या तुम्हें याद है जब मैं लाइब्रेरी में पढ़ रहा था, तब तुम रात को मेरे कमरे में आए थे, किसी सहमे हुए मृगछौने की तरह। तुम्हारी आंखे बता रही थीं कि तुम्हें कितनी चोट पहुंची हैं। और मैंने अखबार के ऊपर से देखते हुए पढऩे में बाधा डालने के लिए तुम्हें झिड़क दिया था... 'कभी तो चैन से रहने दिया करो। अब क्या बात है?Ó और तुम दरवाजे पर ही ठिठक गए  थे।
तुमने कुछ नहीं कहा। तुम बस भागकर आए, मेरे गले में बांहे डालकर मुझे चूमा और 'गुडनाइटÓ कहकर चले गए। तुम्हारी नन्ही बांहों की जकडऩ बता रही थी कि तुम्हारे दिल में ईश्वर ने प्रेम का ऐसा फूल खिलाया था, जो इतनी उपेक्षा के बाद भी नहीं मुरझाया। और फिर तुम सीढिय़ों पर खट-खट करके चढ़ गए।
तो बेटे, इस घटना के कुछ ही देर बाद मेरे हाथों से अखबार छूट गया और मुझे बहुत ग्लानि हुई। यह क्या होता जा रहा है मुझे? गलतियां ढूंढऩे की, डांटने-डपटने की आदत सी पड़ती जा रही है मुझे। अपने बच्चे के बचपने का मैं यह पुरस्कार दे रहा हूं। ऐसा नहीं है बेटे, कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता, पर मैं एक बच्चे से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा बैठा था। मैं तुम्हारे व्यवहार को अपनी उम्र के तराजू पर तौल रहा था।
तुम इतने प्यारे हो, इतने अच्छे और सच्चे। तुम्हारा नन्हा-सा दिल इतना बड़ा है जैसे चौड़ी पहाडिय़ों के पीछे से उगती सुबह। तुम्हारा बड़प्पन इसी बात से जाहिर होता है कि दिन भर डांटते रहने वाला पापा को भी तुम रात को'गुडनाइट किसÓ देने आए। आज की रात और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, बेटे। मैं अंधेरे में तुम्हारे सिरहाने आया हूं और यहां घुटने टिकाए बैठा हूं, शर्मिंदा।
यह एक कमजोर पश्चाताप है। पर मैं जानता हूं कि अगर तुम्हें जगाकर यह सब कहूंगा, तो शायद तुम नहीं समझोगे। कल से मैं सचमुच तुम्हारा प्यारा पापा बनकर दिखाऊंगा। मैं तुम्हारे साथ खेलूंगा, तुम्हारी मजेदार बातें मन लगाकर सुनूंगा, तुम्हारे साथ खुलकर हंसूंगा और तुम्हारी तकलीफों को बांटूंगा। आगे से जब मैं तुम्हें डांटने के लिए मुंह खोलूंगा, तो इसके पहले अपनी जीभ को अपने दांतों में दबा लूंगा। मैं बार-बार किसी मंत्र की तरह कहना सीखूंगा...  'वह तो अभी बच्चा है, छोटा-सा बच्चा।Ó
मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें बच्चा नहीं, बड़ा मान लिया था। परंतु आज जब मैं तुम्हें गुड़ी-मुड़ी और थका-थका पलंग पर सोया देख रहा हूं, बेटे, तो मुझे एहसास होता है कि तुम अभी बच्चे ही तो हो। कल तक तुम अपनी मां की बांहों में थे, उसके कांधे पर सिर रखे। मैंने तुमसे कितनी ज्यादा उम्मीदें की थीं, कितनी ज्यादा...।

24 November 2011

भिखारी

सोनू-मोनू लाल किला देखते हुए खड़े थे। वहां एक भिखारी मिला और 10 रुपए मांगा। सोनू- क्या करेगा इस 10 रुपए का? भिखारी- मैं और मेरी गर्लफ्रेंड चाय पीएंगे। सोनू- अबे, भिखारी होकर भी गर्लफ्रेंड रखता है और उसके खर्चे उठाता है? भिखारी- नहीं साहब, गर्लफ्रेंड के खर्चे उठा-उठाकर भिखारी हो गया।

