03 May 2014

वह टूटा पत्ता


वह मामूली-सा पीपल का पेड़ है। सड़क किनारे, हनुमान मंदिर के पास सालों से मौजूद,  साक्षी की तरह... सबको निहारता...।  डॉ. राही मासूम रजा के ‘नीम का पेड़’1 जैसा उसे साहित्यिक रुतबा हासिल नहीं है। वह उतना नामचीन नहीं है, लेकिन उसने भी कई पीढ़ियों को मिट्टी में खेलते, पलते-बढ़ते और मिट्टी में ही मिलते देखा है। उसका विशाल कद किसी बड़े-बुजुर्ग की मौजूदगी का एहसास कराता। कभी-कभी वह पालथी मारकर बैठा दिखाई पड़ता, जिसकी जमीन से लगी, इधर-उधर फैली जड़ें, दादी-नानी की गोदी-सी महसूस होतीं। इसी पेड़ के साए में उसका बचपन भी परवान चढ़ा था। इसके पास मैदान में वह अपने दोस्तों के साथ खेला करता था। धूप में, छांव में, बारिश में... हर मौसम में, हर तरह के खेल। किल्लापारा में यह जगह उन बच्चों के लिए स्वर्ग जैसी थी। 
मंदिर के चबूतरे में  ठेठ छत्तीसगढ़ी में गप मारते लोग, स्थानीय कामचलाऊ होटल में आमनेर2 से लगे दारू भट्टी से ‘पीकर’ आए कुछ शराबी, ‘सेठघर’3 में किसानों-बैलगाड़ियों का मजमा...  हो-हल्ला, शोरगुल... 80 के दशक के किल्लापारा की यही तसवीर थी। खैरागढ़ के इस बाहरी इलाके में एक-दो धनवान परिवारों को छोड़ दें, तो मध्यम, निम्न-मध्यम परिवार ही ज्यादा थे। यह अपेक्षाकृत शांत मोहल्ला था, जहां शहर के पंगे, गुटबंदी किस्सागोई तक ही सीमित थे। लोग-बाग जितनी बिंदास तबीयत के थे, उतने ही उत्सवधर्मी भी। गणेश चतुर्थी, सरस्वती-पूजा जैसे सार्वजनिक उत्सव में तो पूरा मोहल्ला ही संयुक्त परिवार में बदल जाता।  मध्यम व निचले तबके के बीच का यह अपनापन ही किल्लापारा की आत्मा थी।
बस्ती से दूर बसे पारा-मोहल्लों में सामान्यत: उतनी बसाहट नहीं होती। किल्लापारा भी इसका अपवाद न था। फैले हुए इस खुले इलाके में तकरीबन दो-ढाई सौ मकान ही रहे होंगे।  मुख्य सड़क के एक तरफ बड़े हिस्से को नगरसेठ 4 की हवेली ने घेरा था। इस तरफ अंदर की ओर कई मकान थे, जबकि दूसरी ओर खाली जगहों के बीच-बीच में इक्का-दुक्का घर तथा होटल-पान व सायकिल स्टोर जैसी कुछ बेतरतीब दुकानें थीं। थोड़ा आगे, हनुमान मंदिर के पास वह पीपल था, यहीं वह पला-बढ़ा, हंसा-रोया था। वहां की हर शै- मंदिर, मैदान, मकान सभी उसके बचपन के गवाह थे। उसका जुड़ाव वहां की हर चीज से था।
‘ पीपल के पत्तों से छन-छनकर आतीं सूर्य की किरणें... ऊपर पेड़ में कहीं, एक डाल से दूसरे में कूदते बंदर... पक्षियों की चहचहाहट... माहौल में रची-बसी धूप-अगरबत्ती, बंधन की खुशबू... असमतल मैदान में भागम-भाग, चिल्ल-पौं... ’
 उफ!  क्या जगह थी वह, जाने कैसा जादू था! वहां पहुंचते ही उसके भीतर कहीं हजारों गुलाब खिल उठते।  अपने दोस्तों के साथ वो यहां खूूब धमा-चौकड़ी मचाया करता। वह मैदान उन बच्चों के लिए किसी लॉर्ड्स, किसी ईडन गार्डन से कम न था। स्कूल से आते ही वह उनका अखाड़ा हो जाता। क्रिकेट, फुटबाल, बैडमिंंटन  ही नहीं, गिल्ली-डंडा, भौंरा, गड़ंची, टिल्लस, चित-पट, बांटी, पिट्टूल, छु-छुआल, उलानबाटी, लंगड़ी, रेस-टीप जैसे निरे देशज खेल भी यहां खेले जाते। यहां तक कि लड़कियों के साथ उसने बिल्लस भी खेली थी।
तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह में यह जगह और गुलजार हो जाती।  होली में बच्चे यहां खूब मस्ती करते,  वह भी खूब हुड़दंग मचाता, भाग-भागकर रंग लगाया करता।  गणेशोत्सव के समय मंदिर के चबूतरे में महफिल जमती, दोस्तों के साथ सजावट के लिए वह ताव का तोरण बनाता। इन दिनों रात में, मैदान में ही वीसीआर में वीडियो दिखायी जाती थी, रात भर में करीब 3-4 फिल्म।  अपने घर से बिछाने के लिए बोरे-दरी लेकर पूरा मोहल्ला वहां जमा हो जाता।  पिक्चर देखने के लिए वह भी झटपट पढ़ाई कर, अपनी सीट पक्की कर लिया करता था।
यह 83-84 की बात है। यह वह दौर था, जब भूमंडलीकरण की शुरुआत नहीं हुई थी। भौतिक-विकास का रथ धीमी गति से चल रहा था। कार-एसी जैसी लक्जीरियस चीजें मध्यमवर्ग की पकड़ में नहीं आ पाईं थीं, इक्का-दुक्का घरों में ही टीवी थे।  चीजें सीमित थीं, सुविधाएं कम।  लेकिन उन बच्चों को तो जैसे इससे कोई सरोकार न था। हर छोटे-बड़े मौकों पर खुशियां बिनते हुए, धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे वे।  खेलना, खाना और पढ़ना... यही तीन काम उनके पास था।
वैसे भी, बच्चों को किसी चीज की परवाह होती ही कहां है? वे तो जाने कौन-सा मस्ती का प्याला पीकर आते हैं।  हमेशा खिलखिलाते रहते हैं, हर काम को खेल बना डालते हैं।  बचपन की यही तो खासियत है।  इस समय हर चीज का जायका ही अलग होता है। छोटी-छोटी बात पर छलक पड़ने वाली खुशी, बार-बार नाभि से उठने वाली आनंददायक लहर... इससे बच्चे इतने समृद्ध रहते हैं कि उसके आगे हर चीज दोयम दर्जे की हो जाती है।  बचपन के इसी सोमरस को पाने के लिए इंसान ताउम्र तरसता है और बाद में... कल्पना में, उन एहसासों को दोबारा जीने की कोशिश करता है।
छुटपन की इसी मस्तानी फितरत से वह भी लबरेज था।  उसकी उम्र 6-7 साल रही होगी।  दिखने में दुबला-पतला, अन्य चंचल बच्चों जैसा ही था। वह जितना नटखट था, उतना ही जिद्दी भी। माहौल के मुताबिक ढलने की बजाय मन की किया करता,  इसीलिए ज्यादा डांट भी उसके हिस्से आती। खैरागढ़ उसकी मातृभूमि भी था और जन्मभूमि भी। सेठघर के सामने मामा के मकान में वह रहता था। मम्मी यहां शिक्षिका थी, इसीलिए उसकी परवरिश भी यहीं हो रही थी। वैसे तो उसके टिंकू, दीपक, आलोक, काजू, गुड्डा, संतोष जैसे कई दोस्त थे, लेकिन  गुड्डू, राजू  से उसकी गाढ़ी छनती थी। ये उसके जिगरी दोस्त थे।  गुड्डू जहां चतुर था, वहीं राजू सीधा। गुड्डू में स्मार्टनेस थी, समय की नब्ज पहचान कर चलता।  उसका अड़ना-झुकना, बदमाशी करना-सीधा बन जाना... सब समय के हिसाब से होता, इसलिए वह ज्यादा तारीफें पाता। राजू स्वभाव से शांत था, मुंह में मिश्री, दिमाग में बर्फ। हर माहौल में ढल जाने वाला, हर रंग में पानी जैसा घुल जाने वाला। वह नंबर टू बना रहना पसंद करता। शायद कम महत्वाकांक्षी था, इसीलिए व्यवहार में किसी तरह की प्रतिस्पर्धा न थी। 
