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09 April 2017

क्या सफलता के घोड़े को संभाल पाएगी भाजपा?

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में गायों की सुरक्षा को लेकर कानून बनाने के संबंध में पूछे जाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि पिछले 15 सालों सेें राज्य में गौहत्या जैसी कोई गतिविधि नहीं हुई है और ‘जो यहां गायों को मारेगा उसे लटका देंगे।
और कोई मौका रहता या और किसी भाषा-लहजे के साथ मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ ने यही इरादे जाहिर किए होते, तो उनके इस बयान की त्रिज्या शायद छत्तीसगढ़ की सरहद पार नहीं जा पाती। लेकिन उन्होंने जिस आक्रमकता व तेवर के साथ गौहत्या पर बात रखी, वह राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां पा गया।
आमतौर पर हर विषय पर शालीनता से बात रखने वाले सीएम का यह सख्त रवैया, इस मुद्दे पर यूं एंग्री यंगमैन रूप सचमुच चौंकाने वाला था। क्या यह महज संयोग है कि रमन सिंह का यह सख्य तेवर ऐसे समय में दिखाई पड़ा है, जब गुजरात विधानसभा में गौवध पर आजीवन कारावास का विधेयक पारित हो चुका है व यूपी की योगी सरकार ने अवैध बूचडख़ाने पर बैन लगा दिया है? गौ हत्या पर इन सरकारों का यकायक सख्त हो जाना क्या सांयोगिक है?
जहां तक गौ हत्या की बात…. यह निश्चित ही गंभीर मसला है। इसे भारत में किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। यहां बहुसंख्यक हिंदू आबादी के लिए गाय पूजनीय, माता तुल्य है। यह विशुद्ध रूप से आस्था से जुड़ा मामला है, जिसका सम्मान किए जाने की जरूरत है।
लेकिन गौहत्या हिंदुस्तान में सालों से हो रही है, उसका विरोध भी साथ-साथ चलता रहा है। और सरकारों का रवैया इसे लेकर उदासीन ही रहा है। पर हाल के दिनों में तेवर में बदलाव नजर आए। मेरी दिलचस्पी का केंद्र इस मुद्दे को लेकर दिखाई गई यह टाइमिंग है। ऐसा मालूम पड़ता है, यूपी में मिली करिश्माई जीत से पूरे देश भर में भाजपा का आत्मविश्वास अपने एवरेस्ट पर पहुंच गया है। यूपी में मिला करिश्माई संख्या-बल केंद्र सहित तमाम भाजपा शासित राज्यों को सर्वशक्तिशाली, बाहुबली होने का एहसास करा रहा है। केंद्र व भाजपा शासित विभिन्न राज्यों के हालिया फैसले, अंदाजो-अदायगी यही जाहिर करते हैं। योगी सरकार को बूचड़ खाने बंद करना था, तो उसने सारे विरोध को दरकिनार कर उसे बंद कर ही दिया। रमन सरकार को शराब बेचना था, तो उसने सारे विरोध के बावजूद शराब बेचना शुरू किया ही। यकीनन, आने वाले समय में भी ऐसी और झलकियां मिलती रहेंगी। कोई अचरज नहीं, यदि भविष्य में भी भाजपा, विपक्षी-विरोधी नजरिए की परवाह किए बिना… एक जिद, एक जुनून के साथ अपने एजेंडे, अपनी सोच को, हठात तरीके से लागू करते नजर आए।
सफलता का जाम तो वैसे ही बहुत मादक…बहुत होश उड़ाने वाला होता है। फिर, देश के सबसे बड़े राज्य में ऐसी कल्पनातीत, करिश्माई जीत तो किसी का भी दिमाग खराब कर सकती है। राजनीति के आदिगुरु चाणक्य कहते हैं- शक्ति अपने साथ निरंकुशता लाती है, जबकि शक्ति का मतलब जिम्मेदारी-जवाबदेही होता है। सफलता के घोड़े पर सवार शक्तिशाली भाजपा को इसी बात को लेकर सावधान रहने की जरूरत है। खुले दिमाग से… सही मुद्दों पर सख्त रवैया रहेगा तो वह नोटबंदी की तरह अपने साइडइफेक्ट के साथ भी स्वीकार कर ली जाएगी। लेकिन यदि सोच में… नीयत में खोट होगी, अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश होगी, तो यकीनन लेने के देने पड़ सकते हैं। कामयाबी का घोड़ा कहीं भी मुंह के बल गिरा सकता है।
वास्तव में भाजपा ही नहीं… हर अधिकार संपन्न व्यक्ति या संगठन को यह समझने की जरूरत है कि विचार संक्रामक होते हैं और उत्प्रेरक का काम करते हैं… चीजें आपस में जुड़ी रहती हैं और अदृश्य रूप से एक-दूसरे पर असर डालती हैं। इसीलिए तो योगी सरकार के बूचडख़ाने पर प्रतिबंध के बाद, गुजरात व छत्तीसगढ़ सरकार ने भी सख्त रवैया अपनाया। इसीलिए तो गोधरा की प्रतिक्रिया गुजरात दंगे के रूप में सामने आती हैं। बाबरी विध्वंस का असर सुदूर बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार के रूप में दिखाई पड़ता है।
इसीलिए, अपने हर फैसले के प्रत्यक्ष व परोक्ष परिणामों की चिंता हर नेता का राजधर्म होना चाहिए। सफलता के घोड़े पर मदांध होकर, अतिआत्मविश्वास दिखाकर ज्यादा देर सवारी नहीं की जा सकती… होशपूर्वक, सबको साथ लेकर चलने से… सर्वजन हिताय की भावना से काम करने पर ही इसे काबू किया जा सकता है।

30 March 2017

क्या शराबबंदी होगा रमन सरकार का मास्टरस्ट्रोक?

  छत्तीसगढ़ सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर विपक्ष को ऐसा हथियार दे दिया है, जिसकी गूंज अगले साल यहां होने वाले विधानसभा चुनाव तक रहेगी।  इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह आगामी चुनावों में सबसे प्रमुख मुद्दा बन जाए।
मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित अजीत जोगी की जनता कांग्रेस (जे) ने इस मुद्दे को लपक लिया है और महीने भर से रमन सरकार की नाक में दम किए हुए हैं।
आए दिन शराबबंदी को लेकर धरना-प्रदर्शन, विधानसभा घेराव आदि किए जा रहे हैं। जैसे कभी नरेंद्र मोदी के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर तमाम विपक्षी पार्टियों को एक छत के नीचे लाने की कोशिश हो रही थी, वैसा ही यहां शराब के मुद्दे पर एक हवा, एक लहर बनाने के प्रयास चल रहे हैं और बहुत हद तक इसमें सफलता भी मिल चुकी है।
आमजनता खुलकर इस फैसले के विरोध में है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 416 दुकानों को हाइवे से हटाकर अन्यत्र खोलने की कोशिश कर रही सरकार को बहुत अड़चनें आ रही हैं। कहीं लोग दुकान नहीं खुलने दे रहे हंै, तो कहीं प्रस्तावित दुकानों में तोडफ़ोड़ की जा रही है। हाल में खुले में शौच से मुक्त घोषित अंबिकापुर के बतौली गांव की महिलाओं ने शराब दुकान खुलने पर फिर से खुले में शौच करने का फरमान भी सुना दिया है।
कहा जाता है, चुनाव में जब लहर का जोर रहता है, तब अन्य दूसरे मुद्दे पूरी तरह अप्रासंगिक भी हो जाते हैं। इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए चुनाव में और किसी मुद्दे की प्रासंगिकता नहीं रह गई थी। सहानुभूति लहर पर सवार होकर  राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए थे। इसी तरह का नजारा 80 के दशक में हुए चुनाव में देखने मिला था, जिसमें राम लहर के चलते दूसरे सारे मुद्दे गौण हो गए थे। हाल में हुए यूपी चुनाव में जहां मोदी लहर ने सालों से चले आ रहे सियासी समीकरणों को ध्वस्त कर मिथकों को तोड़ डाला, वहीं सब तरफ पटखनी खा रही कांग्रेस ने सत्ताविरोधी लहर में सवार होकर पंजाब फतह कर लिया।
चुनावी लहरों को ज्वालामुखी के समान माना जा सकता है, जो भीतर-ही-भीतर खौलता रहता है और समय आने पर फूट पड़ता है।  ये लहरें भी आम जनता के भीतर खौलते हुए विचारों को, उसके सामूहिक अवचेतन में घर कर गए धारणाओं को ही प्रगट करती हैं। और मौजूदा समय में शराब को लेकर छत्तीसगढ़ में जैसा माहौल गरमाया हुआ है, उससे तो यही लगता है कि यदि आज चुनाव हो जाएं तो इसके आगे सारे मुद्दे फीके पड़ जाएंगे। बाकी सारी बातों को छोड़, तमाम पार्टी इसी शराब के मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाएंगी। यह मुद्दा ही निर्णायक भूमिका अदा करेगा।
लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनाव अगले साल होने हैं। उस लिहाज से अभी काफी महीने बाकी हैं। अगर राजनीतिक लाभ के नजरिए से देखें तो अभी विपक्ष की जरूरत बहुत दूसरे तरह की होगी। उसे न केवल इस मु्ददे को चुनाव तक जिंदा रखना है, बल्कि एक खास समय तक  विराट जनआंदोलन बनने से भी रोकना है। ऐसा न होने पर, हो सकता है सरकार दबाव में आकर सचमुच शराब बंदी का ऐलान कर दे और एक बेहतरीन मुद्दा हाथ से निकल जाए। तो राजनीतिक फायदे की नीयत से विपक्ष शराब-विरोध के इस अलाव को चुनाव तक मध्यम आंच में ही सुलगाए रखना चाहेगा और ऐन चुनाव के पहले इसे विराट आंदोलन में तब्दील होते देखना चाहेगा। ऐसा होने पर ही वह इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाकर लाभ उठा सकता है।
 शराबबंदी नफा-नुकसान से परे आमजनता की सेहत से जुड़ा सीधा मसला है। भले ही कांग्रेस या जोगी कांग्रेस, राजनीतिक लाभ के इतर, सामाजिक सरोकार के चलते छत्तीसगढ़ में शराब-बिक्री का विरोध कर रहे होंगे, लेकिन उन्हें भी पता है कि आगामी चुनावों में शराबबंदी का मुद्दा केंद्रीय भूमिका निभाने वाला है और इसका उन्हें लाभ भी मिलने वाला है। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में बह रही शराबबंदी की बयार यही इशारा कर रही है कि रमन सरकार के लिए समय के साथ-साथ मुश्किलें और भी बढऩे वाली हैं।
लेकिन अहम बात तो यह है कि जिस बात को हर कोई देख पा रहा है, क्या वह छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को नजर नहीं आ  रहा है? क्या सचमुच मौजूदा सरकार शराबबंदी के मुद्दे की गंभीरता को समझ नहीं पा रही है, या उसे जानबूझकर नजरअंदाज कर रही है? या उसे अपने विकास कार्यों पर ज्यादा भरोसा है और वह उसे लेकर ही आगामी चुनाव में जनता के बीच जाना चाह रही है?  प्रदेश के मुखिया डॉ. रमन सिंह का यह तीसरा टर्म है। जनता की नब्ज पढ़कर ही उन्होंने हैट्रिक मारी है। तकरीबन 13 सालों से वे प्रदेश की बागडोर थाम रहे हैं और गांव-गरीब, से लेकर शहर-अमीर...  सबकी तासीर... सबकी अपेक्षा-आकांक्षाओं से अच्छी तरह परीचित हैं। ऐसे में यह नहीं माना जा सकता कि शराबबंदी जैसे मुद्दे के चुनावी असर से वे अनजान होंगे। मुझे तो लगता है कि वे अभी जानबूझकर विपक्ष को उछल-कूद करने दे रहे हैं। भारत के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की तरह वे भी गेम को आखिरी ओवर तक ले जाना चाह रहे हैं। आखिरी ओवर में ही छक्का मारकर वे मैच जीतना चाहते हैं। बहुत संभव है, ऐन चुनाव के पहले ही वे शराबबंदी की घोषणा करेंगे और इस मुद्दे की हवा निकाल देंगे, विपक्षियों को क्लीन बोल्ड कर देंगे। यही उनका मास्टरस्ट्रोक होगा... उनके सारे विकास कार्यों के इतर...।
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29 March 2017

छत्तीसगढ़ में शराब बिक्री : रमन सरकार का एक स्वागत योग्य फैसला


सरकार का काम होता है, जनता की सेवा करना। आम लोगों का भला हो, ऐसे कार्य करना। और रमन सरकार तो शुरू से ही छत्तीसगढ़ हितैषी रही है, छत्तीसगढिय़ा हित के लिए नए-नए एक्सपेरीमेंट करते रही है। इसी कड़ी में अब उसने एक और पुनीत कार्य हाथ में लिया है... शराब बेचने का।

जी हां, सरकार अब शराब बेचेगी। और यकीन मानिए... यह शराब बेचने का फैसला उसके सेवाभावी स्वभाव की ही नजीर है। यह सेवाभावना ही तो है, जो कोचियों द्वारा अवैध दारू बेचकर लोगों को परेशान करते सुना तो उस पर रोक लगा दी और सुराप्रेमियों को सुविधा देेने खुद ही दारू बेचने लगे। अब पीने वालों को कोई परेशानी नहीं होगी, सही माल, सही रेट में मिलेगा।

