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29 August 2012

तो मुस्कुराना छोड़ दें

हादसों की ज़द पे है तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें,

तुमने मेरे घर न आने की कसम खाई तो है
आंसुओं से भी कहो आंखों में आना छोड़ दें.

बारिशें दीवार धो देने की आदी हैं तो क्या
हम इसी डर से तेरा चेहरा बनाना छोड़ दें! 

27 August 2012



जो बीत गई सो बात गई 

 जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

 
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

 
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

 
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
 
जो बीत गई सो बात गई.

यह मशहूर कविता  डॉ.हरिवंशराय बच्चन की है। इसे गाहे-बगाहे अनेक मौकों पर उनके ख्यातनाम सुपुत्र अमिताभ बच्चन सुनाया करते हैं। 

28 March 2012

पान महिमा



 पान सो पदारथ सब जहान को सुधारत
गायन को बढ़ावत जामें चूना चौकसाई है
सुपारिन के साथ साथ मसाल मिले भाँत भाँत
जामें कत्थे की रत्तीभर थोड़ी सी ललाई है
बैठे हैं सभा माँहि बात करें भाँत भाँत
थूकन जात बार बार जाने का बढ़ाई है
कहें कवि ’किसोरदास’ चतुरन की चतुराई साथ
पान में तमाखू किसी मुरख ने चलाई है

हास्य रस से सराबोर यह कविता एक जीनियस द्वारा लिखी गई है।
उनका नाम है- किशोर कुमार....
अनेक विधाओं में दखल रखने की वजह से उन्हें जीनियस  कह रहा हूं।
यह कविता मुझे
प्रसिद्ध रेडियो उद्घोषक युनूस खान के ब्लॉग में मिली।
संगीतप्रेमियों को यह अंदर तक भिगाने वाला ब्लॉग हो सकता है, उसकी लिंक ये रही... http://shrota.blogspot.in/

21 March 2012

सरफ़रोशी की तमन्ना

सरफ़रोशी की तमन्ना (गीत )
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए-क़ातिल में है
है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
ख़ून से खेलेंगे होली ग़र वतन मुश्क़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ जिनमें हो जुनूं कटते नहीं तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से निकले ही थे बांधकर सर पर क़फ़न
जां हथेली में लिए लो बढ़ चले हैं ये क़दम
ज़िन्दगी तो अपनी मेहमां मौत की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्क़लाब
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज
दूर रह पाए जो हमसे, दम कहाँ मन्ज़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना (ग़ज़ल) 
 सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए-क़ातिल में है
क्यों नहीं करता कोई भी दूसरा कुछ बातचीत
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तिरी महफ़िल में है
ऐ शहीदे-मुल्क़ो-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
अब तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खींच कर लाई है सबको क़त्ल होने की उमीद
आशिक़ों का आज जमघट कूँचा-ए-क़ातिल में है
यूँ खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है

                                                                  
यह रचना  रामप्रसाद बिस्मिल  की है। यह उस शख्स का नाम है, जिसे उतनी शोहरत नहीं मिली, जितना कि वह हकदार था। जब भी भारत की आजादी में गरम दल से लोगों का जिक्र छिड़ता है, लोग भगत सिंह व चंद्रशेखर आजाद का नाम प्रमुखता से लेते हैं, बिस्मिल को उतना याद नहीं किया जाता, जबकि वह रीयल हीरो था। आपको याद करा दूं कि बिस्मिल चंद्रशेखर आजाद का गुरू व काकेरी कांड का चीफ आर्किट्रेक्चर था। आजाद सहित जिन क्रांतिकारियों के दल ने काकेरी कांड को अंजाम दिया था, बिस्मिल उनका सरदार था, यानी बिस्मिल की अगुवाई में यह डकैती पड़ी थी। बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि कांकेरी कांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम स्थान रखती है। अंग्रेजों की नींद हराम करने, दहशत भरने और भारतीयों के भीतर सुलग रहे अंगारों को और भड़काने में इसका अहम रोल रहा है। भगत सिंह वगैरह की पौध इसके बाद आई है। वह बिस्मिल से लगभग दस साल जूनियर था। इतिहास चीजों को अपने तरीके से याद रखता है। चौंकाने वाले, भीड़ को सम्मोहित करने वालों से अतीत का पुराना मोह है। पब्लिक व अतीत दोनों का मनोविज्ञान समझ के परे है। वे कब किस चीज का कैसा असर लेंगे। किन्हें दिल में जगह देंगे और किन्हें विस्मृत कर जाएंगे कहना मुहाल है??? लेकिन करने वालों को, चलने वालों को इसकी परवाह कहां? उन्हें तो चलने पर यकीन है। रास्ता ही उनकी मंजिल है।
बिस्मिल की आत्मकथा पढऩे यहां क्लिक करें   http://www.jatland.com/home/