23 November 2011

मिलन


तेरा मेरा मिलन बस समय की बात
एक दो महीने तो, थोड़े दिन की बात

गुजरते रहे दिन, गुजरती रही रात
बस याद रही तू, याद रही तेरी बात

यादों की किताब खोली, तो आंखे भीग गई
याद आ गई वो सब, खट्टी-मीठी बात

मत हो मन उदास, जल्दी होंगे हम साथ
गुजरेंगी मीठी रातें, फिर होंगी मीठी बात

21 November 2011

शेर की दहाड़

सोनू, मोनू जंगल में जा रहे थे। तभी शेर की दहाड़ सुनाई दी। सोनू तुरंत जूता-मोजा खोलकर भागने के लिए तैयार हो गया। यह देखकर मोनू बोला- तुम कितना ही तेज भागो शेर तो पकड़ ही लेगा। सोनू- मुझे शेर से नहीं, तुझसे तेज भागना है।

तेरी कमी पाता हूं मैं...

उल्फत ने खाएं हैं जख्म जब से
चैन से नहीं रह पाता हूं मैं,
 आज भी अपने में बहुत
तेरी कमी पाता हूं मैं।

लिंकन का पत्र बेटे के शिक्षक के नाम


अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के शिक्षक को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने शिक्षक से कुछ अपेक्षाएं रखी थीं। इस पत्र को आदर्श शिक्षक होने की कसौटी की नजीर के रूप में सालों से प्रस्तुत किया जाता रहा है। यह केवल एक छात्र व शिक्षक के सीखने-सिखाने तक सीमित नहीं हैं, इसका दायरा बहुत बड़ा है। पढि़ए, यह पत्र...
सम्माननीय सर...
मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूँ कि आप उसे यह बताएँ कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूँ कि आप उसे सिखाएँ कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है। ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूँ। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पाँच रुपए के नोट से ज्यादा कीमती होता है।
आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाएं। साथ ही यह भी कि खुलकर हँसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएँगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है। यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।
आप उसे किताबें पढऩे के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को धूप, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मँडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूँ कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।
मैं मानता हूँ कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा।
आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा।
ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएँ उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी।
आपका
अब्राहम लिंकन
--
किसी सज्जन ने लिंकन के शिक्षक के नाम पत्र को कविता में रूपांतरित किया है। वह भी पेश-ए-नजर है...
हे शिक्षक !
मैं जानता हूँ और मानता हूँ
कि न तो हर आदमी सही होता है
और न ही होता है सच्चा;
किंतु तुम्हें सिखाना होगा कि
कौन बुरा है और कौन अच्छा,
दुष्ट व्यक्तियों के साथ साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं,
स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ समर्पित नेता भी होते हैं;
दुष्मनों के साथ - साथ मित्र भी होते हैं,
हर विरूपता के साथ सुन्दर चित्र भी होते हैं
समय भले ही लग जाए, पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाए हुए पाँच से अधिक मूल्यवान-
स्वयं एक कमाना...
पाई हुई हार को कैसे झेले, उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,जीत की खुशियाँ मनाना।
यदि हो सके तो ईष्र्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी मौन मुस्कान का पाठ पठाना 7
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमजोर होता है
वह भयभीत व चिंतित है
क्योंकि उसके मन में स्वयं चोर छिपा होता है
उसे दिखा सको तो दिखाना-
किताबों में छिपा खजाना
और उसे वक्त देना चिंता करने के लिए...
कि आकाश के परे उड़ते पंछियों का आल्हाद,
सूर्य के प्रकाश में मधुमक्खियों का निनाद,
हरी- भरी पहाडिय़ों से झाँकते फूलों का संवाद,
कितना विलक्षण होता है- अविस्मरणीय...अगाध...
उसे यह भी सिखाना-
धोखे से सफलता पाने से असफ़ल होना सम्माननीय है 7
और अपने विचारों पर भरोसा रखना अधिक विश्वसनीय है!
चाहें अन्य सभी उनको गलत ठहराएं
परंतु स्वयं पर अपनी आस्था बनी रहे यह भी विचारणीय है
उसे यह भी सिखाना कि वह सदय के साथ सदय हो,
किंतु कठोर के साथ हो कठोर...
और लकीर का फकीर बनकर,
उस भीड़ के पीछे न भागे जो करती हो-निरर्थक शोर...
उसे सिखाना
कि वह सबकी सुनते हुए अपने मन की भी सुन सके,
हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसकर गुन सके...
यदि सिखा सको तो सिखाना कि वह दुख: में भी मुस्करा सके,
घनी वेदना से आहत हो, पर खुशी के गीत गा सके..
उसे ये भी सिखाना कि आँसू बहते हों तो बहने दें,
इसमें कोई शर्म नहीं...कोई कुछ भी कहता हो... कहने दो
उसे सिखाना-
वह सनकियों को कनखियों से हंसकर टाल सके
पर अत्यन्त मृदुभाषी से बचने का ख्याल रखे
वह अपने बाहुबल व बुद्धिबल क अधिकतम मोल पहचान पाए
परन्तु अपने ह्रदय व आत्मा की बोली न लगवाए
वह भीड़ के शोर में भी अपने कान बन्द कर सके
और स्व की. अंतरात्मा की यही आवाज सुन सके;
सच के लिए लड़ सके और सच के लिए अड़ सके
उसे सहानुभूति से समझाना
पर प्यार के अतिरेक से मत बहलाना
क्योंकि तप-तप कर ही लोहा खरा बनता है.
ताप पाकर ही सोना निखरता है
उसे साहस देना ताकि वह वक्त पडऩे पर अधीर बने
सहनशील बनाना ताकि वह वीर बने
उसे सिखाना कि वह स्वयं पर असीम विश्वास करे,
ताकि समस्त मानव जाति पर भरोसा व आस धरे
यह एक बड़ा-सा लम्बा-चौड़ा अनुरोध है
पर तुम कर सकते हो,क्या इसका तुम्हें बोध है?
मेरे और तुम्हारे... दोनों के साथ उसका रिश्ता है;
सच मानो, मेरा बेटा एक प्यारा- सा नन्हा सा फरिश्ता है...
---

