07 September 2017

काफ़िया3

क्रम ३ - काफ़िया

काफिया परिचय 
काफिया अरबी शब्द है जिसकी उत्पत्ति “कफु” धातु से मानी जाती है| काफिया का शाब्दिक अर्थ है 'जाने के लिए तैयार' | ग़ज़ल के सन्दर्भ में काफिया वह शब्द है जो समतुकांतता के साथ हर शेर में बदलता रहता है यह ग़ज़ल के हर शेर में रदीफ के ठीक पहले स्थित होता है 
उदाहरण -
         हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
         इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


         मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

         हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए – (दुष्यंत कुमार)
 
रदीफ से परिचय हो जाने के बाद हमें पता है कि प्रस्तुत अशआर में चाहिए हर्फ़-ए-रदीफ है इस ग़ज़ल में “पिघलनी”, “निकलनी”, “जलनी” शब्द हर्फ -ए- रदीफ ‘चाहिए’ के ठीक पहले आये हैं और समतुकांत हैं, इसलिए यह हर्फ़-ए-कवाफी (कवाफी = काफिया का बहुवचन) हैं और आपस में हम काफिया शब्द हैं   
स्पष्ट है कि काफिया वो शब्द होता है जो समस्वरांत के साथ बदलता रहता है और हर शेर में  हर्फ़ -ए- रदीफ के ठीक पहले आता है अर्थात मतले की दोनों पंक्ति में और अन्य शेर की दूसरी पंक्ति में आता है|
 
काफिया ग़ज़ल का केन्द्र बिंदु होता है, शायर काफिया और रदीफ के अनुसार ही शेर लिखता है,  ग़ज़ल में रदीफ सहायक भूमिका में होती है और ग़ज़ल के हुस्न को बढाती है परन्तु काफिया ग़ज़ल का केन्द्र होता है, आपने "क्रम -१ रदीफ़" लेख में पढ़ा है कि,
             "ग़ज़ल बिना रदीफ के भी कही जा सकती है"  परन्तु काफिया के साथ यह छूट नहीं मिलती, ग़ज़ल में हर्फ़-ए-कवाफी का होना अनिवार्य है, यह ग़ज़ल का एक मूलभूत तत्व है अर्थात जिस रचना में कवाफी नहीं होते उसे ग़ज़ल नहीं कहा जा सकता
कुछ और उदाहरण से काफिया को समझते हैं -

फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
गरीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है

किधर को भाग रही है इसे खबर ही नहीं
हमारी नस्ल बला की जहीन कुछ तो है 


लिबास कीमती रख कर भी शहर नंगा है

हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है    (बेकल उत्साही)
प्रस्तुत अशआर में आस्तीन, हसीन, जहीन, महीन हर्फ़-ए-कवाफी हैं

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में

जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता

मैं अपनी ही उअलाझी हुई राहों का तमाशा

जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यों नहीं जाता  ( निदा फ़ाजली )
प्रस्तुत अशआर में ठहर, गुजर, उतर, उधर हर्फ़-ए-कवाफी हैं

कठिन है राह गुजर थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कडा है सफर थोड़ी दूर साथ चलो


नशे में चूर हूँ मैं भी, तुम्हें भी होश नहीं

बड़ा मजा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

यह एक शब की मुलाक़ात भी गनीमत है

किसे हैं कल कि  खबर थोड़ी दूर साथ चलो (अहमद फराज़)
प्रस्तुत अशआर में गुजर, सफर, अगर, खबर हर्फ़-ए-कवाफी हैं


काफिया विज्ञान

काफिया से प्रथम परिचय के बाद अब हम किसी ग़ज़ल में हर्फ़ -ए- कवाफी को पहचान सकते हैं, ग़ज़ल कहते समय मतला में काफिया का चुनाव बहुत सोच समझ कर करना चाहिए, क्योकि यह ग़ज़ल का केन्द्र होता है आप जैसा कवाफी चुनेंगे आगे के शेर भी वैसे ही बनेंगे| यदि आप ऐसा कोई काफिया चुन लेते हैं जिसके हम काफिया शब्द न हों तो आप ग़ज़ल में अधिक शेर नहीं लिख पायेंगे अथवा एक हर्फ़ -ए- काफिया को कई शेर में प्रयोग करेंगे| ग़ज़ल में एक हर्फ़ -ए- काफिया को कई शेर में प्रयोग करना दोषपूर्ण तो नहीं माना जाता है परन्तु यह हमारे शब्द भण्डार की कमी को दर्शाता है तथा अच्छा नहीं समझा जाता है| यदि हमने ऐसा काफिया चुन लिया जिसके हम-काफिया शब्द मिलने मुश्किल हों अथवा अप्रचिलित हों तो हमें तंग हर्फ़ -ए- काफिया पर शेर लिखना पड़ेगा|
जैसे- मतला में “पसंद” और “बंद” काफिया रखने के बाद शायर अरूजनुसार मजबूर हो जायेगा की “छंद” “कंद” आदि  हर्फ़ ए कवाफी पर शेर लिखे| इससे ग़ज़ल में कथ्य की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है|
शेर में हर -ए- काफिया ऐसा होना चाहिए जो आम बोल चाल में इस्तेमाल किया जाता है व जिसका अर्थ अलग से न बताना पड़े क्योकि ग़ज़ल सुनते/पढते समय श्रोता/पाठक काफिया को लेकर ही सबसे अधिक उत्सुक होता है कि इस शेर में कौन सा काफिया बाँधा गया है और जब काफिया सरल और सटीक और सधा हुआ होता है तो श्रोता चमत्कृत हो जाता है और यह चमत्कार ही उसे आत्मविभोर कर देता है |

(यहाँ सामान्य शब्दों में काफिया के प्रकार की चर्चा की गयी है जिससे नए पाठकों को काफिया के भेद समझने में आसानी हो, जल्द ही काफिया के भेद व प्रकार पर अरूजानुसार आलेख भी प्रस्तुत किया जायेगा)

मुख्यतः काफिया दो प्रकार के होते हैं
१ – स्वर काफिया
२ – व्यंजन काफिया 

१- स्वर काफिया
जिस काफिया में केवल स्वर की तुकांतता रहती है उसे स्वर काफिया कहते हैं

स्वर काफिया के प्रकार
आ मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल आ मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे आ स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
दिल-ए- नादां  तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है -(ग़ालिब)

शेर में क्या है रदीफ है, और हुआ, दवा कवाफी हैं | काफिया के शब्दों को देखें तो इनमें आपस में केवल आ की मात्रा की ही तुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः ““अ”” “और “व” आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया के लिए ऐसे शब्द इस्तेमाल कर सके जो ““आ”” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि 'ग़ालिब' ने क्या हर्फे काफिया रखा है 
    
हम हैं मुश्ताक और वो बेजार
या इलाही ये माजरा क्या है   


आ मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें -

बोलता है तो पता लगता है
जख्म उसका भी नया लगता है


रास आ जाती है तन्हाई भी

एक दो रोज बुरा लगता है    -(शकील जमाली)

ई मात्रा का काफिया 
ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ई मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ई स्वर का काफिया कहेंगे

जैसे –
लूटा गया है मुझको अजब दिल्लगी के साथ

इक हादसा हुआ है मेरी बेबसी के साथ      -(सुरेश रामपुरी)
शेर में के साथ रदीफ है, और दिल्लगी, बेबसी हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ई की मात्रा की ही तुकांतता है और उसके पहले हर्फ -ए- कवाफी में क्रमशः “”ग”” “और “स”” आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ई” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फ-ए- कवाफी रखा है 
मुझपे लगा रहा था वही आज कहकहे
मिलता था सदा जो मुझे शर्मिंदगी के साथ


मैं क्यों किसी से उसकी जफा का गिला करूँ

मजबूरियां बहुत हैं हर इक आदमी के साथ

ई मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें – 
कहीं शबनम कहीं खुशबू कहीं ताज़ा कली रखना
पुरानी डायरी में ख़ूबसूरत ज़िंदगी रखना

गरीबों के मकानों पर सियासत खूब चलती है

कहीं पर आग रख देना कहीं पर चांदनी रखना (इंतज़ार गाजीपुरी)

ऊ मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ऊ मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ऊ स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
खैर गुजरी की तू नहीं दिल में
अब कोई आरजू नहीं दिल में      (अल्हड बीकानेरी)


इसमें नहीं दिल में रदीफ है, और 'तू', 'आरजू' हर्फ -ए- कवाफी है | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ऊ की मात्रा की ही समतुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः “”त” “और “ज”” आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ऊ” की मात्रा पर खत्म होता हो| आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे काफिया रखा है 

मय पे मौकूफ धडकनें दिल की
एक कतरा लहू नहीं दिल में

ऊ मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

हर खुशी की आँख में आंसू मिले
एक ही सिक्के के दो पहलू मिले

अपने अपने हौसले की बात है

सूर्य से भिडते हुए जुगनू मिले   (जहीर कुरैशी)

ए मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ए मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ए स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
अब काम दुआओं के सहारे नहीं चलते

चाभी न भरी हो तो खिलौने नहीं चलते (शकील जमाली)

इसमें नहीं चलते रदीफ है, और सहारेखिलौने हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ए मात्रा की ही समतुकांतता है और उसके पहले हर्फे कवाफी में क्रमशः र “और न आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ए” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे काफिया रखा है 

इक उम्र के बिछडों का पता पूछ रहे हो
दो रोज यहाँ खून के रिश्ते नहीं चलते     

लिखने के लिए कौम के दुःख दर्द बहुत हैं

अब शेर में महबूब के नखरे नहीं चलते

ए मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

उसको नींदें मुझको सपने बाँट गया
वक्त भी कैसे कैसे तोहफे बाँट गया

अगली रूत में किसको पहचानेंगे हम
अब के मौसम ढेरो चेहरे बाँट गया


घर का भेदी लंका ढाने आया था

जाते जाते भेद अनोखे बाँट गया

ओ मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ओ मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ओ स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं

भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं   ( आलम खुर्शीद)

इसमें सकता हूँ मैं रदीफ है, और हो तथा खो हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ओ मात्रा की ही समतुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः “”ह” “और “ख” आ रहा है जो कि तुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ओ” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे कवाफी रखा है 

सन्नाटे में हर पल दहशत गूंजा करती है
इन जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं


सोच समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वर्ना

बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं

'ओ' मात्रा के कवाफी पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

औरों के भी गम में ज़रा रो लूं तो सुबह हो
दामन पे लगे दागों को धो लूं तो सुबह हो

दुनिया के समंदर में है जो रात कि कश्ती

उस रात कि कश्ती को डुबो लूं तो सुबह हो

अनुस्वार का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें किसी स्वर के साथ अनुस्वार की समतुकांतता भी निभानी हो उसे अनुस्वार काफिया कहेंगे