वैसे, सरकार को यह सुयोग ऐसे ही हाथ नहीं लगा है। जब से सुप्रीम कोर्ट ने हाइवे से लगी शराब दुकानों पर डंडा डाला है, तभी से कई दारू-ठेकेदारों का मूड ऑफ  हो गया है। वे मद्यपान कराने जैसे आदरणीय कार्य को लेकर इंट्रेस्टेड नहीं रहे। बस फिर क्या था, सरकार ने मौका देख चौका मार दिया। इधर, कोचियों से लोग परेशान तो थे ही थे और उधर, ठेकेदारों के पीछे हटने से सरकार को तगड़े नुकसान की चिंता भी सता रही थी। ...सो लगे हाथ उसने दोनों मामले सलटा लिए,  एक तीर से दो शिकार कर लिया।
...तो अब सरकार शराब बेचेगी... कल्पना कीजिए, कैसा भव्य माहौल होगा... कैसा सुखद नजारा रहेगा...  शराब की दुकानों में बैठे हुए रमन सरकार के नुमाइंदे। जगह-जगह टंगे सरकार के हालमार्का वाले बैनर-पोस्टर। सरकार, शराब और समाजसेवा का बखान करते कुछ स्लोगन...कैसा अद्भुत समां बंधेगा। कसम से... पूरा माहौल सरकारीमय हो जाएगा।
नो डाउट इन दुकानों में दफ्तरी बाबू जैसे कुछ लोग भी होंगे ही। ऐसे लोग... जो काम के बोझ से दबा हूं (और थोड़ा भी लोड डाला तो मर ही जाऊंगा) जैसा शो करने वाले...। ये ग्राहक को बोतल भी देंगे तो एहसान करके... मानो बहुत बिजी हों। वास्तव में ये काम कौड़ी का नहीं करेंगे, लेकिन इनके पास फुरसत मिनटों की भी नहीं रहेगी। हां भीड़ बढऩे पर ये एक्टिव मोड में जरूर आ जाएंगे... कमीशन खाने...सौ की बोतल सवा सौ में बेचने।
वैसे ग्राहकी बढऩे पर सचमुच ही यहां  शिक्षा, स्वास्थ्य, नगर निगम जैसे विभाग के सरकारी कर्मचारी नजर सकते हैं। सरकार इनका उपयोग ले सकती है। चौंकिए मत, इसमें कुछ भी ऑड नहीं है।  वास्तव में, सरकार की नजर में सरकारी कर्मचारी आलराउंडर होते हैं। वास्तव में वह इन्हें अलादीन का जिन्न समझती है। और यह मानकर चलती है कि जिस काम को वे नहीं जानते उसके बारे में भी सब जानते हैं, उस काम को भी अच्छे से कर सकते हैं।  इसीलिए सरकार इनका कहीं भी, कभी भी उपयोग लेते रहती है। जनगणना कराना हो तो ये... पोलियो पर कुछ करना हो तो ये। लोक सुराज समाधान शिविर में भी ड्यूटी इनकी ही लगेगी, चुनाव होगा तो सारे काम भी इनके ही कर कमलों से संपन्न होंगे। कहने का मतलब, मूल काम छोड़कर इन्हें सारे काम करना होता है। और छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसे अलादीन के जिन्न बहुत पसंद आते हैं, इसीलिए तो उसने पूरे 32 विभाग के 60 फीसदी कर्मचारी डेपुटेशन में दूसरे काम में लगा रक्खे हैं।
तो कभी आपको शराब दुकानों में यदि कोई सरकारी कर्मचारी दिखाई पड़ेगा, तो चौंकिएगा मत, बल्कि उसके चेहरे को देखकर अलादीन के जिन्न की कल्पना कीजिएगा।
खैर, मूल विषय पर लौटते हैं, सरकार अभी तो दारू बेच रही है, और हो सकता है, आगे रिस्पांस बढिय़ा मिलने पर (जो कि मिलना ही है) वह दारू बनाना भी शुरू कर दे। तब नेताओं-मंत्रियों को इंडीविज्वल ठेका भी मिलने लगेंगे। तब कुछ दुकानों के नाम ऐसे भी हो सकते हैं-  रमन स्कॉच सेंटर, अमर पक्की वाला... राजेश का देसी ठर्र्रा... मोहन की चिल्ड बियर। लगे हाथ पर्सनल ब्रांडिंग भी होती चली जाएगी।
शराब बिक्री का मामला रमन सरकार के लिए हर लिहाज से फायदे का सौदा है, बस एक छोटी-सी नैतिक अड़चन है। वो यह कि सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कभी दारूबंदी का जिक्र किया था। लेकिन डोंट माइंड.... घोषणा पत्र की कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? भाजपा या रमन सरकार ही नहीं... किसी भी दल, किसी भी पार्टी के घोषणापत्र को देखिए....  सब में ठन-ठन गोपाल... जनता के हाथ बाबा जी का ठुल्लू ही हाथ आता है।  वास्तव में झूठ तो राजनीति का सद्गुण है। इसके बिना तो काम ही नहीं चल सकता।
घोषणापत्र वाला मामला बहुत बड़ा इशु नहीं है। सरकार को बिना किसी गिल्टी के बिंदास  धंधा करना चाहिए। दारू बेचकर राजस्व बढ़ाने, घाटा कवर करने पर फोकस करना चाहिए। किसी की सेहत की नैतिक जिम्मेदारी उसकी थोड़े ही है... जिसको मरना है मरे... उसका लक्ष्य तो पैसे कमाना ही होना चाहिए। यदि शराब बेचकर भी राजस्व वृद्धि उसके मन मुताबिक न हो तो तंबाकू, अफीम, चरस, हेरोइन का ऑप्शन भी खुला है। उसमें भी हाथ आजमाया जा सकता है। और ये भी कम पड़े तो और दूसरे भी इसी तरह के स्वनाम धन्य धंधे हैं।
पर लगता है, शायद उन सबकी जरूरत नहीं पड़ेगी, दारू बेचने भर से बात बन जाएगी।  इतना कॉन्फिडेंस इसलिए है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में दारूखोरी का बैरोमीटर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। छत्तीसगढिय़ा लोगों का सुरा-प्रेम काबिले-रश्क है। वे खाने में कंप्रोमाइज कर सकते हैं, लेकिन पीने में बिलकुल नहीं। घर में चार दिन चूल्हा न जले, कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन दो दिन दारू न मिले,  तो वे आसमान सर पर उठा लेंगे, भूचाल ले आएंगे।  उनकी इसी लगन के चलते तो आबकारी विभाग वाले खूब चांदी काट रहे हैं। आंकड़े बताते हैं, राज्य  स्थापना के समय आबकारी से 32.16 करोड़ का राजस्व मिला था जो 16 साल में बढ़कर 3347.54 करोड़ का हो गया है।
छत्तीसगढिय़ों के इतना शराब-प्रेम की वजह जरा दार्शनिक टाइप की है। दरअसल, यहां लोग यथार्थ की समस्याओं को कल्पना के धरातल से हल करने पर यकीन करते हंै। और इस थ्योरिटकल जैसे व्यावहारिक कृत्य को करने में उन्हें दारू से बड़ी हेल्प मिलती है। और चूंकि वे ज्यादा यर्थाथवादी होते हैं, इसीलिए उन्हें समस्याएं भी ज्यादा आती हैं, इसीलिए वे सोमरस की भी ज्यादा हेल्प लेते हैं।
तो सरकार को रेवेन्यू बढ़ाने वाले नेक इरादे में निराशा हाथ लगने की संभावना नगण्य है। हां, टारगेट से थोड़ा-बहुत उन्नीस-बीस भले हो सकता है। पर उसका भी टेंशन नहीं,  जिम्मेदार शहरी मदद के लिए आगे आ जाएंगे। जो दारू नहीं पीते हैं वे भी दरूए बन जाएंगे... वे भी ज्यादा-से-ज्यादा दारू खरीदकर पीएंगे, सरकार का खजाना बढ़ाने में मदद करेंगे।
आप सोचिए तो सही, रमन सरकार ज्यादा पैसे क्यों कमाना चाह रही है? क्या उसे अपने लिए कुछ चाहिए?  बिलकुल नहीं जनाब। एक बात जान लीजिए, नेता होने का मतलब ही है, परहित अभिलाषी। ये अपने लिए कुछ नहीं करते, इनके हर कार्य में दूसरे के हित की सदइच्छा ही छुपी होती है। यदि ये घोटाला भी करते हैं तो रॉबिनहुड स्टाइल में समाज की सेवा करने... लूट, हत्या, डकैती में भी फंसते हैं, तो धर्म, न्याय जैसे उच्च आदर्शों को बनाए रखने। और कई मर्तबा जब उनके भीतर सेवा भावना प्रबल हो जाती है, बहुत जोर मारने लगती है, तो वे दवा देने के लिए पहले दर्द दे देते हैं। मदद करने के लिए पहले छीन लेते हैं। भला करने के लिए पहले बुरा कर देते हैं। संक्षेप में, उनका पूरा जीवन ही परोपकार को समर्पित रहता है और इसे पूरा करने वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।  और मुझे पूरा यकीन है, रमन सरकार भी पूरी तरह परोपकार के लिए समर्पित है और इसे पूरा करने किसी भी हद तक जा सकती है। इसीलिए पहले वह दारू बेचकर लोगों से पैसे वसूलेगी और बाद में उनके ही पैसों को उनके ही भले के लिए इस्तेमाल करेगी।
फिर दोहराता हूं, रमन सरकार को बिना किसी गिला के... बिना किसी अपराधबोध के इस परोपकारी कृत्य को करना चाहिए। कोई इस काम को अगर गंदा कहे तो उसे बिलकुल माइंड नहीं करना चाहिए। भारत जैसे आध्यात्मिक देश में न कोई काम छोटा होता है, न कोई काम गंदा होता है। यही हमारे हजारों सालों के चिंतन का निचोड़ रहा है। वैसे भी जब धंधा करने उतर आए तो क्या सही, क्या गलत, बनियागीरी में कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता।
वैसे मुझे लगता है, इस फैसले में तो रमन सरकार को हाईकमान का भी समर्थन मिल रहा होगा।  देखिए, भाजपा को तो बनियों की सरकार कहा ही जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार के यूं धंधा करने से पार्टी की पारंपरिक छवि ही मजबूत हो रही है, लिहाजा इसके लिए तो सीएम एंड कंपनी को तो जमकर शाबासी मिली होगी। हाईकमान ने ऐसी आला दर्जे की क्रिएटिविटी के लिए खूब पीठ थपथपाई होगी।
यकीनन, रमन सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर बहुत ऊंचा ओहदा हासिल कर लिया है। पर जाने क्यों कुछ तथाकथित समाजसेवी और कांग्रेसी इस पुण्य कार्य का विरोध कर रहे हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि खुद सरकार के कुछ मंंत्री भी सरकार की फीलिंग्स नहीं समझ पा रहे हंै। पर आप तो जानते ही हैं, सत्य के कई पहलू होते हैं और जैसी हमारी धारणा होती है, वैसी ही चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। कहते हैं, हनुमान जी को गुस्से में होने के कारण अशोक वाटिका में लाल फूल दिखे थे, जबकि वास्तव में फूल सफेद थे। वैसा ही हाल शराब-बिक्री का विरोध करने वालों का भी है। उन्हें निगेटिव देखना है, इसीलिए निगेटिविटी दिखाई पड़ रही है। खैर, जाकी रही भावना जैसी...।
पर शुक्र है भगवान का.... सही काम की कदर होती ही है। वो कहते भी हैं ना... अच्छाई ट्रैवल करती है, उसे कोई रोक नहीं सकता। तो विरोधियों के लाख हाय-तौबा मचाने के बाद भी रमन सरकार के हालिया फैसले से इंप्रेस होने वालों की कमी नहीं है। हाल ही में छत्तीसगढ़ से प्रेरित होकर झारखंड की सरकार ने भी शराब बेचने का फैसला कर लिया है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि आगे और भी राज्य प्रेरणा लेते रहेंगे। मुझे तो यहां तक यकीन है कि शराबबंदी लागू करने वाली बिहार व गुजरात की सरकार भी आत्मग्लानि से भर उठेगी और न केवल शराबबंदी का फैसला वापस लेगी, बल्कि वह खुद भी शराब बेचने लगेगी। उनके आत्मनिरीक्षण से भी यही निष्कर्ष निकलेगा कि कहां वे महात्मा गांधी के विचारों को अपनाए हुए थे और जबरन शराब बेचने जैसा आदरणीय कार्य करने से बच रहे थे।
कोई माने या न माने, लेकिन हकीकत यही है।  दारू बेचने का रमन सरकार का फैसला बहुत क्रांतिकारी, बहुत स्वागतयोग्य है। और जैसा कि हर अच्छे फैसले के साथ होता है... उसे लागू करने में कठिनाई आती है, उसकी राह में कांटे बोए जाते हैं। लोग उसके महत्व को, उसके समाज हितैषी दूरगामी प्रभाव को देख-समझ नहीं पाते हैं। वैसा ही इस फैसले के साथ भी हो रहा है। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि रमन सरकार को हर मुश्किल का डटकर सामना करना चाहिए। सारे दबाव के बावजूद शराब बेचने के यशवर्धक कार्य से कदम वापस नहीं खींचना चाहिए।  और शराब बंदी की तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। ... इसके विपरीत उसे अपनी ग्राहकी बढ़ाने के लिए मार्केटिंग स्ट्रेटेजी पर काम करना चाहिए। जैसे उसने चावल और नमक में सब्सिडी दी है। वैसे ही उसे शराब के कुछ ब्रांड में भी छूट दे देनी चाहिए। ऑनलाइन कंपनियों की तरह ग्राहकों को लुभाने, फेस्टिवल ऑफर जैसी नई-नई स्कीम लानी चाहिए, डोर-टू-डोर कैंपेन चलाने चाहिए। इसके अलावा, सरकारी कर्मचारियों, गरीबी रेखा से नीचे वालों, आरक्षण प्राप्त जातियों व वृद्ध, नि:शक्त, निराश्रित जनों के लिए भी छूट का प्रावधान कर देना चाहिए। इससे न केवल उसकी कमाई बढ़ेगी, बल्कि लोकप्रियता में भी चार चांद लगते चले जाएंगे।
और यही तो वह चाहती भी है ... सारी कवायद भी तो इसी के लिए है ना...

15 March 2017

क्या सचमुच है देश में मोदी की सुनामी?

यूपी, उत्तराखंड में भाजपा की धमाकेदार जीत पर टीवी चैनल से लेकर प्रिंट मीडिया सबमें एक ही बात कही जा रही है… मोदी की वजह से ही शानदार जीत मिली… मोदी की सुनामी चल रही है।
मोदी निश्चित ही करिश्माई नेता हैं, उन्होंने इन चुनावों में बहुत मेहनत भी की है। लेकिन क्या महज मोदी फैक्टर ही यूपी-उत्तराखंड में भाजपा की प्रचंड जीत के पीछे है? क्या सचमुच देश में मोदी-लहर चल रही है? मोदी की नीतियों नोटबंदी आदि जैसे कृत्यों को आम जनता का समर्थन है। ये चुनाव नतीजे क्या सचमुच मोदी की नीतियों के प्रति जनादेश है?
अगर हम ठीक से देखें तो हमें मालूम पड़ेगा… शायद ऐसा नही हैं। अगर वास्तव में मोदी-लहर होती तो वह पंजाब, गोवा व मणिपुर के चुनावों में भी दिखाई पड़ती। लेकिन इनमें से किसी में करारी हार, किसी में कांटे की टक्कर, किसी में संघर्षपूर्ण जीत मिली है। इससे यही जाहिर होता है कि लोकल इशुज व अन्य दूसरे समीकरण का राज्यवार अपना असर रहा है, वही केंद्र पर रहे हैं। बेशक, मोदी फैक्टर का भी अपना रोल, अपनी भूमिका रही है, लेकिन वह सोने पर सुहागा जैसी है। जिन राज्यों में एंटी इन्कंबंसी थी, दीगर लोकल इशुज थे, भाजपा के अनुकूल चीजें थीं… वहां मोदी फैक्टर ने मिलकर करिश्माई असर दिखा दिया, लेकिन जहां भाजपा के लिए अनुकूलता न थी, वहां चमत्कार नहीं हो पाया।
कुछ ऐसा ही पिछले लोकसभा चुनावों में भी हुआ था। इसमें मिली भाजपा की प्रचंड जीत को भी मोदी का करिश्मा कहा गया था, जबकि ऐसा नहीं था। मुझे लगता है, यदि मनमोहन सरकार को लेकर जबरदस्त निगेटिव, निराशाजनक माहौल नहीं होता, सत्ता विरोधी लहर न होती… तो तथाकथित मोदी लहर नहीं चल पाती, भाजपा को वैसी धुआंधार जीत नहीं मिल पाती। उस समय भाजपा को मिली प्रचंड जीत में मनमोहन सरकार को लेकर चल रही सत्ता विरोधी लहर का भी अहम योगदान था। बेशक, यदि मोदी न होते तो वैसी करिश्माई जीत नहीं मिल पाती, लेकिन वैसी सत्ता विरोधी लहर नहीं होती, तो शायद वह तथाकथित मोदी लहर भी चल नहीं पाती। सत्ता विरोधी लहर के साथ मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने सोने पे सुहागा का काम किया था… यूपी, उत्तराखंड के हालिया विधानसभा चुनावों की तरह ही।
यह सही है कि वास्तव में जनता के मन में क्या चल रहा है… उसे कौन से इशु क्लिक करेंगे… उसे समझना कठिन होता है। यह बिलकुल अगणितीय होता है, इसके पीछे कोई तार्किक नियम काम नहीं करते। यह भी सही है कि विधानसभा चुनाव में नेशनल इशु भी अनेक मर्तबा निर्णायक रोल निभाते देखे गए हैं। लेकिन सामान्यत: यही होता है कि लोकल चुनावों में लोकल इशु ही काम करते हैं। नेशनल लेबल का जब तक कोई बहुत बड़ा मुद्दा न हो, तब तक उनका क्षेत्रीय चुनावों में असर नहीं पड़ता है।
इसीलिए इन चुनावों को मोदी की नीतियों के प्रति समर्थन या मोदी लहर के तौर पर देखना शायद ठीक न होगा। यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा पंजाब में हुए इन विधानसभा चुनावों में मोदी फैक्टर के इतर अन्य मुद्दे भी अहम रहे हैं, जिनका नतीजों में अपना अहम योगदान रहा है। राजनीतिक पंडित भले ही इन्हें नजरअंदाज करें या न देखना पसंद करें, लेकिन हकीकत यही है।

01 March 2017

"व्यंग्य : अफरीदी तुम संन्यास कैसे ले सकते हो?"

आपने सुना! च्साहिबजादाज् ने फिर संन्यास ले लिया है। नहीं पहचान रहे... अरे! अफरीदी... अपना शाहिद अफरीदी... उसकी बात कर रहा हूं... ये उसका ही ऑफिशियल नाम है। कैसा फील आ रहा है... मिजाज से मेल खाता है ना?  खैर, अपने बब्बा ने फिर बल्ला टांग दिया है। अरे! आप तो हंसने लगे... प्लीज हंसिए मत.... शुरू में मैं भी हंसा था। लेकिन जब देखा कि ब्रेकिंग न्यूज चल रही है- च्इस बार का संन्यास पूरा सच्चा वाला है... हंड्रेड परसेंट डेफिनिट...ज् तब मेरी हंसी गुम हो गई थी। मुझे यकीन नहीं हो पा रहा था,  ऐसा कैसे हो गया? ऐसा कैसे हो सकता है? हमारा च्स्वीट सिक्सटीनज्, च्डटीज़् सिक्स्टीज् कैसे बन सकता है? वह पक्का वादा कैसे कर सकता है? वह इतना बूढ़ा, यानी मैच्योर तो कभी न था... बल्कि उसके लटके-झटके, उसके कारनामों से तो यही लगता था कि उसका बचपना गया ही नहीं है... और कभी जाएगा भी नहीं। 
लेकिन जब बार-बार दोहराया जाने लगा कि च्वह मैच्योर हो गया है, मैच्योर हो गया है...ज् तो थोड़ा यकींन आने लगा। वो कहते हैं ना झूठ को बार-बार कहने से वो सच हो जाता है। तो इसलिए अब मुझे भी लग रहा है हमारा सदाबहार सिकंदर... चिरयुवा