नेताजी का अंतिम भाषण- हिंदुस्तान जरूर आजाद होगा...

नेताजी अपने जोशीले भाषणों के द्वारा युवाओं में जोश भर देते थे, 22 अप्रैल, 1945 को नेताजी ने रंगून (बर्मा) में अपना आखिरी भाषण दिया था? उस समय आजाद हिंद फौज इंफाल व पोपा फ्रंट में हार चुकी थी और नेताजी बर्मा छोड़ रहे थे... 


नेताजी का अंतिम भाषण
 चाहे हम बर्मा की आजादी की लड़ाई के लिए किए गए पहले युद्ध में पराजय का मुंह देख चुके हों, लेकिन हमें अंग्रेजों से आजादी प्राप्त करने के लिए अभी और कहीं अधिक लड़ाइयों को लडऩा है।  मेरा ईमान है कि जो कुछ होगा, वह भलाई के लिए होगा, इसलिए मैं किसी हालत में हार नहीं मानता।
बर्मा, जहां तुमने कई दिनों तक कई जगहों पर जबरदस्त लड़ाइयां लड़ीं व लड़ रहे हो, लेकिन हम इंफाल व पोपा फ्रंट में बर्मा की आजादी का पहला दौर हार चुके हैं। हम देश की आजादी के लिए हार नहीं मानेंगे, साथियों इस नाजुक वक्त में मेरा एक हुक्म है और वह है कि यदि तुम वक्ती तौर पर हार भी गए, तो तिरंगे के नीचे लड़ते हुए बहादुरी की इस शान को दुनिया में जिंदा रखोगे।
अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हारी आने वाली संतान गुलाम पैदा नहीं होगी। साथियों मैं तुम्हारे हाथों में प्यारे झंडे की शान और इज्जत को छोड़कर जा रहा हूं और मुझे यकीन है कि तुम हिंदुस्तान की फौज को आजाद कराने वाली फौज के पहले दस्ते हो. यहां तक हम अपनी जान भी हिंदुस्तान की इज्जत बचाने के लिए कुर्बान कर देंगे।  अगर मेरा अपना कोई जोर होता तो मैं तुम्हारे साथ रहता।
परंतु अफसोस, मैं तुम्हारी हार में शरीक नहीं हो सकता, लेकिन मैं आजादी की जद्दोजहद को जारी रखने के लिए और अफसरों की नसीहत से बर्मा छोड़ रहा हूं।  अगर मैं अंग्रेजों के कब्जे में आ गया तो वह मेरी क्या हालत करेंगे, इसलिए मैं दूसरी जगह पर जाकर देश को आजाद करवाने के लिए काम करूंगा। मैं देश की आजादी लिए लड़ाई जारी रखूंगा।
याद रखो अंधेरे के बाद ही उजाला होता है और हिंदुस्तान जरूर आजाद होगा. इंकलाब जिंदाबाद।
(नोट: जिस ब्लॉग से मैंने यह आर्टिकल लिया उसमें उल्लेखित था कि हिसार के लालचंद कस्बा ने अपनी डायरी में यह भाषण उर्दू में नोट किया था)