10 March 2012

छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मीलाके


अपनी छाप बनके जो मैं पी के पास गई- २
जब छाप देखी पिहू के सो मैं अपनी भूल गई
हो.....
छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मीलाके -३
नैना मिला के मोसे नैना मिलाके
नैना मिला के मोसे नैना मिलाके
नैना मिला के... छाप तिलक छीन ली रे

ये रे सखी मैं तोसे कहू मैं तोसे कहू
मैं जो गई थी पनिया भरन को....
पनिया भरन को, पनिया भरन को
छीन झपट मोरी मटकी पटकी
छीन झपट मोरी मटकी पटकी रे मोसे नैना मिलके
छाप तिलक सब.......

बल बल जाऊं मैं
बल बल जाऊं तोरे रंगरेजवा
बल बल ....बल बल तोरे रंगरेजवा
अपनी सी.. अपनी सी..२
अपनी सी रंग लीनी रे मोसे नैना मिलके
छाप तिलक ....

ये रे सखी मैं तोसे कहू मैं
हरी हरी चुरियाँ हरी चुरियाँ
गोरी गोरी बहियाँ २
हरी हरी चुरियाँ गोरी बिया
बहियाँ पकड हर लीनी -2
बहियाँ पकड हर लीनी रे मोसे नैना मिलके

छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मिलके
-
(यह जगप्रसिद्ध गीत-कविता या जो भी कहें  अमीर खुसरो की है। यह लिखकर कि इस गीत के सृजनकर्ता खुसरो थे... शब्दों की बर्बादी करने का एहसास हो रहा है, क्योंकि अचेतन सहज ही मानकर चल रहा है कि यह सबको पता होगा कि छाप तिलक... खुसरो का लिखा है, क्योंकि यह गीत इतना पापुलर है, लिहाजा इसके रचनाकार की जानकारी भी सहज ही होगी... ऐसा मन में लगता है।
साबरी बंधु का गाया हुआ छाप तिलक... कुछ दिनों से ज्यादा सुन रहा हूं। जितना ज्यादा इसे सुन रहा हूं, उतना ज्यादा इसकी परतें खुलती महसूस होती जा रही हैं। पैरलल चलते दो अर्थ...। एक तो जो गीत में कहा जा रहा है... और दूसरा...
अच्छा हुआ जो मटकी फोड़ी...। क्योंकि बहुत कठिन है डगर पनघट की...। प्रेमभटी का मधुवा पिलाइके...। मोहे सुहागन कीजे...।
कुछ-कुछ समझ आ रहा है सरकार...। दिमाग ही सही, लेकिन मस्ती में झूमने लगा है... बल-बल जाऊं मोरे रंगरेजवा...। प्रेमभटी का मधुवा पीने की मेरी भी बड़ी तमन्ना है, क्योंकि सूखापन (बौद्धिकता) भी मेरे अंदर उतना ही ज्यादा है। मेरे भीतर का थार-सहारा जाने कब से तरस रहा है, पता नहीं...।
एक और बात... निजामुद्दीन औलिया के चेले खुसरो ही हिंदी और ऊर्दू के जनक थे मुझे नहीं मालूम था। यह दावा मैंने भाषायी लड़ाई पर आधारित एक आर्टिकल में पढ़ा। उसकी लिंक नीचे है...
 http://www.lekhni.net/1593434.html 
खुसरो के और कलाम पढऩे के लिए यहां नीचे क्लिक करें... 
http://www.hindisamay.com

28 February 2012

ऐ साकी


भूल  जाऊं मैं जमाने का गिला ऐ साकी
ला पिला और पिला और पिला ऐ साकी

बाँध कुछ ऐसा मोहब्बत की फिज़ा ऐ साकी
फिर बदल जाए ज़माने की हवा ऐ साकी

खनकते जाम का मोहताज मैं नहीं साकी
तेरी निगह सलामत मुझे कमी क्या है।
 




12 December 2011

क्रांतिनाद

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क, हर गली में, हर नगर, हर गांव में
हाथ लहराते हुए, हर लाश चलनी चाहिए

के सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
 मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

और मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
- स्व. दुष्यंत कुमार त्यागी

19 November 2011

हार नहीं होती...