कलंदर सचमुच बूढ़ा (मैच्योर) हो गया है। और इसके बाद मुझे अब मैच्योरिटी पर गुस्सा आ रहा है। ये भी साली बड़ी ऊटपटांग चीज है, कभी-भी किसी को आ जाती है... इसके चक्कर में ही व्यक्ति अनाप-शनाप फैसले ले लेता है। और इसका उम्र से तो कोई कनेक्शन ही नहीं होना चाहिए। अब देखिए ना... लोग-बाग यही कह रहे हैं, अपना साहिबा इसी उम्र के प्रेशर में आ गया है। वह 36 का हो गया है, इसीलिए उसने सच्चा वाला संन्यास लिया है। 
अब मेरे लिए यह दूसरा झटका है... पहला तो उसकी मैच्योरिटी और दूसरा उसकी उमर। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा है कि अपना छोटा चेतन सीधे 36 का कैसे हो गया है? अब तक तो न उसे युवा होते सुना था न अधेड़। मुझे तो यही लगता था कि वे हमेशा 16-17 साल के लौंडे-लपाटे ही रहेंगे, ता-उम्र मैदान में लोलो-लपाटा करते नजर आएंगे। 
अब आप ऐसा मत सोचिए कि मैं कोई उनका अंतरंग साथी हूं और उनके अंदरूनी शारीरिक बदलावों को करीब से देखता रहता हूं, इसलिए मुझे ऐसा लग रहा है। अपनी कल्पनाशक्ति को जरा नैतिकता के दायरे में ही उड़ान भरने दें। बात असल में यूं है कि  96-97 में जब उन्होंने डेब्यू किया था, तब भी उनकी उम्र 16 साल ही थी और बाद के सालों में जब भी उमर का मसला खड़ा होता तो वे अंडर-16 ही कहे जाते थे। इसीलिए मेरी बुद्धि ने (पूरी तरह साजिशन) मान लिया था कि वे कभी च्बड़ेज् ही नहीं होंगे...  वे सुकुमार हैं, नौनिहाल हैं, कभी बूढ़े ही नहीं होंगे। वास्तव में अपन तो यही माने बैठे थे वे जनाना हैं... मेरा मतलब जनानियों की तरह हैं... यानी उनकी उम्र ठहरी ही रहेगी। 
अब महिलाओं को तो आप जानते ही हैं...उनकी भी उम्र कभी बढ़ती ही नहीं है। वे भी अपने को चिर युवा, सदा जवान मानती हैं। 50 के पेटे पर भले ही पहुंच जाएं, लेकिन होड़ लेने की बात हो तो मुकाबला किसी षोडशी से ही करती हैं। इसीलिए तो कोमलांगियों से उम्र पूछने का रिवाज नहीं है... बल्कि ऐसा करना तो गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन विडंबना देखिए, हमारे वंडर बाय की तो कोई वैल्यू ही नहीं समझी जाती थी। कुछ लोग उनकी उम्र पर भी लाल स्याही लगाते थे। और यह  गुनाह-ए-लज्जत करने वाले कौन... अपने ही पाले वाले...बिरादरी भाई... वही आदमी जात... वही पुरुष पत्रकार...। अरे कमबख्तों.... तुम्हें तो गर्व  करना था कि पुरुष समाज के पास भी महिलाओं को टक्कर देने वाला एक नगीना है... ऐसा नगीना जो पूरी महिला बिरादरी से अकेले लोहा लेता है। पर नाशुक्रे ऐसे नायाब हीरे की कदर ही नहीं करते थे।
खैर, पाकिस्तान के पास यदि अफरीदी जैसा अजूबा है तो हिंदुस्तान के पास भी अपना कोहिनूर है। हिंदुस्तानियों को गिल्टी फील करने की, अंडर स्टीमेट होने की बिलकुल जरूरत नहीं है। अगर उधर कोई चिरयुवा है तो इधर हमारे पास भी युवराज है। 42 साल का युवराज... अपना राहुल बाबा। दस-बारह साल पहले भी वे युवराज थे... आज भी युवराज ही कहे जाते हैं, और 52 के भी हो जाएंगे, तब भी शायद प्रिंस ही माने जाएंगे। इस ऐंगल से तो अपने राहुल भी अफरीदी की तरह चिरयुवा ही हैं।  और हो सकता है वे भी युवा रहते हुए सीधे बूढ़े हो जाएं,  यानी रिटायर हो जाएं, यानी कोई काम न करें। 
पर लगता है, ऐसा शायद  कभी नहीं होगा।  दरअसल, वे जिस पेशे से आते हैं, उसमें कोई रिटायर ही नहीं होता है। कब्र में पांव लटकने वालों की महत्वाकांक्षा भी सातवें आसमान तक उड़ान भरती है। यकीन मानिए, राजनीति सदा सुहागन रहती है... इसमें जब चाहे चौका मार सकते हैं। हमारे आडवाणी जी और तिवारी जी को ही लीजिए.... उन्हें देखकर क्या आपको नहीं लगता कि अब भी वे कुछ कर गुजरने में ही लगे हैं। और जब ऐसे धाकड़ जमे हुए हैं तो अपने बाबा तो अभी यंग हैं और कुछ लोग तो उन्हें युवा भी नहीं मानते... बच्चा समझते हैं और प्यार से पप्पू बुलाते हैं। उनकी पार्टी की ही शीलाजी समझती हैं कि उनकी उमर कम है... उनमें मैच्योरिटी (फिर वही मैच्योरिटी) आना बाकी है। ...तो इसलिए राहुल के रिटायरमेंट का सवाल ही पैदा नहीं होता, बल्कि ऐसा सोचना भी पाप होगा... उसी तरह जैसे किसी महिला से उसकी उमर पूछना। तो यह तय रहा, राहुल ना तो जवानी से रिटायर होंगे और न ही राजनीति से। वे कुछ-न-कुछ तो करेंगे ही... और कुछ नहीं तो मार्गदर्शक मंडल से मार्ग बताने का ही काम करेंगे। 
वैसे, बात अगर रिटायरमेंट की ही है तो डाउट तो अपने साहिबजादे के मामले में भी है... उसके पक्के वाले वादे के बाद भी। नहीं, मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा हूं कि राजनीति की तरह क्रिकेट में भी आखिर तक च्चौके-छक्केज् मारे जा सकते हैं। यकीनन, क्रिकेट राजनीति जैसी नहीं है, यहां सब टाइम-टू-टाइम होता है... रिटायरमेंट भी। पर यह मामला थोड़ा अलग है। यह मामला सरहद पार का है और आप तो जानते ही हैं, वहां कुछ भी हो जाता है...  किसी का कोई माई-बाप नहीं है। वहां तो खेल में भी सियासत घुसी है और सियासत में बड़े-बड़े खेल हो जाते हैं। राजनीति को खेल समझ लिया जाता है और खेल में राजनीति हो जाती है। एक्च्युअल में वहां सियासत वाले खिलाडिय़ों से प्रेरणा लेते हैं और खिलाड़ी राजनीतिज्ञों को रोल मॉडल मानते हैं। इसीलिए वहां के सियासतदार कभी-भी, किसी का भी खेल कर देते हैं। खेल-खेल में जेल भिजवा देते हैं, खेल-खेल में तख्ता पलट देते हैं। पूरी खिलाड़ी भावना से एक-दूसरे का गेम बजाने में लगे रहते हैं।  
और जहां तक खेल में सियासत की बात... वहां भी पड़ोसियों को वाकओवर मिला हुआ है।  वहां कोई भी खिलाड़ी खुद को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से कम नहीं समझता। हर खिलाड़ी खुद में खुदा है, जिससे खुजाए (पंगा लिए) उसी से निबटे। इसीलिए तो कभी वसीम-वकार जैसे सीनियर आपस में भिड़ते रहते हैं,  तो कभी रमीज-युसुफ में ठनती रहती है। पाकिस्तानी क्रिकेट में पॉलिटिक्स का आलम यह है कि सारे कप्तान हटने के लिए ही बनते हैं। इधर बने नहीं, उधर हटे। अब क्या करें... अनऑफिशियली तो पूरे 11 के 11 खुद ही कप्तान हैं, फिर ऑफिशियली किसी को कैसे हजम कर लें? अच्छा, इस मामले में  पीसीबी का भी कंसेप्ट क्लीयर है, वह भी केवल खिलाडिय़ों की प्रोफाइल मजबूत करने ही कप्तान बनाता है। उसे टीम के भले से कोई लेना-देना नहीं है.. टीम की ऐसी की तैसी... टीम जाए चूल्हे में। 
पड़ोसियों की खेल और राजनीति की इस जुगलबंदी को देखकर ही लगता है कि वहां राजनीतिज्ञ परमानेंट रिटायर हो सकता है और खिलाड़ी आजीवन खेलता दिख सकता है। यहां तक कि रिटायरमेंट भी खेल का हिस्सा हो सकता है। आप इमरान सहित कई खिलाडियों को तो जानते ही हैं, जो जब मूड आया रिटायर हुए और जब मूड बना फिर खेलने भिड़ गए। खुद अफरीदी को ही देखिए, अपना वस्ताद 2006 से अब तक आधा दर्जन बार रिटायर हो चुका है। 
जब खिलाड़ी से लेकर टीम का ऐसा ट्रैक रिकॉर्ड है, तो इस सच्चे वाले संन्यास पर भी डाउट आता है। यह भरोसा जगता है कि अपना बब्बा फिर बल्ला थामेगा... रिटायरमेंट केंसिल करेगा। और वो जो उमर का प्रेशर वाली बात है ना... इस पर तो आप जाइए ही मत। ये 36 वाला... मैच्योरिटी वाला मामला तो मेरे को शुरू से ही नहीं जम रहा है। मुझे तो लगता है अफरीदी का या तो बीवी से झगड़ा हुआ है या घरवालों से किसी बात पर ठनी है। उसी के चलते उसने उधर फायर करने की बजाय, इधर फायर कर दिया है।  उसने झूठ-मूठ ही अपनी उमर 36 बताकर परमानेंट संन्यास का एलान कर दिया है। मुझे तो पूरा भरोसा है... जिस दिन भी मांडवली होगी... अपना चिरयुवा सिकंदर फिर से मैदान में बचपना दिखाने.. बचकानी हरकत करने पहुंच जाएगा। वो सच का खुलासा करेगा कि वो 36 का नहीं बल्कि 16-17 का स्वीट सिक्सटीन ही है.. भावनाओं में बहकर उसने उम्र गलत बताई थी।
 यकीं मानिये ऐसा ही कुछ होगा...  अफरीदी का संन्यास स्थायी है लेकिन घोषणा अस्थायी...
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21 February 2017

मोदी और कोहली : पोस्टर ब्वॉय से ब्रांड एंबेसडर तक...


साल भर पहले देश भर में असहिष्णुता ( इनटोलरेंस) का मुद्दा गरमाया हुआ था। उस दौरान प्रधानमंत्री मोदी सबके निशाने पर थे। उन दिनों इस बात की बड़ी चर्चा थी कि मोदी सरकार पत्रकारों को टारगेट कर रही है...  ऐसे पत्रकारों को जो उनके विरोधी हैं, उनसे असहमति जताते हैं।  कहा जा रहा था, समर्थक, विरोधी और मध्यमार्गी पत्रकारों (ऐसे पत्रकार जो कभी तारीफ करते तो कभी विरोध करते हैं) की बाकायदा लिस्ट बनाई गई है।  कुछ खास लोगों को मध्यमार्गी पत्रकारों को समर्थक खेमे में लाने का जिम्मा सौंपा गया है और जो पक्ष में आने को तैयार नहीं हैं उन्हें विरोधी खेमे में डालकर उन्हें उनकी जगह बताने, च्ठिकाने लगानेज् की योजना है।
हो सकता है ये बातें कोरी अफवाह हों, लेकिन अमूमन यही देखने में आता है कि व्यक्ति जितना ज्यादा सफल होता जाता है, उसके लिए आलोचना या असहमति उतनी ही असहनीय हो जाती है। बिरले ही होते हैं, जो विरोध या आलोचना की कड़वी घुट्टी को बिना किसी पूर्वग्रह के, दुर्भावनापूर्ण माने बिना पी लेते हैं। प्राय: यही होता है कि व्यक्ति के अंदर सफलता के अनुपात में तानाशाही प्रवृत्ति बढऩे लगती है। वह अपने आसपास असहमति जताने वालों को खारिज करना चाहता है, उसे यसमैन पसंद आते हैं। इसे सफलता का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। और इस साइड इफेक्ट के शिकार संभवत: एक और शिखर-पुरुष हो रहे हैं....भारतीय क्रिकेट के दैदीप्यमान नक्षत्र विराट कोहली।
 कोहली आज शाहरुख खान के बाद हिंदुस्तान के दूसरे सबसे महंगे सेलेब बन गए हैं। वे लगातार सफलता की नई-नई मीनारों पर चढ़ते जा रहे हैं, नए-नए शिखर चूमते जा रहे हैं।  लेकिन उन्हें भी आलोचना करने वाले फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। पिछले दिनों एक बंगाली अखबार ने दावा किया कि कॉमेंट्रेटर हर्षा भोगले को विराट कोहली और मुरली विजय की नाराजगी भारी पड़ी थी, इसी के चलते उन्हें कॉमेंट्री से हटाया गया था।
आपको याद ही होगा 2016 वल्र्ड टी-20 में हर्षा की भारतीय क्रिकेटरों पर टिप्पणी से खासा बवाल मचा था। भोगले ने भारत-बांग्लादेश मैच के दौरान कोहली के 7 रन बनाने पर कहा था- च्उन्होंने रन बनाने से ज्यादा शॉट खेल दिए हैं।ज् इस पर विराट नाराज हुए थे। अखबार के मुताबिक, कोहली को जब भोगले के कमेंट्स के बारे में पता चला था तो उन्होंने पूछ लिया कि ऐसे कमेंट क्यों किए। इस पर भोगले ने कोहली को समझाने का प्रयास भी किया और वॉट्सएप पर भी सफाई दी, लेकिन कोहली शांत नहीं हुए। भोगले की टिप्पणी को दिग्गज फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन ने भी गलत मानते हुए ट्वीट किए थे, जिसे बाद में कप्तान धोनी ने रिट्वीट कर दिया था। पूरे मामले का समापन हर्षा की छुट्टी से हुआ था। उस सीरीज के बाद स्टार स्पोट्र्स ने उनसे करार खत्म कर दिया था।
यकीनन, कोहली ने भोगले को हटवाने कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किया होगा, उन्हें दबाव डालकर नहीं हटवाया होगा। लेकिन अहम बात तो यह है कि वे अपनी आलोचना पर इतने नाराज... असहनशील क्यों हुए? भोगले ने ऐसा क्या कह दिया जो नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था? और यदि गलत था भी तो क्या उसे नजरअंदाज कर बड़प्पन नहीं दिखाया जा सकता था? परोक्ष रूप से ही सही, लेकिन कोहली व टीम इंडिया को भोगले के निर्वासन के लिए जिम्मेदार माना जाएगा... उनके लिए इस लांछन से बचना मुश्किल होगा।  यही समझा जाएगा कि कोहली-बिग्रेड आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाती, उसने हर्षा को ठिकाने लगा दिया।
इस मामले का एक पहलू और भी है। स्टार ने भले ही विवाद टालने की गरज से अनुबंध खत्म किया हो।  लेकिन मानने वाले यही मानेंगे कि स्टार ने गलत परंपरा को ही आगे बढ़ाया है। उगते सूरज को सलाम किया, दबंगों की नाराजगी मोल लेना पसंद नहीं किया। इस पूरे मामले में सबसे घातक बात भी यही है।  दरअसल, हर्षा को जिस कारण से हटाया गया है, उसके बाद...  इसी बात की संभावना ज्यादा है कि निष्पक्ष आलोचना से लोग बचने लगेंगे... डरेंगे। चरण वंदना...  झूठी तारीफ करने वाले चारण-भाटों  को बढ़ावा मिलने लगेगा। व्यक्ति पूजा महत्वपूर्ण हो जाएगी, तानाशाही प्रवृत्ति सर उठाने लगेगी।
वास्तव में, जस्बाती होकर तुरत-फुरत फैसले लिया जाना ही गलत था। अगर भोगले को हटाना जरूरी भी था, तो बाद में... मामला ठंडा पडऩे पर, खिलाडिय़ों व भोगले के बीच सुलह करा... गैप खत्म कराकर वापसी करवाई जानी थी। क्रिकेट के अन्य दिग्गज खिलाडिय़ों को भी बेहतर संवाद के लिए प्रयास करने थे। खुद कोहली को बड़ा दिल दिखाना था... आलोचना को पाजीटिव लेना था। उन्हें यह सोचना था कि भोगले ने क्या जानबूझकर, इंटेशनली उन्हें नीचा दिखाने टिप्पणी की है? यकीनन, ऐसा हरगिज नहीं रहा होगा। और अगर ऐसा भी होगा, तो बजाय आलोचना को कान देने के च्हाथी चले बाजार....ज् वाली फिलासफी को अमल में लाकर अपना बीपी हाई नहीं करना था।
सच तो यह है भोगले ने ऐसा कुछ गलत नहीं कहा था, जिस पर इतना बवाल मचना था। क्योंकि उन्होंने थोड़ा क्रूर, सपाट तरीके से कमियों पर टिप्पणी की थी, इसलिए अमिताभ बच्चन जैसे क्रिकेट प्रेमियों को अखर गया था और उन्होंने बजाय नतीजे या खिलाडिय़ों की कमियों पर ऊंगली उठाने के... उनकी मेहनत पर ध्यान देने की जरूरत बताई थी। खिलाडिय़ों से प्यार करने वाले प्रशंसक ऐसे ही होते हैं, उन्हें अपने आइकॉन में कमियां नहीं दिख पाती हैं। लेकिन कुछ कबीर-परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लोग भी होते हैं, जो कमियों पर बात करते हैं। हर्षा भोगले, शोभा डे ऐसे ही लोग हैं। अपनी इस आदत की वजह से वे निशाने पर भी आते हैं, सोशल मीडिया पर भी जमकर ट्रोल होते हैं।
 लेकिन आलोचकों, निंदकों का अपना महत्व होता है, जिसे खारिज नहीं किया जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की तरह ही, असहमति की आजादी भी मूलभूत अधिकार है। उसकी की भी जगह होनी चाहिए। कोहली-ब्रिगेड को याद रखना चाहिए कि उनके पूवर्वती सचिन-सौरव के खेल पर भी टीका-टिप्पणी होती थी, लेकिन वे कभी अपने आलोचकों पर नाराज नहीं होते थे।
एक बात और...
मोदी व कोहली आज भले ही अपने दल व टीम के च्पोस्टर-ब्वॉयज् हैं... उनका सक्सेस रेट भले ही अपने सीनियर अटल-सचिन से ज्यादा है, लेकिन दिलों पर राज करने के मामले में ये उनसे पीछे ही हैं। ये दिग्गज (अटल-सचिन) अपने दल-टीम से बहुत ऊपर ... राजनीति-क्रिकेट के एंबेसडर माने जाते हैं, विरोधियों का भी प्यार, सम्मान इन्हें हासिल है। यह मुकाम सह्रदयता से... सबको साथ लेकर चलने से आता है। आज के पोस्टर ब्वॉयों को याद रखना चाहिए कि हर सफल व्यक्ति महान नहीं होता... सच्ची महानता तो दिलों पर राज करती है।
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27 October 2016

