16 October 2016

पाक कलाकारों का विरोध... नफरत, जरूरत या नियति?

बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर आधारित, मशहूर लेखिका तसलीमा नसरीन का उपन्यास च्लज्जाज् 90 के दशक में बहुत मकबूल हुआ था। इसमें सांप्रदायिकता (मुस्लिम व हिंदू दोनों) को निशाना बनाया गया था और च्बाबरी विध्वंसज् को तत्कालीन उपद्रव की प्रतिक्रिया दर्शाया गया था। लेखिका का मानना था, च्भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) की आत्मा एक है और यहां कहीं भी कुछ होगा, तो उसका असर सब तरफ फैलेगा। भारत में यदि फोड़े का जन्म होगा, तो उसके प्रभाव से पड़ोसी देश भी अछूते नहीं रहेंगे। यहां का साझा इतिहास व साझा भविष्य है।ज्
भारत में इन दिनों पाकिस्तानी कलाकारों का जो विरोध हो रहा है, वह भी एक प्रतिक्रिया ही है। उरी सेक्टर में हुए हमले के बाद, यहां लोगों में जबरदस्त गुस्सा है।  वे आतंकियों, उनके सरपरस्तों, उनसे सरोकार रखने वाली किसी भी वस्तु-व्यक्ति के प्रति सीने में अंगार लिए बैठे हैं।  यह आम लोगों के जस्बात हैं। इसे भले ही सही-गलत या तार्किक-अतार्किक कहा जा सकता है, लेकिन आम प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है, स्वस्फूर्त... खुशी या गम से तुरंत आंदोलित होने वाली...।
और क्योंकि बॉलीवुड कलाकार भी क्रिया-प्रतिक्रिया, आवेग-मनोवेग से प्रभावित होते हैं, लिहाजा वे भी इस मामले से बेअसर नहीं हैं।  नाना पाटेकर, अनुपम खेर जैसे अनेक एक्टर हैं, जो चाहते हैं... पाक कलाकारों पर बैन लगे, वे यहां से चले जाएं। हालांकि इस मामले में बॉलीवुड का एक तबका पाक कलाकारों के समर्थन में भी खड़ा है। सलमान खान, करण जौहर जैसे लोगों का कहना है- च्कलाकार आतंकी नहीं होता व कला और राजनीति को अलग रखा जाना चाहिए।ज्
तो एक तरफ तो राष्ट्रवादी भावनाएं हैं और दूसरी तरफ पाक कलाकारों के पक्ष में दिए बयान....किसे सही माना जाए?
 यकीनन, किसी भी उदारवादी, खुले दिल वाले शख्स को पाक कलाकारों के समर्थन वाले तर्क सही लगेंगे... इनसे मन सहमत भी होता है, लेकिन राष्ट्रवादी भावनाओं का क्या?  क्या इससे खुद को अलग रखा जा सकता है? उदाहरण के तौर पर अगर भारत, पाकिस्तान पर हमला करके कत्लेआम कर दे... तब भी क्या पाकिस्तानी कलाकार भारत में इस घटना का असर लिए बिना काम कर पाएंगे? क्या उनका मन भारत, भारतीयोंं के लिए कसैला नहीं होगा?
यकीनन, ऐसा ही कुछ होगा... आम पाकिस्तानी मन की यही प्रतिक्रिया होगी। आखिर इसीलिए तो उरी हमले के बाद इधर, भारत में पाक कलाकारों का विरोध हो रहा है तो उधर कराची, इस्लामाबाद के सिनेमाघरों में भारतीय फिल्मों पर रोक लगी हुई है। लाहौर के सुपर सिनेमा ने फेसबुक में लिखा था- च्हम अपनी पाक सेना के समर्थन में भारतीय फिल्मों का विरोध करते हैं।ज्
दरअसल, राष्ट्रीय हित-अहित, पसंद-नापसंद से खुद को अलग नहीं रखा जा सकता है। इस तरह की प्रतिक्रियात्मक भावनाएं स्वाभाविक रूप से उपजती हैं। लेकिन दिक्कत तब खड़ी होती है, जब ये अतिवादी रुख अख्तियार कर निर्दोष लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं। यही इसका दुखद पहलू है। लेकिन इनके साइडइफेक्ट से बचना आम इंसान के लिए आसान भी नहीं होता, इसीलिए गेहूं के साथ घुन भी पिसता चला जाता है।
वैसे, देखा जाए तो खिलाडिय़ों, कलाकारों के रिश्ते... राष्ट्रीय संबंधों के आगे उथले ही होते हैं। ये एक समय तक ही संभाले जा सकते हैं। वास्तव में, राष्ट्रगत मामलों में राजनीतिक संबंध ही केंद्र पर होते हैं, इनके बनने-बिगडऩे से सारी चीजें अपने आप प्रभावित होने लगती हैं। इसके उलट, कला, संस्कृति, व्यापार, खेल या अन्य कोई संबंध एक पक्षीय होते हैं, जिसका क्षेत्र विशेष पर ही असर रहता है।
