29 March 2012

तनाव, विदेशी मुद्दा...

जापान में एक गांव है, जहां औसतन लोग सौ साल जीते हैं। वहां फिलहाल 400 से ज्यादा सौ से ऊपर वाले लोग जीवित हैं। वहीं के सौ पार कर चुके एक व्यक्ति का कहना है कि खानपान के अलावा खुशहाल जिंदगी उनकी लंबी उम्र का राज है। तनाव तो जैसे उनके लिए विदेशी मुद्दा है।
दुनिया का सबसे स्वस्थ स्थान के नाम से डीबी स्टार भोपाल में यह खबर छपी थी, जो मुझे पता नहीं क्यों आंदोलित कर गई। उस खबर को यहां http://epaper.bhaskar.com/ से  पढ़ा जा सकता है।

राग और ताल की महिमा

राग और ताल सुनने से बहुत सी बीमारियाँ दूर होती हैं :-
      राग मारवा और राग भोपाली से आंतों की बीमारियाँ दूर होती हैं द्य
     राग आसारी से मस्तक के रोग दूर होते हैं द्य
   राग भैरवी से सिरदर्द ठीक होने लगता है द्य
   राग सोहनी से सिरदर्द और मरुरज्जू (रीड़ की हड्डी में जो मनके घिस गए, वो ठीक होने लगते हैं द्य)
      राग वसंत और राग सोरट से नपुंसकता दूर हो जाती है
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संगीत का मुख्य आधार नाद है जिसके विषय में ग्रंथो में विस्तार से वर्णन मिलता है
संगीत के माध्यम से जो ध्वनि तरंगे उत्पन्न होती है वे स्नायु प्रवाह पर वांछित प्रभाव डालकर न केवल उसकी सक्रियता को बढ़ाती है वरन् विकृत चिन्तन को रोकती और मनोविकारों को मिटाती हैं।इन ध्वनि तरंगों से शरीर की अन्तः स्रावी ग्रंथिया सक्रिय हो उठती है और उनसे रिसने वाले हार्मोन्स मानसिक स्थिति में परिवर्तन का स्पष्ट संकेत देते हैं।
स्वरों की एक विशेष अवस्था राग कहलाती है। राग श्रोताओं के लिए चित्तवृत्ति का निर्माण करते हैं। चूंकि प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद है अतः हमारे महर्षियों, संगीताचार्यो ने संगीत से होने वाले प्रभाव को आयुर्वेदिक आधार पर ही विश्लेषित किया है। उच्च स्तर के रूक्ष लगने वाले ध्वनि वात के होते हैं, गम्भीर गहरे धनशीलस्य ध्वनि पित्त के होते हैं तथा स्निग्ध भाव वाले सुकुमार और मधुर ध्वनि कफ के होते हैं। इन तीनों के संतुलन के लिए विभिन्न रागो का संयोजन कर मानव की प्रवृत्ति का सही निदान व उपचार किया जाना सम्भव है।
ये जितनी बातें मैंने कही हैं, वे ज्योति सिन्हा जी के ,,,संगीत चिकित्सा में सहायक राग के विशिष्ट तत्वों की भूमिका,,, नामक आर्टिकल के बीच-बीच का वह हिस्सा है, जो मैंने भूमिका बनाने के लिए पेस्ट कर दिया।
संगीत और रागों को लेकर यकायक कुछ दिनों से जानने कि जिज्ञासा हुई, उसी के फलस्वरूप नेट खंगाला, तो कुछ मोती मिले। संगीत, राग, म्यूजिक थैरेपी की बारीक डिटेल देने वाला मैडम का यह आर्टिकल मिला। इसके अलावा संगीत की प्रायमरी स्टेज की जानकारी देने वाला एक और ब्लॉग ,, आवाज,, भी मिला।
दोनों की लिंक क्रमश: नीचे दे रहा हूं...
 http://www.rachanakar.org/ jyoti sinha
http://podcast.hindyugm.com/

28 March 2012

धार्मिक प्रेरक प्रसंगों-कथाओं

धर्म-आस्था से जुड़े मसलों व धार्मिक प्रेरक प्रसंगों-कथाओं को इस ब्लॉग में दिया गया है। वहां तक पहुंचने के लिए यहां क्लिक करें-http://dharmjagat.panditastro.com/

भाषा की ताकत

आमतौर पर मैं कठिन विषयों या बात पर कलम चलाते समय सहज, बोधगम्य भाषा के पक्ष में ही वोट देता हूं। लेकिन साधारण विषय को असाधारण बनाने भाषा की मदद ली जा सकती है। यात्रा पर उपमाओं-व्यंजनाओं से सजा रचना जी (दैनिक भास्कर की महिलाओं की साप्ताहिक मैगजीन मधुरिमा  की संपादिका) का यह छोटा आर्टिकल अच्छा बन पड़ा है। आपको इसमें भाषा की ताकत दिखाई पड़ेगी... कि  साधारण चाकलेट भी रैपर की वजह से कैसे आकर्षक हो जाती है। आप भी इसका स्वाद लीजिए... 

पान महिमा



 पान सो पदारथ सब जहान को सुधारत
गायन को बढ़ावत जामें चूना चौकसाई है
सुपारिन के साथ साथ मसाल मिले भाँत भाँत
जामें कत्थे की रत्तीभर थोड़ी सी ललाई है
बैठे हैं सभा माँहि बात करें भाँत भाँत
थूकन जात बार बार जाने का बढ़ाई है
कहें कवि ’किसोरदास’ चतुरन की चतुराई साथ
पान में तमाखू किसी मुरख ने चलाई है

हास्य रस से सराबोर यह कविता एक जीनियस द्वारा लिखी गई है।
उनका नाम है- किशोर कुमार....
अनेक विधाओं में दखल रखने की वजह से उन्हें जीनियस  कह रहा हूं।
यह कविता मुझे
प्रसिद्ध रेडियो उद्घोषक युनूस खान के ब्लॉग में मिली।
संगीतप्रेमियों को यह अंदर तक भिगाने वाला ब्लॉग हो सकता है, उसकी लिंक ये रही... http://shrota.blogspot.in/