डोनाल्ड ट्रंप : भारत के कितने दूर... कितने पास


च्राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर में पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन में जमकर प्रदर्शन हुए। यह प्रदर्शन उसी च्हिंदू सेनाज् ने किया था, जिसने 14 जून को ट्रंप के जन्मदिन पर 7 किलो का बड़ा केक काटा था। प्रदर्शन के दौरान, इसके कार्यकर्ता ट्रंप के पक्ष में नारे लगा रहे थे। उन्हें मानवता का रक्षक बता रहे थे।ज्
रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी ट्रंप के मुस्लिम विरोधी बयानों ने एक तरफ जहां उन्हें विवादित किया है, वहीं दूसरी ओर, उनकी लोकप्रियता गैर मुस्लिम देशों में बढ़ा भी दी है। और हिंदु व हिंदुस्तान की तारीफ करने के बाद, तो उनके फैन क्लब में कट्टरपंथियों के साथ-साथ अनेक भारतीय व भारतवंशी (अमेरिका में रहने वाले) भी शामिल हो गए हैं।  ट्रंप ने भारत की शान में खूब कसीदे पढ़े हैं। वे कहते हैं- 'मैं हिंदू और भारत का प्रशंसक हूं, अगर मैं चुना जाता हूं तो हिंदू समुदाय को व्हाइट हाउस में सच्चा दोस्त मिल जाएगा। हम आतंकवाद के खिलाफ  लड़ाई में भारत का साथ देंगे, सैन्य सहयोग भी मजबूत करेंगे।Ó

ट्रंप के ऐसे विचारों से अभिभूत अनेक भारतीय व च्हिंदू सेनाज् जैसे संगठन चाहते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी के इस उम्मीदवार को अमेरिका का राष्ट्रपति बनना चाहिए। तो क्या भारत हितैषी होने भर से ट्रंप, भारतीयों के नैतिक समर्थन व भारतवंशियों के वोट के हकदार बन जाते हैं? क्या किसी व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व, उसकी विचारधारा गौण हो सकती है?  कोई व्यक्ति हमारी तारीफ करता है, इसलिए उसकी सारी चीजों को नजरअंदाज कर, हमें उसे समर्थन दे देना चाहिए... या फिर कथा सम्राट प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी च्पंच-परमेश्वरज् के किरदारों (अलगू चौधरी, जुम्मन शेख) की तरह व्यक्तिगत संबंधों के ऊपर सही व न्यायोचित चीजों के साथ हो लेना चाहिए?
दरअसल, ट्रंप को लेकर दुनिया भर में वैचारिक सुनामी चल रही है। उनके बयान व उन पर लग रहे आरोपों ने विश्व समुदाय को चिंता में डाल रखा है। ट्रंप मुस्लिमों के अमेरिका-प्रवेश पर प्रतिबंध के पक्षधर हैं। वे आतंकी गतिविधियों के लिए लगातार मुस्लिमों पर आरोप लगाते रहे हैं। उन्होंने कहा है- च् वे इस समुदाय के प्रवासियों की संख्या पर रोक लगाने सीमा पर नियंत्रण व्यवस्था मजबूत करेंगे।ज्  टं्रप अनेक देशों के तनावपूर्ण रिश्तों में बारूद भरने का काम भी करते रहे हैं। उन्होंने सत्ता में आने पर विवादित येरूशलम को इजराइल की 'वास्तविकÓ राजधानी के रूप में मान्यता देने का वादा किया है। उनके इस बयान को पूर्वग्रह से प्रेरित व इजराइल-फिलिस्तीन के सुलगते रिश्तों में घी डालने वाला माना जा रहा है। इसके अलावा, इस रिपब्लिक प्रत्याशी के महिलाओं के संबंध में विचार भी शर्मसार करने वाले हैं।  च्वॉशिंगटन पोस्टÓ के पास उनका 2005 का एक वीडियो मौजूद है। इसमें वे रेडियो एवं टीवी प्रस्तोता बिली बुश के साथ बातचीत के दौरान, बिना सहमति के महिलाओं को छूने और उनके साथ यौन संबंध को लेकर बेहद अश्लील टिप्पणियां करते दिखाई दे रहे हैं।ज्
मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ने कहा है, च्व्यक्ति के विचार उसके अंतर्मन का दर्पण होते हैं और ये ही उसके भविष्य को संचालित करते हैं।ज् ट्रंप के विचार उनके भीतर बैठे तानाशाह को उजागर करते हैं, इनसे सामंती सोच पता चलती है। महिलाओं के संबंध में उनकी हरकतें उनकी अय्याश तबीयत को नुमांया करते हैं। ऐसा शख्स जो सेलेब्रिटी स्टेटस का फायदा उठाकर, पूरी बेशर्मी के साथ महिलाओं को तंग करता है।  जो महिलाओं का सम्मान करना नहीं चाहता और अपनी इच्छा पूरी करने किसी भी हद तक जा सकता है। इसी तरह, उनके मुस्लिम विरोधी विचार उस मनोवृति को दर्शाते हैं, जिससे हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह कभी शासित हुए थे। हो सकता है, सत्ता में आने पर ट्रंप भी अपने इस्लामोफोबिया के चलते पूर्वग्रह से भरे फैसले लेते चले जाएं... नए सिरे से विश्व का इतिहास लिखने की कोशिश करने लगें। आखिर, कभी नाजी तानाशाह हिटलर ने भी तो आर्य रक्त को श्रेष्ठ मानकर, दोबारा विश्व का नक्शा खींचने की कोशिश की थी... अपनी सनक भरी नफरत के चलते लाखों यहुदियों को मौत के घाट उतारा था।
इन्हीं सब वजह से संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार उच्चायुक्त जैद राद अल हुसैन सहित अनेक लोग मानते हैं- च्ट्रंप का अमेरिका जैसे च्चौधरीज् राष्ट्र का महामहिम बनने से वैश्विक शांति, सहिष्णुता कभी भी दांव पर लग सकती है।ज् इसीलिए यह सवाल उठना भी लाजमी है, क्या ट्रंप का च्भारत प्रेमज् भारत व भारतवंशियों के लिए उनके समर्थन का एकमात्र आधार हो सकता है?
खैर, इस बात को भी छोड़ दें और स्वार्थी होकर सोचें, भारतीय नजरिए को तवज्जो दें... तब भी- इसकी क्या गारंटी है कि राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप भारत के लिए मुफीद ही होंगे? हो सकता है, अब तक की उनकी बातें चुनावी शिगूफा हों, लफ्फाजी हों।  यह संदेह इसलिए है क्योंकि यह हमारा सालों का तर्जुबा रहा है। हम भारत में देखते आए हैं, चुनावी घोषणा पत्र कैसे होते हैं और उनकी कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? अमेरिका भी कोई इससे अलग नहीं है।  यहां भी अनेक चुनावी वायदे च्हाथी के दांतज् बनकर रह जाते हैं।
खैर, यह भी मान लें कि ट्रंप का भारत-प्रेम सच्चा है, अपनी बातों को लेकर वे ईमानदार हैं। लेकिन, तब भी च्कुर्सी के तकाजोंज् के चलते क्या वे भारत के हितों का ख्याल रखने की स्थिति में होंगे? क्या अमेरिका की विदेश नीति इसकी इजाजत देगी? यह चिंता भी इसीलिए सर उठा रही है क्योंकि अनेक मर्तबा यह देखने में आया है कि नीयत होते हुए भी सत्ता शीर्ष में बैठे लोग अपने वायदों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं। हमें याद करना चाहिए, 2014 के भारत के लोकसभा चुनाव... जिसमें भाजपा ने काला धन वापस लाने का वादा किया था।  लेकिन अब तक नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली पूर्ण बहुमत की सरकार इसे पूरा नहीं कर पाई है, बावजूद इसके कि यह मुद्दा भाजपा व उसकी मातृसंस्था आरएसएस की नीति, छवि व एजेंडे के अनुकूल है।
तो कुल जमा यही निष्कर्ष निकलता है, ट्रंप भारत, विश्व व खुद अमेरिका के लिए कितना उपयोगी साबित हो पाएंगे, इसमें भारी संदेह है। वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं है कि डोनाल्ड ने मौजूदा चुनाव को काफी रोचक व चटखारेदार बना दिया है। भारत में दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव से इसमें समानता भी नजर आ रही है। आपको याद ही होगा, 2014 में हमारे यहां हुआ चुनाव मोदी बनाम अन्य में तब्दील हो गया था। इसमें प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत छवि बड़ा मुद्दा थी। 2002 में हुई गुजरात हिंसा का प्रेत तब भी उनका पीछा कर रहा था।  विपक्षी नेताओं ने उन्हें च्मगरूरज्, च्मौत का सौदागरज्  च्उग्र हिंदू नेताज् बताया था। अनेक व्यक्ति-संगठन उन्हें शांति-अखंडता के लिए खतरा मानकर, उनके खिलाफ कैंपेन चला रहे थे।  कुछ लोगों ने उनके पीएम बनने पर देश छोडऩे का एलान तक कर दिया था।
कुछ इसी तरह का इस बार ट्रंप के साथ भी हो रहा है। वे भी अपनी निगेटिव छवि को लेकर सबके निशाने पर हैं। उनके बयान, उनकी हरकतें... बड़ा मुद्दा बन चुकी हैं। ये चुनाव भी जबरदस्त ध्रुवीकरण का इशारा कर रहे हैं।  काउंसिल ऑन अमेरिकन-इस्लामिक रिलेशन्स (सीएआईआर) के सर्वे के अनुसार, अमेरिका में रहने वाले 33 लाख प्रवासी मुस्लिमों में से 72 प्रतिशत ट्रंप के विरोध में हैं। ऐसा ही एकतरफा विरोधी रुख महिला मतदाताओं का भी नजर आ रहा है।
बहरहाल, मोदी तो तमाम नकारात्मक प्रचार के बावजूद, अपने आभामंडल व एंटी इन्कंबंसी की लहर पर सवार होकर न केवल धमाकेदार जीत दर्ज कर चुके हैं, बल्कि प्रधानमंत्री बनकर नए रूप ( कम आक्रामक, ज्यादा समन्वयवादी, सुलझे हुए) में भी दिखाई पड़ रहे हैं... जबकि ट्रंप अभी इम्तिहान देने बैठ रहे हैं, लोगों का विश्वास जीतने, जुगत कर रहे हैं।
अब यह तो नवंबर में होने वाले चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि डोनाल्ड ट्रंप   33 लाख प्रवासी मुस्लिमों, 34 लाख भारतवंशियों सहित 200 मिलियन अमेरिकी वोटर में कितनों का दिल जीत पाते हैं?  लेकिन एक बात तय है, उन्होंने मौजूदा चुनाव को ऐसी लड़ाई में तब्दील कर दिया है, जिससे अछूता नहीं रहा जा सकता... या तो लोग उनके साथ होंगे या उनके विरोध में... यकीनन, ये चुनाव ट्रंप के लिए परीक्षा और अमेरिका के लिए अग्नि परीक्षा साबित होने वाले हैं...
एक बात और...
एक तरफ ट्रंप के समर्थन में 'एवीजी ग्रुप ऑफ  कंपनीजÓ के अध्यक्ष भारतीय-अमेरिकी शलभ कुमार हैं, जिन्होंने उनके चुनावी अभियान में 10 लाख अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा का योगदान दिया है, तो दूसरी तरफ ट्रंप विरोधी प्रवासी नेता राज मुखजी भी हैं, जो कहते हैं- च्यदि आप असली हिंदू हैं तो आप एक मुसलमान भी हैं... आप ईसाई व यहूदी भी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इसी में मेरा समुदाय विश्वास करता है।ज्
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16 October 2016

पाक कलाकारों का विरोध... नफरत, जरूरत या नियति?

बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर आधारित, मशहूर लेखिका तसलीमा नसरीन का उपन्यास च्लज्जाज् 90 के दशक में बहुत मकबूल हुआ था। इसमें सांप्रदायिकता (मुस्लिम व हिंदू दोनों) को निशाना बनाया गया था और च्बाबरी विध्वंसज् को तत्कालीन उपद्रव की प्रतिक्रिया दर्शाया गया था। लेखिका का मानना था, च्भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) की आत्मा एक है और यहां कहीं भी कुछ होगा, तो उसका असर सब तरफ फैलेगा। भारत में यदि फोड़े का जन्म होगा, तो उसके प्रभाव से पड़ोसी देश भी अछूते नहीं रहेंगे। यहां का साझा इतिहास व साझा भविष्य है।ज्
भारत में इन दिनों पाकिस्तानी कलाकारों का जो विरोध हो रहा है, वह भी एक प्रतिक्रिया ही है। उरी सेक्टर में हुए हमले के बाद, यहां लोगों में जबरदस्त गुस्सा है।  वे आतंकियों, उनके सरपरस्तों, उनसे सरोकार रखने वाली किसी भी वस्तु-व्यक्ति के प्रति सीने में अंगार लिए बैठे हैं।  यह आम लोगों के जस्बात हैं। इसे भले ही सही-गलत या तार्किक-अतार्किक कहा जा सकता है, लेकिन आम प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है, स्वस्फूर्त... खुशी या गम से तुरंत आंदोलित होने वाली...।
और क्योंकि बॉलीवुड कलाकार भी क्रिया-प्रतिक्रिया, आवेग-मनोवेग से प्रभावित होते हैं, लिहाजा वे भी इस मामले से बेअसर नहीं हैं।  नाना पाटेकर, अनुपम खेर जैसे अनेक एक्टर हैं, जो चाहते हैं... पाक कलाकारों पर बैन लगे, वे यहां से चले जाएं। हालांकि इस मामले में बॉलीवुड का एक तबका पाक कलाकारों के समर्थन में भी खड़ा है। सलमान खान, करण जौहर जैसे लोगों का कहना है- च्कलाकार आतंकी नहीं होता व कला और राजनीति को अलग रखा जाना चाहिए।ज्
तो एक तरफ तो राष्ट्रवादी भावनाएं हैं और दूसरी तरफ पाक कलाकारों के पक्ष में दिए बयान....किसे सही माना जाए?
 यकीनन, किसी भी उदारवादी, खुले दिल वाले शख्स को पाक कलाकारों के समर्थन वाले तर्क सही लगेंगे... इनसे मन सहमत भी होता है, लेकिन राष्ट्रवादी भावनाओं का क्या?  क्या इससे खुद को अलग रखा जा सकता है? उदाहरण के तौर पर अगर भारत, पाकिस्तान पर हमला करके कत्लेआम कर दे... तब भी क्या पाकिस्तानी कलाकार भारत में इस घटना का असर लिए बिना काम कर पाएंगे? क्या उनका मन भारत, भारतीयोंं के लिए कसैला नहीं होगा?
यकीनन, ऐसा ही कुछ होगा... आम पाकिस्तानी मन की यही प्रतिक्रिया होगी। आखिर इसीलिए तो उरी हमले के बाद इधर, भारत में पाक कलाकारों का विरोध हो रहा है तो उधर कराची, इस्लामाबाद के सिनेमाघरों में भारतीय फिल्मों पर रोक लगी हुई है। लाहौर के सुपर सिनेमा ने फेसबुक में लिखा था- च्हम अपनी पाक सेना के समर्थन में भारतीय फिल्मों का विरोध करते हैं।ज्
दरअसल, राष्ट्रीय हित-अहित, पसंद-नापसंद से खुद को अलग नहीं रखा जा सकता है। इस तरह की प्रतिक्रियात्मक भावनाएं स्वाभाविक रूप से उपजती हैं। लेकिन दिक्कत तब खड़ी होती है, जब ये अतिवादी रुख अख्तियार कर निर्दोष लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं। यही इसका दुखद पहलू है। लेकिन इनके साइडइफेक्ट से बचना आम इंसान के लिए आसान भी नहीं होता, इसीलिए गेहूं के साथ घुन भी पिसता चला जाता है।
वैसे, देखा जाए तो खिलाडिय़ों, कलाकारों के रिश्ते... राष्ट्रीय संबंधों के आगे उथले ही होते हैं। ये एक समय तक ही संभाले जा सकते हैं। वास्तव में, राष्ट्रगत मामलों में राजनीतिक संबंध ही केंद्र पर होते हैं, इनके बनने-बिगडऩे से सारी चीजें अपने आप प्रभावित होने लगती हैं। इसके उलट, कला, संस्कृति, व्यापार, खेल या अन्य कोई संबंध एक पक्षीय होते हैं, जिसका क्षेत्र विशेष पर ही असर रहता है।
यह ऐसा ही है, जैसे दो परिवार के मुखिया के बीच विवाद होने पर अन्य सदस्यों के आपसी ताल्लुकात प्रभावित होने लगते हैं। यदि विवाद बड़ा न हो तो बच्चों व महिलाओं के बीच बोलचाल, लेनदेन जारी भी रहता है। लेकिन बात बढऩे पर महिलाएं-बच्चे भी अपने-अपने मुखिया के साथ खड़े हो जाते हैं, या उन्हें खड़ा होना पड़ता है। जैसे लडऩे वाले दो मुखिया के परिजनों के निजी संबंध कायम नहीं रह पाते, वैसा ही हाल राष्ट्रगत मामलों में कला, खेल जैसे संबंधों का होता है। यही महिलाओं-बच्चों, कलाकारों-खिलाडिय़ों के संबंधों की नियति है। लेकिन बदकिस्मती से इनसे बचने का कोई उपाय भी मालूम नहीं पड़ता है।
वैसे, सारे पहलुओं को ताक पर रखकर निजी रिश्ते को तरजीह देना, कोई सही चुनाव नहीं है। यह एकपक्षीय नजरिया है और इस तरह का अतिवादी रुख गैरव्यवहारिक होता है। जो लोग यह कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, पाक कलाकारों पर बैन लगना ही नहीं चाहिए... उन्हें यह समझना होगा कि किसी भी फैसले के पीछे बहुत सारे कारक होते हैं। ऐसा नहीं है कि पाक कलाकारों पर बैन, नफरत या आम लोगों के प्रतिक्रियात्मक रुख की वजह से ही हो। यह कूटनीतिक दबाव बनाने या असामान्य हालात में उनकी सुरक्षा के मद्देनजर भी हो सकता है।
इसी तरह, ऐसे लोग जो पाक कलाकारों का विरोध स्थायी नफरत के चलते कर रहे हैं, उन्हें अपने पूर्वग्रह से ऊपर उठकर चीजों को खुले रूप में देखने की जरूरत है। उन्हें समझना होगा कि नफरत का बीज ही राष्ट्रवाद, जातिवाद, नस्लवाद, क्षेत्रवाद भाषावाद की आड़ में अनिवार्य फसाद का कारण बनता है... जिसकी गवाह तारीखें बनती हैं और जिसका दंश सदियों को भुगतना पड़ता है।
सच तो यह है अच्छा या बुरा किसी भी तरह का एकपक्षीय रवैया घातक ही होता है। अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दकी को मुस्लिम होने के चलते रामलीला में भाग नहीं लेने देना जितना गलत है, उतना ही गलत मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते, ममता सरकार द्वारा मुहर्रम के दिन दुर्गा विसर्जन का समय तय करना भी है। दोनों के ही दीर्घकालिक नुकसान हैं।
वास्तव में एकपक्षीय नजरिए या अतिवादी रुख से जिंदगी नहीं चल सकती है, लेकिन हम अपने मत, धारणा के इतर चीजों को उसकी पूर्णता में देखना नहीं चाहते हैं। अभी पिछले दिनों अगस्त में कुत्तों के आतंक से परेशान, केरल में 65 साल की महिला को 50 कुत्तों ने नोचकर मार डाला था। इसके बाद, राज्य  सरकार ने कुत्तों को चुनकर मारने का फैसला लिया।  सुप्रीम कोर्ट ने भी खतरा बने आवारा कुत्तों को मारना जायज ठहराया था। लेकिन पशुप्रेमी केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी किसी भी हालात में, किसी भी कुत्ते को मारने के विरोध में हैं। बेशक, पशु प्रेम अच्छी बात है, लेकिन क्या उसे इंसानियत पर तरजीह दिया जा सकता है?
मेनका गांधी या उन जैसे अतिवादियों की ऐसी सोच के चलते ही चीजें एक समय बाद खतरनाक रुख अख्तियार कर लेती हैं। व्यक्तिगत या राष्ट्रगत मामले में भी ऐसा ही होता है। शांति, प्यार, सद्भावना जैसे आदर्श भी एक समय तक... एक सीमा तक ही निबाहे जा सकते हैं... वे अंतिम लक्ष्य या साध्य नहीं बन सकते...
एक बात और...
महाभारत युद्ध के दौरान, मृत्युशैय्या पर पड़े भीष्म से चर्चा के दौरान भगवान कृष्ण ने कहा था- च् आपने शांति कायम रखने और युद्ध से बचने के लिए दुर्योधन की हर गलती हो नजरअंदाज किया था।  लेकिन न युद्ध टाला जा सका, न शांति कायम रह पाई। अगर आप दुर्योधन की नाजायज हरकतों का... महत्वाकांक्षाओं का शुरू में ही विरोध कर देते... उसे रोक देते तो शायद युद्ध नहीं होता... भरत वंश का नाश नहीं होता...
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04 October 2016

