25 February 2012

पसंदीदा आर्टिकल : सरदेसाई के बहाने...

काफी दिन पहले राजदीप सरदेसाई का एक बढिय़ा आर्टिकल पढ़ा था।  नए भारत का फार्मूला वन... शीर्षक वाले इस लेख में कॉमनवेल्थ गेम्स से फार्मूला वन ग्रांपी रेस की तुलना करते हुए उनकी सफलता-असफलता के कारणों की पड़ताल की गई थी। आर्टिकल को जिस जगह ले जाकर खत्म किया गया था, वह बहुत ही विचारोत्तेजक और दिल खुश करने वाला बिंदु था। इस आर्टिकल में कई आयाम हैं। दोनों आयोजनों के अलग-अलग क्षेत्रों पर पडऩे वाले समग्र प्रभाव का चिंतन किया गया है।
अब तक पढ़े सामयिक मसलों पर आधारित लेखों में यह मेरा सबसे पसंदीदा आर्टिकल है। इस लेख में सरदेसाई जी का विश्लेषण बहुत ही लाजवाब है। उनकी भाषा भी वेदप्रकाश वैदिक की तरह ही पांडित्यरहित है। सरदेसाई की संवेदनाएं मुझे शुरू से आकर्षित करती हैं। वे धारा के विपरीत बह रहे ऐसे सत्य को, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया है, उसे दिखाते हैं। आमधारणा, विचारों की भेड़चाल को बदलने की कोशिश करते हैं। यह उनकी खासियत है, जो बहुत कम लेखकों में होती है। मुझे याद नहीं पड़ता इस तरह का क्रांतिकारी निष्कर्ष देने का वाला लेखन, भास्कर के संपादकीय में मैंने, उनके अलावा और किसी दीगर लेखक की कलम में नियमित रूप से पाया हो। यह ऐसी चीज है, जिसमें वे वैदिक जी सहित तमाम कॉलमनिस्ट पर भारी पड़ते हैं।
हां, वे तथ्यों और उदाहरणों का ज्यादा इस्तेमाल करते हंै। यही एक वजह है, जिसके चलते मेरा मन उन्हें वैदिक जी से एक पायदान नीचे रखता है। दरअसल, तथ्यों और उदाहरणों के ज्यादा इस्तेमाल से मुझे ऐसा महसूस होता है कि कोई बिल्डिंग ढेर सारे पिल्लरों के सहारे खड़ी हुई है। जाहिर है, इस तरह के आर्टिकल में लेखक को तथ्यों और उदाहरणों के लिए बाहरी तैयारी पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है। बाहरी तौर पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। यह चीज मेरे भीतर एक तनाव को पैदा करती है (शायद और लेखकों के भीतर भी ऐसे एहसास जगते हों) ज्यादा तथ्य या उदाहरण, मुझे आर्टिकल रूपी बिल्डिंग में ढेर सारी जुड़ाई यानी एक तरह की कमजोरी (कमजोरी शब्द का मतलब यहां कंटेट की कमजोरी से नहीं, बल्कि एहसास के तौर पर है) को दिखाते हैं। इसके विपरीत वैदिक जी का आर्टिकल मुझे ज्यादा अखंड, कम जुड़ाई वाली बिल्डिंग ज्यादा मजबूत (मजबूत शब्द का मतलब यहां कंटेट के अर्थ में नहीं बल्कि एहसास के तौर पर लिया गया है) मालूम पड़ता है।
वैसे मुझे प्रीतीश नंदी की संवेदनाएं भी आकर्षित करती हैं। उनका मन जीवन से जुड़े मसलों का ज्यादा असर लेता है। इसी तरह खुशवंत सिंह के लेखन की सादगी (कभी-कभी जरूरत से ज्यादा) भी पसंद आती है। इनके अलावा गोपाल गांधी और चेतन भगत भी मुझे रुचिकर लगते हैं, लेकिन कभी-कभी भगत जरा ज्यादा उपदेशक होने लगते हैं।
सबसे ज्यादा शिकायत मुझे मृणाल पांडे से रहती है। उनके लेख के मसलों-संवेदनाओं में पर्याप्त रुचि होने के बावजूद, जाने क्यूं उनका लेखन मुझे पांडित्य दिखाने की कोशिश ज्यादा लगता है। भारी-भरकम शब्दों का उपयोग, पांच-छह लाइन के बाद एक फुलस्टॉप.... आप किस लिए लिख रहे हैं भाई...? पंडिताई दिखाने या लोगों तक अपनी बात ज्यादा-से-ज्यादा पहुंचाने, खुद सोचिए। मृणाल पांडे की तरह भारी-भरकम शब्दों वाला लेखन (भास्कर के संडे जैकेट में प्रकाशित होने वाले लेख) मो. अकबर का भी है। इसके साथ ही वे पेंचो-खम के साथ, घुमावदार अंदाज में भी बातें करते हैं। पर पता नहीं क्यों ये सब उनकी स्टाइल लगती है, न कि केवल पांडित्य दिखाने की कवायद।  इनके अलावा और दूसरे राइटर भी हैं, जिनके लेख के विषय या तो मेरी रुचि के नहीं हैं, या फिर वे मेरी समझ के बाहर हैं।
बहरहाल, सरदेसाई के बहाने बड़े-बड़े लोगों के बारे में अपने सहज उद्गार जो भीतर कहीं खौलते रहते थे, उसे उड़ेल दिया... मुझे नहीं पता मेरे मत से कितने सहमत होंगे... मेरे एहसास दूसरों के भी सगे हैं या नहीं। लेकिन ये मेरी संवेदनाओं का पंछी है, जिसने बिना किसी परवाह के उड़ान भरी है...
(नीचे सरदेसाई जी के ... नए भारत का फार्मूला वन... आर्टिकल की लिंक दी जा रही है। उसके नीचे उनके अन्य आर्टिकल की लिंक वाले पेज की लिंक होगी)

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