अनुस्वार किसी अन्य स्वर के साथ जुड कर ही किसी शब्द में प्रयुक्त होता है
जैसे - जहाँ = ज +ह+आ+ आँ
चलूँ = च+ल+ऊ +====ऊँ====       
 
 आ मात्रा के साथ अनुस्वार काफिया का उदाहरण देखें -
लहू न हो तो कलम तर्जुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू जबां नहीं होता     (वसीम बरेलवी)

इसमें नहीं होता रदीफ है, तर्जुमाँ और जबां हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल आँ मात्रा की ही तुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः “”म” “और “ब” आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “आँ” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे काफिया रखा है 
जहाँ रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चराग का अपना मकाँ नहीं होता

वसीम सदियों की आखों से देखिये मुझको
वह लफ्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता

“आँ” मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

कुछ न कुछ तो उसके मेरे दरमियाँ बाकी रहा
चोट तो भर ही गयी लेकिन निशाँ बाकी रहा
आग ने बस्ती जला डाली मगर हैरत है ये
किस तरह बस्ती में मुखिया का मकाँ बाकी रहा   - (राज गोपाल सिंह)

व्यंजन काफिया 
ऐसा हर्फ़ ए काफिया जिसमें किसी व्यंजन की तुकांतता निभानी हो उसे व्यंजन काफिया कहेंगे

उदाहरण -
किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
गुजार गयी जरसे-गुल उदास कर के मुझे    -(नासिर काज़मी)

प्रस्तुत शेर में के मुझे रदीफ है, भर और कर हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में र व्यंजन की समतुकांतता है और उसके पहले हर्फ-ए- कवाफी में क्रमशः 'भ' और 'क़' आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'र' व्यंजन पर खत्म होता हो तथा उसके पहले के व्यंजन में कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात कर, भर हर्फ़ -ए- काफिया के बाद अन्य अशआर में अर को निभाना होगा तथा ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में अर की तुकांतता हो जैसे - सफर, नज़र, किधर, इधर, गुजर, उभर, उतर आदि| इस ग़ज़ल में फिर, सुर आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः इर, व उर की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे| देखें कि शायर ने क्या हर्फ -ए- कवाफी रखा है 
       
तेरे फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे मिले उन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे

मैं रो रहा था मुकद्दर कि सख्त राहों में

उड़ा के ले गए जादू तेरी नज़र के मुझे

व्यंजन काफिया के अन्य उदाहरण देखें -
१-
जो कुछ कहो क़ुबूल है तकरार क्या करूं
शर्मिंदा अब तुम्हें सरे बाज़ार क्या करूं

प्रस्तुत शेर में क्या करूं रदीफ है, तकरार और बाज़ार हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में र व्यंजन के साथ साथ उसके पहले  आ स्वर भी समतुकांत है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'र' और 'ज़' आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'आर' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात र के साथ साथ आ स्वर को भी प्रत्येक शेर के काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| र व्यंजन के पहले आ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात तकरार, बाज़ार हर्फ़ -ए-काफिया  बाद अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में आर की तुकांतता हो जैसे - दीवार, इजहार, आज़ार, गुनहगार आदि| इस ग़ज़ल में जोर, तीर, दूर आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः ओर, ईर व ऊर की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे|
देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 
तनहाई में तो फूल भी चुभता है आँख में
तेरे बगैर गोशा -ए- गुलजार क्या करूं

यह पुरसुकून सुबह, यह मैं, यह फ़ज़ा 'शऊर'
वो सो रहे हैं, अब उन्हें बेदार क्या करूं


२-
अनोखी वज्अ हैं सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक कौन सी बस्ती के या रब रहने वाले हैं  - (अल्लामा इक्बाल)

प्रस्तुत शेर में हैं रदीफ है, निराले और वाले हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में आ स्वर + ल व्यंजन + ए स्वर अर्थात आले की समतुकांत है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'अ' और 'व' आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'आले' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात आ स्वर + ल व्यंजन +ए स्वर को काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| ल व्यंजन के पहले आ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात निराले तथा वाले हर्फ़ ए काफिया बाद अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में आले की तुकांतता हो जैसे - निकाले, छाले, काले, आदि| इस ग़ज़ल में ढेले, नीले, फफोले आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः एले, ईले व ओले की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे| तथा ऐसे शब्द को भी काफिया नहीं बना सकते जिसमें केवल ए की मात्रा को निभाया गया हो और उसके पहले ल व्यंजन की जगह कोई और व्यंजन हो| जैसे - जागे, सादे, ये, वे, के आदि को हर्फ़ ए काफिया नहीं बना सकते हैं|  देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 

फला फूला रहे या रब चमन मेरी उमीदों का
जिगर का खून दे देकर ये बूते मैंने पाले हैं

उमीदे हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को

ये हज़रत देखने में सीधे साधे भोले भाले हैं  

३-
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
राह में फासिले हैं पहले ही -(फारिग बुखारी)

प्रस्तुत शेर में हैं पहले ही रदीफ है, गिले और फासिले हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में इ स्वर + ल व्यंजन + ए स्वर = इले की समतुकांत है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'ग' और 'स' आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'इले' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात इ स्वर + ल व्यंजन +ए स्वर को काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| यह ध्यान देना है कि ल व्यंजन के पहले इ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात गिले तथा फासिले हर्फ़ ए कवाफी के बाद अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में इले की तुकांतता हो जैसे - काफिले, सिले, खिले, मिले आदि| इस ग़ज़ल में चले, खुले आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः अले, व उले की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे| तथा ऐसे शब्द को भी काफिया नहीं बना सकते जिसमें केवल ए की मात्रा को निभाया गया हो और उसके पहले ल व्यंजन की जगह कोई और व्यंजन हो| जैसे - जागे, सादे, ये, वे, के आदि को हर्फ़ ए काफिया नहीं बना सकते हैं|  
देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 

अब जबां काटने कि रस्म न डाल
कि यहाँ लैब सिले हैं पहले ही

और किस शै कि है तलब 'फारिग'
दर्द के सिलसिले हैं पहले ही



४ -
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा


प्रस्तुत शेर में नहीं देखा रदीफ है, मिलते और सिलते हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी  के शब्दों को देखें तो इनमें आपस में इ+ल+त+ए = इलते की समतुकांत है और ल व्यंजन के पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'म' और 'स' आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'इलते' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात इ स्वर + ल व्यंजन + त व्यंजन +ए स्वर को काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| यह ध्यान देना है कि ल व्यंजन के पहले इ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में इलते की तुकांतता हो जैसे - हिलते, छिलते आदि| इस ग़ज़ल में चलते, पलते, दिखते, बिकते, देखे, कैसे आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं नियमानुसार यह मिलते-सिलते के हमकाफिया शब्द नहीं हैं|
देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 

इक बार जिसे चाट गई धूप कि ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी लेकिन

तितली केपरों को कभी छिलते नहीं देखा

काफिया के भेद (अरूजानुसार)

काफिया के १५ भेद होते हैं जिनमें से ६ हस्व स्वर होते हैं और ९ अक्षर के होते हैं|
(९ व्यंजन की जगह ९ अक्षर इसलिए कहा गया है क्योकि व्यंजन कहने पर हम उस स्थान पर मात्रा अर्थात स्वर को नहीं रख सकते परन्तु अक्षर कहने पर स्वर तथा व्यंजन दोनों का बोध होता है)
अतः काफिया के १५ भेद होते हैं जिनमें से ९ भेद व्यंजन और दीर्घ मात्रा के होते हैं वह निम्नलिखित हैं -

१. हर्फ़ -ए- तासीस
२. हर्फ़ -ए- दखील
३. हर्फ़ -ए- रद्फ़
४. हर्फ़ -ए- कैद
५. हर्फ़ -ए- रवी
६. हर्फ़ -ए- वस्ल
७. हर्फ़ -ए- खुरुज
८. हर्फ़ -ए- मजीद
९. हर्फ़ -ए- नाइरा

इनके अतिरिक्त ६ भेद और हैं जो छोटी मात्रा अर्थात अ, इ, उ के होते हैं  
१. रस्स
२. इश्बाअ
३ हज्व
४. तौजीह
५. मजरा
६. नफ़ाज़   