सारा जमाना....गोरे रंग का दीवाना.


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च् मान्यताएं-धारणाएं कब सोच में घर कर जाती हैं, पता ही नहीं चलता। लेकिन गाहे-बगाहे, औपचारिक-अनौपचारिक मौकों पर हमारा व्यवहार-प्रतिक्रिया हमारे अवचेतन का आईना बन ही जाते हैं। ज्
हाल में टीवी शो 'कॉमेडी नाइट्स बचाओÓ में एक्ट्रेस तनिष्ठा चटर्जी के सांवले रंग को लेकर जमकर मजाक बनाया गया था। उन्हें इतना कुछ कहा गया कि वे नाराज होकर... शो बीच में छोड़कर चली गईं।  तनिष्ठा को चिढ़ाते हुए कहा गया- आपने  बचपन में जामुन बहुत खाया होगा। उनके सरनेम चटर्जी का जिक्र कर व्यंग्य किया गया कि वे ब्राह्मण होकर भी सांवली हैं।
पश्चिम से आयातित इस शो का स्वरूप इसी तरह का है। इसमें आने वाले मेहमानों की जमकर खिंचाई की जाती है।  उनकी कमियों-कमजोरियों को निशाना बनाया जाता है। तनिष्ठा के साथ जो कुछ हुआ उसकी स्क्रिप्ट भी पहले से तय होगी। माना जा सकता है, उन्हें जो कुछ कहा गया, उसके पीछे जानबूझकर अपमानित करने की नीयत नहीं होगी। शो के एंकर्स का इरादा अपनी च्स्टाइलज् में केवल कॉमेडी करना होगा।
लेकिन इसके बाद भी तनिष्ठा के रंग को लेकर किया गया तंज कहीं-न-कहीं हमारे अवचेतन में छिपे गोरे रंग के प्रति आग्रह को ही दर्शाता है।  इससे यही बात जाहिर होती है कि हम भले कितने ही खुले विचारों वाले... कितने ही विकसित हो जाएं, लेकिन हमारी सोच में कहीं-न-कहीं गौरवर्ण के लिए महीन आकर्षण बरकरार रहता है।
और इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि सोच में जड़ जमाए इस तरह के विचार हमारे व्यवहार-प्रतिक्रिया पर भी असर डालते हैं।  आखिरकार, कुछ समय पहले अभिनेत्री नंदिता दास ने सांवलेपन के कारण फिल्में न मिलने की बात कही ही थी। समानांतर सिनेमा का परिचित चेहरा कोंकणा सेन शर्मा ने भी माना था कि फिल्म इंडस्ट्री में रंग को लेकर भेदभाव होता है।  वास्तव में, त्वचा के रंग को लेकर भारतीय जनमानस में कुंठा नई बात नहीं है। आज भी गोरे रंग व गोरे लोगों को स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ माना जाता है।  आज भी हमारे यहां शादी के लिए लड़की का रंग महत्वपूर्ण पैमाना होता है। अधिकांश मां-बाप गोरी लड़कियों को ही तरजीह देते हैं।
कुछ लोग तर्क देते हैं, 150 साल तक अंग्रेजों (गोरों) की गुलामी ने हमारे भीतर  हीनभावना भर दी है। हमारे अवचेतन ने अंग्रेज, अंग्रेजी, अंग्रेजियत को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार कर लिया है। इसीलिए हमारे भीतर गोरे रंग को लेकर इतना लगाव है। यह बात कितनी सच है, यह तो नहीं पता, लेकिन गौरवर्ण के चाहने वाले सारी दुनिया में हैं।  समाजवादी कहे जाने वाले चीन में भी इसके शैदाई हैं। पिछले दिनों वहां एक विज्ञापन ने बहुत सुर्खियां बटोरी थी।  उसमें च्एक चीनी औरत एक काले आदमी को डिटर्जेंट खिलाकर वॉशिंग मशीन में डाल देती है, जिसमें धुलने के बाद वो नीग्रो गोरा होकर निकलता है। महिला यह देखकर खुश हो जाती है और मुस्करा कर उसका स्वागत करती है।ज्
इस एड की चीन में जमकर आलोचना हुई थी, इसे काले लोगों के प्रति नस्लीय रवैये का उदाहरण माना गया था। इस तरह के विज्ञापन का विरोध बिलकुल सही है।  वास्तव में, गोरे रंग के प्रति आकर्षण बहुत ही घातक है। इससे जबरदस्त विभाजन पैदा होता है।  इतिहास गवाह है, इसके चलते ही नस्लीय भेदभाव हुए हैं। टेनिस स्टार सेरेना विलियम्स, अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी से  लेकर दिवंगत बॉक्सर मोहम्मद अली, महात्मा गांधी तक इसके शिकार हो चुके हैं।  शायद, इन्हीं सब खतरे को देखकर हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रंगभेद के प्रति उदार रवैया अपनाया था और आजादी के तुरंत बाद अफ्रीकी छात्रों के लिए शिक्षण संस्थाओं के द्वार खोल दिए थे। प्राचीन हिंदू समाज भी शायद रंगभेद की गंभीरता को समझता था। इसीलिए, संभवत: हमारे अनेक देवी-देवताएं श्याम वर्ण के बताए गए हैं।
लेकिन बदकिस्मती से ये विचार हमारी सोच में जगह नहीं बना पाए। मजे की बात यह है कि हम सब, प्रत्यक्ष (चेतन ) रूप  से कई चीजों को जानते-समझते हैं, लेकिन उसके बाद भी परोक्ष  (अचेतन) रूप से हम उसे बढ़ावा देते चले जाते हैं।  जैसे, हम अच्छी तरह जानते हैं, त्वचा के रंग के लिए भौगोलिक परिवेश जिम्मेदार होते हैं। हम यह भी जानते हैं, रंग कभी भी योग्यता का पर्याय नहीं बन सकते। बावजूद इसके, हमारे अंदर गोरे होने की ललक बनी रहती है... काले रंग के प्रति कमतरी का भाव बना रहता है।
पिछले दिनों, एक मार्केट रिसर्च कंपनी ग्लोबल इंडस्ट्री एनालिस्ट इनकॉर्पोरेटेड ने दावा किया कि विश्व में 2020 तक गोरे होने वाले उत्पादों का कारोबार 23 बिलियन डॉलर्स तक जा पहुंचेगा और उसमें सबसे बड़ी भागीदारी एशियाई देशों की होगी। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि त्वचा के रंग को लेकर हमारे मन में किस तरह की हीनता, किस तरह के पूर्वग्रह हैं।
और जब तक हमारी सोच इस तरह की होगी, तब तक तनिष्ठा चटर्जी जैसे लोग अपनी त्वचा के रंग को लेकर अपमानित होते रहेंगे...
और जिस दिन हम फेयर क्रीम खरीदना बंद कर देंगे, उस दिन शायद माना जा सकेगा कि हमारा अवचेतन रंगों की गुलामी से मुक्त हो चुका है...
                                                                   एक बात और...     

कोच्चि, केरल की जया ने इस साल 26 जनवरी से 100 दिन का मिशन शुरू किया था। वे  रंगभेद को लेकर जागरुक करने रोजाना चेहरे पर कालिख पोतकर सड़कों पर घूमा करती थीं।  मांट्रियल, कनाडा में भी काली लड़कियां गोरी जितनी खूबसूरत, स्मार्ट व आकर्षक मानी जाती हैं। यहां के क्लबों में अफ्रीकन नृत्यांगनाओं को गोरी लड़कियों से ज्यादा दाम दिए जाते हैं।
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25 April 2015

दामिनी : सवाल •ाी, जवाब •ाी


अपने सपनों को साकार करने आई गोरखपुर की मासूम ‘दामिनी’ के साथ चलती बस में दुष्कर्म ने एक ओर जहां दरिंदगी का चेहरा उजागर कर दिया, वहीं दूसरी ओर इन सवालों को •ाी आवाज दे दिया कि ब्वॉयफ्रेंड के साथ घूमना, रात में घूमना और तकरीबन खाली बस में बैठना... सुरक्षा के लिहाज से कितना सही फैसला था???
इस मुद्दे पर सबकी राय जुदा है, लेकिन अनेक महिला-संगठन और नारी स्वतंत्रता के ठेकेदार, इस घटना के लिए पुलिस, प्रशासन और सरकार को आड़े हाथ ले रहे हैं और सुरक्षा संबंधी किसी •ाी सुझाव-सलाह को नारी की आजादी पर हमला मान रहे हैं.
दुष्कृत्य के बाद दिल्ली में हुए आंदोलन में मिनी स्कर्ट पहने एक लड़की के हाथ में तख्ती थी, जिस पर लिखा था- ‘मेरी स्कर्ट से •ाी ऊंची मेरी आवाज है.’
अपने अंदाजो-अदायगी से, तमाम प्रतीकों के साथ शायद वह यह जताना चाहती थी... ‘हमें मत सिखाओ कैसे कपड़े पहनें, कैसे रहें? कब आएं, कब जाएं? अकेले घूमें या साथ में, किसी को हमें रोकने, टोकने, बोलने का अधिकार नहीं है. हमें जो अच्छा लगेगा वह करेंगी. बोलना ही है, तो लड़कों को बोलो, वे गलत करते हैं. सुधारना ही है, तो माहौल सुधारो, वह बदतर हो चुका है.’
बेशक, लड़के बिगड़ते जा रहे हैं, उन्हें सुधारना जरूरत है. माहौल •ाी खराब है, उसे •ाी दुरुस्त करना जरूरी है. बेशक, दामिनी के साथ जो हुआ वह अक्षम्य है और ऐसी घटनाएं दोबारा न हो, इसके लिए ठोस कदम उठाए जाने जरूरी है.
मौजूदा हिंदुस्तानी समाज में पुरुषों की बढ़ती लंपटता और औरतों के लिए असुरक्षित होता जा रहा माहौल नि:संदेह प्रासंगिक प्रश्न है. लेकिन बुनियादी सवाल है- किसी •ाी क्षेत्र में किसी •ाी मामले में क्या सौ फीसदी सुरक्षा सं•ाव है? किसी •ाी कालखंड में, किसी •ाी समाज में लूट, चोरी, डकैती, हादसे पूरी तरह रुके हैं या रोके जा सके हैं??? क्या टेÑन-टॉकीज में जेब कटने से बचने के लिए हम सावधानी नहीं बरतते? क्या रूपयों से •ारा बैग लाते समय अक्सर हम अकेले आने से नहीं बचते?
यकीनन हम सब पूरी एयतियात रखते हैं, लेकिन जब बात औरतों की सुरक्षा को लेकर दिए जा रहे सुझावों का आता है, तो हमारा नजरिया बदल जाता है.
हमें यही बात समझनी है कि जब हम अन्य मामलों में सावधान रहते हैं, तो नारी-सुरक्षा के लिए दिए जा रहे सही-गलत, व्यावहारिक-गैरव्यावहारिक सुझावों के प्रति पूरी तरह नकारात्मक दृष्टिकोण... उसे अपनी आजादी पर हमला मानना कितना सही है? क्या यह नारी स्वतंत्रता का झंडा लेकर मनमाना रवैया अख्तियार करना नहीं है?
मूल बात यह है- अपनी सुरक्षा के लिए हमें खुद जागरूक रहना होगा. अपने स्तर पर •ाी सावधानी रखनी होगी, चाहे वह महिला हो या पुरुष. सारे जतन के बाद •ाी पुलिस, प्रशासन, सरकार या कोई •ाी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकेगा.
दामिनी के साथ तो गलत करने वाले अजनबी थे, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि किसी लड़की को अकेला पाकर उसके ब्वॉयफ्रेंड की नीयत खराब नहीं होगी? आखिरकार, इसी असावधानी या लापरवाही के चलते, दामिनी प्रकरण के बाद नए साल के जश्न की रात, दिल्ली की ही एक और युवती अपने फेसबुक-फ्रेंड की ज्यादती का शिकार हुई. वह आधी रात को अकेले मिलने गई थी.
तो मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने लड़कियों को लक्ष्मण-रेखा न लांघने संबंधी बयान देकर ऐसा क्या गुनाह कर डाला कि उस पर इतना बवाल मचाया गया? राष्ट्रपति के विधायक पुत्र ने लड़कियों को देर रात डिस्को में न घूमने की समझाइश देकर ऐसा क्या कह दिया कि उस पर इतना इतना विवाद खड़ा किया गया?
सच तो यह है, इन बयानों के पीछे लड़कियों के सुरक्षा की सद्•ाावना ही छिपी थी. ये बयान गलत नहीं थे, बल्कि उनकी टाइमिंग गलत थी. सही बात गलत समय में कही गई थी, इसीलिए ये विवादित हुए. होता है, अक्सर यही होता है... •ाावनाओं की आंधी में सच का तिनका अक्सर गुम हो जाता है.
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  यह आर्टिकल फरवरी 2013 में लिखा था. नव•ाारत में ज्वाइनिंग के पहले एडीटर ने किसी टॉपिक पर लिखने कहा था.