27 March 2012

रेत की कहानी

एक उछलता हुआ झरना रेगिस्‍तान पहुंचा। उसे दिखाई दिया कि वह उसे पार नहीं कर सकेगा। बारीक रेत में उसका पानी तेजी से सूख रहा था। झरने ने स्‍वयं से कहा, ‘’रेगिस्‍तान को पार करना मेरी नियति है लेकिन उसके आसार नजर नहीं आते है।
यह शिष्‍य की स्‍थिति है जिसे सदगुरू की जरूरत होती है। लेकिन वह किसी पर श्रद्धा नहीं कर सकता। यह मनुष्‍य की दुखद हालत है।
रेगिस्‍तान की आवाज ने कहा, ‘’हवा रेगिस्‍तान को पार करती है, तुम भी कर सकते हो।‘’
झरना बोला, ‘’जब भी मैं कोशिश करता हूं मेरा पानी रेत में समा जाता है, और मैं कितना ही जोर लगाऊं थोड़ी दूर ही जा पाता हूं। हवा रेगिस्‍तान के साथ जोर नहीं लगाती। लेकिन हवा उड़ सकती है, मैं उड़ नहीं सकती।
तुम गलत ढंग से सोच रही हो। अकेले उड़ने की कोशिश मूढ़ता है। हवा को तुम्‍हें ले जाने दो।झरने ने कहा कि वह अपनी निजता को खोना नहीं चाहता। इस तरह तो उसकी हस्‍ती खो जाएगी। रेत ने समझाया कि इस तरह सोचना तर्क का एक भाग है लेकिन यथार्थ के साथ उसका कोई ताल्‍लुक नहीं है। हवा जल की नमी को आत्‍म सात कर लेती है। रेगिस्‍तान के पार ले जाती है। और फिर बरसात बन कर पुन: नीचे ले आती है।
झरना पूछता है, ‘’यदि ऐसा है तो क्‍या मैं यही झरना रहूंगा जो आज हूं।‘’ रेत बोली; ‘’यों भी किसी सूरत में तुम यही नहीं रहोगे। तुम्‍हारे पास कोई चुनाव नहीं है। हवा तुम्‍हारे सार तत्‍व को, सूक्ष्‍म अंश को ले जाएगी।  जब रेगिस्‍तान के पार, पहाड़ों में तुम फिर नदी बन जाओगे। फिर लोग तुम्‍हें किसी और नाम से पुकारेगा। लेकिन भीतर गहरे में तुम जानोंगे: ‘’मैं वहीं हूं।‘’ हवा की स्‍वागत करती हुई बांहों में स्मारक झरना रेगिस्‍तान के पार चला गया। हवा उसे पर्वत की चोटी पर ले गई और फिर धीरे से, लेकिन दृढ़ता से जमीन पर गिरा दिया। झरना बुदबुदाया: ‘’अब मुझे मेरी वास्‍तविक अस्‍मिता का पता चला। फिर भी एक प्रश्न उसके मन में था। ‘’मैं अपने आप को क्‍यों नहीं जान सका।‘’ रेत को मुझे क्‍यों बताना पडा। एक छोटी सी आवाज उसके कानों में गूँजी। रेत का एक कण बोल रहा था: सिर्फ रेत ही जान सकती है क्‍योंकि उसने कई बार इसे घटते देखा है। क्‍योंकि वह नदी से लेकिर पर्वत तक फैली हुई है। जीवन की सरिता अपनी यात्रा कैसे करेगी इसका पूरा नक्‍श रेत में बना होता है।‘’

मुझे मालूम है...

मुझे मालूम है कि मैं तुम्‍हारे योग्‍य नहीं, 
तो भी तुम तो जरा ज्‍यादा करूणामय हो सकते थे। 
मैं राह की धूल सही; यह मालूम मैं मुझे। 
लेकिन तुम्‍हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्‍मक नहीं होना चाहिए।
 मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ नहीं हूं। मैं अज्ञानी हूं। एक पापी हूं। 
पर तुम तो पवित्र आत्‍मा हो। तो क्‍यों मुझसे भयभीत हो तुम?

गुरु की खोज

गुरु की खोज जितनी सरल और सहज हम समझते है। शायद उतनी आसान नहीं है। गुरु की खोज एक प्रतीक्षा है। और गुरु तुम्‍हें दिखाया नहीं जा सकता। कोई नहीं कह सकता,’’यहां जाओ और तुम्‍हें तुम्‍हारा सद्गुरू मिल जायेगा। तुम्‍हें खोजना होगा, तुम्‍हें कष्‍ट झेलना होगा, क्‍योंकि कष्‍ट झेलने और खोजने के द्वारा ही तुम उसे देखने के योग्‍य हो जाओगे। तुम्‍हारी आंखे स्‍वच्‍छ हो जायेगी। आंसू गायब हो जायेगे। तुम्‍हारी आंखों के आगे आये बादल छंट जायेंगे और बोध होगा कि यह सद्गुरू है...
एक सूफी फकीर हुआ जुन्‍नैद वह अपनी जवानी के दिनों में जब गुरु को खोजने चला तो। वह एक बूढ़े फकीर के पास गया। और उससे कहने लगा ‘’मैंने सुना है आप सत्‍य को जानते है। मुझे कुछ राह दिखाईये। बूढ़े फकीर ने एक बार उसकी और देखा और कहा: तुमने सूना है कि मैं जानता हूं। तुम नहीं जानते की मैं जानता हूं।
जुन्‍नैद ने कहा: आपके प्रति मुझे कुछ अनुभूति नहीं हो रही है। लेकिन बस एक बात करें मुझे वह राह दिखायें जहां में अपने गुरु को खोज लूं। आपकी बड़ी कृपा होगी। वह बूढ़ा आदमी हंसा। और कहने लगा। जैसी तुम्‍हारी मर्जी: तब तुम्‍हीं बहुत भटकना और ढूंढना होगा। क्‍या इतना सहसा और धैर्य है तुम में।
जुन्‍नैद ने कहा: उस की चिंता आप जरा भी नहीं करे। वो मुझमें हे। मैं एक जनम क्‍या अनेक जन्‍म तक गुरु को खोज सकता हूं। बस आप मुझे वह तरीका बता दे। की गुरु कैसा दिखाता होगा। कैसे कपड़े पहने होगा।
फकीर ने कहा। तो तुम सभी तीर्थों पर जाओ मक्‍का, मदीना, काशी गिरनार…वहां तुम प्रत्‍येक साधु को देखा। जिसकी आंखों से प्रकाश झरता होगा। बड़ी-बड़ी उसकी जटाये बहुत लम्‍बी होगी। और एक हाथ वह आसमान की तरफ किये होगा। और वह एक नीम के वृक्ष के नीचे अकेला बैठा होगा। तुम उसके आस पास कस्‍तूरी की सुगंध पाओगे।
कहते है जुन्नैद बीस वर्ष तक यात्रा करता रहा। एक जगह से दूसरी जगह। बहुत कठिन मार्ग से चल कर गुप्‍त जगहों पर भी गया। जहां कही भी सुना की कोई गुरु रहता है। वह वहां गया। लेकिन उसे न तो वह पेड़ मिला और न ऐसी सुगन्‍ध ही मिली। न ही किसी की आँखो से प्रकाश झाँकता दिखाई दिया। जिस व्‍यक्‍तित्‍व की खोज कर रहा था वह मिलने वाला ही नहीं था। और उसके पास एक बना-बनाया फार्मूला ही था। जिससे वह तुरंत निर्णय कर लेता था। ‘’वह मेरा गुरु नहीं है’’। और वह आगे बढ़ जाता।
बीस वर्ष बाद वह एक खास वृक्ष के पास पहुंचा। गुरु वहां पर था। कस्‍तूरी की गंध भी महसूस हो रही थी उसके आस पास। हवा में शांति भी थी। उसकी आंखे प्रज्‍वलित थी प्रकाश से। उसकी आभा को उसने दुर से ही महसूस कर लिया। यही वह व्‍यक्‍ति है जिस की वह तलाश कर रहा था। पिछले बीस वर्ष से कहां नहीं खोजा इसे। जुन्‍नैद गुरु के चरणों पर गिर गया। आंखों से उसके आंसू की धार बहने लगी। ‘’गुरूदेव मैं आपको बीस वर्ष से खोज रहा हूं।‘’
गुरु ने उत्‍तर दिया, मैं भी बीस वर्ष से तुम्‍हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। देख जहां से तू चला था ये वहीं जगह हे। देख मेरी और। जब तू पहली बार मुझसे पूछने आया था। गुरु के विषय में। और तू तो भटकता रहा। ओर में यहां तेरा इंतजार कर रहा हूं। की तू कब आयेगा। मैं तेरे लिए मर भी नहीं सका। की तू जब थक कर आयेगा। और यह स्‍थान खाली मिला तो तेरा क्‍या होगा। जुन्‍नैद रोने लगा। और बोला। की आपने ऐसा क्‍यों किया। क्‍या आपने मेरे साथ मजाक किया था। आप पहले ही दिन कह सकते थे मैं तेरा गुरु हूं। बीस वर्ष बेकार कर दिये। आप ने मुझे रोक क्‍यों नहीं लिया।
बूढ़े आदमी ने जवाब दिया: उससे तुझे कोई मदद न मिलती। उसका कुछ उपयोग न हुआ होता। क्‍योंकि जब तक तुम्‍हारे पास आंखे नहीं है देखने के लिए। कुछ नहीं किया जा सकता। इन बीस वर्षों ने तुम्‍हारी मदद की है, मुझे देखने में। मैं वहीं व्‍यक्‍ति हूं। और अब तुम मुझे पहचान सके। अनुभूति पा सके। तुम्‍हारी आंखे निर्मल हो सकी। तुम देखने में सक्षम हो सके। तुम बदल गये। इन पिछले बीस वर्षों ने तुम्‍हें जोर से माँज दिया। सारी धूल छंट गई। तुम्‍हारा में स्फटिक हो गया। तुम्‍हारे नासापुट संवेदन शील हो उठे। जो इस कस्तूरी की सुगंध को महसूस कर सके। वरना तो कस्तूरी की सुगंध तो बीस साल पहले भी यहां थी। तुम्‍हारा ह्रदय स्‍पंदित हो गया है। उसमें प्रेम का मार्ग खुल गया है। वहां पर एक आसन निर्मित हो गया है। जहां तुम आपने प्रेमी को बिठा सकते हो। इस लिए संयोग संभव नहीं था तब।
तुम स्वय नही जानते। और कोई नहीं कहा सकता कि तुम्‍हारी श्रद्धा कहां घटित होगी। मैं नहीं कहता गुरु पर श्रद्धा करो। केवल इतना कहता हूं कि ऐसा व्यक्ति खोजों जहां श्रद्धा घटित होती है। वहीं व्‍यक्‍ति तुम्‍हारा गुरु है। और तुम कुछ कर नहीं सकते इसे घटित होने देने में। तुम्‍हें घूमना होगा। घटना घटित होनी निश्‍चित है लेकिन खोजना आवश्‍यक है। क्‍योंकि खोज तुम्‍हें तैयार करती है। ऐसा नहीं है खोज तुम तुम्‍हारे गुरु तक ले जाये। खोजना तुम्‍हें तैयार करता है ताकि तुम उसे देख सको। हो सकता है वह तुम्‍हारे बिलकुल नजदीक हो।–ओशो

