भास्कर के संपादकीय का मैं दीवाना हूं। इसमें लेखन का अंदाज मुझे दीवानगी की हद तक पसंद आता है। किसी भी मसले को सीधेपन के साथ, संतुलित तरीके से, बिना कोई पांडित्य दिखाए, सीधे-सादे शब्दों में, सरल शब्दों में कहने का अंदाज मुझे बहुत भाता है। किसी भी मसले के सभी पहलुओं पर नजर रखते हुए उसका सम्यक मूल्यांकन भास्कर के संपादकीय में बहुत अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया जाता है।
आमतौर पर व्यक्ति अगर थोड़ा भी पढ़ लिख लेता है, तो विद्वता दिखाने के लिए भारी-भरकम साहित्यिक शब्दों का जाल बुनने लगता है, उनके फ्लैश चमकाने लगता है। कुल मिलाकर पांडित्य दिखाने की कोशिश करता है। वह भूल जाता है कि सबसे अहम यानी केंद्रीय तत्व तो विचार या भाव हैं। जो कहना चाहते हैं, वह है। और उसके लिए भाषा के किसी राजसी परिधान की जरूरत नहीं होती है।
यह समझने वाले व्यक्तियों (इनक्लुडेड मी) में भी चमत्कारिक शब्दों के प्रति झुकाव बना रहता है। इसके असर से वे भी खुद को बचा नहीं पाते। दरअसल, साधारण भाषा में एक तरह की तरलता होती है, जो कि दीगर व्यक्ति के मानस पटल पर उतनी पेेंचेदगी नहीं छोड़ती। और ऐसा न होने पर आम पाठक भी उसे समझ लेता है, लिहाजा खास पाठक की नजर में वह बहुत कमाल की मालूम नहीं पड़ती। और मौजूदा चौंकाने व ट्रेलर दिखाने वाले दौर में जब लेखक को यथेष्ट भाव नहीं मिलता, तो उसका अहंकार जमीन पर लोटने लगता है। इसके विपरीत साहित्यक शब्दावली एक तरह के सूक्ष्म अहंकार को जन्म देती है। असल में, साहित्यिक परिधान से सज-धजकर जब भाषा निकलती है, तो उसका चाहने वाला श्रेष्ठि वर्ग होता है क्योंकि आमपाठक के लिए वह अनुपलब्ध, अप्राप्य, अगम्य होती है। हालांकि धीरे-धीरे बाद में बोध होता है कि चीजों को कठिन बनाना बहुत आसान है, लेकिन कठिन को आसान बनाना बहुत कठिन है। और सरलता की अपनी अहमियत होती है, सार्थकता कठिन में नहीं है, सरलता-सादगी में है। जैसा कि मुझे बोध हुआ, दिमागी तौर पर ही सही...। और इसीलिए मुझे साहिर से ज्यादा गीतकार शैलेंद्र प्रभावित करते हैं। शैलेंद्र का अंदाजे बयां, उनकी स्टाइल के नए दौर के भी गीत बहुत रास आते हैं। इसीलिए मुझे भास्कर का यह संपादकीय दीवानगी की हद तक पसंद आ रहा है। गागर में सागर भरना, किसे कहते हैं, अगर किसी को देखना है, तो उसे इस भास्कर की संपादकीय को नियमित पढऩा चाहिए। इसे लिखने वाले एडीटर्स का हाथ चूमने का, उनके सामने दंडवत होने की एक बार मेरी इच्छा भी हुई थी।
यह समझने वाले व्यक्तियों (इनक्लुडेड मी) में भी चमत्कारिक शब्दों के प्रति झुकाव बना रहता है। इसके असर से वे भी खुद को बचा नहीं पाते। दरअसल, साधारण भाषा में एक तरह की तरलता होती है, जो कि दीगर व्यक्ति के मानस पटल पर उतनी पेेंचेदगी नहीं छोड़ती। और ऐसा न होने पर आम पाठक भी उसे समझ लेता है, लिहाजा खास पाठक की नजर में वह बहुत कमाल की मालूम नहीं पड़ती। और मौजूदा चौंकाने व ट्रेलर दिखाने वाले दौर में जब लेखक को यथेष्ट भाव नहीं मिलता, तो उसका अहंकार जमीन पर लोटने लगता है। इसके विपरीत साहित्यक शब्दावली एक तरह के सूक्ष्म अहंकार को जन्म देती है। असल में, साहित्यिक परिधान से सज-धजकर जब भाषा निकलती है, तो उसका चाहने वाला श्रेष्ठि वर्ग होता है क्योंकि आमपाठक के लिए वह अनुपलब्ध, अप्राप्य, अगम्य होती है। हालांकि धीरे-धीरे बाद में बोध होता है कि चीजों को कठिन बनाना बहुत आसान है, लेकिन कठिन को आसान बनाना बहुत कठिन है। और सरलता की अपनी अहमियत होती है, सार्थकता कठिन में नहीं है, सरलता-सादगी में है। जैसा कि मुझे बोध हुआ, दिमागी तौर पर ही सही...। और इसीलिए मुझे साहिर से ज्यादा गीतकार शैलेंद्र प्रभावित करते हैं। शैलेंद्र का अंदाजे बयां, उनकी स्टाइल के नए दौर के भी गीत बहुत रास आते हैं। इसीलिए मुझे भास्कर का यह संपादकीय दीवानगी की हद तक पसंद आ रहा है। गागर में सागर भरना, किसे कहते हैं, अगर किसी को देखना है, तो उसे इस भास्कर की संपादकीय को नियमित पढऩा चाहिए। इसे लिखने वाले एडीटर्स का हाथ चूमने का, उनके सामने दंडवत होने की एक बार मेरी इच्छा भी हुई थी।
इन आर्टिकलों की लिंक ये है... http://www.bhaskar.com/editorial
No comments:
Post a Comment