काफिया के प्रकार (अरूजानुसार)
 अरूजनुसार काफिया के १० प्रकार होते हैं

काफि़या2

ग़ज़ल-संक्षिप्‍त आधार जानकारी-6
by Tilak Raj Kapoor
Apr 26, 2011
काफि़या को लेकर अब कुछ विराम लेते हैं। जितना प्रस्‍तुत किया गया है उसपर हुई चर्चा को मिलाकर इतनी जानकारी तो उपलब्‍ध हो ही गयी है कि इस विषय में कोई चूक न हो। रदीफ़ को लेकर कहने को बहुत कुछ नहीं है फिर भी कोई प्रश्‍न हों तो इस पोस्‍ट पर चर्चा के माध्‍यम से उन्‍हें स्‍पष्‍ट किया जा सकता है। लेकिन रदीफ़ और काफि़या को लेकर कुछ महत्‍वपूर्ण है जिसपर चर्चा शेष है और वह है रदीफ़ और काफि़या के निर्धारण में सावधानी। यह तो अब तक स्‍पष्‍ट हो चुका है कि रदीफ़ की पुनरावृत्ति हर शेर में होती है और काफि़या का मात्रिक वज्‍़न भी स्‍थायी रहता है। ऐसे में यह ध्‍यान रखना आवश्‍यक हो जाता है कि मत्‍ले के शेर में इनका निर्धारण इस प्रकार हो कि ये बेबह्र न हों। इसे समझने के लिये पिछली तरही में दिये गये मिसरे को देखें।
'हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था'
जिसकी बह्र निर्धारित की गयी 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' या '१२२२ १२२२ १२२२ १२२२' और कफिया निर्धारित किया गया: आना (याराना, दीवाना, बेगाना, मनमाना, पहचाना, जाना आदि आदि) तथा रदीफ: 'भी होता था'। अब इसमें 'आना भी होता था' का पालन हर शेर की दूसरी पंक्ति में होना है और वज्‍़न बनता है 222222 जिसे अपनाई गयी बह्र का पालन करने के लिये 'भी' को गिराकर 'भि' करते हुए 221222 किया गया। ऐसा करना अनुमत्‍य है लेकिन प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या इस प्रकार की छूट लेने की स्थिति से बचा नहीं जा सकता है।
मेरा मानना है कि अनुमत्‍य होते हुए भी यह एक कमज़ोरी तो है ही अत: इस प्रकार रदीफ़ और काफि़या के अंश में मात्रा गिराने की स्थिति से बचना चाहिये। अगर हमें लगता भी है कि हम कोई नायाब रदीफ़ काफि़या दे रहे हैं तो उसका सटीक हल यह भी हो सकता है कि हम बह्र ऐसी चुनें जिसमें रदीफ़ काफि़या सही फिट हो रहे हों। रदीफ़ काफि़या के अंश में किया गया कोई भी समझौता पूरी ग़ज़ल में समझौते की स्थिति निर्मित करता है और जहॉं समझौता हो वहॉं आपत्ति की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है। संयोग से मुज़ाहिफ़ शक्‍लें मिलाकर हमारे पास इतने अरकान उपलब्‍ध हैं कि रदीफ़ काफि़या के अंश में बह्र से समझौते की स्थिति से बचा जा सकता है और अगर ऐसा करना बिल्‍कुल ही संभव न हो पा रहा हो तो हमारी शब्‍द सामर्थ्‍य कब काम आयेगी; उसका उपयोग करते हुए रदीफ़ काफि़या इस प्राकर पुर्ननिर्धारित करना चाहिये कि बह्र में फिट हो जाये।
यह तो हुई रदीफ़ और काफि़या के निर्धारण में सावधानी को लेकर एक बात; दूसरी बात यह है कि रदीफ़ की पुनरावृत्ति की स्थिति को देखते हुए यह ध्‍यान रखना आवश्‍यक होता है कि इसका चयन इस प्रकार किया जाये कि पालन सहज हो सके। यहॉं यह विशेष ध्‍यान रखना आवश्‍यक होता है कि रदीफ़ किसी परिस्थिति विशेष से बॉंध न रहा हो जैसा कि तरही के मिसरे में था। 'भी होता था' इंगित करता है एक परिस्थिति विशेष की ओर जहॉं मात्र दो विकल्‍प हो सकते हैं एक तो यह कि शायर कहे कि ऐसा होता था तो ऐसा भी होता था, दूसरा विकल्‍प यह बचता है कि शायर स्‍वतंत्र रूप से यह कहे कि उस समय ऐसा भी होता था (अप्रत्‍यक्ष रूप से इससे यह इंगित होता है कि अब ऐसा नहीं होता)। तरही की पूरी पंक्ति को देखें 'हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था' से क्‍या ध्‍वनित होता है, क्‍या एक भाव विशेष या परिस्थिति विशेष की स्थिति निर्मित नहीं हो रही? रदीफ़ के इस प्रकार के बंधन कहन का दायरा सीमित कर देते हैं। इस बिन्‍दु को पढ़कर एक बार फिर आप तरही की ग़ज़लों को एक बार फिर पढ़ें तो पायेंगे कि जो अश'आर आपको पसंद आये उनमें तरही में दी गयी पंक्ति के भाव/ परिस्थिति विशेष का पालन हुआ है और अगर नहीं हुआ है तो अवश्‍य ही वाक्‍य रचना का कोई दोष दिख जायेगा।
अनुभव हो जाने पर तो इनका निर्वाह करने की क्षमता विकसित हो ही जाती है लेकिन इन बातों का ध्‍यान ग़ज़ल कहने के प्रारंभिक चरण में रखा जाना बहुत जरूरी है।
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आदरणीय तिलक जी
लाजवाब पोस्ट

मुझे लगता है कि रदीफ किसी गज़ल का सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है| जितनी तगड़ी गाँठ रदीफ के साथ होगी, शेर उतना ही बढ़िया होगा|

इस लाजवाब रदीफ को उद्धृत करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ


अंतरगति का चित्र बना दो कागज़ पर
मकड़ी के जाले तनवा दो कागज़ पर

गुमराही का नर्क न लादो कागज़ पर
लेखक हो तो स्वप्न सज़ा दो कागज़ पर

युक्ति करो अपना मन ठण्ढा करने की
शोलों के बाजार लगा दो कागज़ पर

होटल में नंगे जिस्मों को प्यार करो
बे शर्मी का नाम मिटा दो कागज़ पर

कोई तो साधन हो जी खुश रहने का
धरती को आकाशा बना दो कागज़ पर

यादों की तस्वीर बनाने बैठे हो
आंसू की बूँदें टपका दो कागज़ पर

अनपढ़ को जिस ओर कहोगे जाएगा
सभ्य सुशिक्षित को बहका दो कागज़ पर
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परन्तु जब हम किसी शायर का मिसरा 'तरही' मुशायरे के लिए चुनते हैं तो  रदीफ़ काफिया और बहर भी वही रखते हैं जो शायर ने अपनी ग़ज़ल में रखी है
यह बात ध्यान देने योग्य है की तरही मिसरा का चुनाव करते समय अतिरिक्त सावधानी बरती जाए
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आदरनीय तिलक जी ग़ज़ल के बारे में महत्वपूरण जानकारी देने के लिए धन्यवाद. मेरी एक समस्या है की मैं रदीफ़ काफिये का ध्यान रख लेता हूँ और मात्राएँ भी हर एक शेर में बराबर रख लेता हूँ , लेकिन बहर कैसे निर्धारित होती यह मेरी समझ से बाहर है, कृपा करके बताएँगे की मेरी इस ग़ज़ल की कौनसी बहर है और क्यों?
उसको भी कुछ शिकवा गिला होगा
मेरे संग कुछ और भी जला होगा

राख उडी तो होगी हवा के साथ
इक ज़र्रा उस दामन पे गिरा होगा

सामान तो सब बचा लिया गया होगा
नहीं वो, जो बदन से सिला होगा

मैनें घर जलाया रोशनी के लिए
कौन मुझ जैसा यहाँ दिलजला होगा

आज भी शाम ढल गयी होगी तन्हां
सूरज भी लाली से सना होगा

रुका होगा कुछ सोचकर मेरा यार
दो क़दम घर से ज़रूर चला होगा

रोजी पे गया सो बेखबर होगा
मस्त है जो मखमल पे पला होगा
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मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ [ग़ज़ल : शिल्प और संरचना


ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।


जितने गिले हैं सारे मुँह से निकाल डालो
रखो न दिल में प्यारे मुँह से निकाल डालो। - बहादुर शाह ज़फर


इस मतले में 'सारे' और ’प्यारे’ काफ़िया है और 'मुँह से निकाल डालो' रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा 'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।

शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं. दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा. मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है. मतला के पहले मिसरा में यदि "सजाता" काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में "लुभाता", "जगाता" या "उठाता" काफिया इस्तेमाल होता है. ग़ज़ल के अन्य शेर "बुलाता", "हटाता", "सुनाता" आदि काफिओं पर ही चलेंगे. मतला में "आता", "जाता", "पाता", "खाता","मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन ये बहर या छंद पर निर्भर है. निम्नलिखित बहर में की ग़ज़ल में "आता", "जाता", "मुस्कराता" आदि काफिये तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन "मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये नहीं.


हम कहाँ उनको याद आते हैं
भूलने वाले भूल जाते हैं

मुस्कराहट हमारी देखते हो
हम तो गम में भी मुस्कराते हैं

झूठ का क्यों न बोल बाला हो
लोग सच का गला दबाते हैं - प्राण शर्मा


उर्दू शायरी में एक छूट है वो ये कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे में "लाया" काफियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन--


वो यूँ बाहर जाता है
गोया घर का सताया है


लेकिन एक बंदिश भी है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे मिसरा में "जाता" काफिये प्रयुक्त हुए हैं तो पूरी ग़ज़ल में समान ध्वनियों के शाब्द -खाता ,भाता, लाता आते हैं. इस हालत में "आता" के साथ "लाया" काफिया बाँधना ग़लत है. इसके अतिरिक्त ध्वनी या स्वर भिन्नता के कारण "कहा" के साथ "वहां", "ठाठ" के साथ "गाँठ", "ज़ोर" के साथ "तौर" काफिये इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है.

अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अस्वाभाविकता, छंद-अनभिज्ञता और शब्दों के ग़लत वज़्नों के दोषों की भांति हिन्दी की कुछेक गज़लों के काफियों और रदीफों के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं. जैसे-


आदमी की भीड़ में तनहा खडा है आदमी
आज बंजारा बना फिरता यहाँ हैं आदमी - राधे श्याम


राधे श्याम के शेर का दूसरा मिसरा "यहाँ" अनुनासिक होने के कारण अनुपयुक्त है.


ख़ुद से रूठे हैं हम लोग
जिनकी मूठें हैं हम लोग - शेर जंग गर्ग

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
खो जाए तो मिटटी है मिल जाए तो सोना है -निदा फाजली


इस शेर में "खिलौना" और "सोना" में आयी "औ" और "ओ" की ध्वनी में अन्तर है.


बंद जीवन युगों में टूटा है
बाँध को टूटना था टूटा है -त्रिलोचन

अपने दिल में ही रख प्यारे तू सच का खाता
सब के सब बेशर्म यहाँ पर कोई शर्म नहीं खाता -भवानी शंकर

फ़िक्र कुछ इसकी कीजिये यारो
आदमी किस तरह जिए यारो -विद्या सागर शर्मा


उपर्युक्त तीनों शेरों में "टूटा", "खाता" और "जिए" की पुनरावृति का दोष है. एक मतला है-


जिंदगी तुझ से सिमटना मेरी मजबूरी थी
अज़ल से भी तो लिपटना मेरी मजबूरी थी -कैलाश गुरु "स्वामी"


"सिमटना" और "लिपटना" में आए "मटना" और "पटना" काफिये हैं. आगे के शेरों में भी इनकी ध्वनियों -कटना, पलटना जैसे काफिये आने चाहिए थे लेकिन कैलाश गुरु "स्वामी" के अन्य शेर में "जलना" का ग़लत इस्तेमाल किया गया है. पढिये-


ये अलग बात तू शर्मिदगी से डूब गया
मैं इक चिराग था जलना मेरी मजबूरी थी


काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आस-पास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीन दयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत' और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ की छवि दर्शनीय है-


जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में
हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में

मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और वन में
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में

तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में


यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों में ही निहित है. शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है, साथ ही शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का मतला है-


इतना चले हैं वो तेज़ सुध-बुध बिसार कर
आए हैं लौट-लौट के अपने ही द्वार पर


यहां 'बिसार' और 'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है- 'कर'। चूँकि रदीफ बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप बना रहना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथ-साथ 'कर' रदीफ को दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।

दुष्यंत कुमार का मतला है -


मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे


यहां 'पाने' और 'दिलाने' काफ़िए है; और उनकी रदीफ है- 'आएंगे'। ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर 'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है। पढ़िए-


हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए।
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे।


कई अशआर में रदीफ के ऐसे ही प्रयोग मिलते हैं।

09 April 2017

क्या सफलता के घोड़े को संभाल पाएगी भाजपा?

