27 February 2012

विदूषक से गया बीता शिष्य

चीन में एक युवा साधक रहता था। वह धर्म के पथ पर बहुत गंभीरता से अग्रसर था। एक बार इस युवा साधक के सामने कोई ऐसा विषय आ गया, जो उसे समझ में नहीं आया। वह अपने गुरू के पास समस्या लेकर पहुंचा। गुरू ने जब साधक का प्रश्न सुना, तो वह बहुत जोरों से हंसने लगे और हंसते-हंसते ही उठकर चले गए। युवा साधक अपने गुरू की ऐसी प्रतिक्रिया से बहुत विचलित हो गया। वह तीन दिनों तक खा-पी न सका और उसकी नींद भी उड़ गई। तीन दिनों के बाद वह गुरू के पास गया और अपनी दशा का वर्णन किया। गुरू उसकी बातें सुनकर बोले- पुत्र, तुम जानते हो तुम्हारी समस्या क्या है? तुम्हारी समस्या यह है कि तुम एक विदूषक से भी गए बीते हो। युवा साधक को यह सुनकर बहुत बड़ा आघात पहुंचा। वह अश्रुपूरित नेत्रों से बोला- आदरणीय, आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? मैं किसी विदूषक से भी गया-बीता कैसे हो सकता हूं? गुरु ने कहा- कोई विदूषक जब लोगों को प्रसन्न और हंसते हुए देखता है, तो उसे ख़ुशी मिलती है और तुम? तुम तो किसी दूसरे व्यक्ति को हंसते देखकर विषादग्रस्त ही हो गए? अब बताओ, क्या सच में ही तुम विदूषक से भी गए-गुजरे नहीं हो? तुम्हें यह समझना है कि समस्याएं हर व्यक्ति के जीवन में आती हैं। किसी के लिए यह बड़ी होती हैं, किसी के लिए छोटी। लिहाजा हर व्यक्ति की प्रतिक्रिया भी इसे लेकर अलग ही होगी। तो ऐसे में अस्वाभाविक प्रतिक्रियाओं से भी तनाव में क्यों आना। जीवन को खेल के जैसा सरलता से लेना चाहिए, न कि गंभीरता का पत्थर ढोकर। समस्या को भी खेल के जैसा ही आनंदित होकर लेना सीखो। यह सुनकर साधक को भी हंसी आ गई। उसके मन का भार हल्का हो गया।
दिल से...
गंभीरता  एक रोग है, लेकिन लोग इसे लादे  रहते हैं आभूषण की तरह। जितना  बड़ा पद, उतनी ज्यादा गंभीरता। 
विद्वता का पर्याय समझे जाने वाली  यह मनोवृत्ति जीवन की सहजता में  बाधा डालती है। व्यक्ति सहज रूप  से नाचना-हंसना भूल  जाता है और दूसरों को भी ऐसा करते देखकर उसे अचरज होता है।

No comments:

Post a Comment