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03 September 2012

विश्रांत होने के चार तल ( निष्क्रिय विधियां)

ऐसी परिस्थिति में, जब आप सक्रिय ध्यान विधियों का प्रयोग नहीं कर सकते, आप के लिये दो साधारण लेकिन प्रभावशाली निष्क्रिय विधियां उपलब्ध हैं। ध्यान रहे कि इसके इलावा आप हमारे साप्ताहिक स्तंभ ंइस सप्ताह के ध्यानं और ंव्यस्त व्यक्तियोंं के लिये में और भी विधियां पायेंगे।

श्वास को देखना

श्वास को देखना एक ऐसी विधि है जिसका प्रयोग कहीं भी, किसी भी समय किया जा सकता है, तब भी जब आप के पास केवल कुछ मिनटों का समय हो। आती जाती श्वास के साथ आपको केवल छाती या पेट के उतार-चढ़ाव के प्रति सजग होना है। या फिर इस विधि को आजमायें:

प्रथम चरण: भीतर जाती श्वास को देखना

अपनी आंखें बंद करें अपने श्वास पर ध्यान दें। पहले श्वास के भीतर आने पर, जहां से यह आपके नासापुटों में प्रवेश करता है, फिर आपके फेफड़ों तक।

दूसरा चरण: इससे आगे आने वाले अंतराल पर ध्यान

श्वास के भीतर आने के तथा बाहर जाने के बीच एक अंतराल आता है। यह अत्यंत मूल्यवान है। इस अंतराल को देखें।

तीसरा चरण: बाहर जाती श्वास पर ध्यान

अब प्रश्वास को देखें

चौथा चरण: इससे आगे आने वाले अंतराल पर ध्यान

प्रश्वास के अंत में दूसरा अंतराल आता है: उस अंतराल को देखें। इन चारों चरणों को दो से तीन बार दोहरायें- श्वसन-क्रिया के चक्र को देखते हुए, इसे किसी भी तरह बदलने के प्रयास के बिना, बस केवल नैसर्गिक लय के साथ।

पांचवां चरण: श्वासों में गिनती

अब गिनना प्रारंभ करें: भीतर जाती श्वास - गिनें, एक (प्रश्वास को न गिनें) भीतर जाती श्वास - दो; और ऐसे ही गिनते जायें दस तक। फिर दस से एक तक गिनें। कई बार आप श्वास को देखना भूल सकते हैं या दस से अधिक गिन सकते हैं। फिर एक से गिनना शुरू करें।

"इन दो बातों का ध्यान रखना होगा: सजग रहना, विशेषतया श्वास की शुरुआत व अंत के बीच के अंतराल के प्रति। उस अंतराल का अनुभव हैं आप, आपका अंतरतम केंद्र, आपका अंतस। और दूसरी बात: गिनते जायें परंतु दस से अधिक नहीं; फिर एक पर लौट आयें; और केवल भीतर जाती श्वास को ही गिनें।

इनसे सजगता बढऩे में सहायता मिलती है। आपको सजग रहना होगा नहीं तो आप बाहर जाती श्वास को गिनने लगेंगे या फिर दस से ऊपर निकल जायेंगे।

यदि आपको यह ध्यान विधि पसंद आती है तो इसे जारी रखें। यह बहुमूल्य है।" ओशो

व्यस्त लोगों के लिए ध्यान

बस "हां" कहो ((ओशो की ध्यान पद्धति.)
" जीवन को नकार से नहीं जिया जा सकता, और जो जीवन को नकार से जीने का प्रयत्न करते हैं वे जीवन को केवल गंवा देते हैं। आप नकार को अपना आशियाना नहीं बना सकते क्योंकि नकार पूरी तरह खाली है। नकार अंधेरे की तरह है। अंधेरे का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता; यह केवल प्रकाश की अनुपस्थिति है। इसलिए आप सीधे-सीधे अंधेरे के साथ कुछ नहीं कर सकते। आप इसे कमरे से बाहर धकेल नहीं सकते, आप इसे पड़ोसी के घर में नहीं फेंक सकते; और आप अपने घर में और अधिक अंधेरा नहीं ला सकते। अंधेरे के साथ सीधे कुछ नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह नहीं है। यदि आप अंधेरे के साथ कुछ करना चाहते हैं, तो प्रकाश को बुझा दें; यदि आप अंधेरा नहीं चाहते, प्रकाश को जला दें। लेकिन जो कुछ भी आपको करना है वह प्रकाश के साथ करना है।'
' ठीक उसी तरह, हां प्रकाश है, नकार अंधेरा है। यदि आप अपने जीवन में वास्तव मेम कुछ करना चाहते हैं, आप को हां कहना सीखना पड़ेगा। और हां कहना अत्यधिक सुंदर है; मात्र हां कहना अधिक शिथिल करने वाला है। इसे सहजतापूर्वक अपनी जीवन शैली बना लो। वृक्षों से, पक्षियों से और लोगों से हां कहना शुरु करो, और तुम आश्चर्य चकित हो जाओगे: जीवन एक आशीर्वाद हो जाएगा यदि तुम इसे हां कहने लगो। जीवन एक महान साहसिक कृत्य हो जएगा।
जोरबा दि बुद्धा
विधि:
समय: प्रत्येक रात्रि, सोने से पहले, कम से कमे 10 मिनिट ; फिर सुबह सबसे पहले कम से कम 3 मिनिट। दिन में भी, जब भी आप नकारात्मक महसूस करें, अपने बिस्तर पर बैठ जाएं और इसे करें।
पहला चरण: हां  में अपनी ऊर्जा लगना शुरु करें, हां को एक मंत्र बनालें। अपने बिस्तर पर बैठे हुए, हां... हां... दुहराना शुरु करें। इसए साथ एक धुन में हो जाएं। पहले आप इसे दुहरा रहेम होगे फिर इसके साथ लयबद्ध हो जाएं, इसके साथ झूमें।  इसे सिर से पांव तक अपने पूरे अस्तित्व को आच्छादित करने दें। इसे गहराई तक अपने में प्रवेश करने दें।
दूसरा चरण: " यदि इसे जोर से नहीं कह सकते, तो धीमे से हां...हां...हां दुहराएं!
(ओशो की ध्यान पद्धति... ओशो डॉटकॉम से साभार)

निर्विचार कैसे हुआ जाए?

जिसे निर्विचार होना हो, उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए । उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए। इसकी सजगता उसके भीतर होनी चाहिए कि वह व्यर्थ के विचारों का पोषण न करे, उन्हें अंगीकार न करे, उन्हें स्वीकार न करे और सचेत रहे कि मेरे भीतर विचार इक_े न हो जाएं। इसे करने के लिए जरूरी होगा कि वह विचारों में जितना भी रस हो, उसको छोड़ दे।

हमें विचारों में बहुत रस है। अगर आप एक धर्म को मानते हैं, तो उस धर्म के विचारों में आपको बहुत रस है।
जिसे निर्विचार होना है, उसे विचारों के प्रति विरस हो जाना चाहिए। उसे किसी विचार में कोई रस नहीं रह जाना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि विचार से कोई प्रयोजन नहीं, इसलिए उसमें कोई रस रखने का कारण नहीं। कैसे वह विरस होगा?

यह संभव होगा विचारों के प्रति जागरूकता से। अगर हम अपने विचारों के साक्षी बन सकें—और यह बन सकना कठिन नहीं है—अगर हम अपने विचारों की धारा को दूर खड़े होकर देखना शुरू करें, तो क्रमश: जिस मात्रा में आपका साक्षी होना विकसित होता है, उसी मात्रा में विचार शून्य होने लगते हैं।

विचार को शून्य करने का उपाय है विचार के प्रति पूर्ण सजग हो जाना। जो व्यक्ति जितना सजग हो जाएगा विचारों के प्रति, उतने ही विचार उसी भांति उसके मन में नहीं आते, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर न आएं। और घर में अंधकार हो तो चोर झांकें और अंदर आना चाहें।

भीतर जो होश को जगा लेता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं। जितनी मूर्च्छा होती है भीतर, जितना सोयापन होता है भीतर, उतने ज्यादा विचारों का आगमन होता है। जितना जागरण होता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं।

निर्विचार होने का उपाय है: विचारों के प्रति साक्षी-भाव को साधना। कोई एक क्षण में सध जाएगा, यह नहीं कहता। कोई एक दिन में सध जाएगा, यह भी नहीं कह रहा हूं। लेकिन अगर निरंतर प्रयास हो, तो थोड़े ही दिनों में आपको पता चलेगा कि जैसे-जैसे आप विचारों को देखने लगेंगे...कभी घंटे भर को किसी एकांत कोने में बैठ जाएं और कुछ भी न करें, सिर्फ विचारों को देखते रहें। कुछ भी न करें उनके साथ, कोई छेड़-छाड़ न करें, सिर्फ उन्हें देखते रहें। और देखते-देखते ही धीरे-धीरे आपको पता चलेगा, वे कम होने लगे हैं। देखना जैसे-जैसे गहरा होगा, वैसे-वैसे वे विलीन होने लगेंगे। जिस दिन देखना पूरा हो जाएगा, जिस दिन आप अपने भीतर आर-पार देख सकेंगे, जिस दिन आपकी आंख बंद होगी और आपकी दृष्टि भीतर पूरी की पूरी देख रही होगी, उस दिन आप पाएंगे—कोई विचार का कोलाहल नहीं है, वे गए। और जब वे चले गए होंगे, उसी शांत क्षण में आपको अदभुत दृष्टि, अदभुत दर्शन, अदभुत आलोक का अनुभव होगा। वह अनुभव ही सत्य का दर्शन है। और वही अनुभव स्वयं का दर्शन है। स्वयं के माध्यम से ही सत्य जाना जाता है। और कोई द्वार नहीं है।

स्वयं के द्वार से ही सत्य को जाना जाता है। और सत्य को जान लेना आनंद में प्रतिष्ठित हो जाना है। असत्य में होना दुख में होना है। अज्ञान में होना दुख में होना है। और सत्य की उस ज्ञान-दशा में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद और आत्मा अलग न समझें। आनंद और सत्य अलग न समझें। स्वयं और सत्य अलग न समझें। ऐसी जो प्रक्रिया का उपयोग क्रमश: अपने जीवन में करेगा, वह कभी निर्विचार को अनुभव कर लेता है। निर्विचार को जो अनुभव कर लेता है, उसकी पूरी विचार की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसे च्रु मिल जाते हैं।

जैसे किसी ने अंधेरे में प्रकाश कर दिया हो या जैसे किसी ने अंधे को आंख दे दी हों, ऐसा उसे अनुभव होता है। यह अगर क्रमिक साधना इसकी हो तो निश्चित ही उपलब्ध हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है और हकदार है। जो अपने अधिकार को मांगेगा, उसे मिल जाता है। जो उसे छोड़े रखता है, वह खो देता है। ( ओशो अमृत की दिशा/ 2)

