15 November 2011

अपनी जानकारियों के आधार पर हम धारणाएं बनाते हैं और उसी के अनुसार व्यक्ति से प्यार या नफरत करते हैं। लेकिन क्या हम कभी भी यह दावा करने की स्थिति में हैं कि जो हम जानते हैं उसमें ऐसा कुछ नया नहीं जुड़ेगा जो हमारी धारणाओं को बदल दे...
किसी से पूरा-पूरा नफरत या प्यार मत करो, एक गुंजाइश बनाकर चलो। हो सकता है  किसी रोज यह पता चले कि हम जिससे नफरत कर रहे थे वह नफरत के लायक ही नहीं था, बल्कि वह तो प्यार या सहानुभूति का पात्र था...
MAHATAMA BUDDHA AND ANGULIMAL
नफरत एक प्रबल मानवीय भावना है, जो हर इंसान में रहती है। साथ-ही-साथ एक दूसरी प्रतिक्रियात्मक भावना भी है, जिसे हम अपराधबोध कहते हैं। ये दोनों जस्बात समय-समय पर इंसान के भीतर उठते हैं। पर हर मौके पर हमारी नफरत जायज नहीं होती, इसीलिए हमें बाद में अपराधबोध होता है।
 दरअसल, प्यार या नफरत के पीछे हमारा पूर्वग्रह, कोई विशेष धारणा काम करती है। अपनी जानकारियों के आधार पर ही हम धारणाएं बनाते हैं, लेकिन हम कभी भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं हैं कि जो हम जानते हैं उसमें कुछ ऐसा नया नहीं जुड़ेगा जो हमारी धारणाओं को बदल दे...
मिसाल के तौर पर डाकू अंगुलिमाल के नाम से हम सब वाकिफ हैं और बेहतर जानते हैं कि महात्मा बुद्ध से मिलने के बाद उसका हृदय परिवर्तन हुआ था। इस डाकू के लिए आमतौर पर सभी के अंदर एक क्रूर हत्यारे की छवि होगी। जीवहत्या करने वाले उस पापी के लिए हमारे भीतर नफरत की भावना होगी। लेकिन यदि यह पता चले कि उसके गुरू ने उसे गुरुदक्षिणा के रूप में हजार लोगों की हत्या करने कहा था, तब शायद उससे उतनी त्वरा के साथ नफरत नहीं हो पाएगी। और शायद उसके लिए मन में सहानुभूति भी पैदा होगी।
 एक और बदनाम चरित्र है... जुदास। इस व्यक्ति ने ही ईसा मसीह को उन लोगों के हाथ बेच दिया था, जिन्होंने जीजस को सूली  पर चढ़ाया था। साधारणत: यह किरदार भी नफरत के लायक ही है। लेकिन ओशो के एक आर्टिकल (ओशो के प्रवचनों को बुक का रूप दिया गया है) में पढ़ा कि जीजस अपने सिद्धांतों को अमर करने के लिए शहीद की मौत, असाधारण मौत चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे उन्हें उनके विरोधियों के हाथ बेच दें, लेकिन कोई राजी नहीं हुआ सिवाय जुदास के। तथ्यात्मक रूप से यह बात कितनी सही है, यह पता करने का कोई रास्ता नहीं है, लेकिन जुदास के प्रति यह नई जानकारी उसके प्रति एक नया नजरिया लेकर आती है, उसके लिए नफरत पोंछने के लिए प्रेरित करती है।
इसी तरह हॉलीवुड की एक्स मैन सीरिज की फिल्मों को लीजिए। इन्हें देखते हुए अनूठे एहसास होते हैं, कब पाला बदल जाता है, पता ही नहीं चलता। जो बुरा था, वह अच्छा लगने लगता है। जिससे नफरत थी, उसी से धीरे-धीरे सहानुभूति होने लगती है।  इस सीरिज के शुरुआती तीन पार्ट में जो विलेन है, वही बाद के दो भाग में हीरो का साथी (पाजीटिव कैरेक्टर) बन जाता है। असल में बाद के भागों में खलनायक का चरित्र पूरा विकसित होता है, उसका भूतकाल बताया जाता है, तो सैद्धांतिक रूप से उसका स्वार्थी होना, गलत नहीं लगता। उसकी क्रूरता भी सहानुभूति बटोर ले जाती है, क्योंकि बचपन पर हुए अत्याचार उसे निर्मम बनाने का काम करते हैं।
इसी प्रकार, गांधीजी की हत्या करने वाले नाथूराम गोड़से को लेकर भी सहसा जड़ बुद्धि वाले, क्रूर व्यक्ति की छवि ही मन में उभरती है। लेकिन जब उसकी तसवीर देखेंगे, तो ऐसा मालूम पड़ेगा, जैसे वह किसी विचारक का चेहरा है। और यह जानकर कि वह शिक्षित युवा था और पत्रकारिता भी करता था, तो सहज ही उसके व्यक्तित्व, उसकी विचार-प्रक्रिया के प्रति उत्सुकता पैदा होने लगती है। यहां न तो गोड़से के कृत्य को किसी विशेष कोण से तर्कसम्मत बनाने की कोशिश की जा रही है और न ही अचेतन को कुछ अलग समझाने का प्रयास किया जा रहा है। यकीनन गांधीजी की हत्या अक्षम्य है और गोड़से कभी सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता। यहां बात की जा रही है केवल विचार प्रक्रिया की... कि गोड़से से जुड़ी नई जानकारियां जिज्ञासा का कारण बनने लगती हैं।
बहरहाल, यह तो हुई नफरत की बात, अब इसका दूसरा पहलू भी है, जब हम किसी पर अंधविश्वास करते हैं। ऐसा भी अक्सर होता है कि जब हम किसी व्यक्ति को पूरी तरह से ईमानदार, काबिल, सच्चा, विश्वसनीय या प्यार के लायक मानते हैं। पर कई बार उसी शख्स के बारे में कुछ बातें हमारे विश्वास को ठेस पहुंचाती है। मिसाल के तौर पर तिहाड़ की रोटियां तोड़ते कई नामचीन चेहरे... कहीं-न-कहीं इन्होंने किसी-न-किसी के विश्वास को ही छला है। कुल मतलब यही है कि हमें यह बात समझना जरूरी है कि जीवन पानी की तरह तरल है और इसमें उतनी ही तरंगे हैं, जिसे लचीलेपन के साथ ही पकड़ा जा सकता है। लेकिन हम अपने मत, सिद्धांत में जकड़े रहते हैं, उसे सख्ती से पकड़े रहते हैं और  यह बात भूल जाते हैं कि जो हम जानते  हैं, जितना हम जानते हैं, जरूरी नहीं है कि बात वहीं तक हो। हो सकता है कुछ ऐसा भी हो जो हमसे छूट रहा हो, हमारे ख्याल में न आया हो। इसलिए एक गुंजाइश बनाकर चलना ही चाहिए। सोच में लचीलापन होना ही चाहिए...
 (यह आर्टिकल  राहे जिंदगी है. .. जरा गुंजाइश बनाकर चल दोस्त... शीर्षक के साथ थोड़ा बदले स्वरूप में दैनिक भास्कर के संपादकीय पेज में 18 फरवरी 2012 को प्रकाशित हुआ है, इसकी लिंक दी गई है--- 
http://www.bhaskar.com/article/ABH-rahes-life-2874896.html  


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