वे तीनों ‘भगवान’ थे...  ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’।  उसे शुरू से भगवान शंकर की पर्सनालिटी पसंद आती थी, एक बार खेल-खेल में उसने कहा- ‘मैं तो शिवजी बनूंगा। मुझे वो बहुत अच्छे लगते हैं। उनके गले में नाग, त्रिशूल, जानवर की खाल, सब-कुछ  मुझे भाता है। ’ गुड्डू को खूबसूरत पहनावा आकर्षित करता था। वह बोला- ‘ मैं तो विष्णु को लूंगा।  वे बहुत सुंदर हैं, उनके खूबसूरत कपड़े मुझे अच्छे लगते  हैं।’ रह गए, ब्रह्मा ... वो राजू के हिस्से आए। उसने बिना किसी ना-नुकुर के ब्रह्मा बनना स्वीकार कर लिया। इस तरह वे ‘त्रिदेव’ बने थे। 
वे तीनों बहुत खुराफाती थे।  मोहल्ले का एक व्यक्ति उन्हें पसंद न था, तो उसे सामने ही चिढ़ाते, अपनी स्टाइल में।  वे कहते- ‘लुका लासा त्ताकु है’5। मजे की बात,  वह व्यक्ति उन  बच्चों की इस कूट-भाषा को समझ न पाता था।  माहौल की गंभीरता को ठेंगा दिखाते हुए, तीनों कहीं-भी, कुछ-भी कर सकते थे...  ‘गुड्डू जैनी था, उसके यहां अक्सर प्रार्थना सभा होती। एक दिन वह भी वहां था। प्रार्थना के दौरान ‘नाना लाल जी मरासाव’ कहा गया। ‘नाना’ शब्द सुनते ही पता नहीं उसे क्या हुआ? जाने किसने ‘चाबी’ भरी और उसकी हंसी छूट पड़ी। उसकी देखा-देखी गुड्डू के भीतर भी हंसी का फव्वारा झरने लगा। सब भौंचक्के देखते रहे और वे दोनों मुंह दबाकर हंसते रहे। ऐसे ही एक बार मोहल्ले के एक मकान में वे पिक्चर देख रहे थे।  एके हंगल6 को विशिष्ट तरीके से ‘काका’ पुकारा गया। बस! वे तीनों फिर दांत दिखाने लगे...। जाने कितने दिन तक वह ‘काकाआआआआआह! ’ उनकी जबान पर चढ़ा रहा। 
उन तीनों में लड़ाई भी खूब होती थी, लेकिन जल्द ही ‘खट्टी’ से ‘मिट्ठी’ भी हो जाती।  बाल-सुलभ राग-द्वेष, छल-कपट सब-कुछ उनमें था, लेकिन एक-दूसरे लिए दिल भी उतने ही अपनेपन से धड़कता था। ... एक बार उसे ‘छोटी माता’ आई थी, वो लंबे बेड-रेस्ट पर था।  गुड्डू उसके पास आया, बोला - ‘चिंता मत कर, स्कूल में जो भी पढ़ाया जाएगा, मैं बता दूंगा। रोज मेरी कॉपी ले लेना।’ एक बार कंपास खरीदने के लिए मिले पांच-सात रुपए उसने गुमा दिए।  वह रो रहा था, राजू पसीज उठा...  कहने लगा- ‘यार!  मेरे पास इतने पैसे तो नहीं हैं, लेकिन एक रुपए बोलेगा तो मैं दे दूंगा।’