मन के बहुत चेहरे

मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार—ये क्या अलग-अलग हैं?
ये अलग-अलग नहीं हैं, ये मन के ही बहुत चेहरे हैं। जैसे कोई हमसे पूछे कि बाप अलग है, बेटा अलग है, पति अलग है? तो हम कहें कि नहीं, वह आदमी तो एक ही है। लेकिन किसी के सामने वह बाप है, और किसी के सामने वह बेटा है, और किसी के सामने वह पति है; और किसी के सामने मित्र है और किसी के सामने शत्रु है; और किसी के सामने सुंदर है और किसी के सामने असुंदर है; और किसी के सामने मालिक है और किसी के सामने नौकर है। वह आदमी एक है। और अगर हम उस घर में न गए हों, और हमें कभी कोई आकर खबर दे कि आज मालिक मिल गया था, और कभी कोई आकर खबर दे कि आज नौकर मिल गया था, और कभी कोई आकर कहे कि आज पिता से मुलाकात हुई थी, और कभी कोई आकर कहे कि आज पति घर में बैठा हुआ था, तो हम शायद सोचें कि बहुत लोग इस घर में रहते हैं—कोई मालिक, कोई पिता, कोई पति। हमारा मन बहुत तरह से व्यवहार करता है। हमारा मन जब अकड़ जाता है और कहता है: मैं ही सब कुछ हूं और कोई कुछ नहीं, तब वह अहंकार की तरह प्रतीत होता है। वह मन का एक ढंग है; वह मन के व्यवहार का एक रूप है। तब वह अहंकार, जब वह कहता है—मैं ही सब कुछ! जब मन घोषणा करता है कि मेरे सामने और कोई कुछ भी नहीं, तब मन अहंकार है। और जब मन विचार करता है, सोचता है, तब वह बुद्धि है। और जब मन न सोचता, न विचार करता, सिर्फ तरंगों में बहा चला जाता है, अन-डायरेक्टेड...। जब मन डायरेक्शन लेकर सोचता है—एक वैज्ञानिक बैठा है प्रयोगशाला में और सोच रहा है कि अणु का विस्फोट कैसे हो—डायरेक्टेड थिंकिंग, तब मन बुद्धि है। और जब मन निरुद्देश्य, निर्लक्ष्य, सिर्फ बहा जाता है—कभी सपना देखता है, कभी धन देखता है, कभी राष्ट्रपति हो जाता है—तब वह चित्त है; तब वह सिर्फ तरंगें मात्र है। और तरंगें असंगत, असंबद्ध, तब वह चित्त है। और जब वह सुनिश्चित एक मार्ग पर बहता है, तब वह बुद्धि है। ये मन के ढंग हैं बहुत, लेकिन मन ही है।

मन और आत्मा: चेतना के दो रूप
और वे पूछते हैं कि ये मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा अलग हैं या एक हैं? सागर में तूफान आ जाए, तो तूफान और सागर एक होते हैं या अलग? विक्षुब्ध जब हो जाता है सागर तो हम कहते हैं, तूफान है। आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं, मन है; और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं, आत्मा है। मन जो है वह आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था है; और आत्मा जो है वह मन की शांत अवस्था है। ऐसा समझें: चेतना जब हमारे भीतर विक्षुब्ध है, विक्षिप्त है, तूफान से घिरी है, तब हम इसे मन कहते हैं। इसलिए जब तक आपको मन का पता चलता है तब तक आत्मा का पता न चलेगा। और इसलिए ध्यान में मन खो जाता है। खो जाता है इसका मतलब? इसका मतलब, वे जो लहरें उठ रही थीं आत्मा पर, सो जाती हैं, वापस शांति हो जाती है। तब आपको पता चलता है कि मैं आत्मा हूं। जब तक विक्षुब्ध हैं तब तक पता चलता है कि मन है। विक्षुब्ध मन बहुत रूपों में प्रकट होता है—कभी अहंकार की तरह, कभी बुद्धि की तरह, कभी चित्त की तरह—वे विक्षुब्ध मन के अनेक चेहरे हैं। (जिन खोजा तिन पाइया / 2)

30 August 2012

संतों में कोहिनूर

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन से बारह लोग है—मेरी दृष्‍टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे है? मैंने उन्‍हें सूची दी: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर,नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्‍ण, कृष्‍ण मूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखे बंद कर लीं, सोच में पड़ गए…..।
सूची बनानी आसान भी नहीं है—क्‍योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है। किसे छोड़ो और किसे गिनों? वे प्‍यारे व्‍यक्‍ति थे—अति कोमल अति माधुर्यपूर्ण स्‍त्रैण…..। वृद्धावस्‍था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतम होते गये थे….। मैं उनके चेहरे पर आते जाते भाव पढ़ने लगा। उन्‍हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम जो स्‍वभावत: होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था। उन्‍होंने आंखे खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने। मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। फिर मैंने बारह नाम ऐसे चुने है। जिनको कुछ मौलिक देन है। राम की कोई मौलिक देन नहीं है। कृष्‍ण की मौलिक देन है। इसलिए हिंदुओं ने भी उन्‍हें पूर्णावतार कहा है राम को नहीं कहां।
उन्‍होंने फिर मुझसे पूछा: तो फिर ऐसा करें सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गई थी। मैंने उन्‍हें सात नाम दिये: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्‍होंने कहा आपने जो पाँच नाम छोड़ दिये, वे किस आधार पर। मैंने कहां नागार्जुन बुद्ध में सम्‍माहित है। जो बुद्ध में बीज-रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते है। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते है। बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्‍योंकि बीज से फिर वृक्ष हो जाएगा। जहां बुद्ध पैदा होंगे वहां सैकडों नागार्जुन पैदा हो जाएंगे, लेकिन कोर्इ नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री है, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्‍ते पर आये हुए एक तीर्थ स्‍थल है—प्‍यारे है, अगर छोड़ना हो तो तीर्थ स्थल छोड़े जा सकते है। गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती है।
ऐसे ही कृष्‍ण मूर्ति भी बुद्ध में समा जाते है। रामकृष्‍ण, कृष्‍ण में सरलता से लीन हो जाते है। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते है। जैसे कबीर की ही साखायें है। जैसे कबीर में जो इक्कठ्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरूष रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा सिक्‍ख धर्म क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आर्श्‍चय नहीं है। मीरा में कबीर का स्‍त्रैण रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध सारा सुवास, सारा संगीत,मीरा के पैरों में धुँघरू बन कर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है, नानक में कबीर का पुरूष रूप बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते है।
इस तरह मैंने सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्‍सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्‍होंने कहा: और अगर पाँच की सूची बनाई जाए तो। मैंने कहां काम मेरे लिए कठिन हो गया है। मैंने यह सूची उन्‍हें दी: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख….। क्‍योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल है। गोरख नहीं छोड़े जा सकता। और शंकर तो कृष्‍ण में सरलता से लीन हो जाते है। कृष्‍ण के ही एक अंग की व्‍याख्‍या है, कृष्‍ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है।
तब तो वे बोले: बस एक बार और….। अगर चार ही रखने हों।
तो मैंने कहां:’’ कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, गोरख….। क्‍योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्‍न नहीं है। थोडे ही भिन्‍न है। जरा-सा ही भेद है। वह भी अभिव्‍यक्‍ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हाँ सकती है।
वे कहने लगे एक बार और …..। अब तीन व्‍यक्‍ति चुनें।
तब मैंने कहां: अब असंभव है। अब इन चार में से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता। मैंने उन्‍हें कहां: जैसे चार दशाएं है, ऐसे ये चार व्‍यक्‍तित्‍व है। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम है, ऐसे ये चार आयाम है। जैसे परमात्‍मा की हमने चार भुजाओं सोची है, ऐसी ये चार भू जाएं है। ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक की चार भुजाएं है। अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसे है। यह मैं न कर सकूंगा। अभी तक में आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्‍या कम करता रहा। क्‍योंकि अभी तक जो अलग करना पडा वह वस्‍त्र था, अब अंग तोड़ने पड़ेंगे। अंग-भंग मैं न कर सकूंगा। ऐसी हिंसा आप न करवायें।
वे कहने लगे: आपने महावीर को छोड़ दिया, गोरख को नहीं?
गोरख को नहीं छोड़ सकता हूं, क्‍योंकि गोरख से इस देश में एक नया ही सूत्रपात हुआ है, महावीर से न कोई नया नहीं हुआ है। वे अपूर्व पुरूष है। मगर जो सदियों से कहा गया था, उन्‍होंने उसकी पुनरूक्ति की है। वे किसी यात्रा का प्रांरभ नहीं है। वे किसी नया शृंखला की पहली कड़ी नहीं है, बल्‍कि अंतिम कड़ी है।
गोरख एक शृंखला की पहली कड़ी है। उनसे नए प्रकार के धर्म का जन्‍म हुआ, अविभाव हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते थे, न नानक हो सकते थे। न दादू, ना वाजिद, न फरिद, न मीरा, गोरख के बिना ये कोर्इ भी न हो सकते थे। इन सब के मौलिक आधार गोरख में है। फिर मंदिर बहुत ऊँचा उठा। मंदिर पर बड़े स्‍वर्ण कलश चढ़े…..। लेकिन नींव का पत्‍थर नींव का पत्‍थर है। और स्‍वर्ण कलश दूर से दिखाई दे जाते है। लेकिन नीव के पत्‍थर से ज्‍यादा मूल्‍यवान नहीं हो सकते है। और नींव भित्‍तियों सारे शिखर…। शिखर की पूजा होती है, बुनियाद के पत्‍थरों को तो लोग भूल ही जाते है। ऐसे ही गोरख भी भूल गए थे।
लेकिन भारत की सारी संत-परंपरा गोरख की ऋणी है। जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जाएगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्‍यान की आधारशिला उखड जायेगी। जैसे कृष्‍ण के बिना प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति को मार्ग न मिलेगा—ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्‍य को पाने के लिए विधियों की मनुष्‍य के भीतर अंतर खोज के लिए उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है। उन्‍होंने इतनी विधियां दी की अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक है। इतने द्वार तोड़े मनुष्‍य के अंतरतम में जाने के लिए, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गये।
इसलिए हमारे पास एक शब्‍द चल पडा है—गोरख को तो लोग भूल गए—गोरखधंधा शब्‍द चल पडा है। उन्‍होंने इतनी विधियों दीं की लोग उलझ गये की कौन ठीक और कौन गलत, कौन सी करे और कौन सी न करे। अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते है, क्‍या गोरख धंधे में उलझ गया है।
गोरख के पास अपूर्व व्‍यक्‍तिव था, जैसे आइंस्‍टीन के पास व्‍यक्‍तित्‍व था। जगत के सत्‍य को खोजने के लिए जो पैने से पैने उपाय अल्बर्ट आइंस्‍टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिये थे। हां,अब उनका विकास हो सकता है, उन पर और धार रखी जा सकेगी। मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है। जो पीछे आयेंगे वे नंबर दो होंगे। वे अब प्रथम नहीं हो सकते। राह पहली तो आइंस्‍टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्‍का करनेवाले, मजबूत करने वाले मील के पत्‍थर लगाने वाले, सुंदर बनानेवाले, सुगम बनानेवाले बहुत लोंग आयेंगे। मगर आइंस्‍टीन की जगह अब कोर्इ भी नहीं ले सकता। ऐसी ही घटना अंतर जगत में गोरख के साथ घटी है।
लेकिन गोरख को लोग भूल गये, गोरख जिस खादन के हीरे है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्‍चा होता है। अगर गोरख और कबीर बैठे हो तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे,गोरख से नहीं। क्‍यो गोरख तो खादन से निकला हीरा है और कबीर—जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की, जिन पर खूब छेनी चली है। जिनको खूब निखार दिया गया है।
यह तो तुम्‍हें पता है ना कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है। उसने बच्‍चों को खेलने के लिए दे दिया था, समझकर की कोई रंगीन पत्‍थर है। गरीब आदमी था। उसके खेत से बहती एक छोटी से नदी की धार में कोहिनूर मिला था। महीनों उसके घर पडा रहा। कोहिनूर बच्‍चे खेलते रहे, फेंकते रहें इस कोने से उस कोने, आँगन में पडा रहा….।
तुम पहचान न पाते कोहिनूर को उसका वज़न तीन गुना था आज को कोहिनूर से। उस पर धार रखी गई, निखार किये गये काटे गए, उस के पहलु उभारे गये, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्‍यादा हो गया। क्‍योंकि गोरख तो अभी गोलकोंड़ा की खादन से निकले कोहिनूर हीरे है। कबीर पर धार रखी गई है। जौहरी ने मेहनत करी है….कबीर पहचाने जा सकते है।
गोरख का नाम भूल गए है। बुनियाद के पत्‍थर भूल जाते है।
ओशो—मरौ है जोगी मरौ, (प्रवचन-1)