यह ऐसा ही है, जैसे दो परिवार के मुखिया के बीच विवाद होने पर अन्य सदस्यों के आपसी ताल्लुकात प्रभावित होने लगते हैं। यदि विवाद बड़ा न हो तो बच्चों व महिलाओं के बीच बोलचाल, लेनदेन जारी भी रहता है। लेकिन बात बढऩे पर महिलाएं-बच्चे भी अपने-अपने मुखिया के साथ खड़े हो जाते हैं, या उन्हें खड़ा होना पड़ता है। जैसे लडऩे वाले दो मुखिया के परिजनों के निजी संबंध कायम नहीं रह पाते, वैसा ही हाल राष्ट्रगत मामलों में कला, खेल जैसे संबंधों का होता है। यही महिलाओं-बच्चों, कलाकारों-खिलाडिय़ों के संबंधों की नियति है। लेकिन बदकिस्मती से इनसे बचने का कोई उपाय भी मालूम नहीं पड़ता है।
वैसे, सारे पहलुओं को ताक पर रखकर निजी रिश्ते को तरजीह देना, कोई सही चुनाव नहीं है। यह एकपक्षीय नजरिया है और इस तरह का अतिवादी रुख गैरव्यवहारिक होता है। जो लोग यह कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, पाक कलाकारों पर बैन लगना ही नहीं चाहिए... उन्हें यह समझना होगा कि किसी भी फैसले के पीछे बहुत सारे कारक होते हैं। ऐसा नहीं है कि पाक कलाकारों पर बैन, नफरत या आम लोगों के प्रतिक्रियात्मक रुख की वजह से ही हो। यह कूटनीतिक दबाव बनाने या असामान्य हालात में उनकी सुरक्षा के मद्देनजर भी हो सकता है।
इसी तरह, ऐसे लोग जो पाक कलाकारों का विरोध स्थायी नफरत के चलते कर रहे हैं, उन्हें अपने पूर्वग्रह से ऊपर उठकर चीजों को खुले रूप में देखने की जरूरत है। उन्हें समझना होगा कि नफरत का बीज ही राष्ट्रवाद, जातिवाद, नस्लवाद, क्षेत्रवाद भाषावाद की आड़ में अनिवार्य फसाद का कारण बनता है... जिसकी गवाह तारीखें बनती हैं और जिसका दंश सदियों को भुगतना पड़ता है।
सच तो यह है अच्छा या बुरा किसी भी तरह का एकपक्षीय रवैया घातक ही होता है। अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दकी को मुस्लिम होने के चलते रामलीला में भाग नहीं लेने देना जितना गलत है, उतना ही गलत मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते, ममता सरकार द्वारा मुहर्रम के दिन दुर्गा विसर्जन का समय तय करना भी है। दोनों के ही दीर्घकालिक नुकसान हैं।
वास्तव में एकपक्षीय नजरिए या अतिवादी रुख से जिंदगी नहीं चल सकती है, लेकिन हम अपने मत, धारणा के इतर चीजों को उसकी पूर्णता में देखना नहीं चाहते हैं। अभी पिछले दिनों अगस्त में कुत्तों के आतंक से परेशान, केरल में 65 साल की महिला को 50 कुत्तों ने नोचकर मार डाला था। इसके बाद, राज्य  सरकार ने कुत्तों को चुनकर मारने का फैसला लिया।  सुप्रीम कोर्ट ने भी खतरा बने आवारा कुत्तों को मारना जायज ठहराया था। लेकिन पशुप्रेमी केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी किसी भी हालात में, किसी भी कुत्ते को मारने के विरोध में हैं। बेशक, पशु प्रेम अच्छी बात है, लेकिन क्या उसे इंसानियत पर तरजीह दिया जा सकता है?
मेनका गांधी या उन जैसे अतिवादियों की ऐसी सोच के चलते ही चीजें एक समय बाद खतरनाक रुख अख्तियार कर लेती हैं। व्यक्तिगत या राष्ट्रगत मामले में भी ऐसा ही होता है। शांति, प्यार, सद्भावना जैसे आदर्श भी एक समय तक... एक सीमा तक ही निबाहे जा सकते हैं... वे अंतिम लक्ष्य या साध्य नहीं बन सकते...
एक बात और...
महाभारत युद्ध के दौरान, मृत्युशैय्या पर पड़े भीष्म से चर्चा के दौरान भगवान कृष्ण ने कहा था- च् आपने शांति कायम रखने और युद्ध से बचने के लिए दुर्योधन की हर गलती हो नजरअंदाज किया था।  लेकिन न युद्ध टाला जा सका, न शांति कायम रह पाई। अगर आप दुर्योधन की नाजायज हरकतों का... महत्वाकांक्षाओं का शुरू में ही विरोध कर देते... उसे रोक देते तो शायद युद्ध नहीं होता... भरत वंश का नाश नहीं होता...
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