लेखक

ेआदमी के पास अगर दो विकल्प हों कि वह या तो बड़ा अफसर बन जाए और खूब मजे करे, या फिर छोटा मोटा लेखक बन कर अपने मन की बात कहने की आजादी अपने पास रखे... तो भई, बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा-सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है। हो सकता है आपकी अफसरी आपको बहुत सारे फायदे देने की स्थिति में हो, तो भी एक बात याद रखनी चाहिए कि एक-न-एक दिन अफसर को रिटायर होना होता है। इसका मतलब यही हुआ ना कि अफसरी से मिलने वाले सारे फायदे एक झटके में बंद हो जाएंगे, जबकि लेखक कभी रिटायर नहीं होता।  एक बार आप लेखक हो गए, तो आप हमेशा लेखक ही होते हैं। अपने मन के राजा। आपको लिखने से कोई रिटायर नहीं कर सकता।
लेखक के पक्ष में एक और बात जाती है कि उसके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता। हम कभी नहीं कहते कि हम स्वर्गीय कबीर के दोहे पढ़ रहे हैं या स्वर्गीय प्रेमचंद बहुत बड़े लेखक थे। लेखक सदा जीवित रहता है- भावी पीढिय़ों की स्मृति में, मौखिक और लिखित विरासत में। और वो लेखक ही होता है, जो आने वाली पीढिय़ों को अपने वक्त की सच्चाइयों के बारे में बताता है।
                                                                                   -शरद जोशी 

 (इन्हें परिचय की जरूरत नहीं, बस नाम ही काफी है)
 जोशी जी की उपदेश कथाएं पढऩे यहां क्लिक करें-
 http://shortstories-of-sharad-joshi.html

26 March 2012

possitive blog in english
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for girl

फ्री ई-बुक

फ्री ई-बुक डाउनलोड करने के लिए ये लिंक काफी उपयोगी हैं...
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साधन और साध्य

महाभारत का युद्ध चल रहा था। पांडवों ने कूटनीति से द्रोणाचार्य का वध कर दिया था। द्रोणाचार्य के पुत्र और हाथी दोनों का नाम अश्वत्थामा था। युद्ध के दौरान हाथी मारकर आचार्य के सामने हल्ला मचा दिया गया कि अश्वत्थामा, यानी उनका पुत्र मारा गया। पुत्रमोह के चलते वे नैराश्य से घिर गए और अर्जुन के हाथों जान गंवा बैठे।  बाद में शाम को भगवान कृष्ण के साथ पांडव बाणों की शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह से मिलने पहुंचे। पांडवों के चेहरे लटके हुए थे। भीष्म ने इसका कारण पूछा, तो युधिष्ठिर ने सविस्तार घटना का जिक्र किया और अनैतिक कृत्यों का भी जिक्र किया।
यह सुनकर भीष्म को बहुत वितृष्णा हुई। पांडवों को फटकार लगाते हुए उन्होंने उनके कृत्य को शर्मनाक करार दिया। यह तक कह डाला कि तुम कायर हो, जो तुम्हें छल का सहारा लेना पड़ा। यह सुनकर पांडव तो विषाद में घिर गए, लेकिन पितामह की इस तीखी प्रतिक्रिया पर पास खड़े वासुदेव को गुस्सा आ गया। नाराजगी जताते हुए वे बोले-'तो आप क्या चाहते हैं कि पांडव यह युद्ध हार जाएं। ये पांचों भाई मिलकर आचार्य द्रोण को संभाल नहीं पा रहे थे। अगर द्रोण आज युधिष्ठिर को बंदी बना लेते, तो पांडव यह युद्ध हार जाते। और बाद में दुर्योधन इतिहासकारों से लिखवा लेता कि धर्म के पक्ष में वह था, पांडव तो अन्याय के सारथी थे।  लाक्षागृह का षड्यंत्र कभी रचा ही नहीं गया, द्रौपदी का कभी चीरहरण हुआ ही नहीं। क्या आप यह सब चाहते हैं?
मैं अंतिम परिणिति को देख रहा हूं,  इसीलिए मैंने यह छल करवाया।  मेरी नजर में साध्य की अहमियत है और  साध्य हमेशा साधन के ऊपर ही रहेगा।  साध्य पवित्र है और साधन अपवित्र है... एक बार यह चल जाएगा, लेकिन साधन पवित्र है और साध्य अपवित्र यह हरगिज भी स्वीकार्य नहीं होगा। साधन और साध्य की पवित्रता में  एक को चुनना पड़े, तो साध्य को ही वरीयता देना होगा। Ó
कृष्ण ठीक ही कहते हैं कोई व्यक्ति गरीबों की मदद करने के लिए मुनाफाखोरों से धन लूटने वाला डाकू  बन जाए, यह कबूल है। लेकिन कोई संतों का चोला ओढ़कर भोले-भाले लोगों को ठगने लगे यह अक्षम्य है। खुद ही सोचें, संत बनकर भोले-भालों को ठगने वाला व्यक्ति स्वीकार होगा कि डाकू बनकर मुनाफाखोरों से धन लूटकर गरीबों को बांटने वाला। एक ने संतगिरी को साधन बनाया, दूसरे ने लूटपाट को... पर दोनों का साध्य, यानी उददेश्य अलग-अलग हैं।