22 April 2015

सोशल-मीडिया : कहां तक अ•िाव्यक्ति की लक्ष्मण रेखा?


‘हाल में एक मोबाइल ऐप से जुड़े कार्यक्रम के दौरान गायक सोनू निगम ने कहा -‘आज फेसबुक और ट्विटर पर हम सेलिब्रिटीज के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है. हम जैसे कलाकार को छोड़िए, बड़े-बड़े सुपरस्टार को •ाी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गाली खाते देखा जा सकता है. इस तरह की हरकतों पर रोक लगना चाहिए.’
सोनू की यह मांग अ•िाव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायतियों को बुरी लग सकती है, लेकिन आजकल जिस तरह  से सोशल मीडिया में मनमानी हो रही है, सचमुच इस पर विचार करने की जरूरत है कि  इस प्लेटफार्म पर अ•िाव्यक्ति की आजादी कहां तक दी जानी चाहिए?
वास्तव में, इन दिनों फेसबुक-ट्विटर जैसे सोशल प्लेटफार्म  का जमकर दुरुपयोग हो रहा है.  लोगों की इज्जत उछाली जा रही है, निजी एजेंडे के तहत निशाना बनाया जा रहा है. अनेक सेलेब्रिटी इस प्लेटफार्म पर होने वाली बदतमीजी से परेशान हैं.
 अ•ाी कुछ रोज पहले का ही वाकया है, क्रिकेट वर्ल्डकप के सेमीफाइनल में •ाारत की हार होने पर सोशल मीडिया में हीरोइन अनुष्का शर्मा का जमकर मजाक बनाया गया. उनके खिलाफ जोक्स का सिलसिला ही चल पड़ा. अनुष्का का कसूर ये था कि वे क्रिकेटर विराट कोहली की गर्लफ्रेंड थीं और कोहली उस महत्वपूर्ण मैच में एक रन बनाकर आउट हो गए थे. कोहली के खराब खेलने के लिए क्या अनुष्का जिम्मेदार थी, जो उनका इतना तमाशा बनाया गया, उन्हें पनौती माना गया?
अ•िाव्यक्ति का मतलब  यह नहीं होता कि जो जी में आए लिखा जाए, अपने अंदर •ारे वैचारिक कूढ़Þा  को सार्वजनिक किया जाए. अ•िाव्यक्ति का मतलब ‘मानसिक वमन’ हरगिज नहीं है, और  न ही यह कि तर्क की तलवार से किसी की •ाावनाओं को ठेस पहुंचाया जाए, या जानबूझकर बेइज्जत किया जाए.  क्या हमने क•ाी सोचा है कि जिस व्यक्ति का हम यूं मजाक बनाते हैं, उसके दिल पर क्या गुजरती होगी, उसका आत्मविश्वास कितना लहुलुहान होता होगा? बेशक, वैचारिक स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन  इसके साथ नैतिकता, एक जवाबदेही •ाी चाहिए.
यहां बात केवल मान-अपमान •ार की •ाी नहीं है. सोशल मीडिया पर नियंत्रण इसलिए •ाी जरूरी है क्योंकि  आजकल फेसबुक, ट्विटर, न्यूज साइट में जिस तरह के कमेंट लिखे जा रहे हैं, जो कुछ अपलोड किया जा रहा है, उससे सांस्कृतिक वातावरण •ाी दूषित हो रहा है.  हाल में,  बीबीसी की हिंदी साइट में ‘गौ-मांस’ पर अलग-अलग एंगल से स्टोरी प्रकाशित हुई थी. इस पर कमेंट करते हुए  ‘गौ मांस’ के समर्थक व विपक्षी पक्षों ने नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ दी. दो वि•िान्न जाति-समुदाय के लोगों ने एक-दूसरे के लिए  खुलकर अपशब्दों का प्रयोग किया. फेसबुक, ट्विटर पर •ाी इस तरह की अराजकता अक्सर दिखाई पड़ती है, जो सार्वजनिक जीवन में क•ाी •ाी विस्फोटक रूप ले सकती है. 
मजे की बात, सोशल मीडिया में आग उगलने वाले अनेक युवा •ाावनाओं में बहकर ऐसा करते हैं. नादानी, अपरिपक्वता के चलते अगर, किसी के पीछे  पड़ गए, तो उसके खिलाफ अनाप-शनाप लिखते चले जाते हैं. आज के युवाओं के पास सोचने-समझने की बिलकुल फुरसत नहीं है. इसीलिए उन्हें किसी बात की गं•ाीरता का •ाी अंदाजा नहीं रहता है. मौजूदा उथलेपन के दौर में ये लोग •ाी उतने ही अधीर हैं इसीलिए किसी •ाी विषय में गहरे उतरे बिना तुरंत प्रतिक्रिया दे देते हैं.
वैसे सोशल मीडिया पर लगाम लगाना  एक और वजह से •ाी जरूरी है. इस प्लेटफार्म पर ऐसा माफिया सक्रिय है, जो जानबूझकर , पूर्वग्रह के तहत, अपने निजी एजेंडे के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर रहा है. कुछ समय पहले इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में फिल्मी गीतकार-लेखक जावेद अख्तर ने ‘छद्म धार्मिकता’ पर •ााषण दिया था. उस •ााषण से  प्र•ाावित होकर एक सज्जन ने उसे अपने ब्लॉग में पोस्ट किया. लेकिन कुछ लोगों ने जानबूझकर अख्तर को निशाने में लिया. बजाय समग्रता में अर्थ निकालने के उनके •ााषण के एक-एक वाक्य का पोस्टमार्टम किया. उन्हें गलत ठहराने की कोशिश की. इस तरह के लोग ही मीडिया में जहर घोलने का काम कर रहे हैं, इनकी हरकतों पर रोक लगना जरूरी है.
हमें यह बात समझनी होगी कि हर चीज का अच्छा-बुरा दोनों तरह का इस्तेमाल सं•ाव है. एक ही चाकू से सब्जी •ाी काटी जा सकती है और  हत्या •ाी की जा सकती है.  वैसा ही फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल प्लेटफार्म के साथ •ाी है. यह हमारे हाथ में है कि हम इसका कैसा उपयोग करते हैं? वास्तव में हम लोग खुशकिस्मत हैं, जो हमें फेसबुक, ट्विटर जैसा अ•िाव्यक्ति का सहज उपलब्ध सोशल नेटवर्क मिला है.  इसका उपयोग तो, क्रिएट्वििटी के लिए होना चाहिए. एक-दूसरे से सीखना-सीखाना चाहिए.  वाद-विवाद का लक्ष्य •ाी समझ का विकास करना हो, अपने-अपने पूर्वग्रह त्यागकर  स्वस्थ चिंतन हो, जैसा कि दार्शनिक सुकरात कहा करते थे.
लेकिन कुछ लोग नासमझी में या समझते-बूझते हुए, अ•िाव्यक्ति के इतने बेहतर माध्यम का दुरुपयोग कर रहे हैं. दिवंगत लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा था- ‘कलम के लिए कोई कंडोम नहीं बना है.’ आजकल सोशल मीडिया में जो कुछ चल रहा है, उसे देखकर यह बात सही मालूम पड़ती है.
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17 April 2015

‘टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी’

सोशल मीडिया में कुछ दिन पहले एक जोक्स  ट्रेंड कर रहा था.  ‘ 2013 से पहले •ाारत में मनोरंजन के साधन हुआ करते थे- क्रिकेट व सिनेमा. लेकिन अब हैं- क्रिकेट, सिनेमा और आम आदमी पार्टी (आप).
इन दिनों इस जोक्स का सुनाई पड़ना बेवजह नहीं है. कहीं-न-कहीं  आप की विश्वसनीयता में कमी आई, है, उसे लोग गं•ाीरता से नहीं ले रहे हैं.  दरअसल,  ‘आप’ में लगातार कुछ-न-कुछ हो ही रहा है. आरोप- प्रत्यारोप, मान-मनौव्वल, स्टिंग आॅपरेशन, त्यागपत्र, दिग्गजों की छुट्टी और अब स्वराज अ•िायान, स्वराज संवाद. और इस कुछ-न-कुछ  होने से आप का गां•ाीर्य •ाी खो गया है. फेसबुक, ट्विटर फालो करने  वाली जनरेशन के लिए तो ‘आप’ का यह घमासान इंटरटेनमेंट पैकेज जैसा ही है. 
हां, लेकिन ऐसे लोग जो पूरी शिद्दत से ‘आप’ से जुड़े हैं, या वे लोग जो ‘आप’ को •ाारतीय राजनीति के सार्थक और निर्णायक बदलाव का वाहक मानते हैं, उनका •ारोसा जरूर टूटा है, उम्मीदों का कमल जरूर मुरझाया है. आखिरकार, इसी के चलते तो हाल में एक ‘आप’ कार्यकर्ता ने अपने सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से कार वापस मांग ली, तो दूसरे ने ‘आप’ का लोगो इस्तेमाल न करने का अल्टीमेटम दे दिया.
सच तो यह है कि केजरीवाल हों, चाहें योगेंद्र-प्रशांत गुट दोनों ने आम जनता के जस्बातों पर रोड-रोलर चलाया है. केजरीवाल यदि चाहते तो ‘आप’ की अंतर्कलह थाम सकते थे. वे संयोजक पद खुद ही छोड़ सकते थे. योगेंद्र-प्रशांत से सीधे संवाद कर सकते थे.  सारे मसले पार्टी के समक्ष रखकर बहुमत के अनुसार चल सकते थे. लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता अख्तियार किया. योगेंद्र-प्रशांत को ठिकाने लगाने की कवायद शुरू कर दी. पार्टीजनों को अपने और उनमें से किसी एक को चुनने की अनिवार्य शर्त रखी.
इधर, केजरीवाल ने अहंकार की लड़ाई लड़ी, तो उधर योगेंद्र-•ाूषण •ाी आदर्शवाद के नाम पर झुकने को तैयार नहीं हुए. प्रशांत •ाूषण ने तो दिल्ली चुनाव के दौरान इमोशनल ब्लैकमेल तक किया. वे त्यागपत्र देकर ‘खुलासे’ की अघोषित धमकी देते रहे.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1992 में राममंदिर मुद्दे पर धार्मिक असहिष्णुता बढ़ने का अंदेशा जताया था, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई. वे हाशिए में रहे, पर उन्होंने बगावत नहींंंंंं की और बाद में उनकी वापसी हुई. •ाूषण को यदि पार्टी के फैसले पसंद नहीं थे, तो वे •ाी चुप रहकर सही समय का इंतजार कर सकते थे, बजाय, बागी बनने के.
यदि योगेंद्र-•ाूषण यह तर्क दें  कि वे अपने रहते ‘आप’ का पतन कैसे होने दे सकते थे... तो यह •ाी स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि ये दोनो ं वैसे ही केजरीवाल एंड कंपनी से लड़कर हाशिए में जा चुके थे, लिहाजा ये ‘नख-दंत विहीन’ पार्टी में कोई सुधार करने या नैतिक-शुचिता बनाए रखने की स्थिति में नहीं थे.
वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘आप’ के आदर्शों का किला ढहा है. उसकी कथनी-करनी में अंतर आया है. जो पार्टी लोकपाल को लेकर अस्तित्व में आई, उसने अपने लोकपाल रामदास को बिना बताए हटा दिया. जो पार्टी पारदर्शिता का दावा करती रही, उसी ने राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के पहले सबके मोबाइल अलग रखवा लिए.
सं•ावत: केजरीवाल और योगेंद्र-प्रशांत के लक्ष्य अलग हैं. केजरीवाल के लिए जहां साध्य की अहमियत है, वहीं, योगेंद्र-प्रशांत साधन और साध्य दोनों को तरजीह देते रहे हैं. अरविंद दिल्ली का कायाकल्प करना चाहते हैं, उसे मॉडल बनाना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने दिल्ली चुनाव में कई समझौते कर लिए. बड़े आदर्श के लिए छोटे आदर्श की तिलांजलि दे दी. योगेंद्र गुट के लिए सिद्धांत ही सर्वोपरि थे, इसी वजह से इनके बीच रस्साकशी बढ़ती चली गई.
जैसे स्वाधीनता संग्राम में गांधी-सु•ााष को •ाारत-जापान में लोगों ने खुलकर धन-धान्य, जेवर... जिसके पास जो था वैसा सहयोग दिया था, वैसे ही इस बार केजरीवाल एंड कंपनी के लिए •ाी स्वस्फूर्त जस्बात उमड़े थे. सबकी यही इच्छा-अपेक्षा थी कि ‘आप’ कुछ सार्थक करे, लेकिन आप के इस गृह-क्लेश ने अपेक्षाओं से •ारे न जाने कितने दिल तोड़ दिए हैं. अफसोस इसी बात का है कि अपने-अपने विचारधाराओं और सिद्धांतों की आड़ में दोनो गुट ने अहंकार की लड़ाई •ाी लड़ी,  जन•ाावना को नजरअंदाज किया. 
बेशक, ‘आप’ के  ये  ‘खिलाड़ी’ शह-मात में उलझे हुए हैं, लेकिन सियासत की शतरंज खेलते हुए  वे यह •ाूल रहे हैं कि असली बादशाह तो जनता है और शतरंज में पैदल मात •ाी होती है. 
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03 May 2014