वाचस्‍पति और भामति

वाचस्‍पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्‍पति की कुछ समझ में नहीं आया। इसलिए उन्‍होंने हां भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्‍पति लगा था परमात्‍मा की खोज में। उसे कुछ और समझ में नहीं आ रहा था। कोई कुछ भी बोले,वह परमात्‍मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्‍पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा हां।
उसने शायद कुछ और सुना होगा, की परमात्‍मा से मिलोंगे। जैसा की हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है उससे कहो, धर्म खोजोंगे? वह समझता है,शायद कह रहे है, धन खोजोंगे, उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है। वहीं हम सुन पाते है। वाचस्‍पति ने शायद सुना; हां भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा कहां ले जा रहे हो? उसके पिता ने कहा, पागल तूने हां भरी थी। विवाह करने चल रहे है। तो फिर उसने न कहना उचित न समझा; क्‍योंकि जब हाँ भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्‍मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्‍नी घर में आ गई, और वाचस्‍पति को ख्‍याल ही न रहा। रहता भी क्‍या। न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्म सूत्र पर एक टीका लिखता रहा। वह बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्‍नी रोज सांझ दीपक जला जाती। रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता तो चुपके से उसकी थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष के लम्‍बे समय तक अपनी पत्‍नी का वहां होने का वाचस्‍पति को पता ही नहीं चला। की वह वहां है। पत्‍नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए; बल्‍कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्‍योंकि उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्‍पति का काम आधी रात को पूरा हुआ और वाचस्‍पति उठने लगे, तो उनकी पत्‍नी ने दीया उठाया—उनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्‍तर तक पहली दफा बारह वर्ष में, कथा कहती है। वाचस्‍पति ने अपनी पत्‍नी का हाथ देखा। क्‍योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्‍त हुआ था। अब मन बंधा नहीं था किसी काम में। हाथ देखा, चूड़ियाँ देखीं, चूड़ियों की आवज सूनी, लौट कर पीछे देखा और कहा, स्‍त्री, इस आधी रात अकेले मेरी कुटिया में। तू कौन है? यहां कैसे आई। द्वारा दरवाजे तो सब बंध है। तू कहां से आई है? इतनी रात को एक पराये मर्द के कमरे में। चल तू जहां से आई है मैं तुझे वहां पहुंचा दूँ।
उसकी पत्‍नी ने कहा: शायद आप भूल गये होगें। बहुत काम था। बाहर वर्ष से आप इस काम में लगे हो। आप आपने काम में इतना तल्लीन हो। आपके आस पास क्‍या घट यहाँ है, कोन आता है। इसकी खबर तक नहीं है। बारह वर्ष पहले आप ख्‍याल करो, शायद याद आ जाये। आप मुझे पत्‍नी की तरह घर लेकर आये थे। तब से मैं यहीं हूं।
वाचस्‍पति रोने लगा। उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई। क्‍योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस देन यह ग्रंथ पूरा हो जायेगा, उसी दिन घर का त्‍याग कर दूँगा। तो यह तो मेरे जाने का वक्‍त हो गया। भोर होने के करीब है; तो मैं तो जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्‍यों नहीं बताया। थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई है।
वाचस्‍पति की आंखों में आंसू देख कर पत्‍नी ने अपना सर उनके चरणों में रख दिया। और कहने लगी: जो भी मुझे मिल सकता था। वह इन आंसुओं से मिल गया। इससे सुंदर और क्‍या हो सकता है। यही आपकी पूर्णता एक दिन मुझे भी पूर्ण कर देगा। इससे कीमती और दुनियां में कुछ और हो भी नहीं सकता हे। अब मुझ कुछ भी नहीं चाहिए। आप निश्‍चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी? मैं धन्‍य हुई, मुझे बहुत कुछ मिल गया। आप दिल पर बोझ ले कर मत जाना। सब निरझरा हो कर जाना।
वाचस्‍पति ने अपने ब्रह्म सूत्र की टीका का नाम ‘’ भामति’’ रखा है। भामति को कोई संबंध टीका से नहीं है। ब्रह्म सूत्र से कोई लेना देना नहीं है। यह उसकी अपनी पत्‍नी का नाम था। यह कह कर की मैं कुछ और तेरे लिए कर नहीं सकता हूं। लेकिन मुझे लोग चाहे भूल जाये। तुझे न भूले, इसलिए भामति नाम देता हूं। अपने ग्रंथ को। वाचस्‍पति को बहुत लोग भूल गए है; भामति को भूलना मुश्‍किल है। भामति लोग पढ़ते है। अद्भुत टीका है। ब्रह्म सूत्र की वैसी दूसरी टीका नहीं है। उस का नाम भामति है।
फेमिनिन मिस्‍ट्रि इस स्‍त्री के पास होगी। और मैं मानता हूं कि उस क्षण में उसने वाचस्‍पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष चेष्‍टा करके कोई स्‍त्री किसी पुरूष को नहीं पा सकती । उस क्षण में, उस क्षण‍ में वाचस्‍पति जिस भांति एक हो गया होगा इस सत्री के ह्रदय से, वैसा कोई पुरूष को कोई स्‍त्री कभी नहीं पा सकती । क्‍योंकि फेमिनिन मिस्ट्रि वह जो रहस्‍य है। वह अनुपस्‍थित का है।
छुआ क्‍या प्राण को वाचस्‍पति के? कि बारह वर्ष, और उस स्‍त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहां हूं। और वह रोज दिया उठाती रही होगी। जलती रही होगी। कपड़े धोती रही होगी स्‍नान का पानी खर देती होगी। भोजन परोस देती होगी। पर अपने होने का वाचस्‍पति को अहसान तक ने होने दिया, बहार ही नहीं वह अंदर के अहं को भी देखती रही है। कि में हूं। वाचस्‍पति ने कहा की आज तक तेरा हाथ भी मुझे क्‍यों न दिखाई दिया क्‍या में इतना अंधा हो गया था।
भामति ने कहां की अगर मेरा हाथ भी आपको दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित न हो गई होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती थी, कि आपको मेरे होने पता भी ने चले में अपने में इतनी विलय होकर आपके कमरे में आती थी कि मेरी उर्जा भी आपको छू नहीं पाती थी।
तो जरूरी नहीं कि कोई स्‍त्री स्‍त्रैण रहस्‍य को उपलब्‍ध ही हो। यह तो लाओत्‍से ने नाम दिया, क्‍योंकि यह नाम सूचक है और समझा सकता है। पुरूष भी हो सकता है। असल में आस्‍तित्‍व के साथ तादात्म्य उन्‍हीं को होता है। जो इस भांति प्रार्थना पूर्ण को उपलब्‍ध होते है।
इस स्‍त्रैण रहस्‍यमयी का द्वार स्‍वर्ग और पृथ्‍वी जन्‍मे और चाहे स्‍वर्ग, इस आस्‍तित्‍व की गहराई में जो रहस्‍य छिपा हुआ है। उससे ही सबका जन्‍म होता है। इसलिए मैंने कहा, जिन्‍होंने परमात्‍मा को मदर, मां की तरह देखा,दुर्गा या अंबा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्‍मा को पिता की तरह देखने से ज्‍यादा गहरी है। अगर परमात्‍मा कहीं भी है। तो वह स्‍त्रैण होगा। क्‍योंकि इतने बड़े जगत को जन्‍म देने का क्षमता पुरूष में नहीं है। इतने विराट चांद-तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।
ओशो ताओ उपनिषद—1, प्रवचन -18