त्रिवेदी की बर्खास्तगी

जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, राजदीप सरदेसाई की संवेदनाएं और विश्लेषण अक्सर चौंकाते हैं। वे ऐसे बारीक सत्य बीनने की कोशिश करते हैं, जो धारणाओं, भावनाओं, घटनाओं की धूल भरी आंधी के बाद रेत में कहीं गुम हो जाता है।  ताजा मामला रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी का है, उन्होंने दीदी को बिना बताए यात्री भाड़ा बढ़ाया और हफ्ते भर में रिटायर कर दिए गए। इस प्रकरण पर सरदेसाई को महसूस हुआ कि यह घटना सुधार प्रक्रियाओं की कठिनाई की ओर कम, बल्कि हमारी सरकारों और राजनीतिक दलों के स्वरूप की ओर ज्यादा इशारा करती हैं। अगर सरदेसाई को ऐसा लगा है, तो जाहिर है, यह कहने का, ऐसा लगने का उनके पास पर्याप्त आधार होगा।  मैंने पहले भी लिखा है कि तथ्यों की ठोस बुनियाद पर ही वे बिल्डिंग खड़ी करते हैं। इस आर्टिकल में भी आपको वैसे ही मजबूत, जुड़ाई वाली इमारत दिखाई पड़ेगी..। यह तो हम जानते ही हैं कि त्रिवेदी की बर्खास्तगी क्रिया की ही प्रतिक्रिया है, लेकिन किस क्रिया की... । आप भी हंसराज बनने की कोशिश कीजिए...
यहां जाइए... http://www.bhaskar.com/ railmantri

भारत की बंधक विदेश नीति

श्रीलंका में तमिलों के पुनर्वास के मामले में, लिट्टे के साथ चल रहे गृहयुद्ध के अंतिम दिनों में लंकाई सैनिकों द्वारा किए तथाकथित युद्धअपराध के मसले पर, भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए? दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अमेरिका की जैसी हैसियत रखने वाला तथाकथित महाशक्ति हिंदुस्तान क्या अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से निभा पाया। इस मुद्दे पर भारत कूटनीतिक रूप से कितना सफल हुआ? इस संवेदनशील मामले में एमजे अकबर ने एक बढिय़ा आर्टिकल लिखा है, जिसमें भारत की बंधक बनी विदेश नीति का जिक्र है।
अकबर साहब की लेखन स्टाइल में अक्सर मुझे ज्यादा घुमाव नजर आता रहा है, लेकिन इस आर्टिकल में उनकी तर्जनी और मध्यमा के बीच अंतर कम है। मिडिल स्टम्प पर सीधी बॉल डाली है। यह आर्टिकल पढऩे यहां क्लिक कीजिए... http://www.bhaskar.com/ mj akbar
इस मुददे पर भास्कर के संपादकीय पर भी एक सटीक टिप्पणी छपी है। उसकी लिंक ये रही... http://www.bhaskar.com/editorial/

24 March 2012

पापुलर ब्लॉग-साइट

ब्लॉगर वल्र्ड में कुछ ब्लॉग-साइट बहुत पापुलर हैं। एक सज्जन ने इनकी लिंक को अपने ब्लॉग में उपलब्ध कराया है। यह आपके काम की हो सकती है... प्लीज विजिट इन... http://hindi-blog-list.blogspot.in/

22 March 2012

भास्कर का संपादकीय

भास्कर के संपादकीय का मैं दीवाना हूं। इसमें लेखन का अंदाज मुझे दीवानगी की हद तक पसंद आता है। किसी भी मसले को सीधेपन के साथ, संतुलित तरीके से, बिना कोई पांडित्य दिखाए, सीधे-सादे शब्दों में, सरल शब्दों में कहने का अंदाज मुझे बहुत भाता है। किसी भी मसले के सभी पहलुओं पर नजर रखते हुए उसका सम्यक मूल्यांकन भास्कर के संपादकीय में बहुत अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया जाता है।
आमतौर पर व्यक्ति अगर थोड़ा भी पढ़ लिख लेता है, तो विद्वता दिखाने के लिए भारी-भरकम साहित्यिक शब्दों का जाल बुनने लगता है, उनके फ्लैश चमकाने लगता है। कुल मिलाकर पांडित्य दिखाने की कोशिश करता है। वह भूल जाता है कि सबसे अहम यानी केंद्रीय तत्व तो विचार या भाव हैं। जो कहना चाहते हैं, वह है। और उसके लिए भाषा के किसी राजसी परिधान की जरूरत नहीं होती है।
यह समझने वाले व्यक्तियों (इनक्लुडेड मी) में भी चमत्कारिक शब्दों के प्रति झुकाव बना रहता है। इसके असर से वे भी खुद को बचा नहीं पाते। दरअसल, साधारण भाषा में एक तरह की तरलता होती है, जो कि दीगर व्यक्ति के मानस पटल पर उतनी पेेंचेदगी नहीं छोड़ती। और ऐसा न होने पर आम पाठक भी उसे समझ लेता है, लिहाजा खास पाठक की नजर में वह बहुत कमाल की मालूम नहीं पड़ती। और मौजूदा चौंकाने व ट्रेलर दिखाने वाले दौर में जब लेखक को यथेष्ट भाव नहीं मिलता, तो उसका अहंकार जमीन पर लोटने लगता है। इसके विपरीत साहित्यक शब्दावली एक तरह के सूक्ष्म अहंकार को जन्म देती है। असल में, साहित्यिक परिधान से सज-धजकर जब भाषा निकलती है, तो उसका चाहने वाला श्रेष्ठि वर्ग होता है क्योंकि आमपाठक के लिए वह अनुपलब्ध, अप्राप्य, अगम्य होती है। हालांकि धीरे-धीरे बाद में बोध होता है कि चीजों को कठिन बनाना बहुत आसान है, लेकिन कठिन को आसान बनाना बहुत कठिन है। और सरलता की अपनी अहमियत होती है, सार्थकता कठिन में नहीं है, सरलता-सादगी में है। जैसा कि मुझे बोध हुआ, दिमागी तौर पर ही सही...। और इसीलिए मुझे साहिर से ज्यादा गीतकार शैलेंद्र प्रभावित करते हैं। शैलेंद्र का अंदाजे बयां, उनकी स्टाइल के नए दौर के भी गीत बहुत रास आते हैं। इसीलिए मुझे भास्कर का यह संपादकीय दीवानगी की हद तक पसंद आ रहा है। गागर में सागर भरना, किसे कहते हैं, अगर किसी को देखना है, तो उसे इस भास्कर की संपादकीय को नियमित पढऩा चाहिए। इसे लिखने वाले एडीटर्स का हाथ चूमने का, उनके सामने दंडवत होने की एक बार मेरी इच्छा भी हुई थी।
  इन आर्टिकलों की लिंक ये है... http://www.bhaskar.com/editorial