वह टूटा पत्ता


वह मामूली-सा पीपल का पेड़ है। सड़क किनारे, हनुमान मंदिर के पास सालों से मौजूद,  साक्षी की तरह... सबको निहारता...।  डॉ. राही मासूम रजा के ‘नीम का पेड़’1 जैसा उसे साहित्यिक रुतबा हासिल नहीं है। वह उतना नामचीन नहीं है, लेकिन उसने भी कई पीढ़ियों को मिट्टी में खेलते, पलते-बढ़ते और मिट्टी में ही मिलते देखा है। उसका विशाल कद किसी बड़े-बुजुर्ग की मौजूदगी का एहसास कराता। कभी-कभी वह पालथी मारकर बैठा दिखाई पड़ता, जिसकी जमीन से लगी, इधर-उधर फैली जड़ें, दादी-नानी की गोदी-सी महसूस होतीं। इसी पेड़ के साए में उसका बचपन भी परवान चढ़ा था। इसके पास मैदान में वह अपने दोस्तों के साथ खेला करता था। धूप में, छांव में, बारिश में... हर मौसम में, हर तरह के खेल। किल्लापारा में यह जगह उन बच्चों के लिए स्वर्ग जैसी थी। 
मंदिर के चबूतरे में  ठेठ छत्तीसगढ़ी में गप मारते लोग, स्थानीय कामचलाऊ होटल में आमनेर2 से लगे दारू भट्टी से ‘पीकर’ आए कुछ शराबी, ‘सेठघर’3 में किसानों-बैलगाड़ियों का मजमा...  हो-हल्ला, शोरगुल... 80 के दशक के किल्लापारा की यही तसवीर थी। खैरागढ़ के इस बाहरी इलाके में एक-दो धनवान परिवारों को छोड़ दें, तो मध्यम, निम्न-मध्यम परिवार ही ज्यादा थे। यह अपेक्षाकृत शांत मोहल्ला था, जहां शहर के पंगे, गुटबंदी किस्सागोई तक ही सीमित थे। लोग-बाग जितनी बिंदास तबीयत के थे, उतने ही उत्सवधर्मी भी। गणेश चतुर्थी, सरस्वती-पूजा जैसे सार्वजनिक उत्सव में तो पूरा मोहल्ला ही संयुक्त परिवार में बदल जाता।  मध्यम व निचले तबके के बीच का यह अपनापन ही किल्लापारा की आत्मा थी।
बस्ती से दूर बसे पारा-मोहल्लों में सामान्यत: उतनी बसाहट नहीं होती। किल्लापारा भी इसका अपवाद न था। फैले हुए इस खुले इलाके में तकरीबन दो-ढाई सौ मकान ही रहे होंगे।  मुख्य सड़क के एक तरफ बड़े हिस्से को नगरसेठ 4 की हवेली ने घेरा था। इस तरफ अंदर की ओर कई मकान थे, जबकि दूसरी ओर खाली जगहों के बीच-बीच में इक्का-दुक्का घर तथा होटल-पान व सायकिल स्टोर जैसी कुछ बेतरतीब दुकानें थीं। थोड़ा आगे, हनुमान मंदिर के पास वह पीपल था, यहीं वह पला-बढ़ा, हंसा-रोया था। वहां की हर शै- मंदिर, मैदान, मकान सभी उसके बचपन के गवाह थे। उसका जुड़ाव वहां की हर चीज से था।
‘ पीपल के पत्तों से छन-छनकर आतीं सूर्य की किरणें... ऊपर पेड़ में कहीं, एक डाल से दूसरे में कूदते बंदर... पक्षियों की चहचहाहट... माहौल में रची-बसी धूप-अगरबत्ती, बंधन की खुशबू... असमतल मैदान में भागम-भाग, चिल्ल-पौं... ’
 उफ!  क्या जगह थी वह, जाने कैसा जादू था! वहां पहुंचते ही उसके भीतर कहीं हजारों गुलाब खिल उठते।  अपने दोस्तों के साथ वो यहां खूूब धमा-चौकड़ी मचाया करता। वह मैदान उन बच्चों के लिए किसी लॉर्ड्स, किसी ईडन गार्डन से कम न था। स्कूल से आते ही वह उनका अखाड़ा हो जाता। क्रिकेट, फुटबाल, बैडमिंंटन  ही नहीं, गिल्ली-डंडा, भौंरा, गड़ंची, टिल्लस, चित-पट, बांटी, पिट्टूल, छु-छुआल, उलानबाटी, लंगड़ी, रेस-टीप जैसे निरे देशज खेल भी यहां खेले जाते। यहां तक कि लड़कियों के साथ उसने बिल्लस भी खेली थी।
तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह में यह जगह और गुलजार हो जाती।  होली में बच्चे यहां खूब मस्ती करते,  वह भी खूब हुड़दंग मचाता, भाग-भागकर रंग लगाया करता।  गणेशोत्सव के समय मंदिर के चबूतरे में महफिल जमती, दोस्तों के साथ सजावट के लिए वह ताव का तोरण बनाता। इन दिनों रात में, मैदान में ही वीसीआर में वीडियो दिखायी जाती थी, रात भर में करीब 3-4 फिल्म।  अपने घर से बिछाने के लिए बोरे-दरी लेकर पूरा मोहल्ला वहां जमा हो जाता।  पिक्चर देखने के लिए वह भी झटपट पढ़ाई कर, अपनी सीट पक्की कर लिया करता था।
यह 83-84 की बात है। यह वह दौर था, जब भूमंडलीकरण की शुरुआत नहीं हुई थी। भौतिक-विकास का रथ धीमी गति से चल रहा था। कार-एसी जैसी लक्जीरियस चीजें मध्यमवर्ग की पकड़ में नहीं आ पाईं थीं, इक्का-दुक्का घरों में ही टीवी थे।  चीजें सीमित थीं, सुविधाएं कम।  लेकिन उन बच्चों को तो जैसे इससे कोई सरोकार न था। हर छोटे-बड़े मौकों पर खुशियां बिनते हुए, धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे वे।  खेलना, खाना और पढ़ना... यही तीन काम उनके पास था।
वैसे भी, बच्चों को किसी चीज की परवाह होती ही कहां है? वे तो जाने कौन-सा मस्ती का प्याला पीकर आते हैं।  हमेशा खिलखिलाते रहते हैं, हर काम को खेल बना डालते हैं।  बचपन की यही तो खासियत है।  इस समय हर चीज का जायका ही अलग होता है। छोटी-छोटी बात पर छलक पड़ने वाली खुशी, बार-बार नाभि से उठने वाली आनंददायक लहर... इससे बच्चे इतने समृद्ध रहते हैं कि उसके आगे हर चीज दोयम दर्जे की हो जाती है।  बचपन के इसी सोमरस को पाने के लिए इंसान ताउम्र तरसता है और बाद में... कल्पना में, उन एहसासों को दोबारा जीने की कोशिश करता है।
छुटपन की इसी मस्तानी फितरत से वह भी लबरेज था।  उसकी उम्र 6-7 साल रही होगी।  दिखने में दुबला-पतला, अन्य चंचल बच्चों जैसा ही था। वह जितना नटखट था, उतना ही जिद्दी भी। माहौल के मुताबिक ढलने की बजाय मन की किया करता,  इसीलिए ज्यादा डांट भी उसके हिस्से आती। खैरागढ़ उसकी मातृभूमि भी था और जन्मभूमि भी। सेठघर के सामने मामा के मकान में वह रहता था। मम्मी यहां शिक्षिका थी, इसीलिए उसकी परवरिश भी यहीं हो रही थी। वैसे तो उसके टिंकू, दीपक, आलोक, काजू, गुड्डा, संतोष जैसे कई दोस्त थे, लेकिन  गुड्डू, राजू  से उसकी गाढ़ी छनती थी। ये उसके जिगरी दोस्त थे।  गुड्डू जहां चतुर था, वहीं राजू सीधा। गुड्डू में स्मार्टनेस थी, समय की नब्ज पहचान कर चलता।  उसका अड़ना-झुकना, बदमाशी करना-सीधा बन जाना... सब समय के हिसाब से होता, इसलिए वह ज्यादा तारीफें पाता। राजू स्वभाव से शांत था, मुंह में मिश्री, दिमाग में बर्फ। हर माहौल में ढल जाने वाला, हर रंग में पानी जैसा घुल जाने वाला। वह नंबर टू बना रहना पसंद करता। शायद कम महत्वाकांक्षी था, इसीलिए व्यवहार में किसी तरह की प्रतिस्पर्धा न थी। 
वे तीनों ‘भगवान’ थे...  ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’।  उसे शुरू से भगवान शंकर की पर्सनालिटी पसंद आती थी, एक बार खेल-खेल में उसने कहा- ‘मैं तो शिवजी बनूंगा। मुझे वो बहुत अच्छे लगते हैं। उनके गले में नाग, त्रिशूल, जानवर की खाल, सब-कुछ  मुझे भाता है। ’ गुड्डू को खूबसूरत पहनावा आकर्षित करता था। वह बोला- ‘ मैं तो विष्णु को लूंगा।  वे बहुत सुंदर हैं, उनके खूबसूरत कपड़े मुझे अच्छे लगते  हैं।’ रह गए, ब्रह्मा ... वो राजू के हिस्से आए। उसने बिना किसी ना-नुकुर के ब्रह्मा बनना स्वीकार कर लिया। इस तरह वे ‘त्रिदेव’ बने थे। 
वे तीनों बहुत खुराफाती थे।  मोहल्ले का एक व्यक्ति उन्हें पसंद न था, तो उसे सामने ही चिढ़ाते, अपनी स्टाइल में।  वे कहते- ‘लुका लासा त्ताकु है’5। मजे की बात,  वह व्यक्ति उन  बच्चों की इस कूट-भाषा को समझ न पाता था।  माहौल की गंभीरता को ठेंगा दिखाते हुए, तीनों कहीं-भी, कुछ-भी कर सकते थे...  ‘गुड्डू जैनी था, उसके यहां अक्सर प्रार्थना सभा होती। एक दिन वह भी वहां था। प्रार्थना के दौरान ‘नाना लाल जी मरासाव’ कहा गया। ‘नाना’ शब्द सुनते ही पता नहीं उसे क्या हुआ? जाने किसने ‘चाबी’ भरी और उसकी हंसी छूट पड़ी। उसकी देखा-देखी गुड्डू के भीतर भी हंसी का फव्वारा झरने लगा। सब भौंचक्के देखते रहे और वे दोनों मुंह दबाकर हंसते रहे। ऐसे ही एक बार मोहल्ले के एक मकान में वे पिक्चर देख रहे थे।  एके हंगल6 को विशिष्ट तरीके से ‘काका’ पुकारा गया। बस! वे तीनों फिर दांत दिखाने लगे...। जाने कितने दिन तक वह ‘काकाआआआआआह! ’ उनकी जबान पर चढ़ा रहा। 
उन तीनों में लड़ाई भी खूब होती थी, लेकिन जल्द ही ‘खट्टी’ से ‘मिट्ठी’ भी हो जाती।  बाल-सुलभ राग-द्वेष, छल-कपट सब-कुछ उनमें था, लेकिन एक-दूसरे लिए दिल भी उतने ही अपनेपन से धड़कता था। ... एक बार उसे ‘छोटी माता’ आई थी, वो लंबे बेड-रेस्ट पर था।  गुड्डू उसके पास आया, बोला - ‘चिंता मत कर, स्कूल में जो भी पढ़ाया जाएगा, मैं बता दूंगा। रोज मेरी कॉपी ले लेना।’ एक बार कंपास खरीदने के लिए मिले पांच-सात रुपए उसने गुमा दिए।  वह रो रहा था, राजू पसीज उठा...  कहने लगा- ‘यार!  मेरे पास इतने पैसे तो नहीं हैं, लेकिन एक रुपए बोलेगा तो मैं दे दूंगा।’
ऐसे ही खट्टे-मीठे पलों के बीच वे आठवीं में पहुंच गए। अब उन्हें ‘हाफ पेंट’ अखरता था, वे फुलपेंट पहनकर ‘बड़ा’ होना चाहते थे। समय बदल रहा था, मानसिकता भी बदल रही थी। लेकिन एक चीज नहीं बदली थी...  ‘गति देखना’।  राजू और वो चुपचाप लोगों की हरकतों को वॉच कर आपस में हंसते थे। यही उन दोनों का ‘गति देखना’ था।  ‘साक्षी भाव’ से यूं लोगों को निहारना, ‘विपश्यना’7 का यह उनका टाइप था। यह सिलसिला स्कूल के साथ-साथ मंदिर के पास बैठकर भी चला करता। 
बहरहाल... लोगों की ’गति‘ तो वो खूब देख रहा था, लेकिन समय की ’गति‘ का उसे अंदाजा न था।  उसे पता न था-  ‘जल्द ही यह सब छूटने वाला है। उसके जाने का समय आ चुका है,  हमेशा के लिए अपनों से दूर... अपनी जड़ों से दूर... ’
वे सावन के दिन थे।  फिजा में मिट्टी का सौंधापन घुला था, हर तरफ मुस्कराहट बिखरी थी।  उन दिनों उसके पापा आए थे बालाघाट से।  उसे ठीक से याद नहींं, जाने की बात कैसे निकली?  बस, यकायक तय हो गया कि अब वह आगे की पढ़ाई यहां नहीं करेगा।
और वो यहां से चला गया... जाते समय वह बहुत खुश था, क्योंकि जाने का फैसला खुद उसने लिया था।
  जाने के बाद, पहले-पहल वो गर्मी की छुट्टियों में यहां आता भी था,  लेकिन बाद में, धीरे-धीरे आना कम होता चला गया... और एक दिन बंद ही हो गया...
सालों बीत गए। अब वह बड़ा हो गया था, 25-26 साल का युवक। वह जॉब करने लगा था। अरसे बाद उसका फिर यहां आना हुआ।  यह 2002-03  की बात रही होगी। अब खैरागढ़ पहले जैसा न था, हर चीज में बदलाव ने अपने निशान छोड़ दिए थे।  किल्लापारा में भी उसे वह पहले वाली बात नजर नहीं आ रही थी। जहां कभी खुशियां अपनी दुकान सजाया करती थीं, अब वहां उदासी ने तंबू गाड़ लिए थे। ऐसा लग रहा था, मानों हर चीज ने मौनव्रत ले रखा हो। सेठ घर में न वो रश था, न शोर-शराबा। पुराने होटल खंडहर में तब्दील हो चुके थे। जो चेहरे उसने पहले खिले-खिले देखे थे, अब उनमें समय की धूल पड़ गई थी। राजू, गुड्डू भी दूसरे शहरों में नौकरी कर रहे थे। सब-कुछ बदल चुका था...
वह पतझड़ का मौसम था। पूरे वातावरण में बेरुखी सी पसरी थी।  हवाओं के गर्म थपेड़े उसके चेहरे पर पड़ रहे थे। टूटे पत्ते इधर-उधर उड़ रहे थे। डाल पर बैठे बंदरों की कर्कश आवाजें सुनाई दे रही थीं...   बदलाव को देखते-देखते वह उस जगह पहुंच गया था, जहां उसके जीवन का सबसे कीमती समय गुजरा था... उसका बचपन।
वह बिलकुल नहीं बदली थी, मंदिर, मैदान, पीपल... वैसे ही थे,  निहारते हुए ... नि:शब्द...।  पता नहीं, क्यों!  एक अनजाना-सा अपराधबोध उसके भीतर आ गया।  उसे लगा, यहां से जाकर उसने गलत किया था।  उसके अंदर कुछ पिघलने लगा... झर-झर आंसू बहने लगे। वह पीपल से लिपट गया।
उसका ‘अनाहत’8 सक्रिय हो चुका था।  समय का पहिया पीछे घूम रहा था, उसे सब-कुछ याद आने लगा। वह जगह फिर से प्राणवान हो उठी...
‘उसे  गेंद फेंकते हुए 5-6 साल का राजू दिखा...  गुड्डू की आवाज सुनाई पड़ी- आउज दैट! उसने झल्लाकर बैट पटकते हुए खुद को पाया।  बैट के हत्थे की ग्रिप वह अपने हाथों में महसूस कर रहा था...’ 
वह भावनाओं में गोते लगा रहा था, उसे वहां की एक-एक चीज बोलती मालूम पड़ रही थी।  तभी, उसकी नजर मंदिर की खिड़की में जाकर ठहर गई। इसकी सलाखों को पकड़कर, कभी वह ऊपर चढ़ जाया करता था और मंदिर के भीतर झांकता था। उसके दिल में एक लहर उठी...  फिर से उसी पुराने अंदाज में,  वहां चढ़ने की इच्छा बलवती हुई...  लेकिन तत्काल विरोधी विचार मन में आया और वह हाथ-पैर गंदे होने, पेंट फटने के डर से नहीं चढ़ा।
वह मुस्करा उठा। सोचने लगा... ‘यही तो बचपन व ‘बड़ेपन’ का फर्क है।  वो लापरवाही, वो बेफिक्री... वो बिंदास तबीयत ... अब कहां?  अब तो सिर्फ दुनियादारी है, प्रतिस्पर्धा है... महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ है। अब पल-पल जीने का हुनर कहीं खो गया है और छोटी-छोटी चीजों से मिलने वाली खुशी भी...।
उसके अंदर कसक सी उठी। काश!  फिर से वे दिन लौट आते...  लोग-बाग, सब-कुछ  पहले जैसा हो जाता। फिर से उसे बचपन जीने का मौका मिल जाता। समय वहीं ठहर जाता... 
मन उसे छल रहा था... और यूं छला जाना, उसे अच्छा भी लग रहा था, अजीब-सा सुख मिल रहा था।   इंसान की प्रवृत्ति होती है ना... जो चीज उसे पसंद आती है, उसे और, और पाना चाहता है।  पसंदीदा लोग, चीजें, यादों से हमेशा चिपके रहना चाहता है। 
...  हालांकि, वह जानता था-  न वो लौटेगा, न ही वो समय... वो बचपन...।  जो बीत चुका है, वह लौट नहीं सकता।  परिवर्तन संसार का नियम है और बदलाव ही स्थायी है।  लेकिन फिर भी बचपन के मोहपाश से वह निकल नहीं पा रहा था।  वह महसूस कर रहा था...  यहां से दूर होकर वह गरीब हो गया है और यह गरीबी ऐसी है, जिसे वह दुनिया का सबसे दौलतमंद आदमी बनकर भी दूर नहीं कर पाएगा।  यह वो जगह है, जिसकी कमी आज भी अपने में पाता है और कल भी पाता रहेगा...
वह ख्यालों में खोया था,  तभी उसकी नजर जमीन पर पड़े एक टूटे पत्ते पर पड़ी। उसने उसे उठा लिया। वह उसे एकटक देख रहा था... उसमें उसे अपना अक्स नजर आ रहा था। उसे लगा... वह भी उस टूटे पत्ते की तरह ही है, जो अपनी जड़ों से दूर हो चुका है और अब दोबारा कभी जुड़ भी नहीं पाएगा...
उसने लंबी सांस छोड़ी और थके कदमों से वहां से चल पड़ा...
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अंक-संकेत
1. आजादी के समय, मुस्लिम जमींदारी की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रसिद्ध कृति, जिस पर 90 के दशक में दूरदर्शन पर टीवी सीरियल भी बना.
2.  नदी, जिसके किनारे खैरागढ़ बसा है.
3. शहर के बड़े सेठ, जिनका आवास इसी नाम से जाना जाता था.
4. वही सेठ जिनके मकान का  पूर्व में सेठघर के रूप में जिक्र हुआ है.
5. शब्दों को उल्टा करके बोलने का विशिष्ट अंदाज
6. प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता
7. महात्मा बुद्ध की ध्यान विधि, जिसमें विचारों-भावनाओं को तटस्थता के साथ देखने कहा जाता है.
8. भारतीय योग के अनुसार, भावनाओं को नियंत्रित करने वाला ‘चक्र’.
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( यह कहानीनुमा संस्मरण मैंने अपने एक फ्रेंड के लिए लिखा है.)
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09 February 2014

कोई तो समझे, धोनी-ब्रिगेड की फीलिंग???