ऐसे ही खट्टे-मीठे पलों के बीच वे आठवीं में पहुंच गए। अब उन्हें ‘हाफ पेंट’ अखरता था, वे फुलपेंट पहनकर ‘बड़ा’ होना चाहते थे। समय बदल रहा था, मानसिकता भी बदल रही थी। लेकिन एक चीज नहीं बदली थी...  ‘गति देखना’।  राजू और वो चुपचाप लोगों की हरकतों को वॉच कर आपस में हंसते थे। यही उन दोनों का ‘गति देखना’ था।  ‘साक्षी भाव’ से यूं लोगों को निहारना, ‘विपश्यना’7 का यह उनका टाइप था। यह सिलसिला स्कूल के साथ-साथ मंदिर के पास बैठकर भी चला करता। 
बहरहाल... लोगों की ’गति‘ तो वो खूब देख रहा था, लेकिन समय की ’गति‘ का उसे अंदाजा न था।  उसे पता न था-  ‘जल्द ही यह सब छूटने वाला है। उसके जाने का समय आ चुका है,  हमेशा के लिए अपनों से दूर... अपनी जड़ों से दूर... ’
वे सावन के दिन थे।  फिजा में मिट्टी का सौंधापन घुला था, हर तरफ मुस्कराहट बिखरी थी।  उन दिनों उसके पापा आए थे बालाघाट से।  उसे ठीक से याद नहींं, जाने की बात कैसे निकली?  बस, यकायक तय हो गया कि अब वह आगे की पढ़ाई यहां नहीं करेगा।
और वो यहां से चला गया... जाते समय वह बहुत खुश था, क्योंकि जाने का फैसला खुद उसने लिया था।
  जाने के बाद, पहले-पहल वो गर्मी की छुट्टियों में यहां आता भी था,  लेकिन बाद में, धीरे-धीरे आना कम होता चला गया... और एक दिन बंद ही हो गया...
सालों बीत गए। अब वह बड़ा हो गया था, 25-26 साल का युवक। वह जॉब करने लगा था। अरसे बाद उसका फिर यहां आना हुआ।  यह 2002-03  की बात रही होगी। अब खैरागढ़ पहले जैसा न था, हर चीज में बदलाव ने अपने निशान छोड़ दिए थे।  किल्लापारा में भी उसे वह पहले वाली बात नजर नहीं आ रही थी। जहां कभी खुशियां अपनी दुकान सजाया करती थीं, अब वहां उदासी ने तंबू गाड़ लिए थे। ऐसा लग रहा था, मानों हर चीज ने मौनव्रत ले रखा हो। सेठ घर में न वो रश था, न शोर-शराबा। पुराने होटल खंडहर में तब्दील हो चुके थे। जो चेहरे उसने पहले खिले-खिले देखे थे, अब उनमें समय की धूल पड़ गई थी। राजू, गुड्डू भी दूसरे शहरों में नौकरी कर रहे थे। सब-कुछ बदल चुका था...
वह पतझड़ का मौसम था। पूरे वातावरण में बेरुखी सी पसरी थी।  हवाओं के गर्म थपेड़े उसके चेहरे पर पड़ रहे थे। टूटे पत्ते इधर-उधर उड़ रहे थे। डाल पर बैठे बंदरों की कर्कश आवाजें सुनाई दे रही थीं...   बदलाव को देखते-देखते वह उस जगह पहुंच गया था, जहां उसके जीवन का सबसे कीमती समय गुजरा था... उसका बचपन।
वह बिलकुल नहीं बदली थी, मंदिर, मैदान, पीपल... वैसे ही थे,  निहारते हुए ... नि:शब्द...।  पता नहीं, क्यों!  एक अनजाना-सा अपराधबोध उसके भीतर आ गया।  उसे लगा, यहां से जाकर उसने गलत किया था।  उसके अंदर कुछ पिघलने लगा... झर-झर आंसू बहने लगे। वह पीपल से लिपट गया।
उसका ‘अनाहत’8 सक्रिय हो चुका था।  समय का पहिया पीछे घूम रहा था, उसे सब-कुछ याद आने लगा। वह जगह फिर से प्राणवान हो उठी...
‘उसे  गेंद फेंकते हुए 5-6 साल का राजू दिखा...  गुड्डू की आवाज सुनाई पड़ी- आउज दैट! उसने झल्लाकर बैट पटकते हुए खुद को पाया।  बैट के हत्थे की ग्रिप वह अपने हाथों में महसूस कर रहा था...’ 