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में गायों की सुरक्षा को लेकर कानून बनाने के संबंध में पूछे जाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि पिछले 15 सालों सेें राज्य में गौहत्या जैसी कोई गतिविधि नहीं हुई है और ‘जो यहां गायों को मारेगा उसे लटका देंगे।
और कोई मौका रहता या और किसी भाषा-लहजे के साथ मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ ने यही इरादे जाहिर किए होते, तो उनके इस बयान की त्रिज्या शायद छत्तीसगढ़ की सरहद पार नहीं जा पाती। लेकिन उन्होंने जिस आक्रमकता व तेवर के साथ गौहत्या पर बात रखी, वह राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां पा गया।
आमतौर पर हर विषय पर शालीनता से बात रखने वाले सीएम का यह सख्त रवैया, इस मुद्दे पर यूं एंग्री यंगमैन रूप सचमुच चौंकाने वाला था। क्या यह महज संयोग है कि रमन सिंह का यह सख्य तेवर ऐसे समय में दिखाई पड़ा है, जब गुजरात विधानसभा में गौवध पर आजीवन कारावास का विधेयक पारित हो चुका है व यूपी की योगी सरकार ने अवैध बूचडख़ाने पर बैन लगा दिया है? गौ हत्या पर इन सरकारों का यकायक सख्त हो जाना क्या सांयोगिक है?
जहां तक गौ हत्या की बात…. यह निश्चित ही गंभीर मसला है। इसे भारत में किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। यहां बहुसंख्यक हिंदू आबादी के लिए गाय पूजनीय, माता तुल्य है। यह विशुद्ध रूप से आस्था से जुड़ा मामला है, जिसका सम्मान किए जाने की जरूरत है।
लेकिन गौहत्या हिंदुस्तान में सालों से हो रही है, उसका विरोध भी साथ-साथ चलता रहा है। और सरकारों का रवैया इसे लेकर उदासीन ही रहा है। पर हाल के दिनों में तेवर में बदलाव नजर आए। मेरी दिलचस्पी का केंद्र इस मुद्दे को लेकर दिखाई गई यह टाइमिंग है। ऐसा मालूम पड़ता है, यूपी में मिली करिश्माई जीत से पूरे देश भर में भाजपा का आत्मविश्वास अपने एवरेस्ट पर पहुंच गया है। यूपी में मिला करिश्माई संख्या-बल केंद्र सहित तमाम भाजपा शासित राज्यों को सर्वशक्तिशाली, बाहुबली होने का एहसास करा रहा है। केंद्र व भाजपा शासित विभिन्न राज्यों के हालिया फैसले, अंदाजो-अदायगी यही जाहिर करते हैं। योगी सरकार को बूचड़ खाने बंद करना था, तो उसने सारे विरोध को दरकिनार कर उसे बंद कर ही दिया। रमन सरकार को शराब बेचना था, तो उसने सारे विरोध के बावजूद शराब बेचना शुरू किया ही। यकीनन, आने वाले समय में भी ऐसी और झलकियां मिलती रहेंगी। कोई अचरज नहीं, यदि भविष्य में भी भाजपा, विपक्षी-विरोधी नजरिए की परवाह किए बिना… एक जिद, एक जुनून के साथ अपने एजेंडे, अपनी सोच को, हठात तरीके से लागू करते नजर आए।
सफलता का जाम तो वैसे ही बहुत मादक…बहुत होश उड़ाने वाला होता है। फिर, देश के सबसे बड़े राज्य में ऐसी कल्पनातीत, करिश्माई जीत तो किसी का भी दिमाग खराब कर सकती है। राजनीति के आदिगुरु चाणक्य कहते हैं- शक्ति अपने साथ निरंकुशता लाती है, जबकि शक्ति का मतलब जिम्मेदारी-जवाबदेही होता है। सफलता के घोड़े पर सवार शक्तिशाली भाजपा को इसी बात को लेकर सावधान रहने की जरूरत है। खुले दिमाग से… सही मुद्दों पर सख्त रवैया रहेगा तो वह नोटबंदी की तरह अपने साइडइफेक्ट के साथ भी स्वीकार कर ली जाएगी। लेकिन यदि सोच में… नीयत में खोट होगी, अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश होगी, तो यकीनन लेने के देने पड़ सकते हैं। कामयाबी का घोड़ा कहीं भी मुंह के बल गिरा सकता है।
वास्तव में भाजपा ही नहीं… हर अधिकार संपन्न व्यक्ति या संगठन को यह समझने की जरूरत है कि विचार संक्रामक होते हैं और उत्प्रेरक का काम करते हैं… चीजें आपस में जुड़ी रहती हैं और अदृश्य रूप से एक-दूसरे पर असर डालती हैं। इसीलिए तो योगी सरकार के बूचडख़ाने पर प्रतिबंध के बाद, गुजरात व छत्तीसगढ़ सरकार ने भी सख्त रवैया अपनाया। इसीलिए तो गोधरा की प्रतिक्रिया गुजरात दंगे के रूप में सामने आती हैं। बाबरी विध्वंस का असर सुदूर बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार के रूप में दिखाई पड़ता है।
इसीलिए, अपने हर फैसले के प्रत्यक्ष व परोक्ष परिणामों की चिंता हर नेता का राजधर्म होना चाहिए। सफलता के घोड़े पर मदांध होकर, अतिआत्मविश्वास दिखाकर ज्यादा देर सवारी नहीं की जा सकती… होशपूर्वक, सबको साथ लेकर चलने से… सर्वजन हिताय की भावना से काम करने पर ही इसे काबू किया जा सकता है।

30 March 2017

क्या शराबबंदी होगा रमन सरकार का मास्टरस्ट्रोक?

  छत्तीसगढ़ सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर विपक्ष को ऐसा हथियार दे दिया है, जिसकी गूंज अगले साल यहां होने वाले विधानसभा चुनाव तक रहेगी।  इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह आगामी चुनावों में सबसे प्रमुख मुद्दा बन जाए।
मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित अजीत जोगी की जनता कांग्रेस (जे) ने इस मुद्दे को लपक लिया है और महीने भर से रमन सरकार की नाक में दम किए हुए हैं।
आए दिन शराबबंदी को लेकर धरना-प्रदर्शन, विधानसभा घेराव आदि किए जा रहे हैं। जैसे कभी नरेंद्र मोदी के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर तमाम विपक्षी पार्टियों को एक छत के नीचे लाने की कोशिश हो रही थी, वैसा ही यहां शराब के मुद्दे पर एक हवा, एक लहर बनाने के प्रयास चल रहे हैं और बहुत हद तक इसमें सफलता भी मिल चुकी है।
आमजनता खुलकर इस फैसले के विरोध में है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 416 दुकानों को हाइवे से हटाकर अन्यत्र खोलने की कोशिश कर रही सरकार को बहुत अड़चनें आ रही हैं। कहीं लोग दुकान नहीं खुलने दे रहे हंै, तो कहीं प्रस्तावित दुकानों में तोडफ़ोड़ की जा रही है। हाल में खुले में शौच से मुक्त घोषित अंबिकापुर के बतौली गांव की महिलाओं ने शराब दुकान खुलने पर फिर से खुले में शौच करने का फरमान भी सुना दिया है।
कहा जाता है, चुनाव में जब लहर का जोर रहता है, तब अन्य दूसरे मुद्दे पूरी तरह अप्रासंगिक भी हो जाते हैं। इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए चुनाव में और किसी मुद्दे की प्रासंगिकता नहीं रह गई थी। सहानुभूति लहर पर सवार होकर  राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए थे। इसी तरह का नजारा 80 के दशक में हुए चुनाव में देखने मिला था, जिसमें राम लहर के चलते दूसरे सारे मुद्दे गौण हो गए थे। हाल में हुए यूपी चुनाव में जहां मोदी लहर ने सालों से चले आ रहे सियासी समीकरणों को ध्वस्त कर मिथकों को तोड़ डाला, वहीं सब तरफ पटखनी खा रही कांग्रेस ने सत्ताविरोधी लहर में सवार होकर पंजाब फतह कर लिया।
चुनावी लहरों को ज्वालामुखी के समान माना जा सकता है, जो भीतर-ही-भीतर खौलता रहता है और समय आने पर फूट पड़ता है।  ये लहरें भी आम जनता के भीतर खौलते हुए विचारों को, उसके सामूहिक अवचेतन में घर कर गए धारणाओं को ही प्रगट करती हैं। और मौजूदा समय में शराब को लेकर छत्तीसगढ़ में जैसा माहौल गरमाया हुआ है, उससे तो यही लगता है कि यदि आज चुनाव हो जाएं तो इसके आगे सारे मुद्दे फीके पड़ जाएंगे। बाकी सारी बातों को छोड़, तमाम पार्टी इसी शराब के मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाएंगी। यह मुद्दा ही निर्णायक भूमिका अदा करेगा।
लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनाव अगले साल होने हैं। उस लिहाज से अभी काफी महीने बाकी हैं। अगर राजनीतिक लाभ के नजरिए से देखें तो अभी विपक्ष की जरूरत बहुत दूसरे तरह की होगी। उसे न केवल इस मु्ददे को चुनाव तक जिंदा रखना है, बल्कि एक खास समय तक  विराट जनआंदोलन बनने से भी रोकना है। ऐसा न होने पर, हो सकता है सरकार दबाव में आकर सचमुच शराब बंदी का ऐलान कर दे और एक बेहतरीन मुद्दा हाथ से निकल जाए। तो राजनीतिक फायदे की नीयत से विपक्ष शराब-विरोध के इस अलाव को चुनाव तक मध्यम आंच में ही सुलगाए रखना चाहेगा और ऐन चुनाव के पहले इसे विराट आंदोलन में तब्दील होते देखना चाहेगा। ऐसा होने पर ही वह इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाकर लाभ उठा सकता है।
 शराबबंदी नफा-नुकसान से परे आमजनता की सेहत से जुड़ा सीधा मसला है। भले ही कांग्रेस या जोगी कांग्रेस, राजनीतिक लाभ के इतर, सामाजिक सरोकार के चलते छत्तीसगढ़ में शराब-बिक्री का विरोध कर रहे होंगे, लेकिन उन्हें भी पता है कि आगामी चुनावों में शराबबंदी का मुद्दा केंद्रीय भूमिका निभाने वाला है और इसका उन्हें लाभ भी मिलने वाला है। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में बह रही शराबबंदी की बयार यही इशारा कर रही है कि रमन सरकार के लिए समय के साथ-साथ मुश्किलें और भी बढऩे वाली हैं।
लेकिन अहम बात तो यह है कि जिस बात को हर कोई देख पा रहा है, क्या वह छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को नजर नहीं आ  रहा है? क्या सचमुच मौजूदा सरकार शराबबंदी के मुद्दे की गंभीरता को समझ नहीं पा रही है, या उसे जानबूझकर नजरअंदाज कर रही है? या उसे अपने विकास कार्यों पर ज्यादा भरोसा है और वह उसे लेकर ही आगामी चुनाव में जनता के बीच जाना चाह रही है?  प्रदेश के मुखिया डॉ. रमन सिंह का यह तीसरा टर्म है। जनता की नब्ज पढ़कर ही उन्होंने हैट्रिक मारी है। तकरीबन 13 सालों से वे प्रदेश की बागडोर थाम रहे हैं और गांव-गरीब, से लेकर शहर-अमीर...  सबकी तासीर... सबकी अपेक्षा-आकांक्षाओं से अच्छी तरह परीचित हैं। ऐसे में यह नहीं माना जा सकता कि शराबबंदी जैसे मुद्दे के चुनावी असर से वे अनजान होंगे। मुझे तो लगता है कि वे अभी जानबूझकर विपक्ष को उछल-कूद करने दे रहे हैं। भारत के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की तरह वे भी गेम को आखिरी ओवर तक ले जाना चाह रहे हैं। आखिरी ओवर में ही छक्का मारकर वे मैच जीतना चाहते हैं। बहुत संभव है, ऐन चुनाव के पहले ही वे शराबबंदी की घोषणा करेंगे और इस मुद्दे की हवा निकाल देंगे, विपक्षियों को क्लीन बोल्ड कर देंगे। यही उनका मास्टरस्ट्रोक होगा... उनके सारे विकास कार्यों के इतर...।
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29 March 2017