तीर्थ - अल्‍कुफा एक रहस्‍य

तीर्थ शब्‍द का अर्थ होता है—घाट। उसका अर्थ होता है, ऐसी जगह जहां से हम उस अनंत सागर में उतर सकते है। जैनों का शब्‍द तीर्थकर तीर्थ से बना है, उसका अर्थ है तीर्थ को बनानेवाला। असल में उस को ही तीर्थ कहां जा सकता है। तीर्थकर कहा जा सकता है जिसने ऐसा तीर्थ निर्मित किया हो जहां साधारण जन खड़े होते, पाल खोलते, ऐसे ही यात्रा पर संलग्न हो जाए। अवतार न कहकर तीर्थकर कहा, और अवतार से बड़ी घटना तीर्थ कर है। क्‍योंकि परमात्‍मा, आदमी में अवतरित हो यह तो एक बात है लेकिन आदमी परमात्‍मा में प्रवेश का तीर्थ बना ले, यह और भी बड़ी बात हे।
जैन, परमात्‍मा में भरोसा करनेवाला धर्म नहीं है, आदमी की सामर्थ्‍य में भरोसा करनेवाला धर्म हे। इसलिए तीर्थ और तीर्थकर का जितना गहरा उपयोग जैन कर पाए उतना कोई भी नहीं कर पाया। क्‍योंकि यहां तो कोई ईश्‍वर की कृपा पर उनको ख्‍याल नहीं है। ईश्‍वर कोई सहारा दे सकता है। इसका कोई ख्‍याल नहीं है। आदमी अकेला है, और आदमी को अपनी ही मेहनत से यात्रा करनी है।
लेकिन दो रास्‍ते हो सकते है। एक-एक आदमी अपनी मेहनत करे। पर तब शायद कभी करोड़ो में एक आदमी उपलब्‍ध हो पाएगा। लेकिन हवाओं का सहारा लेकर यात्रा बड़ी आसान होती है। तो क्‍या अध्यात्मिक हवाएँ संभव है। उसपर ही तीर्थ का सब कुछ निर्भर है। क्‍या यह संभव है कि जब महावीर जैसा एक व्‍यक्‍ति खड़ा होता है तो उसके आप-पास किसी अनजाने आयाम में कोई प्रवाह शुरू होता है। क्‍या यह किसी एक ऐसी दिशा में बहाव को निर्मित करता है कि बहाव में कोई पड़ जाए तो बह जाए, वही बहाव तीर्थ है।
इस पृथ्‍वी पर तो उसके जो निशान है वह भौतिक निशान है, लेकिन वे स्‍थान न खो जाए इसलिए उन भौतिक निशानों की बड़ी सुरक्षा की गयी है। मंदिर बनाए गए है उन जगहों पर, या पैरों के चिन्‍ह बनाए गए है उन जगहों पर यह मूर्तियां खड़ी की गई है उन जगहों पर और उन जगह को हजारों वर्षो तक वैसा का वैसा रखने की चेष्टा की गयी है। इंच भर भी वह जगह न हिल जाए, जहां घटना घटी है कभी बड़े-बड़े खज़ाने गडाए गए है आज भी उनकी खोज चलती है।
जैसे की रूस के आखिरी जार का खजाना अमरीका में कहीं गड़ा है। जो कि पृथ्‍वी का सबसे बड़ा खजाना है, और आज भी खोज चलती है। वह खजाना है, यह पक्‍का है, क्‍योंकि बहुत दिन नहीं हुए…..अभी उन्‍नीस सौ सत्रह को घटे बहुत दिन नहीं हुए। उसका इंच-इंच हिसाब भी रखा गया है कि यह कहां होगा। लेकिन डि कोड नहीं हो पा रहा है। वह जो हिसाब रखा गया है उसको समझा नहीं जा पा रहा है कि एक्‍जैक्‍ट जगह कहां है।
जैसे कि ग्‍वालियर में एक बड़ा खजाना ग्‍वालियर फेमिली का है। जिसका फेमिली के पास सारा का सारा हिसाब है, लेकिन फिर भी जगह नहीं पकड़ी जा रही है कि वह जगह कहां है। वह डि कोड नहीं हो रहा है। नक्‍शा जो है—इस तरह से सब नक्‍शे गुप्‍त भाषा में ही निर्मित किए जाते हे। अन्‍यथा कोई भी डि कोड कर लेगा। समान्य भाषा में वे नहीं लिखे जाते।
इन तीर्थों की भी पूरा का पूरा सूचन है। इसलिए जरूरी है जैसा कि आम लोग समझ लेते है। और वह आम गड़बड़ न कर पाएँ इसलिए बड़े उपाय किए जाते है। वह मैं आपको कहूं तो बहुत हैरानी होगी। जैसे जहां आप जाते है ओर आपसे कहा जाता है कि यह जगह है जहां महावीर निर्वाण को उपलब्‍ध हुए—बहुत संभावना तो यह है कि वह जगह नहीं होंगी। उससे थोड़ी हटकर वह जगह होगी जहां उनका निर्वाण हुआ। उस जगह पर तो प्रवेश उनको ही मिल सकेगा, जो सच में ही पात्र है और उस यात्रा पर निकल सकते है। एक फाल्‍स जगह, एक झूठी जगह आम आदमी से बचाने की लिए खड़ी की जाएगी। जिसपर तीर्थयात्री जाता रहेगा। नमस्‍कार करता रहेगा और लौटता रहेगा। वह जगह तो उनको ही बतायी जाएगी जो सचमुच उस जगह आ गए है। जहां से वह सहायता लेने के योग्‍य है या उनको सहायता मिलनी चाहिए। ऐसी बहुत सी जगह है।
अरब में एक गांव है जिसमें आज तक किसी सभ्‍य आदमी को प्रवेश नहीं मिल सका—आज तक अभी भी। चाँद पर आप प्रवेश कर गए लेकिन छोटे से गांव अल्‍कुफा में आज तक किसी यात्री को प्रवेश नहीं मिल सका। सच तो यह है कि आज तक यह ठीक हो सका नहीं कि वह कहां है। और वह गांव है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं, क्‍योंकि हजारों साल से इतिहास उसकी खबर देता है। किताबें उसकी खबर देती है। उसके नक्‍शे है।
वह गांव कुछ बहुत प्रयोजन से छिपाकर रखा गया है। और सूफियों में जब कोई बहुत गहरी अवस्‍था में होता है तभी उसको उस गांव में प्रवेश मिलता है। उसकी सीक्रेट कि है। अल्‍कुफा के गांव में उसी सूफी को प्रवेश मिलता है जो ध्‍यान में उसका रास्‍ता खोज लेता है। अन्‍यथा नहीं। उसकी की हे फिर तो उसे कोई रोक भी नहीं सकता। अन्‍यथा कोई उपाय नहीं है। नक्‍शे है, सब तैयार है, लेकिन फिर भी उसका पता नहीं लगता वह कहां हे। वह सब एक अर्थ में नक्‍शे थोड़े से झूठ है ओर भटकाने के लिए है। उन नक़्शों को जो मानकर चलेगा वह अल्‍कुफा कभी नहीं पहुंच पाएगा।
इसलिए बहुत यात्री यूरोप के पिछले तीन सौ वर्षों में सैकड़ों यात्री अल्‍कुफा को ढूंढने गए है। उनमें से कुछ तो कभी लौटें नहीं मर गय। जो लौटे वे कभी कहीं पहुंचे नहीं। वे सिर्फ चक्‍कर मारकर वापस आ गए। सब तरह से कोशिश की जा चुकी है। पर उसकी कुंजी है। और वह कुंजी एक विशेष ध्‍यान है; और उस विशेष ध्‍यान में ही अल्‍कुफा पूरा का पूरा प्रगट होता है। और वह सूफी उठता है और चल पड़ता है। और जब इतनी योग्‍यता हो तभी उस गांव से गति है। वह एक सीक्रेट तीर्थ है जो इसलाम से बहुत पुराना है। लेकिन उसको गुप्‍त रखा गया है। इन तीर्थों में भी जो जाहिर है। इन तीर्थों में भी जो जाहिर दिखाई पड़ते है, वे असली तीर्थ नहीं है। आस पास असली तीर्थ है।
जैसे एक मजेदार घटना घटी। विश्वनाथ के मंदिर में काशी में जब विनोबा हरि जनों को लेकर प्रवेश कर गए, तो कर पात्री ने कहा कि कोई हर्ज नहीं, हम दूसरा मंदिर बना लेंगे, और दूसरा मंदिर बनाना शुरू कर दिया। वह मंदिर तो बेकर हो गया। तो दूसरा मंदिर बनाना शुरू कर दिया। साधारणत: देखने में विनोबा ज्‍यादा समझदार आदमी मालूम पड़ते है कर पात्री से। असलियत ऐसी नहीं है। साधारण देखने में कर पात्री निपट पुराणपंथी, नासमझ, आधुनिक जगत और ज्ञान से वंचित मालूम पड़ते है। यह थोड़ी दूर तक सच है बात। लेकिन फिर भी जिस गहरी बात की वह ताईद कर रहे है उसके मामले में वह ज्‍यादा जानकार है।
सच बात यह है कि विश्वनाथ का मंदिर भी असली नहीं है। और वह जो दूसरा बनाएँगे वह भी असली नहीं होगा। असली मंदिर तो तीसरा है। लेकिन उसकी जानकारी सीधी नहीं दी जा सकती। और असली मंदिर को छिपाकर रखना पड़ेगा, नहीं तो कभी भी कोई भी धर्म सुधारक उसको भ्रष्‍ट कर सकता है। अभी जो विश्वनाथ का मंदिर है खड़ा हुआ, इसको तो नष्‍ट किया जा चुका है। इसमें कोई उपाय नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है चाहे नष्‍ट कर दो।
वह जो दूसरा बनाया जा रहा है वह भी फाल्‍स है। लेकिन एक फाल्स बनाए ही रखना पड़ेगा, ताकि असली पर नजर न जाए। और असली को छिपाकर रखना पड़ेगा। विश्वनाथ के मंदिर में प्रवेश की कुंजियों है, जैसे अल्‍कुफा में प्रवेश की कुंजियों है। उसमें कभी कोई सौभाग्‍यशाली संन्‍यासी प्रवेश पाता है। उसमें कोई ग्रह स्थ कभी प्रवेश नहीं पाया और कभी पा नहीं सकता। सभी संन्‍यासी को भी उसमें प्रवेश नहीं मिल पाते है कभी कोई सौभाग्‍यशाली संन्‍यासी उसमें प्रवेश पाते है। और उसे सब भांति छिपाकर रखा जाएगा। उसके मंत्र है और जिनके प्रयोग से उसका द्वार खोलेगा, नहीं तो उसका द्वार नहीं खुले गा। उसका बोध ही नहीं होगा,उसका ख्‍याल ही नहीं आएगा।
काशी में जाकर इस मंदिर की लोग पूजा, प्रार्थना करके वापस लौट आएंगे। मगर इस मंदिर की भी अपनी एक सेंक्‍टिंटी बन गया थी। यह झूठा था, लेकिन फिर भी लाखों वर्षों से उसको सच्‍चा मानकर चला जा रहा था। उसमें भी एक तरह की पवित्रता आ गयी।
सारे धर्मों ने कोशिश की है कि उनके मंदिर में या उनके तीर्थ में दूसरे धर्म का व्‍यक्‍ति प्रवेश न करे। आज हमें बेहूदगी लगती है यह बात। हम कहेंगे इससे क्‍या मतलब है। लेकिन जिन्‍होंने व्‍यवस्‍था की थी उनके कुछ करण थे। यह करीब-करीब मामला ऐसा ही है जैसे कि ऐटमिक एनर्जी की एक लेबोरेटरी है और अगर यह लिखा हो कि यहां सिवाय ऐटमिक साइंटिस्‍ट के कोई प्रवेश नहीं करेगा। तो हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। हम कहेंगे, बिलकुल ठीक है, बिलकुल दुरुस्त है। खतरे से खाली नहीं है दूसरे आदमी का भीतर प्रवेश करना।
लेकिन यही बात हम मंदिर और तीर्थ के संबंध में मानने को राज़ी नहीं है। क्‍योंकि हमें यह ख्‍याल ही नहीं है कि मंदिर और तीर्थ की अपनी साइंस है। और वह विशेष लोगों के प्रवेश के लिए है। आज भी एक मरीज बीमार पडा है और उसके चारों तरफ डाक्‍टर खड़े होकर बात करते रहते है। मरीज सुनता है, समझ तो कुछ नहीं आता। क्‍योंकि वह किसी खास कोड लेंग्‍वेज में बात करते है। वह लैटिन या ग्रीक शब्‍दों को उपयोग कर रहे है। यह मरीज के हित में नही है कि उस समझे। इसलिए सारे धर्मों ने अपनी कोड़ लेंग्‍वेज विकसित की थी। उसके गुप्‍त तीर्थ थे, उसकी गुप्‍त भाषाएँ थीं। उसके गुप्‍त शास्‍त्र थे। और आज भी जिनको हम तीर्थ समझ रहे है उनमें बहुत कम संभावना है सही होने की। जिनको हम शास्‍त्र समझ रहे है। उनमें बहुत कम संभावना है सही होने की।
वह जो सीक्रेट ट्रैडीशनल है, उसे तो छिपाने की निरंतर कोशिश की जाती है। क्‍योंकि जैसे ही वह आम आदमी के हाथ में पड़ती है, उसके विकृत हो जाने का डर है। और आन आदमी उससे परेशान ही होगा, लाभ नहीं उठा सकता। जैसे अगर सूफियों के गांव अल्‍कुफा में अचानक आपको प्रवेश करवा दिया जाए तो पागल हो जाएंगे। अल्‍कुफा की यह परंपरा है कि वहां अगर कोई आदमी आकस्‍मिक प्रवेश कर जाए तो पागल होकर लौटे गा—वह लौटे गा ही, इसमें किसी को कोई कसूर नहीं हे।
क्‍योंकि अल्‍कुफा इस तरह की पूरी के पूरे मनस तरंगों से निर्मित है कि आपका मन उसको झेल नहीं पाएगा। आप विक्षिप्‍त हो जाएंगे। उतनी सामथ्‍र्य और पात्रता के बिना उचित नहीं है। कि वहां प्रवेश हो। जैसे अल्‍कुफा के बाबत कुछ बातें ख्‍याल में ले लें तो और तीर्थों का ख्‍याल में आ जाएगा।
जैसे अल्‍कुफा में नींद असंभव है, कोई आदमी सो नहीं सकता। तो आप पागल हो ही जाएंगे जब तक कि आपने जागरण का गहन प्रयोग न किया हो। इसलिए सूफी फकीर की सबसे बड़ी जो साधना है वह रात्रि जागरण है, रातभर जागते रहेंगे। और एक सीमा के बाद ….एक बहुत सोचने जैसी बात है—एक आदमी नब्‍बे दिन तक खाना न खाए तो भी सिर्फ दुर्बल होगा, मर नहीं जाएगा, पागल नहीं हो जाएगा।
साधारण स्‍वस्‍थ आदमी आसानी से नब्‍बे दिन, बिना खाए रह सकता है। लेकिन साधारण स्‍वस्‍थ आदमी इक्‍कीस दिन भी बिना सोए नहीं रह सकता। ती महीने बिना खाए रह सकता है। तीन सप्‍ताह बिना सोए नहीं रह सकता। ती सप्‍ताह तो बहुत ज्‍यादा कह रहा हूं, एक सप्‍ताह भी बिना सोए रहना कठिन मामला है। पर अल्‍कुफा में नींद असंभव है।