वह भावनाओं में गोते लगा रहा था, उसे वहां की एक-एक चीज बोलती मालूम पड़ रही थी।  तभी, उसकी नजर मंदिर की खिड़की में जाकर ठहर गई। इसकी सलाखों को पकड़कर, कभी वह ऊपर चढ़ जाया करता था और मंदिर के भीतर झांकता था। उसके दिल में एक लहर उठी...  फिर से उसी पुराने अंदाज में,  वहां चढ़ने की इच्छा बलवती हुई...  लेकिन तत्काल विरोधी विचार मन में आया और वह हाथ-पैर गंदे होने, पेंट फटने के डर से नहीं चढ़ा।
वह मुस्करा उठा। सोचने लगा... ‘यही तो बचपन व ‘बड़ेपन’ का फर्क है।  वो लापरवाही, वो बेफिक्री... वो बिंदास तबीयत ... अब कहां?  अब तो सिर्फ दुनियादारी है, प्रतिस्पर्धा है... महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ है। अब पल-पल जीने का हुनर कहीं खो गया है और छोटी-छोटी चीजों से मिलने वाली खुशी भी...।
उसके अंदर कसक सी उठी। काश!  फिर से वे दिन लौट आते...  लोग-बाग, सब-कुछ  पहले जैसा हो जाता। फिर से उसे बचपन जीने का मौका मिल जाता। समय वहीं ठहर जाता... 
मन उसे छल रहा था... और यूं छला जाना, उसे अच्छा भी लग रहा था, अजीब-सा सुख मिल रहा था।   इंसान की प्रवृत्ति होती है ना... जो चीज उसे पसंद आती है, उसे और, और पाना चाहता है।  पसंदीदा लोग, चीजें, यादों से हमेशा चिपके रहना चाहता है। 
...  हालांकि, वह जानता था-  न वो लौटेगा, न ही वो समय... वो बचपन...।  जो बीत चुका है, वह लौट नहीं सकता।  परिवर्तन संसार का नियम है और बदलाव ही स्थायी है।  लेकिन फिर भी बचपन के मोहपाश से वह निकल नहीं पा रहा था।  वह महसूस कर रहा था...  यहां से दूर होकर वह गरीब हो गया है और यह गरीबी ऐसी है, जिसे वह दुनिया का सबसे दौलतमंद आदमी बनकर भी दूर नहीं कर पाएगा।  यह वो जगह है, जिसकी कमी आज भी अपने में पाता है और कल भी पाता रहेगा...
वह ख्यालों में खोया था,  तभी उसकी नजर जमीन पर पड़े एक टूटे पत्ते पर पड़ी। उसने उसे उठा लिया। वह उसे एकटक देख रहा था... उसमें उसे अपना अक्स नजर आ रहा था। उसे लगा... वह भी उस टूटे पत्ते की तरह ही है, जो अपनी जड़ों से दूर हो चुका है और अब दोबारा कभी जुड़ भी नहीं पाएगा...
उसने लंबी सांस छोड़ी और थके कदमों से वहां से चल पड़ा...
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अंक-संकेत
1. आजादी के समय, मुस्लिम जमींदारी की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रसिद्ध कृति, जिस पर 90 के दशक में दूरदर्शन पर टीवी सीरियल भी बना.
2.  नदी, जिसके किनारे खैरागढ़ बसा है.
3. शहर के बड़े सेठ, जिनका आवास इसी नाम से जाना जाता था.
4. वही सेठ जिनके मकान का  पूर्व में सेठघर के रूप में जिक्र हुआ है.
5. शब्दों को उल्टा करके बोलने का विशिष्ट अंदाज
6. प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता
7. महात्मा बुद्ध की ध्यान विधि, जिसमें विचारों-भावनाओं को तटस्थता के साथ देखने कहा जाता है.
8. भारतीय योग के अनुसार, भावनाओं को नियंत्रित करने वाला ‘चक्र’.
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( यह कहानीनुमा संस्मरण मैंने अपने एक फ्रेंड के लिए लिखा है.)
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09 February 2014

कोई तो समझे, धोनी-ब्रिगेड की फीलिंग???