21 March 2012

हिंदी साहित्य पीडीएफ

हिंदी साहित्य पीडीएफ के रूप में डाउनलोड करना चाहते हैं??? 
एक बेहतरीन साइट है, जो महान साहित्यकारों के उपन्यास-कहानियों को पीडीएफ के रूप में मुफ्त उपलब्ध करा रही है। मिसाल के तौर पर श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी हो या फिर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि... आपको सबकुछ यहां http://www.hindikunj.com में मिल जाएगा।


भारतीय जनमानस

भारतीय जनमानस प्रौढ़ हो रहा है। उसमें परिपक्वता आ रही है। अपने तात्कालिक लाभ को छोड़कर अब वह दीर्घकालिक नुकसान पर ध्यान देना भी शुरू कर चुका है। इसी का परिणाम है कि रेल यात्री किराए में नौ सालों में की गई रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी द्वारा की गई वृद्धि को रेलसंगठनों ने जायज ठहराया। याद रहे, त्रिवेदी इसी फैसले के चलते रेलमंत्री पद गंवा चुके हैं। इसी मसले पर एक बेहतरीन आर्टिकल दैनिक भास्कर के संपादकीय में हाल में छपा है।  इस लिंक पर जाएं... http://www.bhaskar.com/article/

सरफ़रोशी की तमन्ना

सरफ़रोशी की तमन्ना (गीत )
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए-क़ातिल में है
है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
ख़ून से खेलेंगे होली ग़र वतन मुश्क़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ जिनमें हो जुनूं कटते नहीं तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से निकले ही थे बांधकर सर पर क़फ़न
जां हथेली में लिए लो बढ़ चले हैं ये क़दम
ज़िन्दगी तो अपनी मेहमां मौत की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्क़लाब
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज
दूर रह पाए जो हमसे, दम कहाँ मन्ज़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना (ग़ज़ल) 
 सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए-क़ातिल में है
क्यों नहीं करता कोई भी दूसरा कुछ बातचीत
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तिरी महफ़िल में है
ऐ शहीदे-मुल्क़ो-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
अब तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खींच कर लाई है सबको क़त्ल होने की उमीद
आशिक़ों का आज जमघट कूँचा-ए-क़ातिल में है
यूँ खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है

                                                                  
यह रचना  रामप्रसाद बिस्मिल  की है। यह उस शख्स का नाम है, जिसे उतनी शोहरत नहीं मिली, जितना कि वह हकदार था। जब भी भारत की आजादी में गरम दल से लोगों का जिक्र छिड़ता है, लोग भगत सिंह व चंद्रशेखर आजाद का नाम प्रमुखता से लेते हैं, बिस्मिल को उतना याद नहीं किया जाता, जबकि वह रीयल हीरो था। आपको याद करा दूं कि बिस्मिल चंद्रशेखर आजाद का गुरू व काकेरी कांड का चीफ आर्किट्रेक्चर था। आजाद सहित जिन क्रांतिकारियों के दल ने काकेरी कांड को अंजाम दिया था, बिस्मिल उनका सरदार था, यानी बिस्मिल की अगुवाई में यह डकैती पड़ी थी। बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि कांकेरी कांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम स्थान रखती है। अंग्रेजों की नींद हराम करने, दहशत भरने और भारतीयों के भीतर सुलग रहे अंगारों को और भड़काने में इसका अहम रोल रहा है। भगत सिंह वगैरह की पौध इसके बाद आई है। वह बिस्मिल से लगभग दस साल जूनियर था। इतिहास चीजों को अपने तरीके से याद रखता है। चौंकाने वाले, भीड़ को सम्मोहित करने वालों से अतीत का पुराना मोह है। पब्लिक व अतीत दोनों का मनोविज्ञान समझ के परे है। वे कब किस चीज का कैसा असर लेंगे। किन्हें दिल में जगह देंगे और किन्हें विस्मृत कर जाएंगे कहना मुहाल है??? लेकिन करने वालों को, चलने वालों को इसकी परवाह कहां? उन्हें तो चलने पर यकीन है। रास्ता ही उनकी मंजिल है।
बिस्मिल की आत्मकथा पढऩे यहां क्लिक करें   http://www.jatland.com/home/

20 March 2012

प्राचीन भारत

प्राचीन भारतीय भक्त कवियों, संतों से लेकर आधुनिक भारत के गद्य के जानकार आपको यहां  http://www.brandbihar.com/litreture मिलेंगे। बिहार सरकार की संभवत: यह ऑफिशियल वेबसाइट है।

निरोगी काया

कहा गया है पहला सुख निरोगी काया होती है। कहने का मतलब, यदि आपकी काया निरोगी नहीं है, तो भले ही चाहे तमाम सुख, पूरी दुनिया का ऐश्वर्य आपके पास हो, लेकिन वह किसी काम का नहीं रहेगा। अस्वस्थ शरीर के चलते आप उसका आनंद लेने की स्थिति में नहीं होंगे। बदकिस्मती से इस तथ्य को जानकर भी हम लोग नजरअंदाज करते हैं, शरीर की कभी कद्र नहीं करते। अपने आपको शामिल करते हुए यह बात कह रहा हूं। यह भी तो कहा गया है ना कि आदमी दूसरों के तजुर्बे से नहीं सीखता, खुद गड्ढे में गिरने पर ही उसे  समझ आती है। जब शरीर परेशान करता है, तब दवा-दारू और उपचार की जरूरत महसूस होती है। तब ख्याल आता है कि सेब खाना फायदेमंद है। तेल-मसालेदार, डीप फ्राई वाली चीजें नुकसानदेह है। सिगरेट-शराब नहीं पीना चाहिए। खैर, जब जागे, तब सवेरा..
. स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न जानकारियों, बीमारियों व उनके उपचार के लिए एक अच्छी वेबसाइट हाथ लगी है। उसकी लिंक ये रही...  http://upchar.blogspot.in/
इसी तरह के कुछ  और ब्लॉग्स की लिंक यहां नीचे दी जा रही है...
http://jkhealthworld.com/home.php

चुनौती

लड़का, लड़की से- अगर तुमने मुझसे शादी नहीं, तो मैं माउंट एवरेस्ट से कूदकर जान दे दूंगा।
लड़की- कूल डाउन, तुमसे पहले भी कई लोगों ने मुझसे यह बात कही और वे इसी कोशिश में मर गए...
क्योंकि एवरेस्ट से कूदकर जान देने के पहले, उस पर चढऩा भी पड़ता है।

19 March 2012

मानसरोवर

तिल का राज


अब  जा के 
समझ 
पाया  हूं, 
तेरे 
चेहरे 
पे तिल 
का राज 
के दौलते हुस्न 
पे दरबान 
बिठा  
रक्खा है







इश्क में 
जो भी मुक्तिला 
होगा, 
उसका अंदाज 
ही जुदा 
होगा
और क्यूं 
गिर गया है 
भाव 
आज सोने 
का
उसने पीतल 
पहन लिया होगा

दिल को छूने वाली बातें

गोपालकृष्ण गांधी भी भास्कर के नियमित कॉलमनिस्ट हैं। इनका पुरातन झुकाव इनके आर्टिकल में साफ झलकता है। पुरानी घटनाएं, बातें, पुरातन लेकिन चिरस्थायी जीवन-मूल्य आदि इनके लेखों की स्थाई थीम होती है। जाहिर है, दिल की बातें, दिल को छूने वाली तो होंगी ही। आज प्रकाशित एक आर्टिकल में उन्होंने अच्छाई की महिमा को प्रेमचंद, वल्लभभाई पटेल, जयप्रकाश नारायण के माध्यम से बताने की कोशिश की है। 