पाप-पूण्‍य ओर काशी

आखिरी बात जो तीर्थ के बाबत ख्‍याल ले लेना चाहिए, वह यह कि सिंबालिक ऐक्‍ट का, प्रतीकात्‍मक कृत्‍य का भारी मूल्‍य है। जैसे जीसस के पास कोई आता है और कहता है। मैंने यह पाप किए। वह जीसस के सामने कन्‍फेस कर देता है, सब बता देता है मैंने यह पाप किए। जीसस उसके सिर पर हाथ रख कर कह देते है कि जा तुझे माफ किया। अब इस आदमी न पाप किए है। जीसस के कहने से माफ कैसे हो जाएंगे? जीसस कौन है,और हाथ रखने से माफ हो जाएंगे, जिस आदमी ने खून किया, उसका क्‍या होगा, या हमने कहा, आदमी पाप करे और गंगा में स्‍नान कर ले, मुक्‍त हो जाएगा। बिलकुल पागलपन मालूम हो रहा है। जिसने हत्‍या की है, चोरी की है, बेईमानी की हे, गंगा में स्‍नान करके मुक्‍त कैसे हो जाएगा।
यह दो बातें समझ लेनी जरूरी है। एक तो यह, कि पाप असली घटना नहीं है। स्‍मृति असली घटना है—मैमोरी । पाप नहीं, ऐक्‍ट नहीं असली घटना जो आप में चिपकी रह जाती है। वह स्‍मृति है। आपने हत्‍या की है। यह उतना बड़ा सवाल नहीं है। आखिर में। आपने हत्‍या की है, यह स्‍मृति कांटे की तरह पीछा करेगी।
जो जानते है…..वे जो जानते है कि हत्‍या की है या नहीं। वह नाटक का हिस्‍सा है, उसका कोई मूल्‍य नहीं है। न कभी मरता है कोई न कभी मार सकता है कोई। मगर यह स्‍मृति आपका पीछा करेगी कि मैंने हत्‍या की, मैंने चोरी की। यह पीछा करेगी और यह पत्‍थर की तरह आपकी छाती पर पड़ी रहेगी। वह कृत्‍य तो गया, अनंत में खो गया, वह कृत्‍य तो अनंत ने संभाल लिया। सच तो यह है सब कृत्‍य तो अनंत के है; आप नाहक उसके लिए परेशान है। और चोरी भी हुई है आपसे तो अनंत के ही द्वारा आपसे हुई है। हत्‍या भी हुई है तो भी अनंत के द्वारा आपसे हुई है, आप नाहक बीच में अपनी स्‍मृति लेकर खड़े है। मैंने किया। अब यह ‘’मैंने किया’’ यह स्मृति आपकी छाती पर बोझ है।
क्राइस्‍ट कहते हैं, तुम कन्‍फेस कर दो, मैं तुम्‍हें माफ किए देता हूं। और जो क्राइस्ट पर भरोसा करता है वह पवित्र होकर लोट गा। असल में क्राइस्‍ट पाप से तो मुक्‍त नहीं कर सकते, लेकिन स्मृति से मुक्‍त कर सकते हे। स्‍मृति ही असली सवाल हे। गंगा पाप से मुक्‍त नहीं कर सकती, लेकिन स्‍मृति से मुक्त कर सकती हे। अगर कोई भरोसा लेकर गया है। कि गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप से बाहर हो जाऊँगा और ऐसा अगर उसके चित में है। उसकी कलेक्‍टव अनकांशेस में है, उसके समाज की करोड़ों वर्ष से छुटकारा नहीं होगा वैसे, क्‍योंकि चोरी को अब कुछ और नहीं किया जा सकता। हत्‍या जो हो गई, हो गयी लेकिन यह व्‍यक्‍ति पानी के बाहर जब निकला तो सिंबालिक एक्‍ट हो गया।
क्राइस्‍ट कितने दिन दुनिया में रहेंगे, कितने पापी यों से मिलेंगे,कितने पापी कन्‍फेस कर पाएंगे। इसके लिए हिंदुओं ने ज्‍यादा स्‍थायी व्‍यवस्‍था खोजी है। व्‍यक्‍ति से नहीं बांधा। यह नदी कन्‍फेशन लेती रहेगी। वह नदी माफ करती रहेगी, यह अनंत तक रहेगी, और ये धाराएं स्‍थायी हो जाएंगी। क्राइस्‍ट कितने दिन रहेंगे। मुश्‍किल से क्राइस्ट तीन साल काम कर पाए, कुल तीन साल। तीस से लेकर तैंतीस साल की अम्र तक, तीन साल में कितने पापी कन्‍फेस करेंगे। कितने पापी उनके पास आएंगे। कितने लोगों के सिर पर हाथ रखेंगे। यहां के मनीषी यों ने व्‍यक्‍ति से नहीं बांधा, धारा से बाँध दिया।
तीर्थ है, वहां जाएगा कोई, वह मुक्‍त होकर लौटे गा। तो स्‍मृति से मुक्‍त होगा। स्‍मृति ही तो बंधन है। वह स्वप्न जो आपने देखा, आपका पीछा कर रहा है। असली सवाल वही है, और निश्‍चित ही उससे छुटकारा हो सकता है। लेकिन उस छुटकारे में दो बातें जरूरी है। बड़ी बात तो यह जरूरी है कि आपकी ऐसी निष्‍ठा हो कि मुक्‍ति हो जाएगी। और आपकी निष्‍ठा कैसे होगी। आपकी निष्‍ठा तभी होगी जब आपको ऐसा ख्‍याल हो कि लाखों वर्ष से ऐसा वहां होता रहा है। और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन है—जैसे काशी, वह सनातन है। सच बात यह है, पृथ्‍वी पर कोई ऐसा समय नहीं जब काशी तीर्थ नहीं था। वह एक अर्थ में सनातन है। बिलकुल सनातन है। यह आदमी का पुरानी से पुराना तीर्थ हे। उसका मूल्य बढ़ जाता है। क्‍योंकि इतन बड़ी धारा, सजेशन। वहां कितने लोग मुक्‍त हुए, वहां कितने लोग शांत हुए है। वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड़ गए—वह एक लंबी धारा है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है। वह सरल चित में जाकर निष्‍ठा बन जाएगी। वह निष्‍ठ बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता हे। वह निष्‍ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता। आपका कोऔपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोऔपरेशन तभी देते है कि जब तीर्थ की एक धारा हो एक इतिहास हो।
हिंदू कहते है, काशी इस जमीन का हिस्‍सा नहीं है। इस पृथ्वी का हिस्‍सा नहीं है। वह अलग ही टुकडा है। वह शिव की नगरी अलग ही है। वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़े गे काशी बनी रहेगी। इसलिए कई दफा हैरानी होती है। व्‍यक्‍ति तो खो जाते है—बुद्ध काशी आये, जैनों के तीर्थकर काशी में पैदा हुए और खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर आए खो गए। काशी ने तीर्थ देखे अवतार देखे। संत देखे सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा। लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को , उन सारे लोगों के पुण्‍य को उन सारे लोगों की जीवन धारा को उनकी सब सुगंध को आत्‍मसात कर लेती है और बना रहती हे।
यह जो स्‍थिति हे। यह निश्‍चित ही पृथ्‍वी से अलग हो जाती है। मेटाफरीकली। यह इसका अपना एक शाश्‍वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्‍यक्‍तित्‍व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गूजरें, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। यह सब कहानी हो गयी। वह सब स्वप्नवत् हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्‍मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्‍ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है वह फिर से पाश्रर्वनाथ को गुजरते हुए देख सकता है। वह फिर से देखेगी तुलसी दास को वह फिर से देखेगी कबीर को।
अगर कोई निष्‍ठा से इस काशी के निकट जाए तो यह काशी साधारण नगरी ने रह जाएगी लंदन या बम्‍बई जैसी। एक असाधारण चिन्‍मय रूप ले लेगी। और इसकी चिन्मय ता बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते है। असभ्यताऐं बनती है। आती है और चली जाती है। और यह अपनी एक अंत: धारा करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्‍सा हो गए है एक अंत धारा को संजोए हुए चलती है। इसके रास्‍ते पर खड़ा होना,इसके घाट पर स्‍नान करना इसमें बैठकर ध्‍यान करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्‍सा हो गए है एक अंत: धारा के। यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लुंगा,खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में—उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में उसका सहारा लिया जा सकता है। सहारे के लिए यह सारा आयोजन है।
यह कुछ बातें जो ठीक से समझ में आ सकें वह मैंने कहीं। बुद्धि जिनको देख पाये समझ पाये, पर यह पर्याप्‍त नहीं है। बहुत सी बातें है तीर्थ के साथ,जो समझ में नहीं आ सकेंगी पर घटित होती है। जिनको बुद्धि साफ-साफ नहीं देख पाएगी। जिनका गणित नहीं बनाया जा सकेगा। लेकिन घटित होती है।
–ओशो (मैं कहाता आंखन देखी)