छत्तीसगढ़ में शराब बिक्री : रमन सरकार का एक स्वागत योग्य फैसला


सरकार का काम होता है, जनता की सेवा करना। आम लोगों का भला हो, ऐसे कार्य करना। और रमन सरकार तो शुरू से ही छत्तीसगढ़ हितैषी रही है, छत्तीसगढिय़ा हित के लिए नए-नए एक्सपेरीमेंट करते रही है। इसी कड़ी में अब उसने एक और पुनीत कार्य हाथ में लिया है... शराब बेचने का।

जी हां, सरकार अब शराब बेचेगी। और यकीन मानिए... यह शराब बेचने का फैसला उसके सेवाभावी स्वभाव की ही नजीर है। यह सेवाभावना ही तो है, जो कोचियों द्वारा अवैध दारू बेचकर लोगों को परेशान करते सुना तो उस पर रोक लगा दी और सुराप्रेमियों को सुविधा देेने खुद ही दारू बेचने लगे। अब पीने वालों को कोई परेशानी नहीं होगी, सही माल, सही रेट में मिलेगा।

वैसे, सरकार को यह सुयोग ऐसे ही हाथ नहीं लगा है। जब से सुप्रीम कोर्ट ने हाइवे से लगी शराब दुकानों पर डंडा डाला है, तभी से कई दारू-ठेकेदारों का मूड ऑफ  हो गया है। वे मद्यपान कराने जैसे आदरणीय कार्य को लेकर इंट्रेस्टेड नहीं रहे। बस फिर क्या था, सरकार ने मौका देख चौका मार दिया। इधर, कोचियों से लोग परेशान तो थे ही थे और उधर, ठेकेदारों के पीछे हटने से सरकार को तगड़े नुकसान की चिंता भी सता रही थी। ...सो लगे हाथ उसने दोनों मामले सलटा लिए,  एक तीर से दो शिकार कर लिया।
...तो अब सरकार शराब बेचेगी... कल्पना कीजिए, कैसा भव्य माहौल होगा... कैसा सुखद नजारा रहेगा...  शराब की दुकानों में बैठे हुए रमन सरकार के नुमाइंदे। जगह-जगह टंगे सरकार के हालमार्का वाले बैनर-पोस्टर। सरकार, शराब और समाजसेवा का बखान करते कुछ स्लोगन...कैसा अद्भुत समां बंधेगा। कसम से... पूरा माहौल सरकारीमय हो जाएगा।
नो डाउट इन दुकानों में दफ्तरी बाबू जैसे कुछ लोग भी होंगे ही। ऐसे लोग... जो काम के बोझ से दबा हूं (और थोड़ा भी लोड डाला तो मर ही जाऊंगा) जैसा शो करने वाले...। ये ग्राहक को बोतल भी देंगे तो एहसान करके... मानो बहुत बिजी हों। वास्तव में ये काम कौड़ी का नहीं करेंगे, लेकिन इनके पास फुरसत मिनटों की भी नहीं रहेगी। हां भीड़ बढऩे पर ये एक्टिव मोड में जरूर आ जाएंगे... कमीशन खाने...सौ की बोतल सवा सौ में बेचने।
वैसे ग्राहकी बढऩे पर सचमुच ही यहां  शिक्षा, स्वास्थ्य, नगर निगम जैसे विभाग के सरकारी कर्मचारी नजर सकते हैं। सरकार इनका उपयोग ले सकती है। चौंकिए मत, इसमें कुछ भी ऑड नहीं है।  वास्तव में, सरकार की नजर में सरकारी कर्मचारी आलराउंडर होते हैं। वास्तव में वह इन्हें अलादीन का जिन्न समझती है। और यह मानकर चलती है कि जिस काम को वे नहीं जानते उसके बारे में भी सब जानते हैं, उस काम को भी अच्छे से कर सकते हैं।  इसीलिए सरकार इनका कहीं भी, कभी भी उपयोग लेते रहती है। जनगणना कराना हो तो ये... पोलियो पर कुछ करना हो तो ये। लोक सुराज समाधान शिविर में भी ड्यूटी इनकी ही लगेगी, चुनाव होगा तो सारे काम भी इनके ही कर कमलों से संपन्न होंगे। कहने का मतलब, मूल काम छोड़कर इन्हें सारे काम करना होता है। और छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसे अलादीन के जिन्न बहुत पसंद आते हैं, इसीलिए तो उसने पूरे 32 विभाग के 60 फीसदी कर्मचारी डेपुटेशन में दूसरे काम में लगा रक्खे हैं।
तो कभी आपको शराब दुकानों में यदि कोई सरकारी कर्मचारी दिखाई पड़ेगा, तो चौंकिएगा मत, बल्कि उसके चेहरे को देखकर अलादीन के जिन्न की कल्पना कीजिएगा।
खैर, मूल विषय पर लौटते हैं, सरकार अभी तो दारू बेच रही है, और हो सकता है, आगे रिस्पांस बढिय़ा मिलने पर (जो कि मिलना ही है) वह दारू बनाना भी शुरू कर दे। तब नेताओं-मंत्रियों को इंडीविज्वल ठेका भी मिलने लगेंगे। तब कुछ दुकानों के नाम ऐसे भी हो सकते हैं-  रमन स्कॉच सेंटर, अमर पक्की वाला... राजेश का देसी ठर्र्रा... मोहन की चिल्ड बियर। लगे हाथ पर्सनल ब्रांडिंग भी होती चली जाएगी।
शराब बिक्री का मामला रमन सरकार के लिए हर लिहाज से फायदे का सौदा है, बस एक छोटी-सी नैतिक अड़चन है। वो यह कि सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कभी दारूबंदी का जिक्र किया था। लेकिन डोंट माइंड.... घोषणा पत्र की कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? भाजपा या रमन सरकार ही नहीं... किसी भी दल, किसी भी पार्टी के घोषणापत्र को देखिए....  सब में ठन-ठन गोपाल... जनता के हाथ बाबा जी का ठुल्लू ही हाथ आता है।  वास्तव में झूठ तो राजनीति का सद्गुण है। इसके बिना तो काम ही नहीं चल सकता।
घोषणापत्र वाला मामला बहुत बड़ा इशु नहीं है। सरकार को बिना किसी गिल्टी के बिंदास  धंधा करना चाहिए। दारू बेचकर राजस्व बढ़ाने, घाटा कवर करने पर फोकस करना चाहिए। किसी की सेहत की नैतिक जिम्मेदारी उसकी थोड़े ही है... जिसको मरना है मरे... उसका लक्ष्य तो पैसे कमाना ही होना चाहिए। यदि शराब बेचकर भी राजस्व वृद्धि उसके मन मुताबिक न हो तो तंबाकू, अफीम, चरस, हेरोइन का ऑप्शन भी खुला है। उसमें भी हाथ आजमाया जा सकता है। और ये भी कम पड़े तो और दूसरे भी इसी तरह के स्वनाम धन्य धंधे हैं।
पर लगता है, शायद उन सबकी जरूरत नहीं पड़ेगी, दारू बेचने भर से बात बन जाएगी।  इतना कॉन्फिडेंस इसलिए है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में दारूखोरी का बैरोमीटर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। छत्तीसगढिय़ा लोगों का सुरा-प्रेम काबिले-रश्क है। वे खाने में कंप्रोमाइज कर सकते हैं, लेकिन पीने में बिलकुल नहीं। घर में चार दिन चूल्हा न जले, कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन दो दिन दारू न मिले,  तो वे आसमान सर पर उठा लेंगे, भूचाल ले आएंगे।  उनकी इसी लगन के चलते तो आबकारी विभाग वाले खूब चांदी काट रहे हैं। आंकड़े बताते हैं, राज्य  स्थापना के समय आबकारी से 32.16 करोड़ का राजस्व मिला था जो 16 साल में बढ़कर 3347.54 करोड़ का हो गया है।
छत्तीसगढिय़ों के इतना शराब-प्रेम की वजह जरा दार्शनिक टाइप की है। दरअसल, यहां लोग यथार्थ की समस्याओं को कल्पना के धरातल से हल करने पर यकीन करते हंै। और इस थ्योरिटकल जैसे व्यावहारिक कृत्य को करने में उन्हें दारू से बड़ी हेल्प मिलती है। और चूंकि वे ज्यादा यर्थाथवादी होते हैं, इसीलिए उन्हें समस्याएं भी ज्यादा आती हैं, इसीलिए वे सोमरस की भी ज्यादा हेल्प लेते हैं।
तो सरकार को रेवेन्यू बढ़ाने वाले नेक इरादे में निराशा हाथ लगने की संभावना नगण्य है। हां, टारगेट से थोड़ा-बहुत उन्नीस-बीस भले हो सकता है। पर उसका भी टेंशन नहीं,  जिम्मेदार शहरी मदद के लिए आगे आ जाएंगे। जो दारू नहीं पीते हैं वे भी दरूए बन जाएंगे... वे भी ज्यादा-से-ज्यादा दारू खरीदकर पीएंगे, सरकार का खजाना बढ़ाने में मदद करेंगे।
आप सोचिए तो सही, रमन सरकार ज्यादा पैसे क्यों कमाना चाह रही है? क्या उसे अपने लिए कुछ चाहिए?  बिलकुल नहीं जनाब। एक बात जान लीजिए, नेता होने का मतलब ही है, परहित अभिलाषी। ये अपने लिए कुछ नहीं करते, इनके हर कार्य में दूसरे के हित की सदइच्छा ही छुपी होती है। यदि ये घोटाला भी करते हैं तो रॉबिनहुड स्टाइल में समाज की सेवा करने... लूट, हत्या, डकैती में भी फंसते हैं, तो धर्म, न्याय जैसे उच्च आदर्शों को बनाए रखने। और कई मर्तबा जब उनके भीतर सेवा भावना प्रबल हो जाती है, बहुत जोर मारने लगती है, तो वे दवा देने के लिए पहले दर्द दे देते हैं। मदद करने के लिए पहले छीन लेते हैं। भला करने के लिए पहले बुरा कर देते हैं। संक्षेप में, उनका पूरा जीवन ही परोपकार को समर्पित रहता है और इसे पूरा करने वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।  और मुझे पूरा यकीन है, रमन सरकार भी पूरी तरह परोपकार के लिए समर्पित है और इसे पूरा करने किसी भी हद तक जा सकती है। इसीलिए पहले वह दारू बेचकर लोगों से पैसे वसूलेगी और बाद में उनके ही पैसों को उनके ही भले के लिए इस्तेमाल करेगी।
फिर दोहराता हूं, रमन सरकार को बिना किसी गिला के... बिना किसी अपराधबोध के इस परोपकारी कृत्य को करना चाहिए। कोई इस काम को अगर गंदा कहे तो उसे बिलकुल माइंड नहीं करना चाहिए। भारत जैसे आध्यात्मिक देश में न कोई काम छोटा होता है, न कोई काम गंदा होता है। यही हमारे हजारों सालों के चिंतन का निचोड़ रहा है। वैसे भी जब धंधा करने उतर आए तो क्या सही, क्या गलत, बनियागीरी में कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता।
वैसे मुझे लगता है, इस फैसले में तो रमन सरकार को हाईकमान का भी समर्थन मिल रहा होगा।  देखिए, भाजपा को तो बनियों की सरकार कहा ही जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार के यूं धंधा करने से पार्टी की पारंपरिक छवि ही मजबूत हो रही है, लिहाजा इसके लिए तो सीएम एंड कंपनी को तो जमकर शाबासी मिली होगी। हाईकमान ने ऐसी आला दर्जे की क्रिएटिविटी के लिए खूब पीठ थपथपाई होगी।
यकीनन, रमन सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर बहुत ऊंचा ओहदा हासिल कर लिया है। पर जाने क्यों कुछ तथाकथित समाजसेवी और कांग्रेसी इस पुण्य कार्य का विरोध कर रहे हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि खुद सरकार के कुछ मंंत्री भी सरकार की फीलिंग्स नहीं समझ पा रहे हंै। पर आप तो जानते ही हैं, सत्य के कई पहलू होते हैं और जैसी हमारी धारणा होती है, वैसी ही चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। कहते हैं, हनुमान जी को गुस्से में होने के कारण अशोक वाटिका में लाल फूल दिखे थे, जबकि वास्तव में फूल सफेद थे। वैसा ही हाल शराब-बिक्री का विरोध करने वालों का भी है। उन्हें निगेटिव देखना है, इसीलिए निगेटिविटी दिखाई पड़ रही है। खैर, जाकी रही भावना जैसी...।
पर शुक्र है भगवान का.... सही काम की कदर होती ही है। वो कहते भी हैं ना... अच्छाई ट्रैवल करती है, उसे कोई रोक नहीं सकता। तो विरोधियों के लाख हाय-तौबा मचाने के बाद भी रमन सरकार के हालिया फैसले से इंप्रेस होने वालों की कमी नहीं है। हाल ही में छत्तीसगढ़ से प्रेरित होकर झारखंड की सरकार ने भी शराब बेचने का फैसला कर लिया है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि आगे और भी राज्य प्रेरणा लेते रहेंगे। मुझे तो यहां तक यकीन है कि शराबबंदी लागू करने वाली बिहार व गुजरात की सरकार भी आत्मग्लानि से भर उठेगी और न केवल शराबबंदी का फैसला वापस लेगी, बल्कि वह खुद भी शराब बेचने लगेगी। उनके आत्मनिरीक्षण से भी यही निष्कर्ष निकलेगा कि कहां वे महात्मा गांधी के विचारों को अपनाए हुए थे और जबरन शराब बेचने जैसा आदरणीय कार्य करने से बच रहे थे।
कोई माने या न माने, लेकिन हकीकत यही है।  दारू बेचने का रमन सरकार का फैसला बहुत क्रांतिकारी, बहुत स्वागतयोग्य है। और जैसा कि हर अच्छे फैसले के साथ होता है... उसे लागू करने में कठिनाई आती है, उसकी राह में कांटे बोए जाते हैं। लोग उसके महत्व को, उसके समाज हितैषी दूरगामी प्रभाव को देख-समझ नहीं पाते हैं। वैसा ही इस फैसले के साथ भी हो रहा है। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि रमन सरकार को हर मुश्किल का डटकर सामना करना चाहिए। सारे दबाव के बावजूद शराब बेचने के यशवर्धक कार्य से कदम वापस नहीं खींचना चाहिए।  और शराब बंदी की तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। ... इसके विपरीत उसे अपनी ग्राहकी बढ़ाने के लिए मार्केटिंग स्ट्रेटेजी पर काम करना चाहिए। जैसे उसने चावल और नमक में सब्सिडी दी है। वैसे ही उसे शराब के कुछ ब्रांड में भी छूट दे देनी चाहिए। ऑनलाइन कंपनियों की तरह ग्राहकों को लुभाने, फेस्टिवल ऑफर जैसी नई-नई स्कीम लानी चाहिए, डोर-टू-डोर कैंपेन चलाने चाहिए। इसके अलावा, सरकारी कर्मचारियों, गरीबी रेखा से नीचे वालों, आरक्षण प्राप्त जातियों व वृद्ध, नि:शक्त, निराश्रित जनों के लिए भी छूट का प्रावधान कर देना चाहिए। इससे न केवल उसकी कमाई बढ़ेगी, बल्कि लोकप्रियता में भी चार चांद लगते चले जाएंगे।
और यही तो वह चाहती भी है ... सारी कवायद भी तो इसी के लिए है ना...