धोनी और उनके धुरंधर... क्या कहा जाए? बेचारे... जबरन टारगेट में आ जाते हैं। जरा-सा कुछ हुआ नहीं कि उन पर लानत-मलामत शुरू हो जाती है, लोग कोचकना शुरू कर देते हैं।  इनकी इमोशन, फीलिंग कोई समझना ही नहीं चाहता। अभी टीम इंडिया ने विदेश में दो सीरीज क्या गंवाई,  शोर मचना शुरू हो गया कि इसको हटाना था, उसको रखना था, ये  तो बस घर के शेर हैं, वगैरह, वगैरह।
यार, ये बड़ी दिक्कत है। अरे, दो सीरीज ही तो हारे हैं, कोई सल्तनत तो नहीं लुटा आए। केवल दो सीरीज... वो भी विदेश में... उसी में इतना हल्ला हो रहा है।  ये भी कोई बात हुई। जब तक परदेस में बारह-पंद्रह सीरीज न हारें, तब तक सीरियसली लेना ही नहीं चाहिए। और  खिलाड़ी तीस-चालीस पारी में खराब न खेले, उसे ऊंगली करना ही नहीं चाहिए। पता नहीं क्यों, लोग-बाग एक-दो मेें ही माइंड करना शुरू कर देते हैं।
भई, मेरा तो स्पष्ट मानना है कि विदेश में दो सीरीज हारना कहीं से बुरा नहीं है, बल्कि विदेशों में हारना ही बुरा नहीं है। सच पूछिए, तो यह बड़े फक्र की बात है। दरअसल, इससे  हमारी सनातन परंपरा को बढ़ावा मिलता है।  संभवत: यह बात टीम इंडिया भी जानती है, इसीलिए वह इस पुण्य-कार्य को पूरे मनोयोग से करती है।
आपको तो पता ही है, भारत आध्यात्मिक देश है और समता-सहिष्णुता इसके मेरुदंड हैं।  इसी समतामूलक विचारधारा को हमारी टीम फालो करती है और हमारे खिलाड़ी ‘जीयो और जीने दो’ के तर्ज पर ‘जीतो और जीतने दो’ का फलसफा अपनाते हैं। इसीलिए वे घर में जीतते हैं और विदेशों में हारते हैं।
इसके अलावा अतिथिभाव ... यह भी एक अहम वजह है, जिसके चलते भारतीय टीम हारने में इंट्रेस्टेड रहती है। अब आप ही सोचिए, मेजबान को उसके घर में हराना, लाखों-करोड़ों स्थानीय दर्शकों का दिल दुखाना, क्या अच्छी बात है? क्या यह अतिथि को शोभा देगा? उसकी गरिमा के अनुरूप होगा? अरे, साहब, मेहमानवाजी के भी अपने उसूल होते हैं। और हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि  भारतीय टीम इसमें पूरी तरह निपुण है।  हमारे लोग कहीं भी जाकर, किसी भी टीम से, यहां तक कि क्वालीफायर से भी मैच हारकर आ सकते हैं।
और यकीन मानिए, विदेशों में मैच हारकर हमारे खिलाड़ी मेहमानवाजी का तकाजा भर पूरा करते हैं। आध्यात्मिकतावश ही ये ‘घर के शेर’ बाहर मेमने बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें मेजबान टीम को घर का शेर बनाना होता है। हां, जहां मेजबानी ज्यादा पसंद आती है, वहां सीधे क्लीप स्वीप होते हैं। नहीं पसंद आती तो एक-दो मैच जीतकर, मलाल करने छोड़ देते हैं। 
और अब तो शेर-मेमने वाले इस भारतीय दर्शन को अन्य टीमों ने भी आत्मसात करना शुरू कर दिया है। मिसाल के तौर पर 2013 का रिकार्ड उठाकर देखिए। इक्का-दुक्का को छोड़ दें, तो सारी टीमें आपसी भाई-चारे के तहत विदेशों में सीरीज थ्रो करके आई हैं। यानी हमारी फिलासफी फैल रही है। 
तो अब आप ही सोचिए, पूरे विश्व में सनातन-चिंतन का प्रचार प्रसार करने वाली हमारी टीम इंडिया को निशाने पर लेना सही है? अरे, ये तो हमारे मिशनरी हैं... युुवा मिशनरी। सीरीज हारकर स्वदेश लौटने पर इनका जोरदार स्वागत होना चाहिए...  भव्य स्वागत, यादगार स्वागत। पर होता है, इसका उलटा।