19 November 2011

समानता

 सोनू: मंदिर में रखी हुई नई चप्पल और मिस कॉल में क्या समानता है?
मोनू: दोनों को लेकर यह डर लगा रहता है कि कहीं कोई उठा न ले।

हार नहीं होती...

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढऩा न अखरता है।
आखऱि उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मु_ी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
(नोट: कवि का नाम पता नहीं है, जिस सज्जन को जानकारी हो कृपया बताएं)

आंसू


गर सलीका हो भीगी हुई आंखों को पढऩे का
तो बहते हुए आंसू भी अक्सर बात किया करते हैं...

16 November 2011

दिलचस्प जवाब

 
स्वामी विवेकानंद भारत की महान विभूति थे और उनके विराट व्यक्तित्व से हर कोई प्रभावित हो जाता था। ऐसे ही एक बार एक विदेशी महिला उनकी ज्ञान संपदा से प्रभावित होकर उन पर रीझ गई और उनसे शादी करने की जिद करने लगी। किसी संन्यासी के लिए दुविधा वाली स्थिति हो सकती थी, लेकिन स्वामीजी ने इसका दिलचस्प समाधान निकाला... 

एक बार जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए हुए थे। वहां एक महिला ने उनसे शादी करने की इच्छा जताई। जब स्वामी विवेकानंद ने उस महिला से यह पूछा कि आप ने ऐसा प्रश्न क्यों किया? तो उस महिला का उत्तर था कि वह उनकी ज्ञान-बुद्धि से बहुत प्रभावित है और वह चाहती है कि उसका बेटा विवेकानंद के जैसा हो। उसे उनके जैसे ही बुद्धिमान बच्चे की कामना है। उसने फिर स्वामीजी से कहा कि क्या वो उससे शादी कर सकते हैं और उसे अपने जैसा एक बच्चा दे सकते हैं? इस पर स्वामीजी ने बिना विचलित हुए उस महिला से कहा- प्रिय महिला, मैं आपकी इच्छा को समझता हूं। शादी करना और इस दुनिया में एक बच्चा लाना और फिर जानना कि वो बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा। इसके अलावा ऐसा ही हो, यानी मेरे जैसा ही आपको बच्चा हो इसकी गारंटी भी नहीं है। मैं क्या कोई भी आपसे ऐसा दावा नहीं कर सकेगा कि होने वाला बच्चा मेरी तरह होगा। पर एक रास्ता है, जिससे बात बन सकती है। ऐसा कुछ हो सकता है, जिससे आपकी इच्छा पूरी हो सकती है और मजे की बात तो यह है कि इसके लिए आपको इंतजार भी नहीं करना पड़ेगा। महिला ने कौतुहल से स्वामीजी से पूछा- कौन सा रास्ता है वह बताइए मुझे, मैं उसे जानना चाहती हूं। विवेकानंद मुस्कराते हुए बोले-आप मुझे अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर लें। इस प्रकार आप मेरी मां बन जाएंगी और इस प्रकार मेरे जैसे बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूरी हो जाएगी, महिला यह सुनकर अवाक रह गई। -

बुढ़ापा-जवानी



ये दुनिया अजब सरायफानी है
यहां की हर चीज आनी-जानी है
जो आ के न जाए, वो बुढ़ापा है
जो जा के ना आए, वो जवानी है