15 March 2017

क्या सचमुच है देश में मोदी की सुनामी?

यूपी, उत्तराखंड में भाजपा की धमाकेदार जीत पर टीवी चैनल से लेकर प्रिंट मीडिया सबमें एक ही बात कही जा रही है… मोदी की वजह से ही शानदार जीत मिली… मोदी की सुनामी चल रही है।
मोदी निश्चित ही करिश्माई नेता हैं, उन्होंने इन चुनावों में बहुत मेहनत भी की है। लेकिन क्या महज मोदी फैक्टर ही यूपी-उत्तराखंड में भाजपा की प्रचंड जीत के पीछे है? क्या सचमुच देश में मोदी-लहर चल रही है? मोदी की नीतियों नोटबंदी आदि जैसे कृत्यों को आम जनता का समर्थन है। ये चुनाव नतीजे क्या सचमुच मोदी की नीतियों के प्रति जनादेश है?
अगर हम ठीक से देखें तो हमें मालूम पड़ेगा… शायद ऐसा नही हैं। अगर वास्तव में मोदी-लहर होती तो वह पंजाब, गोवा व मणिपुर के चुनावों में भी दिखाई पड़ती। लेकिन इनमें से किसी में करारी हार, किसी में कांटे की टक्कर, किसी में संघर्षपूर्ण जीत मिली है। इससे यही जाहिर होता है कि लोकल इशुज व अन्य दूसरे समीकरण का राज्यवार अपना असर रहा है, वही केंद्र पर रहे हैं। बेशक, मोदी फैक्टर का भी अपना रोल, अपनी भूमिका रही है, लेकिन वह सोने पर सुहागा जैसी है। जिन राज्यों में एंटी इन्कंबंसी थी, दीगर लोकल इशुज थे, भाजपा के अनुकूल चीजें थीं… वहां मोदी फैक्टर ने मिलकर करिश्माई असर दिखा दिया, लेकिन जहां भाजपा के लिए अनुकूलता न थी, वहां चमत्कार नहीं हो पाया।
कुछ ऐसा ही पिछले लोकसभा चुनावों में भी हुआ था। इसमें मिली भाजपा की प्रचंड जीत को भी मोदी का करिश्मा कहा गया था, जबकि ऐसा नहीं था। मुझे लगता है, यदि मनमोहन सरकार को लेकर जबरदस्त निगेटिव, निराशाजनक माहौल नहीं होता, सत्ता विरोधी लहर न होती… तो तथाकथित मोदी लहर नहीं चल पाती, भाजपा को वैसी धुआंधार जीत नहीं मिल पाती। उस समय भाजपा को मिली प्रचंड जीत में मनमोहन सरकार को लेकर चल रही सत्ता विरोधी लहर का भी अहम योगदान था। बेशक, यदि मोदी न होते तो वैसी करिश्माई जीत नहीं मिल पाती, लेकिन वैसी सत्ता विरोधी लहर नहीं होती, तो शायद वह तथाकथित मोदी लहर भी चल नहीं पाती। सत्ता विरोधी लहर के साथ मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने सोने पे सुहागा का काम किया था… यूपी, उत्तराखंड के हालिया विधानसभा चुनावों की तरह ही।
यह सही है कि वास्तव में जनता के मन में क्या चल रहा है… उसे कौन से इशु क्लिक करेंगे… उसे समझना कठिन होता है। यह बिलकुल अगणितीय होता है, इसके पीछे कोई तार्किक नियम काम नहीं करते। यह भी सही है कि विधानसभा चुनाव में नेशनल इशु भी अनेक मर्तबा निर्णायक रोल निभाते देखे गए हैं। लेकिन सामान्यत: यही होता है कि लोकल चुनावों में लोकल इशु ही काम करते हैं। नेशनल लेबल का जब तक कोई बहुत बड़ा मुद्दा न हो, तब तक उनका क्षेत्रीय चुनावों में असर नहीं पड़ता है।
इसीलिए इन चुनावों को मोदी की नीतियों के प्रति समर्थन या मोदी लहर के तौर पर देखना शायद ठीक न होगा। यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा पंजाब में हुए इन विधानसभा चुनावों में मोदी फैक्टर के इतर अन्य मुद्दे भी अहम रहे हैं, जिनका नतीजों में अपना अहम योगदान रहा है। राजनीतिक पंडित भले ही इन्हें नजरअंदाज करें या न देखना पसंद करें, लेकिन हकीकत यही है।

01 March 2017

"व्यंग्य : अफरीदी तुम संन्यास कैसे ले सकते हो?"