 खैर, धर्म-अध्यात्म, सत्य-अहिंसा की राह तो कांटो भरी होती ही है। हंसते-हंसते जहर पीना पड़ता है। इसीलिए मैं धोनी ब्रिगेड से पूरा जोर देकर कहना चाहूंगा कि उन्हें आलोचनाओं पर कान देने की जरूरत नहीं है। विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपनी आध्यात्मिकता अक्षुण्य रखें, अतिथिभाव बनाए रखें।  अपना आत्मविश्वास कतई न खोएं और विदेशों में हारना बिलकुल बंद न करें। आलोचनाओं से कुछ अपसेट हों, तो किशोर कुमार का गीत है... कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना... इसे बार-बार सुनें।
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18 January 2014

डॉ. साहब की ऐतिहासिक प्रेस-कॉन्फ्रेंस


अपने डॉ. साहब और शोले की बसंती में एक बात कॉमन है।  दोनों को ‘बेफिजूल’ बात करने की आदत नहीं है। दोनों किसी का टाइम ‘खराब’ करना पसंद नहीं करते। डॉ. साहब को ही लीजिए, सालों तक मीडिया से बचते रहे। बोलने के लिए कुछ खास नहीं था, लिहाजा टाइम खोटी •ाी नहीं किया। अरसे बाद ‘शेयर’ करने का दिल हुआ, तो मुखातिब हुए।
हां, यार लोग ने कुछ और उम्मीद बांध ली थी। उन्हें लगा था, कोई बड़ा धमाका होगा। कुछ ऐसा कहेंगे कि आसमान हिल जाएगा, धरती फट जाएगी। किसी की पतलून गीली हो जाएगी, किसी की पेंट फट जाएगी।  उम्मीद •ाी इसीलिए , क्योंकि अब तो विदाई की बेला है, और लौटने का •ारोसा •ाी कम।  लुुटिया तो डूब ही रही है, तो डर कैसा... कि कोई कुछ बिगाड़ लेगा। इसीलिए लगा था, कोई बड़ा बम फोड़ेंगे। सारा गुबार निकाल कर ही छोड़ेंगे। जिस-जिस ने खुजाया (पंगा लिया) था, सबको निबटा डालेंगे।  ऐसा तीर छोड़ेंगे कि आठ-दस क्या... कई जनपथ का सीना छलनी हो जाएगा।
समय •ाी माकूल था, सारा अदा-बिदा करने का। बिलकुल कांटे का टाइम। और फिर माहिर खिलाड़ी तो होते ही हैं, मौका देखकर चौका मारने वाले। ठीक अड़ी के समय अपना रंग दिखाने वाले। लगा था, वे •ाी खिलाड़ियों का खिलाड़ी बनेंगे। ऐसा उस्तरा चलाएंगे कि न उधो को उ करते बनेगा, न माधो को मु।
पर यहां तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया। बम क्या, टिकली फटाका •ाी न फूटा। उम्मीद थी, रुखसती में कुछ कर गुजरेंगे। पर अपने डॉ. साहब नहीं सुधरे, कहने का मतलब नहीं ‘बिगड़े’। रहे अपनी वाली पर ही। वही पुरानी, 10 साल वाली।  फिर से बजा दी पुरानी कैसेट।  प्रेस कॉन्फ्रेंस में  कुछ अपनी कही, कुछ उसकी। कुछ इधर की, कुछ उधर की। किसी को पुचकारा, किसी को दुतकारा। किसी के कसीदे पढ़े, किसी को खतरा बताया। बोलने को तो बहुत कुछ बोले, लेकिन यार लोग के काम की (धमाकेदार) बात एक •ाी न बोले।
हां, बातों-बातों में वे इमोशनल हो गए थे, इसी दरमियान उनके मुखारविंद से एक बात निकली, जिसे ‘काम’ की कहा जा सकता है।  उन्होंने •ााव-विह्ल होकर कहा था- ‘इतिहास उन्हें याद रखेगा।’