क्या आपको पता है पटेल साहब को सरदार की उपाधि किस घटना के बाद मिली???  इस लिंक में जाइए...  http://www.bhaskar.com/

17 March 2012

तेंदुलकर का महाशतक

तेंदुलकर का महाशतक तो हुआ, लेकिन इसी मैच में भारत बांग्लादेश से हार गया। एक मित्र की टिप्पणी थी- तेंदुलकर हमेशा अपने रिकॉर्ड के लिए खेलता है। उसने सैकड़े के लिए जान-बूझकर धीमी बल्लेबाजी की... इसीलिए भारत को हार का मुंह देखना पड़ा।
बेशक सचिन ने धीमी बल्लेबाजी की, वह शतक पूरा करने के लिए आग्रही भी रहा होगा। लेकिन बाकी बल्लेबाजों का क्या? क्या हम सचिन पर इतने ज्यादा निर्भर हैं।
 यह भी तो हो सकता है कि सचिन अपनी स्वाभाविक फितरत की वजह से दबाव में रहे हों, महाशतक तो निमित्त भर था।
ऐसा कहने का पर्याप्त आधार है कि सचिन में दबाव झेलने की कुव्वत कम है। उनके पुराने रिकॉर्ड इसकी पुष्टि करते हैं। जब-जब टीम ने उनसे अपेक्षा रखी, महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों क्षणों, मौकों, मैचों में अक्सर उन्होंने निराश किया। लिहाजा सचिन पर जान-बूझकर धीमी बल्लेबाजी का आरोप सही नहीं होगा।
जाने क्यों हम चीजों का सम्यक मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं... हमारी व्यक्तिगत धारणाएं, पसंद, नापसंद उस पर अपना रंग चढ़ा देती हैं।

बीरबल की मसखरी

अकबर बीरबल से- अगर तुम्हे भगवान मिल जाए और दौलत व दिमाग में से कोई एक चीज मांगने कहे, तो तुम क्या मांगोगे?
बीरबल थोड़ी देर सोचता है, फिर कुटिल मुस्कराहट के साथ कहता है- मैं होता ना बादशाह हुजूर, तो दौलत मांगता।
अकबर- कमाल है, तुम जैसा समझदार आदमी भी ऐसी बात कर रहा है। अरे, मांगना था तो दिमाग मांगते क्योंकि दिमाग हो तो दौलत तो कमाई ही जा सकती है। मैं होता तो दिमाग ही मांगता। बीरबल- होता है, होता है। जिस आदमी के पास जो चीज नहीं होती, वो वही मांगता है।

गुरु-शिष्य

शिष्य ने गुरु से पूछा- यदि मैं आपसे यह कहूं कि आपको आज सोने का एक सिक्का पाने या एक सप्ताह बाद एक हजार सिक्के पाने के विकल्प में से एक का चुनाव करना है तो आप क्या लेना पसंद करेंगे?
गुरु ने कहा- मैं तो एक सप्ताह बाद सोने के हजार सिक्के लेना चाहूंगा।
शिष्य ने आश्चर्य से कहा- मैं तो यह समझ रहा था कि आप आज सोने का एक सिक्का लेने की बात करेंगे। आपने ही तो हमें हमेशा वर्तमान क्षण में अवस्थित रहने की शिक्षा दी है।
गुरु मुस्कराते हुए बोले- तुमने मुझे सोने की दो काल्पनिक मात्राओं में से एक का चयन करने के लिए कहा है, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं किसका चुनाव करता हूं?

way of life


दुख क्या है?

इस दुनिया में बिरले ही होंगे, जो यह कहें कि उन्हें कोई दुख नहीं है, कोई मलाल नहीं है। अपनी मौजूदा जिंदगी से वे खुश हैं, संतुष्ट हैं।
कहने का मतलब हर किसी की एक-ना-एक दुखती रग होती ही है।
तो आखिर दुख क्या है? क्या यह सापेक्ष है, यानी यह  किसी चीज के होने-ना होने की वजह से होता है, या फिर यह एक प्लेटफार्म का ही नाम है?
यह जानने के लिए  हमें कुछ और जानना होगा।
 वह 'कुछ औरÓ क्या है...  यह जानने के लिए आपको इस लिंक में जाना होगा... http://hindizen.com/

यह निशांत जी के ब्लॉग की लिंक है। जो लोग ज्ञानमार्गी हैं, या बुद्धि से भक्ति का रसास्वादन करते हैं, यह ब्लॉग उनके काम का है। इसमें आपको छोटी-छोटी प्रेरक कथाएं, प्रसंग, संस्मरण, गीत-कविताएं मिलेंगी। धर्म-अध्यात्म से रचे-बसे मन वाले खोजी सूफियों की बौद्धिक प्यास मिटाने और सच्ची प्यास की तलब जगाने में यह संभवत: कारगर होगा।
इसी तरह के कुछ  और प्रेरक ब्लॉग्स की लिंक यहां नीचे दी जा रही है...
http://www.motivationalblog.net/
http://hindishortstories.wordpress.com/

16 March 2012

दो राहुल...

राहुल द्रविड़ व गांधी पर तुलना करता हुआ एक आर्टिकल राजदीप सरदेसाई ने लिखा है। सरदेसाई के ऐसे तुलनात्मक लेख पठनीय होते हैं। दो अलग-अलग चीजों को को वे तुलनात्मक रूप से अच्छे से कनेक्ट करते हैं। उनकी संवेदनाएं ऐसे मामलों में जल्दी जागती हैं। वैसे राहुल द्रविड़ पर आज एक लेख जयप्रकाश चौकसे ने भी लिखा है। व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं लगा। अतिश्योक्ति के साथ ही जबरन ठूंसी हुई उपमा (शुरुआत में ही) और उपदेशात्मक अंदाज था। हां, चारण गान... जैसे शब्द और आर्टिकल का अंत बहुत बढिय़ा लगा। राहुल द्रविड़ के संन्यास पर सबने कुछ-न-कुछ कहा है। एक अलग अंदाज वाले खिलाड़ी को लेकर सबके अपने-अपने एहसास हैं। द्रविड़ के संन्यास-दिवस पर मैंने भी कलम चलाई है। मुझे वे नींव का पत्थर वाले श्रेणी का लगे। इन तीनों आर्टिकल की लिंक एक-के-बाद-एक नीचे दी जा रही है... 


13 March 2012

हिंदी गद्य-पद्य

हिंदी गद्य-पद्य के चाहने वालों को यहां से नाउम्मीदी नहीं होगी...