15 November 2011

अपनी जानकारियों के आधार पर हम धारणाएं बनाते हैं और उसी के अनुसार व्यक्ति से प्यार या नफरत करते हैं। लेकिन क्या हम कभी भी यह दावा करने की स्थिति में हैं कि जो हम जानते हैं उसमें ऐसा कुछ नया नहीं जुड़ेगा जो हमारी धारणाओं को बदल दे...
किसी से पूरा-पूरा नफरत या प्यार मत करो, एक गुंजाइश बनाकर चलो। हो सकता है  किसी रोज यह पता चले कि हम जिससे नफरत कर रहे थे वह नफरत के लायक ही नहीं था, बल्कि वह तो प्यार या सहानुभूति का पात्र था...
MAHATAMA BUDDHA AND ANGULIMAL
नफरत एक प्रबल मानवीय भावना है, जो हर इंसान में रहती है। साथ-ही-साथ एक दूसरी प्रतिक्रियात्मक भावना भी है, जिसे हम अपराधबोध कहते हैं। ये दोनों जस्बात समय-समय पर इंसान के भीतर उठते हैं। पर हर मौके पर हमारी नफरत जायज नहीं होती, इसीलिए हमें बाद में अपराधबोध होता है।
 दरअसल, प्यार या नफरत के पीछे हमारा पूर्वग्रह, कोई विशेष धारणा काम करती है। अपनी जानकारियों के आधार पर ही हम धारणाएं बनाते हैं, लेकिन हम कभी भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं हैं कि जो हम जानते हैं उसमें कुछ ऐसा नया नहीं जुड़ेगा जो हमारी धारणाओं को बदल दे...
मिसाल के तौर पर डाकू अंगुलिमाल के नाम से हम सब वाकिफ हैं और बेहतर जानते हैं कि महात्मा बुद्ध से मिलने के बाद उसका हृदय परिवर्तन हुआ था। इस डाकू के लिए आमतौर पर सभी के अंदर एक क्रूर हत्यारे की छवि होगी। जीवहत्या करने वाले उस पापी के लिए हमारे भीतर नफरत की भावना होगी। लेकिन यदि यह पता चले कि उसके गुरू ने उसे गुरुदक्षिणा के रूप में हजार लोगों की हत्या करने कहा था, तब शायद उससे उतनी त्वरा के साथ नफरत नहीं हो पाएगी। और शायद उसके लिए मन में सहानुभूति भी पैदा होगी।
 एक और बदनाम चरित्र है... जुदास। इस व्यक्ति ने ही ईसा मसीह को उन लोगों के हाथ बेच दिया था, जिन्होंने जीजस को सूली  पर चढ़ाया था। साधारणत: यह किरदार भी नफरत के लायक ही है। लेकिन ओशो के एक आर्टिकल (ओशो के प्रवचनों को बुक का रूप दिया गया है) में पढ़ा कि जीजस अपने सिद्धांतों को अमर करने के लिए शहीद की मौत, असाधारण मौत चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे उन्हें उनके विरोधियों के हाथ बेच दें, लेकिन कोई राजी नहीं हुआ सिवाय जुदास के। तथ्यात्मक रूप से यह बात कितनी सही है, यह पता करने का कोई रास्ता नहीं है, लेकिन जुदास के प्रति यह नई जानकारी उसके प्रति एक नया नजरिया लेकर आती है, उसके लिए नफरत पोंछने के लिए प्रेरित करती है।
इसी तरह हॉलीवुड की एक्स मैन सीरिज की फिल्मों को लीजिए। इन्हें देखते हुए अनूठे एहसास होते हैं, कब पाला बदल जाता है, पता ही नहीं चलता। जो बुरा था, वह अच्छा लगने लगता है। जिससे नफरत थी, उसी से धीरे-धीरे सहानुभूति होने लगती है।  इस सीरिज के शुरुआती तीन पार्ट में जो विलेन है, वही बाद के दो भाग में हीरो का साथी (पाजीटिव कैरेक्टर) बन जाता है। असल में बाद के भागों में खलनायक का चरित्र पूरा विकसित होता है, उसका भूतकाल बताया जाता है, तो सैद्धांतिक रूप से उसका स्वार्थी होना, गलत नहीं लगता। उसकी क्रूरता भी सहानुभूति बटोर ले जाती है, क्योंकि बचपन पर हुए अत्याचार उसे निर्मम बनाने का काम करते हैं।
इसी प्रकार, गांधीजी की हत्या करने वाले नाथूराम गोड़से को लेकर भी सहसा जड़ बुद्धि वाले, क्रूर व्यक्ति की छवि ही मन में उभरती है। लेकिन जब उसकी तसवीर देखेंगे, तो ऐसा मालूम पड़ेगा, जैसे वह किसी विचारक का चेहरा है। और यह जानकर कि वह शिक्षित युवा था और पत्रकारिता भी करता था, तो सहज ही उसके व्यक्तित्व, उसकी विचार-प्रक्रिया के प्रति उत्सुकता पैदा होने लगती है। यहां न तो गोड़से के कृत्य को किसी विशेष कोण से तर्कसम्मत बनाने की कोशिश की जा रही है और न ही अचेतन को कुछ अलग समझाने का प्रयास किया जा रहा है। यकीनन गांधीजी की हत्या अक्षम्य है और गोड़से कभी सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता। यहां बात की जा रही है केवल विचार प्रक्रिया की... कि गोड़से से जुड़ी नई जानकारियां जिज्ञासा का कारण बनने लगती हैं।
बहरहाल, यह तो हुई नफरत की बात, अब इसका दूसरा पहलू भी है, जब हम किसी पर अंधविश्वास करते हैं। ऐसा भी अक्सर होता है कि जब हम किसी व्यक्ति को पूरी तरह से ईमानदार, काबिल, सच्चा, विश्वसनीय या प्यार के लायक मानते हैं। पर कई बार उसी शख्स के बारे में कुछ बातें हमारे विश्वास को ठेस पहुंचाती है। मिसाल के तौर पर तिहाड़ की रोटियां तोड़ते कई नामचीन चेहरे... कहीं-न-कहीं इन्होंने किसी-न-किसी के विश्वास को ही छला है। कुल मतलब यही है कि हमें यह बात समझना जरूरी है कि जीवन पानी की तरह तरल है और इसमें उतनी ही तरंगे हैं, जिसे लचीलेपन के साथ ही पकड़ा जा सकता है। लेकिन हम अपने मत, सिद्धांत में जकड़े रहते हैं, उसे सख्ती से पकड़े रहते हैं और  यह बात भूल जाते हैं कि जो हम जानते  हैं, जितना हम जानते हैं, जरूरी नहीं है कि बात वहीं तक हो। हो सकता है कुछ ऐसा भी हो जो हमसे छूट रहा हो, हमारे ख्याल में न आया हो। इसलिए एक गुंजाइश बनाकर चलना ही चाहिए। सोच में लचीलापन होना ही चाहिए...
 (यह आर्टिकल  राहे जिंदगी है. .. जरा गुंजाइश बनाकर चल दोस्त... शीर्षक के साथ थोड़ा बदले स्वरूप में दैनिक भास्कर के संपादकीय पेज में 18 फरवरी 2012 को प्रकाशित हुआ है, इसकी लिंक दी गई है--- 
http://www.bhaskar.com/article/ABH-rahes-life-2874896.html  