तीर्थ ( अलौकिक निवास कैलाश

दो तीन बातें सिर्फ उल्‍लेख कर दूँ जो घटित होती है। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस पास किन्‍हीं आत्‍माओं की उपस्थिति का अनुभव हो। लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी—थोड़ी बहुत जोर से होगा। बहुत गहरा होगा। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्‍वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्‍यादा है।
जैसे कि कैलास—कैलास हिंदुओं का भी तीर्थ रहा है और तिब्‍बती बौद्धों का भी। पर कैलास बिलकुल निर्जन है, वहां कोई आवास नहीं है। कोई पुजारी नहीं है। कोर्इ पंडा नहीं है। कोई प्रगट आवास नहीं है कैलास पर। लेकिन जो भी कैलास पर जाकर ध्‍यान का प्रयोग करेगा वह कैलाश को पूरी तरह बसा हुआ पाएगा। जेसे ही कैलाश पर पहुँचेगा अगर थोड़ी भी ध्यान की क्षमता है तो कैलाश से कभी वह खबर लेकर लौटे गा कि वह निर्जन है। इतना सधन बसा है, इतने लोग है और इतने अदभुत लोग है। ऐसे कोई बिना ध्‍यान के कैलाश जाएगा, तो कैलाश खाली हे।
चाँद के संबंध में जो लोग और तरह से खोज करते है, उनका ख्‍याल नहीं है कि चाँद निर्जन हे। और जिन्‍होंने कैलाश का अनुभव किया है वह कभी नहीं मानेंगे कि चाँद निर्जन है। लेकिन आपके यात्री को चाँद पर कोई मिलेगा! जरूरी नहीं है इससे कि कोई न हो, पर आपके यात्री को कोई नहीं मिलेगा। जैनों के ग्रंथों में बहुत वर्णन है कि चाँद पर किस-किस तरह के देवता है, कि क्‍या है, पर अब वे बड़ी मुश्‍किल में पड़ गए है। जब पाया गया कि वहां कोई नहीं है। उनके साधु-संन्‍यासी बड़ी मुश्‍किल में है। वे बेचारे एक ही उपास कर सकते है, उन्‍हें कूद और तो पता नहीं है, वह यह कह सकते है कि तुम असली चाँद पर पहुंचे ही नहीं। वह इसके सिवाय और क्‍या कहेंगे। अभी गुजरात में कोई मुझे कह रहा था कि कोई जैन मुनि पैसा इकट्ठा कर रहे है यह सिद्ध करने के लिए कि तुम असली चाँद पर नहीं पहुंचे। ये वे कभी सिद्ध न कर पाएंगे।
आदमी असली चांद पर पहुंच गया है। लेकिन उनकी कठिनाई है कि उनकी किताब में लिखा है कि वहां आवास है, वहां इस-इस तरह के देवता रहते है। उनकी किताब में लिखा है, उनको खुद को तो कुछ पता नहीं। किताब तो आवास का कहती है। और अब वैज्ञानिक की रिपोर्ट है कि वहां कोई भी नहीं है। अब क्‍या करना है। तो साधारण बुद्धि जो कर सकती,वह यह है, कि वे लोग चाँद पर नहीं पहुँचे। क्‍योंकि अगर नहीं सिद्ध कर पाए तो ये मानना पड़ेगा कि हमारा शास्‍त्र गलत हुआ। तो वे जिद बाँध रखेंगे कि नहीं, तुम उस जगह नहीं पहुंचे।
एक जैन मुनि ने तो दावे से यह कहां कि कोई वहां पहुंचा ही नहीं। अब इनकार भी नहीं कर सकते, पहुंचे तो जरूर है, तो फिर कहां पहुंच गए है। कभी-कभी तो हास्यास्पद, रिडीकुलस हो जाती है बात। उन्‍होने कहा, कि वहां देवताओं के जो विमान ठहरे रहते है चारों तरफ, आप किसी विमान पर उतर गए। वह बड़े विराट विमान है। उसी पर उतर कर आप लौट आए है। आप ठीक चाँद की भूमि पर नहीं उतर सके। यह सब पागलपन है, लेकिन इस पागलपन के पीछे कुछ कारण है। यह कारण यह है कि एक धारा है, कोई अंदाजन बीस हजार वर्ष से जैनों की धारा है कि चाँद पर आवास है। पर वह उनके ख्‍याल में नहीं कह वह आवास किस तरह का है। वह आवास कैलास जैसा आवास है। वह आवास तीर्थों जैसा आवास है।
जब आप तीर्थ पर जाएंगे तो एक तीर्थ वह काशी है जो दिखाई पड़ती है। जहां आप ट्रेन पर से उतर जाएँगे स्‍टेशन से एक तो काशी वह है। काशी के दो रूप है। तीर्थ के दो रूप है। एक तो मृण्‍मय रूप है। यह जो दिखाई पड़ रहा है। जहां कोई भी जाएगा सैलानी और घूमकर लौट आएगा। और एक उसका चिन्‍मय रूप है। जहां वहीं पहुंच जाएगाजो अंतरस्‍थ होगा, जो ध्‍यान में प्रवेश करेगा, तो उसके लिए काशी बिलकुल और हो जाएगी। इधर काशी के सौंदर्य का इतना वर्णन है, और इस काशी को देखो तो फिर लगता है कि वह कवि की कल्‍पना है। इससे ज्यादा गंदी कोई वसती नहीं है। यह काशी जिसको हम देखकर आ रहे है। पर किस काशी की बातें कर रहे हो तुम। किस काशी की बात हो रही है। किस काशी के सौंदर्य की जो अपूर्व है। जैसा कोई नगर नहीं आया है इस जगत में । यह सब तुम किसकी बात कर रहे हो, यही काशी अगर है, तब फिर यह सब कवि कल्‍पना हो गई। नहीं, पर वह काशी भी है। नहीं, पर वह काशी भी है। और एक कान्‍टेक्‍ट फील्ड है यह काशी, यहां उस काशी और इस काशी का मिलन होता है।
जो यात्री सिर्फ ट्रेन में बैठकर गया है, वह इस काशी से वापस लौटकर आ जाएगा। वह जो ध्‍यान में भी बैठकर गया है वह उस काशी से भी संपर्क साध पाता है। तब इसी काशी के निर्जन घाट पर उनसे भी मिलना हो जाता है जिनसे मिलने की आपको कभी कल्‍पना नहीं होती।
मैंने अभी बताया,कैलास पर अलौकिक निवास है। करीब-करीब नियमित रूप से। नियम कैलाश का रह है कि कम से कम पाँच सौ बौद्ध-बौद्ध वहां रहे ही, उससे कम नहीं। पाँच सौ बुद्धत्‍व को प्राप्‍त व्‍यक्‍ति कैलाश पर रहेंगे ही। और जब भी एक उनमें से विदा होगा किसी और यात्रा पर, तो दूसरा जब तक न हो तब तक वह विदा नहीं हो सकता। पाँच सौ की संख्‍या वहां पूरी रहेगी। उन पाँच सौ की मौजूदगी कैलाश को तीर्थ बनाती है। लेकिन यह बुद्धि से समझने की बात नहीं हे। इसलिए मैंने पीछे छोड़ रखी। काशी का भी नियमित आंकड़ा है कि उतने संत वहां रहेंगे ही। उनमें कभी कमी नहीं होगी। उनमें से एक को विदा तभी मिलेगी जब दूसरा उस जगह स्‍थापित हो जाएगा।
असली तीर्थ वहीं है। और उनसे जब मिलन होता है तो तीर्थ में प्रवेश करते है। पर उनके मिलन का कोई भौतिक स्‍थल भी चाहिए। आप उनको कहां खोजते फिरेंगे। उस अशरीरी घटना को आप ने खोज सकेंगे, इसलिए भौतिक स्‍थल चाहिए। जहां बैठकर आप ध्‍यान कर सकें और उस अंतर् जगत में प्रवेश कर सकें, जहां संबंध सुनिश्‍चित है।
तीर्थ बुद्धि से ख्‍याल में नहीं आएगा। बुद्धि से कोई संबंध नहीं है तीर्थ का। ठीक तीर्थ का अर्थ जो दिखाई पड़ जाता है वह नहीं है—छिपा है, उसी स्‍थान पर छिपा है। दूसरी बात, इस जमीन पर जब भी कोई व्‍यक्‍ति परम ज्ञान को उपलब्‍ध होकर विदा होता है। तो उसकी करूणा उसे कुछ चिन्‍ह छोड़ देने को कहती है। क्‍योंकि जिनको उसने रास्‍ता बताया। जो उसकी बात मानकर चले, जिन्‍होंने संघर्ष किया, जिन्‍होंने श्रम उठाया, उनमें से बहुत से ऐसे होंगे जो अभी नहीं पहुंच पाए। उनके पास कुछ संकेत तो चाहिए,जिनसे कभी भी जरूरत पड़ने पर वह संपर्क पुन; साध सकें।
इस जगत में कोई आत्‍मा कभी खोती नहीं। पर शरीर तो खो जाता है। तो उन आत्‍माओं के संपर्क साधने के लिए सूत्र चाहिए। उन सूत्रों के लिए तीर्थों ने ठीक वैसे ही काम किया जैसे कि आज हमारे राडार काम करते है। जहां तक आंखें नहीं पहुँचती वहां तक राडार पहुंच जाते है। जो आंखों से कभी देखें नहीं गए तारे, वह राडार देख लेते है। तीर्थ बिलकुल आध्‍यात्‍मिक राडार का इंतजाम है। जो हमसे छूट गए, जिनसे हम छूट गए, उनसे संबंध स्‍थापित किए जा सकते है।
इसलिए प्रत्‍येक तीर्थ निर्मित किया गया उन लोगों के द्वारा,जो अपने पीछे कुछ लोग छोड़ है, जो अभी रास्‍ते पर है, जो पहुंच नहीं गए, और जो अभी भटक सकते है। और जिन्‍हें बार-बार जरूरत पड़ जाएगी कि वह कुछ पूछ लें कुछ जान लें। कुछ आवश्‍यक हो जाए। थोड़ी जानकारी उन्‍हें भटका दे सकती है। क्‍योंकि भविष्‍य उन्‍हें बिलकुल ज्ञात नहीं है। आगे का रास्‍ता उन्‍हें बिलकुल पता नहीं है। तो उन सबने सूत्र छोड़े है। और सुत्रों को छोड़ने के लिए विशेष तरह की व्‍यवस्‍थाएं की है—तीर्थ खड़े किए, मंदिर खड़े किए, मंत्र निर्मित किए। मूर्तियां बनायी सबका आयोजन किया। और सबका आयोजन एक सुनिश्‍चित प्रक्रिया है, जिसे हम ‘रिचुअल’ कहते हे, वह एक सुनिश्‍चित प्रकिया है।
अगर एक जंगली आदिवासी को हम ले आएं और वह आकर देखे कि जब भी प्रकाश करना होता है तो आप अपनी कुर्सी से उठते है, दस कदम चलकर बायी दीवार के पास पहुंचते वहां एक बटन को दबाते है। और बीजली जली जाती है। वह आदी वासी किसी भी तरह न सोच पाएगा कि इस बटन में ओ इस दीवार के भीतर इस बिजली के बल्‍ब से कोई तार जुड़ा है। उसके सोचने का कोई उपास नहीं है।
उसे यह एक रिचुअल मालूम पड़ेगा। कि यह कोई तरकीब है यहां से उठना,ठीक जगह पर दीवार पर जाना,फिर नंबर एक का बटन दबाना। नंबर दो का दबाते है तो पंखा घूमने लगता है। नंबर तीन का दबाते है रेडियों बोलने लग जाता है। उसे यह सब रिचुअल मालूम पड़ेगा। एक क्रिया कांड लगेगा। और समझ लें किसी दिन आप नहीं है घर में और बिजली चली गई है। वह आदमी उठा और उसने जाकर पूरा रिचुअल किया, लेकिन बिजली नहीं जली, पंखा नहीं जला,रेडियो नहीं चला। अब वह यही समझे गा कि रिचुअल में कोई भूल हो गई हे।
अपने क्रिया कांड में कोई भूल हो रही है। शायद हमने ठीक कदम न उठाए। कौन से कदम से पहले सह आदमी गया था। पता नहीं, अंदर-अंदर कोई मंत्र भी पढ़ता हो मन में, और बटन दबाता हो। क्‍योंकि हमने बटन वही दबाया है और बिजली नहीं जल रही है। उस आदिवासी को तो बिजली के पूरे फैलाव का कोई अंदाजा नहीं हो सकता।
करीब-करीब धर्म के संबंध में ऐसा ही है। जिनको भी हम धर्म के क्रिया-काँड़ कहते है, वह सब हमारे द्वारा पकड़े लिए गए ऊपरी कृत्य है। जो बिलकुल कुछ नहीं जानते व्‍यवस्‍था को, उनको हम पूरा भी कर लेते है, फिर पाते है, कुछ नहीं हो रहा है। या कभी हो जाता है, कभी नहीं होता, तो हम बड़ी मुश्‍किल में पड़ते है। कभी हो जाता है, इससे शक होता है कि शायद होता होगा। फिर कभी नहीं होता तो फिर यह शक होता है कि शायद संयोग से हो गया हो। क्‍योंकि अगर होना चाहिए तो हमेशा होना चाहिए।
हमें भीतरी व्‍यवस्‍था का कोई भी पता नहीं है। जिस चीज को आप नहीं जानते उसको ऊपर से देखने पर वह रिचुअल मालूम पड़ेगी। ऐसा छोटी-मोटी आदमियों के साथ होता हो ऐसा नहीं, जिनको हम बहुत बुद्धिमान कहते है उनके साथ भी यहीं होगा। क्‍योंकि बुद्धि ही बचकानी चीज है। बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी एक अर्थ में जुवेनाइल है, बचकाना ही होता है। क्‍योंकि बुद्धि बहुत गहरे ले जाने वाली नहीं हे।
जब पहली दफा ग्रामोफोन बना, और फ्रांस के साइंस एकेडमी में जिस वैज्ञानिक ने ग्रामोफोन बनाया वह लेकर गया। तो बड़ी ऐतिहासिक घटना घटी तीन सौ साल पहले। फ्रैंच एकेडमी के सारे बड़े से बड़े वैज्ञानिक सदस्‍य हाजिर थे। कोई सौ वैज्ञानिक घटना देखने आए थे। उस आदमी ने ग्रामोफोन का रिकार्ड चालू किया, तो जो प्रैजिडेंट था फ्रैंच एकेडमी का, वह थोड़ी देर तो देखता रहा फिर उचक कर उसने उस आदमी की गर्दन पकड़ ली, जो ग्रामोफोन लाया था। क्‍योंकि उसने समझा कि यह कोई ट्रिक कर रहा है गले की, यह हो कैसे सकता है। यह गले में अंदर कोई हरकत कर रहा है। कोई तरकीब इसने लगाई है।
यह ऐतिहासिक घटना बन गई। क्‍योंकि एक वैज्ञानिक से ऐसी आशा नहीं हो
सकती थी कि वह जाकर उसकी गर्दन पकड़ ले। वह आदमी तो घबराया,उसने कहा कि आप यह क्‍या करते है। उसने कहा देखो तुम मुझको धोखा न दे पाओगें। वह उसका गला दबाए रहा। लेकिन तब भी उसने देखा की आवाज आ रही है। तब तो वह बहुत घबराया । उस आदमी को कहा,तुम बाहर आओ। उसको बहार ले गया। लेकिन तब भी आवाज आ रही थी। वह सौ के सौ वैज्ञानिक सकते में आ गए, उनमें से एक ने खड़े होकर कहां कि यह कोई शैतानी ताकत हे। इसे छूना-ऊना मत इसमें कुछ न कुछ डेवल जरूर है। शैतान इसमें हाथ बंटा रहा है। यह हो कैसे सकता है? आज हमें हंसी आती है। क्‍योंकि अब हो गया…। इसका हमें परिचय है। जो नहीं होता तो भी हम वैसी परेशानी में पड़ जाते।
अगर किसी दिन एटम गिरे दुनिया पर, यह सभ्‍यता हमारी खो जाए, और किसी आदिवासी के पास एक ग्रामों फोन बच जाए तो उसके गांव के लोग उसको मार डालें। अगर वह ग्रामोफोन बजा दे तो पूरा गांव उसकी जान को आ जाए। क्‍योंकि वह एक्स प्लेन तो कर नहीं पाएगा। यह बता तो नहीं पाएगा कि ये रेकार्ड कैसे बोल रहा है। यह तो आप भी नहीं बता पाओगें। यह बड़े मजे कि बात है। सब सभ्‍यताएं बिलीफ से जीती हे। केवल दो-चार आदमियों के पास कुंजियां होती है। बाकी तो भरोसा होता हे।
आप भी न बता पाओगें कि यह कैसे बोल रहा है। सुन लेते है, मालूम है कि बोलता है, भर लिया जाता है। बाकी बता पाना बहुत मुश्‍किल है। और उसे बनाना तो लगभग असम्‍भव ही है। बटन दबा देते है। बिजली जल जाली है। रोज जला लेते है। पर आप भी न बता पाओगें कि कैसे जल गई। कुंजियां तो दो चार आदमियों के पास होती है सभ्‍यता की, बाकी सारे लोग तो काम चला लेते है। बस जो काम चलाने वाले है, जिस दिन कुंजियां खो जाए उसी दिन मुश्‍किल में पड़ जाएंगे। उसी दिन उसका आत्‍मविश्‍वास डगमगा जाएगा। उसी दिन वह घबरा नें लगेंगे। फिर अगर एक दफा बिजली न जली तो कठिन हो जाएगा।
–ओशो ( मैं कहता हूं आंखन देखी )