गपशप

एक ट्रेन जा रही थी। एक बर्थ में एक युवा, बुजुर्ग और एक अन्य व्यक्ति बैठे थे।
बुजुर्ग युवा से- बेटे कहां से आ रहे हो?
युवा- रायपुर से।
बुजुर्ग- हम भी तो वहीं से आ रहे हैं। रायपुर में कहां रहना होता है?
युवा- जी, शंकरनगर।
बुजुर्ग- अच्छी बात है। हम भी वहीं रहते हैं। वैसे तुम शंकरनगर में कहां रहते हो?
युवा- शंकरनगर में टेलीफोन ऑफिस के बगल में।
बुजुर्ग- कमाल है, हम भी, तो टेलीफोन ऑफिस के बगल में ही रहते हैं। वैसे कहां जा रहे हो?
युवा- जी, जबलपुर।
बुजुर्ग- हमारा भी जबलपुर ही जाना हो रहा है। वैसे जबलपुर में कहां जा रहे हो?
युवा- बजरंगपुरा में।
बुजुर्ग- क्या बात है, हमारा भी वहीं जाना हो रहा है। अच्छा, बजरंगपुरा में कहां जा रहे हो?
युवा- सेक्टर 9 में।
बुजुर्ग- अब बताओ... अरे भाई हम भी वहीं जा रहे हैं। और अब तुम ये ना कह देना कि सेक्टर 9 में स्ट्रीट नंबर 5 में तुम्हें जाना है।
युवा संकोच के साथ- जी, मुझे स्ट्रीट नंबर 5 में ही जाना है सर।
बुजुर्ग-अजीब इत्तफाक है। अच्छा, स्ट्रीट नंबर 5 में कौन से क्वार्टर में जाना है।
युवा- वन सी।
बुजुर्ग- हे भगवान, हमें भी तो वहीं जाना है बेटे। तुम कौन हो? तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है, वे क्या करते हैं?


तभी बर्थ में बैठा हुआ तीसरा व्यक्ति बीच में खीझकर बोल पड़ता है। कमाल है, आप लोग एक ही शहर के एक मोहल्ले के रहने वाले हैं। एक ही शहर के एक ही गली के एक ही क्वार्टर में जा रहे हैं, फिर भी एक-दूसरे से अनजान हैं।
बुजुर्ग, तीसरे व्यक्ति से: तुम चुप रहो। हम लोग बाप-बेटे हैं। टाइमपास के लिए यूं ही एक-दूसरे से गप मार रहे हैं।

डर का एहसास

डर का एहसास कैसा होता है...???

इस शिद्दत से किसी ने महसूस किया होगा क्या.....
इस लिंक पर जाइए... http://epaper.bhaskar.com/

10 March 2012

छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मीलाके


अपनी छाप बनके जो मैं पी के पास गई- २
जब छाप देखी पिहू के सो मैं अपनी भूल गई
हो.....
छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मीलाके -३
नैना मिला के मोसे नैना मिलाके
नैना मिला के मोसे नैना मिलाके
नैना मिला के... छाप तिलक छीन ली रे

ये रे सखी मैं तोसे कहू मैं तोसे कहू
मैं जो गई थी पनिया भरन को....
पनिया भरन को, पनिया भरन को
छीन झपट मोरी मटकी पटकी
छीन झपट मोरी मटकी पटकी रे मोसे नैना मिलके
छाप तिलक सब.......

बल बल जाऊं मैं
बल बल जाऊं तोरे रंगरेजवा
बल बल ....बल बल तोरे रंगरेजवा
अपनी सी.. अपनी सी..२
अपनी सी रंग लीनी रे मोसे नैना मिलके
छाप तिलक ....

ये रे सखी मैं तोसे कहू मैं
हरी हरी चुरियाँ हरी चुरियाँ
गोरी गोरी बहियाँ २
हरी हरी चुरियाँ गोरी बिया
बहियाँ पकड हर लीनी -2
बहियाँ पकड हर लीनी रे मोसे नैना मिलके

छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मिलके
-
(यह जगप्रसिद्ध गीत-कविता या जो भी कहें  अमीर खुसरो की है। यह लिखकर कि इस गीत के सृजनकर्ता खुसरो थे... शब्दों की बर्बादी करने का एहसास हो रहा है, क्योंकि अचेतन सहज ही मानकर चल रहा है कि यह सबको पता होगा कि छाप तिलक... खुसरो का लिखा है, क्योंकि यह गीत इतना पापुलर है, लिहाजा इसके रचनाकार की जानकारी भी सहज ही होगी... ऐसा मन में लगता है।
साबरी बंधु का गाया हुआ छाप तिलक... कुछ दिनों से ज्यादा सुन रहा हूं। जितना ज्यादा इसे सुन रहा हूं, उतना ज्यादा इसकी परतें खुलती महसूस होती जा रही हैं। पैरलल चलते दो अर्थ...। एक तो जो गीत में कहा जा रहा है... और दूसरा...
अच्छा हुआ जो मटकी फोड़ी...। क्योंकि बहुत कठिन है डगर पनघट की...। प्रेमभटी का मधुवा पिलाइके...। मोहे सुहागन कीजे...।
कुछ-कुछ समझ आ रहा है सरकार...। दिमाग ही सही, लेकिन मस्ती में झूमने लगा है... बल-बल जाऊं मोरे रंगरेजवा...। प्रेमभटी का मधुवा पीने की मेरी भी बड़ी तमन्ना है, क्योंकि सूखापन (बौद्धिकता) भी मेरे अंदर उतना ही ज्यादा है। मेरे भीतर का थार-सहारा जाने कब से तरस रहा है, पता नहीं...।
एक और बात... निजामुद्दीन औलिया के चेले खुसरो ही हिंदी और ऊर्दू के जनक थे मुझे नहीं मालूम था। यह दावा मैंने भाषायी लड़ाई पर आधारित एक आर्टिकल में पढ़ा। उसकी लिंक नीचे है...
 http://www.lekhni.net/1593434.html 
खुसरो के और कलाम पढऩे के लिए यहां नीचे क्लिक करें... 
http://www.hindisamay.com

मोहब्बत का अफसाना


खेल जिंदगी है...

खेल जिंदगी है...
एक खेल पत्रकार के ब्लॉग का नाम है। जाहिर है, इसमें वे खेल की बातें करेंगे। तो खेल संबंधी जानकारियां, रोचक किस्से पढऩे, खेलप्रेमी इस ब्लॉग का रुख कर सकते हैं। इसकी लिंक ये रही... http://npsingh.itzmyblog.com/

तेंदुलकर, ध्यानचंद, भारतरत्न...


 


कभी-कभी कुछ विचारोत्तेजक पढऩे मिल जाता है। 
तेंदुलकर, ध्यानचंद, भारतरत्न... 
 लिंक पेशे-नजर है... 




अजब तेरी लीला...

अजब तेरी लीला, अजब तेरी माया... एक तरफ दाने-दाने के लिए तरसते लोग... दूसरी ओर पालतू कुत्तों पर बेतहाशा खर्च...। अमेरिकन पेट्स एसोसिएशन की रिपोर्ट है कि अमेरिकन सालाना 50 बिलियन डालर, यानी तकरीबन २५ खरब रुपए अपने पेट्स के रखरखाव पर खर्च करते हैं।
आज ही भास्कर डॉट कॉम में टाइम्स ऑफ इंडिया के हवाले से एक खबर पढ़ा ...पश्चिम बंगाल में एक ऐसा गांव है, जहां हर दूसरा व्यक्ति किडनी बेचता है। रायगंज जिले का यह बिंदोल गांव किडनी गांव के नाम से ही जाना जाता है। जाहिर है किडनी बेचना कोई ऐसा काम तो  नहीं है, जिसे करने में किसी को खुशी मिले या सार्थकता हासिल हो। भुखमरी के चलते लोग ऐसा कर रहे हैं। वेश्या के कोठे पर जिस तरह दलाल मिलते हैं, वैसे ही आपको यहां किडनी के दलाल मिल जाएंगे।
कभी-कभी ऊपर वाले का यह अति का सिद्धांत समझ में नहीं आता। वो समता-मूलक क्यों नहीं है...। जाहिर है, जिसे हम भगवान कहते हैं, उसकी कुछ खास लोगों पर कोई कृपादृष्टि हो, या फिर गरीबों के लिए  सौतेला रवैया हो, ऐसा भी नहीं है...। कार्य-कारण सिद्धांत से परे जाकर सोचूं, तो लगता है कि वह जानबूझकर ऐसा करता है। जानबूझकर, एक सोची-समझी प्लानिंग के तहत....। प्लानिंग क्या है... किसी को क्या समझाना-दिखाना है? किस तरह उत्प्रेरित करना है यह नहीं पता?

