कहना हमेशा से आसान रहा है और करना उतना ही कठिन। इसीलिए कहने वालों, यानी न करने वालों, यानी केवल ज्ञान बांटने वालों की, कभी-भी, कहीं-भी कमी नहीं रही। 'ज्ञान बांटनाÓ शायद दुनिया का सबसे आसान काम है, इसीलिए हर चौक, हर गली 'ज्ञानियोंÓ से गुलजार रहती है। सड़क से सं...द तक, गांव से शहर तक, हर ओर इस कला के पारखी खूंटा गाड़ के बैठे मिलते हैं। हर गुलशन इनसे आबाद रहता है, हर तरफ ये महकते रहते हैं।
अच्छा, ऐसा मत सोच लेना कि ज्ञान बांटने का कॉपीराइट केवल पके बाल वालों के पास है, जैसा कि आमतौर पर सोचा जाता है। अजी, सर्वहारा वर्ग की इसमें मास्टरी है। फुलटाइम काम करने वाले भी इसमें पार्टटाइम हाथ आजमाते हैं। यहां तक कि लंगड़े घोड़े भी रेस जीतने के फंडे बताते हैं, गूंगे भी 'हाऊ टू स्पीकÓ कोर्स चलाते हैं। कसम से... ऐसे-ऐसे लोग ज्ञान बांटते दिखते हैं, जो न लीपने के हैं न पोतने के (और न ही कभी थे)। जिन्होंने खुद कोई कमाल नहीं किया, लेकिन बातें ऐसी करते हैं, मानों उनसे बड़ा जानकार कोई नहीं। दावा ऐसे करते हैं, मानों सीधे ब्रह्मा से कॉन्फ्रेंस करके चले आ रहे हों।
और ऐसे चितकबरों को भाव भी बहुत मिलता है। इनमें से कुछ तो मीडिया में भी छाए रहते हैं। वे टीवी में भी दिखते हैं, अखबारों में भी छपते हैं। द्रविड़ के संन्यास पर ये ही आपको बताएंगे कि यह सही समय पर लिया फैसला है या नहीं। तेंदुलकर को कब बल्ला टांग देना चाहिए, इसका इलहाम भी इन्हें ही होगा। टीम की जीत-हार से लेकर, खिलाड़ी की खूबी-कमी, पिच का मिजाज, क्या हो, क्या नहीं... सब पर ये ज्ञान पिलाएंगे। लेकिन इन बातों के बाजीगरों से कोई पूछे खुद इन्होंने क्या तीर मारा? अब क्रिकेट में हिंदुस्तान को जीतने की आदत लगे, कप-मैडल के साथ डेटिंग करते, १०-१५ साल तो हुए ही हैं। इसके पहले तो हालत ऐसी थी, जैसे महीनों से भूखे को रोटी मिले। सारी खींचतान, उठापटक ही ड्रॉ के लिए होती थी। लेकिन ये ऐसे बोलेंगे, मानों जीतने के फंडे इन्ही के पास हैं।
अच्छा, ऐसे फंडेबाज फिल्मलाइन में भी हैं। जो फ्लॉप तो एक तरफ, अच्छी फिल्म का भी पोस्टमार्टम करके, उसमें हजार कमियां गिना देंगे। आड़े-तिरछे सारे एंगल से समीक्षा करेंगे, जी भर कर ज्ञान पेलेंगे। लेकिन जब खुद फिल्म बनाएंगे, तो वही ढाक के तीन पात। जीरो बटे सन्नाटा। हफ्ते भर में टॉकीज से पोस्टर उतर आए।
वैसेे, ज्ञान बांटने वालों का किसी लाइन में तोड़ा (कमी) नहीं है। क्या सियासत, क्या धर्म, हर क्षेत्र में इन्होंने झंडे गाड़ रखे हैं। औपचारिक-अनौपचारिक, जैसा बन पड़े, ये लपर-लपर ज्ञान बांटते हैं... सड़क पर, चैनल पर, मंच पर, किताबें छपाकर, कैसे भी। लेकिन जैसे हाथी के दांत होते हैं ना, खाने के और दिखाने के और। वैसी ही इनकी बातें होती हैं- केवल कहने वाली और, फॉलो करने वाली और।
वैसेे, ज्ञान बांटने वालों का किसी लाइन में तोड़ा (कमी) नहीं है। क्या सियासत, क्या धर्म, हर क्षेत्र में इन्होंने झंडे गाड़ रखे हैं। औपचारिक-अनौपचारिक, जैसा बन पड़े, ये लपर-लपर ज्ञान बांटते हैं... सड़क पर, चैनल पर, मंच पर, किताबें छपाकर, कैसे भी। लेकिन जैसे हाथी के दांत होते हैं ना, खाने के और दिखाने के और। वैसी ही इनकी बातें होती हैं- केवल कहने वाली और, फॉलो करने वाली और।
इवेंट कुछ भी हो, ये मुंह उठाए चले आते हैं। माकूल अवसर मिला नहीं, कुकुरमुत्ते जैसा उग जाते हैं। अब ज्ञान बांटने में कुछ जाता तो है नहीं। कुछ करके दिखाना तो है नहीं। बस मुंह फाडऩा है और जो अटरम-सटरम दिमाग में आए, उसे दार्शनिक अंदाज में कह देना है। चूना लगे ना फिटकरी। इतना करने में किसी के बाप का क्या जाता है? और कुछ ऊंच-नीच, गफलत हो भी जाए, तो कुछ बिगड़ता तो है नहीं। कोई गलतबयानी का केस ठोंकने तो जा नहीं रहा। कोई जूता मारने तो आ नहीं रहा। इसीलिए ये ज्ञानचंद ऑफिशियली-अनऑफिशियली बातों की बमबार्डिंग करते रहते हैं। जहां पाए वहां मुंह मारते रहते हैं।
जार्ज बर्नार्ड शॉ ने 'मैक्सिजम फॉर रिवोल्यूशनरिस्टÓ में तंज कसा है- 'जो कर सकता है, वह करता है। जो नहीं कर सकता, वह सिखाता है।Ó यह लिखते समय उसके दिमाग में शायद ऐसे ही बातों के खलीफा रहे होंगे। ---
यह आर्टिकल थोड़ा फेरबदल के साथ भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित हुआ था। एडिट पेज के इंचार्ज थोड़ा डिफेंसिव हैं, ज्यादा आक्रमकता या तीखापन उन्हें डराता है। इसीलिए पेज के नेचर के अनुकूल ना होने की बात कहकर उन्होंने अनेक चीजों में बदलाव किया है, लेख का तीखापन कम किया है। इसके चलते कई जगह मैटर की हारमनी भी बदल गई है। आर्टिकल की लिंक ये रही... http://www.bhaskar.com/article/
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