विज्ञान भैरव तंत्र

एक अद्भुत ग्रंथ है भारत मैं। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अद्भुत ग्रंथ पृथ्‍वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव तंत्र। छोटी सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनियां में खोजनी मुश्किल है। कुछ एक सौ बारह सूत्र है। हर सुत्र में एक ही बात है। पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वहीं एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात, और हर दो सूत्र में एक विधि हो जाती है।
पार्वती पूछ रहीं है शंकर से,शांत कैसे हो जाऊँ? आनंद को कैसे उपलब्‍ध हो जाऊँ? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्‍तियों में शंकर उत्‍तर देते है। दो पंक्‍तियों में वे कहते है, बाहर जाती है श्‍वास, भीतर जाती है श्‍वास। दोनों के बीच में ठहर जा, अमृत को उपलब्‍ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्‍वास, भीतर आती है श्‍वास, दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्‍ध हो जाएगा।
पार्वती कहती है। समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। शंकर दो-दो में कहते चले जाते है। हर बार पार्वती कहती है। नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्‍तियां। और हर पंक्‍ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्‍ति का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्‍वास, अंदर जाती श्‍वास। जन्‍म और मृत्‍यु, यह रहा जन्म यह रही मृत्‍यु। दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहे।
एक सौ बारह बार। पर एक ही बात दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रतिकार-आसक्‍ति–विरक्‍ति, ठहर जा—अमृत की उपलब्धि। दो के बीच दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए वह गोल्‍डन मीन, स्‍वर्ण सेतु को उपलब्‍ध हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वहीं है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते है। कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्‍थ हो जाना। सम्‍मान-अपमान, ठहर जाओ—मुक्‍ति। दुख-सुख, रूक जाओ—प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु,ठहर जाओ—सच्चिदानंद में गति।
कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना ओर दो के बीच में तटस्‍थ हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्‍त योग का सार इतना ही है। दो के बीच में जो ठहर जाता,वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्‍ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्‍ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत में च्‍युत हो जाती है।
–ओशो (गीता-दर्शन भाग—5 अध्‍याय 10, प्रवचन-12)