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढऩा न अखरता है।
आखऱि उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मु_ी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
(नोट: कवि का नाम पता नहीं है, जिस सज्जन को जानकारी हो कृपया बताएं)

14 November 2011

शब्द





किन शब्दों में दूं परिभाषा
हर शब्द तुमसे छोटा लगता है

सरस्वती सी ज्ञान की गंगा
लक्ष्मी का भंडार तुम ही हो

सुबह की बेला दिन की धूप
गोधूलि की शाम तुम ही हो

थके पथिक की अंकशायिनी
रात्रि का विश्राम तुम ही हो।।
(नोट: इस कविता को किसने लिखा है मुझे नहीं पता, यदि किसी सज्जन को मालूम हो तो कृपया जरूर बताएं।)
-

12 November 2011

बात इतनी सी...

बात इतनी सी कहानी हो गई
एक चुनर और धानी हो गई
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जबसे रातरानी हो गई 


एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
कांच के टुकड़े को तराशकर
एक कोहिनूर किया तुमने


सूखी नदी को सागर तो
सेहरा को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने।
                                     
(नोट: इस कविता को किसने लिखा है मुझे नहीं पता, यदि किसी सज्जन को मालूम हो तो कृपया जरूर बताएं।)

18 October 2011

वरदान


प्रभु! विपत्तियों से मेरी रक्षा करो,  यह प्रार्थना लेकर में तेरे द्वार नहीं आया,
विपत्तियों से भयभीत न होऊं, बस यही वरदान दे.

अपने दु:ख से व्यथित चित्त कोसांत्वना देने की भिक्षा नहीं मांगता,
दुखों पर विजय पााऊं यही आशीर्वाद दे, यही प्रार्थना है.

मुझे बचा ले... यह प्रार्थना लेकर मैं  तेरे दर पर नहीं आया हूं
केवल संकट सागर में तैरते रहने की शक्ति माँगता हूँ.

मेरा भार हल्का कर दे... यह याचना पूर्ण होने की सांत्वना नहीं चाहता हूं
यह भार वाहन कर चलता रह सकूं... बस यही प्रार्थना है।

सुख भरे क्षणों में मैं नतमस्तक हो तेरे दर्शन कर सकूं
किन्तु दु:ख भरी रातों मैं जब सारी दुनिया मेरा उपहास करे,
तब शंकित न होऊं, बस यही वरदान मांगता हूं।।।

(गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की कालजयी कृति गीतांजली से साभार)

08 October 2011

जब तुम्ही अनजान बनकर रह गए तो...


जब तुम्ही अनजान बनकर रह गए तो
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं

जब न तुमसे स्नेह के दो कण मिले
व्यथा कहने के लिए दो क्षण मिले
जब तुम्ही ने की सतत अवहेलना
तो विश्व का सम्मान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ...

बस एक ही आशा एक ही अरमान था
हृदय को बस तुम पर अभिमान था
जब तुम ही न अपना सके हमें
तो व्यर्थ का सम्मान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ... 

दूं तुम्हे कैसे जलन मैं अपनी दिखा 
दूं तुम्हे कैसे लगन मैं अपनी दिखा
जो स्वरित होकर भी कुछ न कह सके
मैं भला वे गान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ...

अर्चना निष्प्राण की आखिर कब तक करूं
कामना वरदान की आखिर कब तक करूं
जो बना युग-युग पहेली-सा
मौन वह भगवान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ...।।

(नोट : इस कविता को किसने लिखा है मुझे नहीं पता, यदि किसी सज्जन को मालूम हो तो कृपया जरूर बताएं।)