उड़ान



मंजिल उन्हें मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है
पंख से कुछ नहीं होता, हौसले से उड़ान होती है।

14 November 2011

जिंदगी

जिंदगी इतनी छोटी है कि इसे खूबसूरत ही होना चाहिए।

शब्द





किन शब्दों में दूं परिभाषा
हर शब्द तुमसे छोटा लगता है

सरस्वती सी ज्ञान की गंगा
लक्ष्मी का भंडार तुम ही हो

सुबह की बेला दिन की धूप
गोधूलि की शाम तुम ही हो

थके पथिक की अंकशायिनी
रात्रि का विश्राम तुम ही हो।।
(नोट: इस कविता को किसने लिखा है मुझे नहीं पता, यदि किसी सज्जन को मालूम हो तो कृपया जरूर बताएं।)
-

नकल


सोनू, मोनू परीक्षा हाल में लड़ रहे थे। टीचर ने सोनू से इसकी वजह पूछी तो वह बोला- सरजी मोनू ने आंसरशीट पूरी खाली छोड़ दी है। टीचर ने कहा- इससे तुम्हें क्या परेशानी है? सोनू- सर आंसरशीट में मैंने भी कुछ नहीं लिखा है और सब ये सोचेंगे कि मैंने मोनू की नकल मार रहा हूं।

आरजू

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे
जब तक तन में जान और लहू रहे
तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे
       - अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल

12 November 2011

बात इतनी सी...