आपने सुना! च्साहिबजादाज् ने फिर संन्यास ले लिया है। नहीं पहचान रहे... अरे! अफरीदी... अपना शाहिद अफरीदी... उसकी बात कर रहा हूं... ये उसका ही ऑफिशियल नाम है। कैसा फील आ रहा है... मिजाज से मेल खाता है ना?  खैर, अपने बब्बा ने फिर बल्ला टांग दिया है। अरे! आप तो हंसने लगे... प्लीज हंसिए मत.... शुरू में मैं भी हंसा था। लेकिन जब देखा कि ब्रेकिंग न्यूज चल रही है- च्इस बार का संन्यास पूरा सच्चा वाला है... हंड्रेड परसेंट डेफिनिट...ज् तब मेरी हंसी गुम हो गई थी। मुझे यकीन नहीं हो पा रहा था,  ऐसा कैसे हो गया? ऐसा कैसे हो सकता है? हमारा च्स्वीट सिक्सटीनज्, च्डटीज़् सिक्स्टीज् कैसे बन सकता है? वह पक्का वादा कैसे कर सकता है? वह इतना बूढ़ा, यानी मैच्योर तो कभी न था... बल्कि उसके लटके-झटके, उसके कारनामों से तो यही लगता था कि उसका बचपना गया ही नहीं है... और कभी जाएगा भी नहीं। 
लेकिन जब बार-बार दोहराया जाने लगा कि च्वह मैच्योर हो गया है, मैच्योर हो गया है...ज् तो थोड़ा यकींन आने लगा। वो कहते हैं ना झूठ को बार-बार कहने से वो सच हो जाता है। तो इसलिए अब मुझे भी लग रहा है हमारा सदाबहार सिकंदर... चिरयुवा

कलंदर सचमुच बूढ़ा (मैच्योर) हो गया है। और इसके बाद मुझे अब मैच्योरिटी पर गुस्सा आ रहा है। ये भी साली बड़ी ऊटपटांग चीज है, कभी-भी किसी को आ जाती है... इसके चक्कर में ही व्यक्ति अनाप-शनाप फैसले ले लेता है। और इसका उम्र से तो कोई कनेक्शन ही नहीं होना चाहिए। अब देखिए ना... लोग-बाग यही कह रहे हैं, अपना साहिबा इसी उम्र के प्रेशर में आ गया है। वह 36 का हो गया है, इसीलिए उसने सच्चा वाला संन्यास लिया है। 
अब मेरे लिए यह दूसरा झटका है... पहला तो उसकी मैच्योरिटी और दूसरा उसकी उमर। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा है कि अपना छोटा चेतन सीधे 36 का कैसे हो गया है? अब तक तो न उसे युवा होते सुना था न अधेड़। मुझे तो यही लगता था कि वे हमेशा 16-17 साल के लौंडे-लपाटे ही रहेंगे, ता-उम्र मैदान में लोलो-लपाटा करते नजर आएंगे। 
अब आप ऐसा मत सोचिए कि मैं कोई उनका अंतरंग साथी हूं और उनके अंदरूनी शारीरिक बदलावों को करीब से देखता रहता हूं, इसलिए मुझे ऐसा लग रहा है। अपनी कल्पनाशक्ति को जरा नैतिकता के दायरे में ही उड़ान भरने दें। बात असल में यूं है कि  96-97 में जब उन्होंने डेब्यू किया था, तब भी उनकी उम्र 16 साल ही थी और बाद के सालों में जब भी उमर का मसला खड़ा होता तो वे अंडर-16 ही कहे जाते थे। इसीलिए मेरी बुद्धि ने (पूरी तरह साजिशन) मान लिया था कि वे कभी च्बड़ेज् ही नहीं होंगे...  वे सुकुमार हैं, नौनिहाल हैं, कभी बूढ़े ही नहीं होंगे। वास्तव में अपन तो यही माने बैठे थे वे जनाना हैं... मेरा मतलब जनानियों की तरह हैं... यानी उनकी उम्र ठहरी ही रहेगी। 
अब महिलाओं को तो आप जानते ही हैं...उनकी भी उम्र कभी बढ़ती ही नहीं है। वे भी अपने को चिर युवा, सदा जवान मानती हैं। 50 के पेटे पर भले ही पहुंच जाएं, लेकिन होड़ लेने की बात हो तो मुकाबला किसी षोडशी से ही करती हैं। इसीलिए तो कोमलांगियों से उम्र पूछने का रिवाज नहीं है... बल्कि ऐसा करना तो गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन विडंबना देखिए, हमारे वंडर बाय की तो कोई वैल्यू ही नहीं समझी जाती थी। कुछ लोग उनकी उम्र पर भी लाल स्याही लगाते थे। और यह  गुनाह-ए-लज्जत करने वाले कौन... अपने ही पाले वाले...बिरादरी भाई... वही आदमी जात... वही पुरुष पत्रकार...। अरे कमबख्तों.... तुम्हें तो गर्व  करना था कि पुरुष समाज के पास भी महिलाओं को टक्कर देने वाला एक नगीना है... ऐसा नगीना जो पूरी महिला बिरादरी से अकेले लोहा लेता है। पर नाशुक्रे ऐसे नायाब हीरे की कदर ही नहीं करते थे।
खैर, पाकिस्तान के पास यदि अफरीदी जैसा अजूबा है तो हिंदुस्तान के पास भी अपना कोहिनूर है। हिंदुस्तानियों को गिल्टी फील करने की, अंडर स्टीमेट होने की बिलकुल जरूरत नहीं है। अगर उधर कोई चिरयुवा है तो इधर हमारे पास भी युवराज है। 42 साल का युवराज... अपना राहुल बाबा। दस-बारह साल पहले भी वे युवराज थे... आज भी युवराज ही कहे जाते हैं, और 52 के भी हो जाएंगे, तब भी शायद प्रिंस ही माने जाएंगे। इस ऐंगल से तो अपने राहुल भी अफरीदी की तरह चिरयुवा ही हैं।  और हो सकता है वे भी युवा रहते हुए सीधे बूढ़े हो जाएं,  यानी रिटायर हो जाएं, यानी कोई काम न करें। 
पर लगता है, ऐसा शायद  कभी नहीं होगा।  दरअसल, वे जिस पेशे से आते हैं, उसमें कोई रिटायर ही नहीं होता है। कब्र में पांव लटकने वालों की महत्वाकांक्षा भी सातवें आसमान तक उड़ान भरती है। यकीन मानिए, राजनीति सदा सुहागन रहती है... इसमें जब चाहे चौका मार सकते हैं। हमारे आडवाणी जी और तिवारी जी को ही लीजिए.... उन्हें देखकर क्या आपको नहीं लगता कि अब भी वे कुछ कर गुजरने में ही लगे हैं। और जब ऐसे धाकड़ जमे हुए हैं तो अपने बाबा तो अभी यंग हैं और कुछ लोग तो उन्हें युवा भी नहीं मानते... बच्चा समझते हैं और प्यार से पप्पू बुलाते हैं। उनकी पार्टी की ही शीलाजी समझती हैं कि उनकी उमर कम है... उनमें मैच्योरिटी (फिर वही मैच्योरिटी) आना बाकी है। ...तो इसलिए राहुल के रिटायरमेंट का सवाल ही पैदा नहीं होता, बल्कि ऐसा सोचना भी पाप होगा... उसी तरह जैसे किसी महिला से उसकी उमर पूछना। तो यह तय रहा, राहुल ना तो जवानी से रिटायर होंगे और न ही राजनीति से। वे कुछ-न-कुछ तो करेंगे ही... और कुछ नहीं तो मार्गदर्शक मंडल से मार्ग बताने का ही काम करेंगे। 
वैसे, बात अगर रिटायरमेंट की ही है तो डाउट तो अपने साहिबजादे के मामले में भी है... उसके पक्के वाले वादे के बाद भी। नहीं, मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा हूं कि राजनीति की तरह क्रिकेट में भी आखिर तक च्चौके-छक्केज् मारे जा सकते हैं। यकीनन, क्रिकेट राजनीति जैसी नहीं है, यहां सब टाइम-टू-टाइम होता है... रिटायरमेंट भी। पर यह मामला थोड़ा अलग है। यह मामला सरहद पार का है और आप तो जानते ही हैं, वहां कुछ भी हो जाता है...  किसी का कोई माई-बाप नहीं है। वहां तो खेल में भी सियासत घुसी है और सियासत में बड़े-बड़े खेल हो जाते हैं। राजनीति को खेल समझ लिया जाता है और खेल में राजनीति हो जाती है। एक्च्युअल में वहां सियासत वाले खिलाडिय़ों से प्रेरणा लेते हैं और खिलाड़ी राजनीतिज्ञों को रोल मॉडल मानते हैं। इसीलिए वहां के सियासतदार कभी-भी, किसी का भी खेल कर देते हैं। खेल-खेल में जेल भिजवा देते हैं, खेल-खेल में तख्ता पलट देते हैं। पूरी खिलाड़ी भावना से एक-दूसरे का गेम बजाने में लगे रहते हैं।  
और जहां तक खेल में सियासत की बात... वहां भी पड़ोसियों को वाकओवर मिला हुआ है।  वहां कोई भी खिलाड़ी खुद को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से कम नहीं समझता। हर खिलाड़ी खुद में खुदा है, जिससे खुजाए (पंगा लिए) उसी से निबटे। इसीलिए तो कभी वसीम-वकार जैसे सीनियर आपस में भिड़ते रहते हैं,  तो कभी रमीज-युसुफ में ठनती रहती है। पाकिस्तानी क्रिकेट में पॉलिटिक्स का आलम यह है कि सारे कप्तान हटने के लिए ही बनते हैं। इधर बने नहीं, उधर हटे। अब क्या करें... अनऑफिशियली तो पूरे 11 के 11 खुद ही कप्तान हैं, फिर ऑफिशियली किसी को कैसे हजम कर लें? अच्छा, इस मामले में  पीसीबी का भी कंसेप्ट क्लीयर है, वह भी केवल खिलाडिय़ों की प्रोफाइल मजबूत करने ही कप्तान बनाता है। उसे टीम के भले से कोई लेना-देना नहीं है.. टीम की ऐसी की तैसी... टीम जाए चूल्हे में। 
पड़ोसियों की खेल और राजनीति की इस जुगलबंदी को देखकर ही लगता है कि वहां राजनीतिज्ञ परमानेंट रिटायर हो सकता है और खिलाड़ी आजीवन खेलता दिख सकता है। यहां तक कि रिटायरमेंट भी खेल का हिस्सा हो सकता है। आप इमरान सहित कई खिलाडियों को तो जानते ही हैं, जो जब मूड आया रिटायर हुए और जब मूड बना फिर खेलने भिड़ गए। खुद अफरीदी को ही देखिए, अपना वस्ताद 2006 से अब तक आधा दर्जन बार रिटायर हो चुका है। 
जब खिलाड़ी से लेकर टीम का ऐसा ट्रैक रिकॉर्ड है, तो इस सच्चे वाले संन्यास पर भी डाउट आता है। यह भरोसा जगता है कि अपना बब्बा फिर बल्ला थामेगा... रिटायरमेंट केंसिल करेगा। और वो जो उमर का प्रेशर वाली बात है ना... इस पर तो आप जाइए ही मत। ये 36 वाला... मैच्योरिटी वाला मामला तो मेरे को शुरू से ही नहीं जम रहा है। मुझे तो लगता है अफरीदी का या तो बीवी से झगड़ा हुआ है या घरवालों से किसी बात पर ठनी है। उसी के चलते उसने उधर फायर करने की बजाय, इधर फायर कर दिया है।  उसने झूठ-मूठ ही अपनी उमर 36 बताकर परमानेंट संन्यास का एलान कर दिया है। मुझे तो पूरा भरोसा है... जिस दिन भी मांडवली होगी... अपना चिरयुवा सिकंदर फिर से मैदान में बचपना दिखाने.. बचकानी हरकत करने पहुंच जाएगा। वो सच का खुलासा करेगा कि वो 36 का नहीं बल्कि 16-17 का स्वीट सिक्सटीन ही है.. भावनाओं में बहकर उसने उम्र गलत बताई थी।
 यकीं मानिये ऐसा ही कुछ होगा...  अफरीदी का संन्यास स्थायी है लेकिन घोषणा अस्थायी...
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21 February 2017