पूरे पीसी में यही एक बात खास थी, सहेजने जैसी... बाकी सब बेमानी।  बाकी जो •ाी कहा, सब सेकंडरी... महज •ाूमिका बांधने के लिए। उनका कोई मोल न था। न होतीं तो •ाी चल जाता, कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता।  लेकिन यह बात... अपने ऐतिहासिक महत्व वाली... यूं सार्वजनिक नहीं करते, तो यकीन मानिए अनर्थ हो जाता। इसीलिए उन्होंने आॅन दि रिकॉर्ड बात रखने का स्टैंड लिया।  सच पूछिए, तो पत्रकार-वार्ता बुलाई ही इसीलिए थी, ताकि वे यह बात कर सकें, यानी अपने ऐतिहासिक महत्व को उजागर कर सकें। 
आपको लग रहा होगा, वे इसे आॅफ दि रिकॉर्ड •ाी कह सकते थे। अरे नहीं जनाब... तब पता नहीं लोग-बाग उन्हें सीरियसली लेते या नहीं। हो सकता, •ाूल जाते कि कुछ ऐतिहासिक कहा है। इसीलिए उन्होंने रिस्क नहीं लिया, पीसी में ‘खुलासा’ किया। कम-से-कम अब यह तो तय हो गया कि इतिहास उन्हें याद रखे, न रखे, उनके कहे को जरूर याद रखा जाएगा।
वैसे, यह सोचने की गुस्ताखी बिलकुल न करें कि डॉ. साहब को अपनी उपलब्धिों पर किसी तरह का शुबहा था। हरगिज नहीं, इंटरनली वे पूरी तरह कॉन्फिडेंट थे कि इतिहास उन्हें याद रखेगा।  हां, ये हो सकता है  कि उन्हें अपनी याददाश्त पर •ारोसा कम हो ( बढ़ती उम्र जो ठहरी)। इसीलिए उन्हे प्रेस-कॉन्फ्रेंस में सार्वजनिक एलान की जरूरत समझ आई, ताकि बाद में क•ाी ‘वे’ •ाूलने •ाी लगें, तो लोग उन्हें •ाूलने न दें कि वे ‘इतिहास-पुरूष’ हैं। 
वैसे, डॉ. साहब •ाूलने वाली चीज हैं •ाी नहीं। पिछले 10 साल में उन्होंने जो इतिहास रचा है, उसके बाद तो हरगिज •ाी नहीं। सामाजिक, राजनीतिक, सार्वजनिक... जीवन के हर क्षेत्र में उन्होंने ‘संत-परंपरा’ के निर्वाह की जो अद्•ाुत नींव रखी है, उसके बाद तो उन्हें ‘नमन’ ही किया जा सकता है। वे इतने बड़े वाले हो गए हैं, इतनी ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं कि उनके इर्द-गिर्द कोई •ाी नहीं ठहर पा रहा है।
सं•ावत: गांधीजी के बंदर उनके रोलमॉडल हंै... वो •ाी पूरे तीन-के-तीन।  एक-दो •ाी कम होते, तो शायद वे ‘डाउन टू अर्थ’ होते। बहरहाल, इसीलिए उन्होंने बुराई (गड़बड़ियां, गलतियां) के खिलाफ पूरे 10 साल मुंह, आंख, कान बंद रखा।  उनके दाएं-बाएं कई चंगू-मंगू गड़बड़झाला करते रहे, लेकिन मजाल है, क•ाी उन्हें रोका हो, कुछ बुरा कहा हो।  उन्हें बुराई से इस कदर नफरत रही कि उसे किसी •ाी कंडीशन में देखना पसंद नहीं किया। यहां तक कि बताने पर •ाी आंखें नहीं खोलीं। इसके उलट उन्हें बताने वालों की बात ही बुरी लगने लगी। लिहाजा उन्हें उस पर कान देना बंद करना पड़ा, मजबूरन... न चाहते हुए... बुराई से नफरत के चलते।
काजल की कोठरी में कमलवत जीवन जीते हुए, पूरे दस साल वे बेदाग रहे। वे सही मायने में कर्मयोगी हैं...
‘असरदार... चितचोर... मन को मोहने वाले।’  जैसे •ागवान कृष्ण का विश्वरूप देखने के बाद परम श्रद्धा के वशी•ाूत अर्जुन ने कहा था- ‘आपको आगे से प्रणाम, पीछे से प्रणाम, ऊपर से प्रणाम, नीचे से प्रणाम, सब तरफ से प्रणाम’।  वैसे ही उसी स्तर की श्रद्धा के साथ आपको हर तरफ से प्रणाम... डॉ. साहब। 
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