बात इतनी सी कहानी हो गई
एक चुनर और धानी हो गई
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जबसे रातरानी हो गई 


एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
कांच के टुकड़े को तराशकर
एक कोहिनूर किया तुमने


सूखी नदी को सागर तो
सेहरा को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने।
                                     
(नोट: इस कविता को किसने लिखा है मुझे नहीं पता, यदि किसी सज्जन को मालूम हो तो कृपया जरूर बताएं।)

04 November 2011

आ चल के तुझे...


सपनों के ऐसे जहां में, जहां प्यार ही प्यार खिला हो,
हम जा के वहां खो जाएं, शिकवा न कोई गिला हो।
कहीं बैर न हो, कोई गैर न हो, सब मिल के यूं चलते चलें
जहां गम भी न हो, आंसू भी न हो, बस प्यार ही प्यार पले

आ चल के तुझे मैं ले के चलूं एक ऐसे गगन के तले
जहां गम भी न हो आंसू भी न हो, बस प्यार ही प्यार पले।।
(किशोर दा का गाया, उन्ही का लिखा, उन्ही के द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्म दूर गगन की छांव में फिल्म का यह गीत है। उपरोक्त लाइनों के चलते यह मेरा सबसे ज्यादा पसंदीदा गीत है।)


03 November 2011

मिट्टी का दीया


दीवाली का दीया, रोशनी का दीया
खुशियां बिखेरता मिट्टी का दीया

रोशनी ही दीन, रोशनी ईमान
बस रोशनी लुटाता, मिट्टी का दीया

महल हो कुटिया हो, नगर हो गांव
हर ओर जगमगाता, मिट्टी का दीया

दूरियां मिट जाए, सब अपने हो जाएं
हर दिल में जले, प्यार का दीया

अंधेरे का अंत, उजाले का आगाज
देता है संदेश, दीवाली का दीया
-

18 October 2011

जावेद अख्तर का अद्भुत भाषण

मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईष्र्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमजोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था.
कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएं नहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!
एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है.
मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.
मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं गलत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं, तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं, जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आया हूं.
इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविजन धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल कादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तजऱ्ुमा उर्दू में किया. उस वक्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा जारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाकत कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है-
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.
काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.
मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..

रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं.
मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.
जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है, जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं- दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए... वे ऐसा नहीं करते. इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं, जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं, दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.
इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स..  चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.
प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- 'आध्यात्मिकताÓ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे कतई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक जि़म्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की जिन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि की कृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं.
तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द- आध्यात्मिकता- पर इतनी जिद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?
पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्दकोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जब इंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीजों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायो डिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंत में शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी जिन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए... आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी... अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं... और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग?.....नहीं.

अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको जरूरत होगी ऐसे गुरु की, जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ़ सकेंगे?  जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की जरूरत होगी. आपको तो उसकी जरूरत होगी, लेकिन वह आपको इस बात की गारंटी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?

तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं, जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है, जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है, तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप जरा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिन्हित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे माक्र्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पडऩा चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइजर है.
आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, जि़न्दगी में खासा कामयाब है,
पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि ... तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्न हो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है... और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.
लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड़ भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि ...कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास जिन्दगी का एक मकसद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे... तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है.
एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुता है, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.
एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज्यादा से ज्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी जि़न्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य!
और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुजर जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है... आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?...  किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि ... यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है". तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि "मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है...  आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. जिन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.
आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज एक मृगतृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो जि़न्दगी है.
एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नजर आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एक सीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भले हो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक्त नमाज अदा कर रहा है, वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता, तो मैं अपने हिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं, तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप जरूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिन एक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक्त में फिरोज शाह तुगलक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए.
और जिस बात पर मुझे ताज्जुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तथाकथित तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं, जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं, जिसने गुजरात के पीडि़तों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं.
मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है... होक्स... हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.
धन्यवाद.

(नोट: 2005 में दिल्ली में हुए इंडियाडुटे कॉन्क्लेव में यह भाषण दिया गया था। इसका हिंदी अनुवाद किसी सज्जन ने किया है, वहीं से यह लिया गया है। यह आर्टिकल जिस सज्जन का है, उनके ब्लॉग पर जाने के लिए यहां क्लिक करें...  http://dpagrawal.blogspot.in/