09 March 2012

रीयल हीरो की फीकी विदाई

'कांग्रेस नेता माधव राव सिंधिया से एक बार इंटरव्यू में पूछा गया था कि क्या वे अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानते हैं? उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा था- नहीं, क्योंकि मुझमें किलर इंस्टिक्ट की कमी है।Ó
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जो आगे-आगे होते हैं। हमेशा आगे रहना चाहते हैं, एवरेस्ट पर खड़े होने की चाह रखते हंै। दूसरा वर्ग उन लोगों का है, जो अगर एक कदम पीछे भी हैं, तो उन्हें कोई शिकायत नहीं रहती। वे उतने में भी अपने को राजी कर लेते हैं, मना लेते हैं, संतुष्ट कर लेते हैं। जितना वे करते हैं, उतना उन्हें श्रेय नहीं मिलता। ज्यादातर मौकों पर उनका काम भी नजर में नहीं आ पाता। पता ही नहीं चलता कि उन्होंने कुछ उल्लेखनीय, कुछ बड़ा कर डाला है, क्योंकि वे चौके-छक्के मारकर सेंचुरी नहीं बनाते, बल्कि एक-दो रन दौड़-दौड़कर वे शतकवीर बनते हैं। वे शेर जैसे आक्रामक नहीं होते, लेकिन कर्मठ बैल जैसा दबाव झेलकर चुपचाप काम करते चले जाते हैं। उनके पास शेर के शिकारी पंजे नहीं होते, लेकिन हिरण के सिंग होते हैं और जिनका रोल शिकार करने में नहीं, बल्कि आत्म-रक्षा के समय दिखाई पड़ता है। उनका मिजाज और कार्यशैली ही ऐसी होती है कि वे इमारत के शिखर पर चमचमाती टाइल नहीं बन पाते, बल्कि चुपचाप नींव को मजबूत करते हैं, नींव का पत्थर बने रहते हैं। यह उन लोगों का वर्ग है, जो खुद को झुकाकर, दूसरों को बढऩे का मौका दे देतेे हैं। अपना मूल्यांकन कम होने का भी इन्हें मलाल नहीं रहता। खेल हो या जीवन... हर मोर्चे पर, ये हमेशा सेकंडमैन, उपकप्तान बने रहते हैं, बिना किसी गिला के। इनमें किलर इंस्टिक्ट नहीं होता, लेकिन ये चुपचाप काम करते रहते हैं।
राहुल द्रविड़ भी इसी दूसरे वर्ग से आते हैं। यह एक ऐसा खिलाड़ी का नाम है, जिसने साइलेंट काम किया। राहुल के बनाए 36 में से 32 सैकड़ों के चलते या तो भारत ने मैच जीते हैं, या वह मैच बचाने में कामयाब हुआ है। लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को याद है, इसके विपरीत उसके माथे पर हमेशा बोरिंग, डिफेंसिव खिलाड़ी का तमगा लगा रहा। उसे मैच विनर खिलाड़ी के रूप में कभी देखा ही नहीं गया। सच्चाई यह है कि टेस्ट में सचिन तेंदुलकर के बाद सबसे ज्यादा रन बनाने वाले इस खिलाड़ी का कभी सही मूल्यांकन ही नहीं हुआ। उसे वह नहीं मिला, जो उसका जायज हक था।
किलर इंस्टिक्ट न होने वाले हर शख्स के साथ शायद ऐसा ही होता है। वह दूर का तारा होता है। दरअसल, उसके आसपास वह उत्तेजना, रोमांच, सनसनी, तेज या तरंग नहीं होती, जो लोगों को सम्मोहित कर सके। उसमें पूर के जैसी अराजकता नहीं होती, झील के जैसी शांति होती है। और स्वाभाविक रूप से इंसानी फितरत सनसनी का असर लेने की है। उसे मद्धम संगीत सुनाई ही नहीं पड़ता, क्योंकि उसे सुनने के लिए जिस भीतरी शांति की दरकार होती है, वह तो धीरे-धीरे विकसित होती है।
इसीलिए, गोल मारने वाले, शिखर में झंडा लेकर खड़े होने वाले (किलर इंस्टिक्ट समूह) लोग ही ज्यादा पसंद किए जाते हंै, वे 'हीरोÓ होते हैं। लेकिन दूसरे वर्ग के लोगों का, सेकंडमैन का अपना महत्व है। ये बुनियाद को मजबूत करने वाले होते हैं। ये गोल मारने वाले नहीं, लेकिन गोल बनाने में मदद करने वाले होते हैं। लिहाजा, इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। इसीलिए द्रविड़ का यूं चुपचाप (एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके क्रिकेट को अलविदा कहना) जाना अखरता है। श्रीलंका को वल्र्ड कप जिताने वाले कप्तान अर्जुना रणतुंगा को जिस तरह भरे स्टेडियम में भावभीनी विदाई दी गई थी, क्या द्रविड़ उससे कम के हकदार हैं....???
यह आर्टिकल द्रविड़ की संन्यास की घोषणा वाले दिन ही मैंने प्रकाशन के लिए भेजी थी, लेकिन वह उस समय तुरंत प्रकाशित नहीं हो पाया। क्योंकि यह मैटर जल्दी में लिखा गया था, लिहाजा यह कोयला था, हीरा जैसा तराशा हुआ नहीं था। इसे तुरंत ही द्रविड़ की फीकी विदाई कहना शायद समय से पहले की बात हो जाती। लेकिन कुछ दिनों बाद बीसीसीआई ने इधर द्रविड़ की विदाई पर जलसा किया और उधर सचिन के महाशतक पर मुकेश अंबानी ने जश्न मनाया। स्वाभाविक रूप से तुलनात्मक स्थिति पैदा हो गई। लिहाजा मेरे पुराने मैटर की सार्थकता प्रगट होने लगी और उसे प्रकाशित करने का सही समय भी आ गया। लिहाजा सुशोभित ने मेरे मूल मैटर में अंबानी और बीसीसीआई वाला हिस्सा शुरू में जोड़कर उसे पब्लिश कर दिया। सुशोभित सक्तावत ही यहां भास्कर में एडिट पेज के इंचार्ज हैं। एक बहुत जहीन युवा ... उत्कृष्ट की चाह, एक्यूरेसी की चाह, सर्वश्रेष्ठ की चाह, उनकी लेखनी में झलकती है। उन्होंने मेरे मूल मैटर के अंितम हिस्से में भी (... इन्हें खारिज करना अपने भीतर के ठोस को खारिज करना है) यह लाइन जोड़ी है। भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित इस मैटर की लिंक ये रही... http://www.bhaskar.blag/amit
राहुल की क्षमताओं-योगदान का मूल्यांकन करता हुआ एक बहुत ही सारगर्भित लेख राजदीप सरदेसाई ने भीपूर्व में लिखा है। उसकी लिंक ये है...