मोदी और कोहली : पोस्टर ब्वॉय से ब्रांड एंबेसडर तक...


साल भर पहले देश भर में असहिष्णुता ( इनटोलरेंस) का मुद्दा गरमाया हुआ था। उस दौरान प्रधानमंत्री मोदी सबके निशाने पर थे। उन दिनों इस बात की बड़ी चर्चा थी कि मोदी सरकार पत्रकारों को टारगेट कर रही है...  ऐसे पत्रकारों को जो उनके विरोधी हैं, उनसे असहमति जताते हैं।  कहा जा रहा था, समर्थक, विरोधी और मध्यमार्गी पत्रकारों (ऐसे पत्रकार जो कभी तारीफ करते तो कभी विरोध करते हैं) की बाकायदा लिस्ट बनाई गई है।  कुछ खास लोगों को मध्यमार्गी पत्रकारों को समर्थक खेमे में लाने का जिम्मा सौंपा गया है और जो पक्ष में आने को तैयार नहीं हैं उन्हें विरोधी खेमे में डालकर उन्हें उनकी जगह बताने, च्ठिकाने लगानेज् की योजना है।
हो सकता है ये बातें कोरी अफवाह हों, लेकिन अमूमन यही देखने में आता है कि व्यक्ति जितना ज्यादा सफल होता जाता है, उसके लिए आलोचना या असहमति उतनी ही असहनीय हो जाती है। बिरले ही होते हैं, जो विरोध या आलोचना की कड़वी घुट्टी को बिना किसी पूर्वग्रह के, दुर्भावनापूर्ण माने बिना पी लेते हैं। प्राय: यही होता है कि व्यक्ति के अंदर सफलता के अनुपात में तानाशाही प्रवृत्ति बढऩे लगती है। वह अपने आसपास असहमति जताने वालों को खारिज करना चाहता है, उसे यसमैन पसंद आते हैं। इसे सफलता का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। और इस साइड इफेक्ट के शिकार संभवत: एक और शिखर-पुरुष हो रहे हैं....भारतीय क्रिकेट के दैदीप्यमान नक्षत्र विराट कोहली।
 कोहली आज शाहरुख खान के बाद हिंदुस्तान के दूसरे सबसे महंगे सेलेब बन गए हैं। वे लगातार सफलता की नई-नई मीनारों पर चढ़ते जा रहे हैं, नए-नए शिखर चूमते जा रहे हैं।  लेकिन उन्हें भी आलोचना करने वाले फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। पिछले दिनों एक बंगाली अखबार ने दावा किया कि कॉमेंट्रेटर हर्षा भोगले को विराट कोहली और मुरली विजय की नाराजगी भारी पड़ी थी, इसी के चलते उन्हें कॉमेंट्री से हटाया गया था।
आपको याद ही होगा 2016 वल्र्ड टी-20 में हर्षा की भारतीय क्रिकेटरों पर टिप्पणी से खासा बवाल मचा था। भोगले ने भारत-बांग्लादेश मैच के दौरान कोहली के 7 रन बनाने पर कहा था- च्उन्होंने रन बनाने से ज्यादा शॉट खेल दिए हैं।ज् इस पर विराट नाराज हुए थे। अखबार के मुताबिक, कोहली को जब भोगले के कमेंट्स के बारे में पता चला था तो उन्होंने पूछ लिया कि ऐसे कमेंट क्यों किए। इस पर भोगले ने कोहली को समझाने का प्रयास भी किया और वॉट्सएप पर भी सफाई दी, लेकिन कोहली शांत नहीं हुए। भोगले की टिप्पणी को दिग्गज फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन ने भी गलत मानते हुए ट्वीट किए थे, जिसे बाद में कप्तान धोनी ने रिट्वीट कर दिया था। पूरे मामले का समापन हर्षा की छुट्टी से हुआ था। उस सीरीज के बाद स्टार स्पोट्र्स ने उनसे करार खत्म कर दिया था।
यकीनन, कोहली ने भोगले को हटवाने कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किया होगा, उन्हें दबाव डालकर नहीं हटवाया होगा। लेकिन अहम बात तो यह है कि वे अपनी आलोचना पर इतने नाराज... असहनशील क्यों हुए? भोगले ने ऐसा क्या कह दिया जो नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था? और यदि गलत था भी तो क्या उसे नजरअंदाज कर बड़प्पन नहीं दिखाया जा सकता था? परोक्ष रूप से ही सही, लेकिन कोहली व टीम इंडिया को भोगले के निर्वासन के लिए जिम्मेदार माना जाएगा... उनके लिए इस लांछन से बचना मुश्किल होगा।  यही समझा जाएगा कि कोहली-बिग्रेड आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाती, उसने हर्षा को ठिकाने लगा दिया।
इस मामले का एक पहलू और भी है। स्टार ने भले ही विवाद टालने की गरज से अनुबंध खत्म किया हो।  लेकिन मानने वाले यही मानेंगे कि स्टार ने गलत परंपरा को ही आगे बढ़ाया है। उगते सूरज को सलाम किया, दबंगों की नाराजगी मोल लेना पसंद नहीं किया। इस पूरे मामले में सबसे घातक बात भी यही है।  दरअसल, हर्षा को जिस कारण से हटाया गया है, उसके बाद...  इसी बात की संभावना ज्यादा है कि निष्पक्ष आलोचना से लोग बचने लगेंगे... डरेंगे। चरण वंदना...  झूठी तारीफ करने वाले चारण-भाटों  को बढ़ावा मिलने लगेगा। व्यक्ति पूजा महत्वपूर्ण हो जाएगी, तानाशाही प्रवृत्ति सर उठाने लगेगी।
वास्तव में, जस्बाती होकर तुरत-फुरत फैसले लिया जाना ही गलत था। अगर भोगले को हटाना जरूरी भी था, तो बाद में... मामला ठंडा पडऩे पर, खिलाडिय़ों व भोगले के बीच सुलह करा... गैप खत्म कराकर वापसी करवाई जानी थी। क्रिकेट के अन्य दिग्गज खिलाडिय़ों को भी बेहतर संवाद के लिए प्रयास करने थे। खुद कोहली को बड़ा दिल दिखाना था... आलोचना को पाजीटिव लेना था। उन्हें यह सोचना था कि भोगले ने क्या जानबूझकर, इंटेशनली उन्हें नीचा दिखाने टिप्पणी की है? यकीनन, ऐसा हरगिज नहीं रहा होगा। और अगर ऐसा भी होगा, तो बजाय आलोचना को कान देने के च्हाथी चले बाजार....ज् वाली फिलासफी को अमल में लाकर अपना बीपी हाई नहीं करना था।
सच तो यह है भोगले ने ऐसा कुछ गलत नहीं कहा था, जिस पर इतना बवाल मचना था। क्योंकि उन्होंने थोड़ा क्रूर, सपाट तरीके से कमियों पर टिप्पणी की थी, इसलिए अमिताभ बच्चन जैसे क्रिकेट प्रेमियों को अखर गया था और उन्होंने बजाय नतीजे या खिलाडिय़ों की कमियों पर ऊंगली उठाने के... उनकी मेहनत पर ध्यान देने की जरूरत बताई थी। खिलाडिय़ों से प्यार करने वाले प्रशंसक ऐसे ही होते हैं, उन्हें अपने आइकॉन में कमियां नहीं दिख पाती हैं। लेकिन कुछ कबीर-परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लोग भी होते हैं, जो कमियों पर बात करते हैं। हर्षा भोगले, शोभा डे ऐसे ही लोग हैं। अपनी इस आदत की वजह से वे निशाने पर भी आते हैं, सोशल मीडिया पर भी जमकर ट्रोल होते हैं।
 लेकिन आलोचकों, निंदकों का अपना महत्व होता है, जिसे खारिज नहीं किया जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की तरह ही, असहमति की आजादी भी मूलभूत अधिकार है। उसकी की भी जगह होनी चाहिए। कोहली-ब्रिगेड को याद रखना चाहिए कि उनके पूवर्वती सचिन-सौरव के खेल पर भी टीका-टिप्पणी होती थी, लेकिन वे कभी अपने आलोचकों पर नाराज नहीं होते थे।
एक बात और...
मोदी व कोहली आज भले ही अपने दल व टीम के च्पोस्टर-ब्वॉयज् हैं... उनका सक्सेस रेट भले ही अपने सीनियर अटल-सचिन से ज्यादा है, लेकिन दिलों पर राज करने के मामले में ये उनसे पीछे ही हैं। ये दिग्गज (अटल-सचिन) अपने दल-टीम से बहुत ऊपर ... राजनीति-क्रिकेट के एंबेसडर माने जाते हैं, विरोधियों का भी प्यार, सम्मान इन्हें हासिल है। यह मुकाम सह्रदयता से... सबको साथ लेकर चलने से आता है। आज के पोस्टर ब्वॉयों को याद रखना चाहिए कि हर सफल व्यक्ति महान नहीं होता... सच्ची महानता तो दिलों पर राज करती है।
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