धोनी और उनके धुरंधर... क्या कहा जाए? बेचारे... जबरन टारगेट में आ जाते हैं। जरा-सा कुछ हुआ नहीं कि उन पर लानत-मलामत शुरू हो जाती है, लोग कोचकना शुरू कर देते हैं।  इनकी इमोशन, फीलिंग कोई समझना ही नहीं चाहता। अभी टीम इंडिया ने विदेश में दो सीरीज क्या गंवाई,  शोर मचना शुरू हो गया कि इसको हटाना था, उसको रखना था, ये  तो बस घर के शेर हैं, वगैरह, वगैरह।
यार, ये बड़ी दिक्कत है। अरे, दो सीरीज ही तो हारे हैं, कोई सल्तनत तो नहीं लुटा आए। केवल दो सीरीज... वो भी विदेश में... उसी में इतना हल्ला हो रहा है।  ये भी कोई बात हुई। जब तक परदेस में बारह-पंद्रह सीरीज न हारें, तब तक सीरियसली लेना ही नहीं चाहिए। और  खिलाड़ी तीस-चालीस पारी में खराब न खेले, उसे ऊंगली करना ही नहीं चाहिए। पता नहीं क्यों, लोग-बाग एक-दो मेें ही माइंड करना शुरू कर देते हैं।
भई, मेरा तो स्पष्ट मानना है कि विदेश में दो सीरीज हारना कहीं से बुरा नहीं है, बल्कि विदेशों में हारना ही बुरा नहीं है। सच पूछिए, तो यह बड़े फक्र की बात है। दरअसल, इससे  हमारी सनातन परंपरा को बढ़ावा मिलता है।  संभवत: यह बात टीम इंडिया भी जानती है, इसीलिए वह इस पुण्य-कार्य को पूरे मनोयोग से करती है।
आपको तो पता ही है, भारत आध्यात्मिक देश है और समता-सहिष्णुता इसके मेरुदंड हैं।  इसी समतामूलक विचारधारा को हमारी टीम फालो करती है और हमारे खिलाड़ी ‘जीयो और जीने दो’ के तर्ज पर ‘जीतो और जीतने दो’ का फलसफा अपनाते हैं। इसीलिए वे घर में जीतते हैं और विदेशों में हारते हैं।
इसके अलावा अतिथिभाव ... यह भी एक अहम वजह है, जिसके चलते भारतीय टीम हारने में इंट्रेस्टेड रहती है। अब आप ही सोचिए, मेजबान को उसके घर में हराना, लाखों-करोड़ों स्थानीय दर्शकों का दिल दुखाना, क्या अच्छी बात है? क्या यह अतिथि को शोभा देगा? उसकी गरिमा के अनुरूप होगा? अरे, साहब, मेहमानवाजी के भी अपने उसूल होते हैं। और हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि  भारतीय टीम इसमें पूरी तरह निपुण है।  हमारे लोग कहीं भी जाकर, किसी भी टीम से, यहां तक कि क्वालीफायर से भी मैच हारकर आ सकते हैं।
और यकीन मानिए, विदेशों में मैच हारकर हमारे खिलाड़ी मेहमानवाजी का तकाजा भर पूरा करते हैं। आध्यात्मिकतावश ही ये ‘घर के शेर’ बाहर मेमने बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें मेजबान टीम को घर का शेर बनाना होता है। हां, जहां मेजबानी ज्यादा पसंद आती है, वहां सीधे क्लीप स्वीप होते हैं। नहीं पसंद आती तो एक-दो मैच जीतकर, मलाल करने छोड़ देते हैं। 
और अब तो शेर-मेमने वाले इस भारतीय दर्शन को अन्य टीमों ने भी आत्मसात करना शुरू कर दिया है। मिसाल के तौर पर 2013 का रिकार्ड उठाकर देखिए। इक्का-दुक्का को छोड़ दें, तो सारी टीमें आपसी भाई-चारे के तहत विदेशों में सीरीज थ्रो करके आई हैं। यानी हमारी फिलासफी फैल रही है। 
तो अब आप ही सोचिए, पूरे विश्व में सनातन-चिंतन का प्रचार प्रसार करने वाली हमारी टीम इंडिया को निशाने पर लेना सही है? अरे, ये तो हमारे मिशनरी हैं... युुवा मिशनरी। सीरीज हारकर स्वदेश लौटने पर इनका जोरदार स्वागत होना चाहिए...  भव्य स्वागत, यादगार स्वागत। पर होता है, इसका उलटा।
 खैर, धर्म-अध्यात्म, सत्य-अहिंसा की राह तो कांटो भरी होती ही है। हंसते-हंसते जहर पीना पड़ता है। इसीलिए मैं धोनी ब्रिगेड से पूरा जोर देकर कहना चाहूंगा कि उन्हें आलोचनाओं पर कान देने की जरूरत नहीं है। विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपनी आध्यात्मिकता अक्षुण्य रखें, अतिथिभाव बनाए रखें।  अपना आत्मविश्वास कतई न खोएं और विदेशों में हारना बिलकुल बंद न करें। आलोचनाओं से कुछ अपसेट हों, तो किशोर कुमार का गीत है... कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना... इसे बार-बार सुनें।
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18 January 2014

डॉ. साहब की ऐतिहासिक प्रेस-कॉन्फ्रेंस


अपने डॉ. साहब और शोले की बसंती में एक बात कॉमन है।  दोनों को ‘बेफिजूल’ बात करने की आदत नहीं है। दोनों किसी का टाइम ‘खराब’ करना पसंद नहीं करते। डॉ. साहब को ही लीजिए, सालों तक मीडिया से बचते रहे। बोलने के लिए कुछ खास नहीं था, लिहाजा टाइम खोटी •ाी नहीं किया। अरसे बाद ‘शेयर’ करने का दिल हुआ, तो मुखातिब हुए।
हां, यार लोग ने कुछ और उम्मीद बांध ली थी। उन्हें लगा था, कोई बड़ा धमाका होगा। कुछ ऐसा कहेंगे कि आसमान हिल जाएगा, धरती फट जाएगी। किसी की पतलून गीली हो जाएगी, किसी की पेंट फट जाएगी।  उम्मीद •ाी इसीलिए , क्योंकि अब तो विदाई की बेला है, और लौटने का •ारोसा •ाी कम।  लुुटिया तो डूब ही रही है, तो डर कैसा... कि कोई कुछ बिगाड़ लेगा। इसीलिए लगा था, कोई बड़ा बम फोड़ेंगे। सारा गुबार निकाल कर ही छोड़ेंगे। जिस-जिस ने खुजाया (पंगा लिया) था, सबको निबटा डालेंगे।  ऐसा तीर छोड़ेंगे कि आठ-दस क्या... कई जनपथ का सीना छलनी हो जाएगा।
समय •ाी माकूल था, सारा अदा-बिदा करने का। बिलकुल कांटे का टाइम। और फिर माहिर खिलाड़ी तो होते ही हैं, मौका देखकर चौका मारने वाले। ठीक अड़ी के समय अपना रंग दिखाने वाले। लगा था, वे •ाी खिलाड़ियों का खिलाड़ी बनेंगे। ऐसा उस्तरा चलाएंगे कि न उधो को उ करते बनेगा, न माधो को मु।
पर यहां तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया। बम क्या, टिकली फटाका •ाी न फूटा। उम्मीद थी, रुखसती में कुछ कर गुजरेंगे। पर अपने डॉ. साहब नहीं सुधरे, कहने का मतलब नहीं ‘बिगड़े’। रहे अपनी वाली पर ही। वही पुरानी, 10 साल वाली।  फिर से बजा दी पुरानी कैसेट।  प्रेस कॉन्फ्रेंस में  कुछ अपनी कही, कुछ उसकी। कुछ इधर की, कुछ उधर की। किसी को पुचकारा, किसी को दुतकारा। किसी के कसीदे पढ़े, किसी को खतरा बताया। बोलने को तो बहुत कुछ बोले, लेकिन यार लोग के काम की (धमाकेदार) बात एक •ाी न बोले।
हां, बातों-बातों में वे इमोशनल हो गए थे, इसी दरमियान उनके मुखारविंद से एक बात निकली, जिसे ‘काम’ की कहा जा सकता है।  उन्होंने •ााव-विह्ल होकर कहा था- ‘इतिहास उन्हें याद रखेगा।’
पूरे पीसी में यही एक बात खास थी, सहेजने जैसी... बाकी सब बेमानी।  बाकी जो •ाी कहा, सब सेकंडरी... महज •ाूमिका बांधने के लिए। उनका कोई मोल न था। न होतीं तो •ाी चल जाता, कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता।  लेकिन यह बात... अपने ऐतिहासिक महत्व वाली... यूं सार्वजनिक नहीं करते, तो यकीन मानिए अनर्थ हो जाता। इसीलिए उन्होंने आॅन दि रिकॉर्ड बात रखने का स्टैंड लिया।  सच पूछिए, तो पत्रकार-वार्ता बुलाई ही इसीलिए थी, ताकि वे यह बात कर सकें, यानी अपने ऐतिहासिक महत्व को उजागर कर सकें। 
आपको लग रहा होगा, वे इसे आॅफ दि रिकॉर्ड •ाी कह सकते थे। अरे नहीं जनाब... तब पता नहीं लोग-बाग उन्हें सीरियसली लेते या नहीं। हो सकता, •ाूल जाते कि कुछ ऐतिहासिक कहा है। इसीलिए उन्होंने रिस्क नहीं लिया, पीसी में ‘खुलासा’ किया। कम-से-कम अब यह तो तय हो गया कि इतिहास उन्हें याद रखे, न रखे, उनके कहे को जरूर याद रखा जाएगा।
वैसे, यह सोचने की गुस्ताखी बिलकुल न करें कि डॉ. साहब को अपनी उपलब्धिों पर किसी तरह का शुबहा था। हरगिज नहीं, इंटरनली वे पूरी तरह कॉन्फिडेंट थे कि इतिहास उन्हें याद रखेगा।  हां, ये हो सकता है  कि उन्हें अपनी याददाश्त पर •ारोसा कम हो ( बढ़ती उम्र जो ठहरी)। इसीलिए उन्हे प्रेस-कॉन्फ्रेंस में सार्वजनिक एलान की जरूरत समझ आई, ताकि बाद में क•ाी ‘वे’ •ाूलने •ाी लगें, तो लोग उन्हें •ाूलने न दें कि वे ‘इतिहास-पुरूष’ हैं। 
वैसे, डॉ. साहब •ाूलने वाली चीज हैं •ाी नहीं। पिछले 10 साल में उन्होंने जो इतिहास रचा है, उसके बाद तो हरगिज •ाी नहीं। सामाजिक, राजनीतिक, सार्वजनिक... जीवन के हर क्षेत्र में उन्होंने ‘संत-परंपरा’ के निर्वाह की जो अद्•ाुत नींव रखी है, उसके बाद तो उन्हें ‘नमन’ ही किया जा सकता है। वे इतने बड़े वाले हो गए हैं, इतनी ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं कि उनके इर्द-गिर्द कोई •ाी नहीं ठहर पा रहा है।
सं•ावत: गांधीजी के बंदर उनके रोलमॉडल हंै... वो •ाी पूरे तीन-के-तीन।  एक-दो •ाी कम होते, तो शायद वे ‘डाउन टू अर्थ’ होते। बहरहाल, इसीलिए उन्होंने बुराई (गड़बड़ियां, गलतियां) के खिलाफ पूरे 10 साल मुंह, आंख, कान बंद रखा।  उनके दाएं-बाएं कई चंगू-मंगू गड़बड़झाला करते रहे, लेकिन मजाल है, क•ाी उन्हें रोका हो, कुछ बुरा कहा हो।  उन्हें बुराई से इस कदर नफरत रही कि उसे किसी •ाी कंडीशन में देखना पसंद नहीं किया। यहां तक कि बताने पर •ाी आंखें नहीं खोलीं। इसके उलट उन्हें बताने वालों की बात ही बुरी लगने लगी। लिहाजा उन्हें उस पर कान देना बंद करना पड़ा, मजबूरन... न चाहते हुए... बुराई से नफरत के चलते।
काजल की कोठरी में कमलवत जीवन जीते हुए, पूरे दस साल वे बेदाग रहे। वे सही मायने में कर्मयोगी हैं...
‘असरदार... चितचोर... मन को मोहने वाले।’  जैसे •ागवान कृष्ण का विश्वरूप देखने के बाद परम श्रद्धा के वशी•ाूत अर्जुन ने कहा था- ‘आपको आगे से प्रणाम, पीछे से प्रणाम, ऊपर से प्रणाम, नीचे से प्रणाम, सब तरफ से प्रणाम’।  वैसे ही उसी स्तर की श्रद्धा के साथ आपको हर तरफ से प्रणाम... डॉ. साहब। 
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15 May 2012

ज्ञान बांटना : दुनिया का सबसे आसान काम

कहना हमेशा से आसान रहा है और करना उतना ही कठिन। इसीलिए कहने वालों, यानी न करने वालों, यानी केवल ज्ञान बांटने वालों की, कभी-भी, कहीं-भी कमी नहीं रही। 'ज्ञान बांटनाÓ शायद दुनिया का सबसे आसान काम है, इसीलिए हर चौक, हर गली 'ज्ञानियोंÓ से गुलजार रहती है। सड़क से सं...द तक, गांव से शहर तक, हर ओर इस कला के पारखी खूंटा गाड़ के बैठे मिलते हैं। हर गुलशन इनसे आबाद रहता है, हर तरफ ये महकते रहते हैं।
अच्छा, ऐसा मत सोच लेना कि ज्ञान बांटने का कॉपीराइट केवल पके बाल वालों के पास है, जैसा कि आमतौर पर सोचा जाता है। अजी, सर्वहारा वर्ग की इसमें मास्टरी है। फुलटाइम काम करने वाले भी इसमें पार्टटाइम हाथ आजमाते हैं। यहां तक कि लंगड़े घोड़े भी रेस जीतने के फंडे बताते हैं, गूंगे भी 'हाऊ टू स्पीकÓ कोर्स चलाते हैं। कसम से... ऐसे-ऐसे लोग ज्ञान बांटते दिखते हैं, जो न लीपने के हैं न पोतने के (और न ही कभी थे)। जिन्होंने खुद कोई कमाल नहीं किया, लेकिन बातें ऐसी करते हैं, मानों उनसे बड़ा जानकार कोई नहीं। दावा ऐसे करते हैं, मानों सीधे ब्रह्मा से कॉन्फ्रेंस करके चले आ रहे हों।
और ऐसे चितकबरों को भाव भी बहुत मिलता है। इनमें से कुछ तो मीडिया में भी छाए रहते हैं। वे टीवी में भी दिखते हैं, अखबारों में भी छपते हैं। द्रविड़ के संन्यास पर ये ही आपको बताएंगे कि यह सही समय पर लिया फैसला है या नहीं। तेंदुलकर को कब बल्ला टांग देना चाहिए, इसका इलहाम भी इन्हें ही होगा। टीम की जीत-हार से लेकर, खिलाड़ी की खूबी-कमी, पिच का मिजाज, क्या हो, क्या नहीं... सब पर ये ज्ञान पिलाएंगे। लेकिन इन बातों के बाजीगरों से कोई पूछे खुद इन्होंने क्या तीर मारा? अब क्रिकेट में हिंदुस्तान को जीतने की आदत लगे, कप-मैडल के साथ डेटिंग करते, १०-१५ साल तो हुए ही हैं। इसके पहले तो हालत ऐसी थी, जैसे महीनों से भूखे को रोटी मिले। सारी खींचतान, उठापटक ही ड्रॉ के लिए होती थी। लेकिन ये ऐसे बोलेंगे, मानों जीतने के फंडे इन्ही के पास हैं।
अच्छा, ऐसे फंडेबाज फिल्मलाइन में भी हैं। जो फ्लॉप तो एक तरफ, अच्छी फिल्म का भी पोस्टमार्टम करके, उसमें हजार कमियां गिना देंगे। आड़े-तिरछे सारे एंगल से समीक्षा करेंगे, जी भर कर ज्ञान पेलेंगे। लेकिन जब खुद फिल्म बनाएंगे, तो वही ढाक के तीन पात। जीरो बटे सन्नाटा। हफ्ते भर में टॉकीज से पोस्टर उतर आए।
वैसेे, ज्ञान बांटने वालों का किसी लाइन में तोड़ा (कमी) नहीं है। क्या सियासत, क्या धर्म, हर क्षेत्र में इन्होंने झंडे गाड़ रखे हैं। औपचारिक-अनौपचारिक, जैसा बन पड़े, ये लपर-लपर ज्ञान बांटते हैं...  सड़क पर, चैनल पर, मंच पर, किताबें छपाकर, कैसे भी। लेकिन जैसे हाथी के दांत होते हैं ना, खाने के और दिखाने के और। वैसी ही इनकी बातें होती हैं- केवल कहने वाली और, फॉलो करने वाली और।
इवेंट कुछ भी हो, ये मुंह उठाए चले आते हैं। माकूल अवसर मिला नहीं, कुकुरमुत्ते जैसा उग जाते हैं। अब ज्ञान बांटने में कुछ जाता तो है नहीं। कुछ करके दिखाना तो है नहीं। बस मुंह फाडऩा है और जो अटरम-सटरम दिमाग में आए, उसे दार्शनिक अंदाज में कह देना है। चूना लगे ना फिटकरी। इतना करने में किसी के बाप का क्या जाता है? और कुछ ऊंच-नीच, गफलत हो भी जाए, तो कुछ बिगड़ता तो है नहीं। कोई गलतबयानी का केस ठोंकने तो जा नहीं रहा। कोई जूता मारने तो आ नहीं रहा। इसीलिए ये ज्ञानचंद ऑफिशियली-अनऑफिशियली बातों की बमबार्डिंग करते रहते हैं। जहां पाए वहां मुंह मारते रहते हैं।
जार्ज बर्नार्ड शॉ ने 'मैक्सिजम फॉर रिवोल्यूशनरिस्टÓ में तंज कसा है- 'जो कर सकता है, वह करता है। जो नहीं कर सकता, वह सिखाता है।Ó यह लिखते समय उसके दिमाग में शायद ऐसे ही बातों के खलीफा रहे होंगे। ---
यह आर्टिकल थोड़ा फेरबदल के साथ भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित हुआ था। एडिट पेज के इंचार्ज थोड़ा डिफेंसिव हैं, ज्यादा आक्रमकता या तीखापन उन्हें डराता है। इसीलिए पेज के नेचर के अनुकूल ना होने की बात कहकर उन्होंने अनेक चीजों में बदलाव किया है, लेख का तीखापन कम किया है। इसके चलते कई जगह मैटर की हारमनी भी बदल गई है।  आर्टिकल की लिंक ये रही... http://www.bhaskar.com/article/