गधा-हीरा और जौहरी

पुरानी प्रचीन कथा है। एक जंगल की राह से एक जौहरी गुजर रहा था। देखा उसने राह में। एक कुम्‍हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चला आ रहा है। चकित हुआ। ये देख कर की ये कितना मुर्ख है। क्‍या इसे पता नहीं है की ये लाखों का हीरा है। और गधे के गले में सजाने के लिए बाँध रखा है। पूछा उसने कुम्‍हार से, सुनो ये पत्‍थर जो तुम गधे के गले में बांधे हो इसके कितने पैसे लोगे? कुम्‍हार ने कहां महाराज इस के क्‍या दाम पर चलो आप इस के आठ आने दे दो। हमनें तो ऐसे ही बाँध दिया था। की गधे का गला सुना न लगे। बच्‍चों के लिए आठ आने की मिठाई गधे की और से ल जाएँगे। बच्‍चे भी खुश हो जायेंगे और शायद गधा भी की उसके गले का बोझ कम हो गया है। पर जौहरी तो जौहरी ही था, पक्‍का बनिया, उसे लोभ पकड़ गया। उसने कहा आठ आने तो थोड़े ज्‍यादा है। तू इस के चार आने ले ले।
कुम्‍हार भी थोड़ा झक्‍की था। वह ज़िद्द पकड़ गया कि नहीं देने हो तो आठ आने नहीं देने है तो कम से कम छ: आने तो दे ही दो, नहीं तो हम नहीं बचेंगे। जौहरी ने कहा पत्‍थर ही तो है चार आने कोई कम तो नहीं। और सोचा थोड़ी दुर चलने पर आवाज दे देगा। आगे चला गया। लेकिन आधा फरलांग चलने के बाद भी कुम्हार ने उसे आवज न दी तब उसे लगा बात बिगड़ गई। नाहक छोड़ा छ: आने में ही ले लेता तो ठीक था। जौहरी वापस लौटकर आया। लेकिन तब तक बाजी हाथ से जा चुकी थी। गधा खड़ा आराम कर रहा था। और कुम्हार अपने काम में लगा था। जौहरी ने पूछा क्‍या हुआ। पत्‍थर कहां है। कुम्‍हार ने हंसते हुए कहां महाराज एक रूपया मिला है उस पत्‍थर का। पूरा आठ आने का फायदा हुआ है। आपको छ आने में बेच देता तो कितना घाटा होता। और अपने काम में लग गया।
पर जौहरी के तो माथे पर पसीना आ गया। उसका तो दिल बैठा जा रहा था सोच-सोच कर। हया लाखों का हीरा यूं मेरी नादानी की वजह से हाथ से चला गया। उसने कहा मूर्ख, तू बिलकुल गधे का गधा ही रहा। जानता है उस की कीमत कितनी है वह लाखों का था। और तूने एक रूपये में बेच दिया, मानो बहुत बड़ा खजाना तेरे हाथ लग गया।
उस कुम्‍हार ने कहां, हुजूर में अगर गधा न होता तो क्‍या इतना कीमती पत्‍थर गधे के गले में बाँध कर घूमता। लेकिन आपके लिए क्‍या कहूं? आप तो गधे के भी गधे निकले। आपको तो पता ही था की लाखों का हीरा है। और आप उस के छ: आने देने को तैयार नहीं थे। आप पत्‍थर की कीमत पर भी लेने को तैयार नहीं हुए।
धर्म का जिसे पता है; उसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो उस जौहरी की भांति गधा है। जिन्‍हें पता नहीं है, वे क्षमा के योग्‍य है, लेकिन जिन्‍हें पता है। उनको क्‍या कहें?
ओशो एस. धम्‍मो. सनंतनो भाग-4, प्रवचन—31

प्राण उर्जा के पाँच भिन्‍न-भिन्‍न रूप है

योगियों ने कहा है, प्राण उर्जा के पाँच भिन्‍न-भिन्‍न रूप, क्रियाएं और उर्जा क्षेत्र होते है।
हम तो यहीं कहेंगे कि श्‍वास कहना पर्याप्‍त है। हम तो केवल रो ही बातें जानते है—श्‍वास को बाहर छोड़ना, श्‍वास को भी तर लेना—इतना ही। लेकिन योगी तो प्राण के संसार में जीते है। और वे इसके सूक्ष्‍म भेद को समझते है। इसलिए उन्‍होंने इसको पाँच भागों में विभक्‍त किया है। उन पांचों भागों को समझ लेना, वे बहुत महत्‍वपूर्ण है।
पहला है प्राण,
दूसरा है अपान,
तीसरा है समान,
चौथा उदान,
पाँचवाँ है व्‍यान।
यह व्‍यक्‍ति के भीतर के पाँच विस्‍तार है। और प्रत्‍येक भीतर अलग-अलग काम करता है।
प्राण है पहला श्‍वसन। दूसरा है अपान, वह मलोत्‍सर्ग में मदद देता है। वह मल आदि शरीर से निकालने में मदद करता है। अंतड़ियों की सफाई अपान से होती है। और अगर तुम जान लो कि कैसे इस पर काम करना है, तो तुम इस ढंग से अंतड़ियों की सफाई कर सकते हो जैसे कि कोई नहीं कर सकता। योगियों की आंतें सर्वाधिक साफ होती है। और वह बहुत ही महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि एक बार जब आंतें पूरी तरह साफ हो जाती है, जब अंतड़ियां एक दम साफ हो जाती है, तो पूरा शरीर एक दम हल्‍का, भार विहीन हो जाता है, जैसे कि उड़ रहे हो। शरीर का भार समाप्‍त हो जाता है।
साधारणतया तो अंतड़ियों में बहुत सा कचरा और मल भरा रहता है—जीवन भर मल कि पर्तों पर पर्तें चढ़ती चली जाती है। अंतड़ियों की भीतरी दीवारों पर मल इकट्ठा होता जाता है। यह सूखता जाता है और अति कठोर होता जाता है। जो भीतर जहर बनता रहता है, उस से हमें भारी पन आता है। अगर अंतड़ियों की सफाई हो तो वह पृथ्‍वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रति तुम्‍हें ज्‍यादा खोद देगी। योग ने पेट की सफाई पर बहुत जोर दिया है। ताकि भीतर कोई विषैला पदार्थ न बच पाए वरना वे खून में चक्‍कर काटते रहते है। और वे मस्‍तिष्‍क में घूमते रहते है। और वह व्‍यक्‍ति के आसपास एक विशेष तरह का ऊर्जा क्षेत्र निर्मित कर देते है। जो कि बोझिल, उदास और कालिमा लिए होता है।
जब अंतड़ियां पूरी तरह से स्‍वच्‍छ और साफ हो जाती है। तो व्‍यक्‍ति के सिर के चारों और एक प्रकार का आभा मंडल निर्मित हो जाता है। और जिन लोगों के पास भी आंखें है, वे इसे बड़ी आसानी से देख सकते है। और जब अंतड़ियां पूरी तरह से स्‍वच्‍छ और साफ हो जाती है, तो व्‍यक्‍ति को ऐसा लगता है जैसे उसको पंख लग गए हो।
तीसरा है समान, वह पाचन शक्‍ति और शरीर को ऊष्‍मा प्रदान करता है। अगर तीसरे की क्रियाशीलता का ज्ञान हो जाए, और इसके प्रति सजगता आ जाए कि वह कहां प्रतिष्‍ठित है, तो पाचन-क्रिया एकदम ठीक हो जाती है।
साधारणतया भोजन तो हम अधिक कर लेते है। लेकिन उसे पचा नहीं पाते। कुछ लोग है कि खाए चले जाते है। और फिर भी संतुष्ट नहीं होते। भोजन पचे या न पचे, लेकिन कुछ लोग है कि ठूस-ठूस कर खोते चले जाते है। अगर व्‍यक्‍ति समान का उपयोग करना जानता हो, तो भोजन की थोड़ी सी मात्रा भी भोजन की अधिक मात्रा की उपेक्षा अधिक ऊर्जा देगी।
इसीलिए योगी बिना अपने शरीर को कोई क्षति पहुँचाए कई दिन तक उपवास कर पाते है। कभी-कभी वे थोड़ा सा भोजन ले लेते है, और उस भोजन को पूरी तरह सक पचा लेते है। उसे आत्‍मसात कर लेते है। तुम्‍हारा भोजन तो पूरी तरह पच नहीं पाता है। इसीलिए आदमी का मल दूसरे जानवरों के लिए भोजन बन जाता है। और वे उसे पचा सकते है। उस मल में बहुत सा भोज्‍य-पदार्थ अभी भी शेष रह जाता है।
और तीसरे, समान के द्वारा ही शरीर को ऊष्‍मा भी मिलती है। तिब्‍बत में समान के आधार पर ही पूरी पद्धति ही शरीर ऊष्‍मा की विकसित कर ली है। वे एक सुनिश्‍चित ढंग से एक सुनिश्‍चित लयबद्धता में श्‍वास लेते है। जिससे समान की ऊष्‍मा निर्मित कर लेते है। वे अपने भीतर एक विशेष ढंग से कार्य कर सकें। और उससे वे काफी ऊष्‍मा निर्मित कर लेते है। वे अपने शरीर में इतनी ऊष्‍मा निर्मित कर लेते है कि चारों और बर्फ गिर रही हो और तिब्‍बती लामा पसीने से भीगा खुले आकाश के नीचे नंगा खड़ा रह सकता है। अगर चारों और बर्फ ही बर्फ हो, तो साधारण आदमी तो ठंड के मारे जमने ही लगेगा। इतनी बर्फ में घर से बाहर भी निकलना संभव नहीं है। और तिब्‍बती लामा है कि पसीने से तर बतर गिरती हुई बर्फ के नीचे खड़ा रहेगा।
तिब्‍बत में चिकित्‍सक को जो परीक्षा जी जाती है, उसमें से यह भी एक परीक्षा का ढंग है। जब तिब्‍बत में कोई चिकित्‍सक बनता है तो पहले उसे एक परीक्षा देनी होती है। जिसमें उसे अपनी शरीर अग्‍नि को निर्मित करना पड़ता है। अगर वह निर्मित नहीं कर सकता है तो उसे डाक्‍टर बनने का सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता। वह बहुत कठिन कार्य है। संसार में कोई भी दूसरी चिकित्‍सा प्रणाली चिकित्‍सक से इतनी बड़ी उपेक्षा नहीं रखती है। यह कोई मौखिक परीक्षा ही नहीं है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि जिसे किसी तरह से रट लिया और परीक्षा में जाकर लिख दिया। व्‍यक्‍ति को सिद्ध करना होता है कि सच में उसने अपनी शरीर ऊष्‍मा पर काबू पा लिया है। क्‍योंकि फिर जीवन भर उसे अपने मरीजों की ऊष्‍मा ऊर्जा पर कार्य करना होता है। अगर उस ऊष्‍मा पर तुम्‍हारा ही पूरा अधिकार नहीं है, तो कैसे तुम दूसरों पर काम कर सकते हो?
इसलिए पूरी रात गिरती हुई बर्फ में परीक्षार्थी को बाहर खड़े रहना पड़ता है। परी रात में नौ बार परीक्षक आता है और हर बार शरीर को छूकर देखता है कि उसे पसीना आ रहा है या नहीं। अगर वह उतनी शरीर ऊष्‍मा निर्मित कर लेता है तो उस सम्‍मान का मालिक हो जाता है। वह चिकित्‍सक बन सकता है। अब उसके स्‍पर्श से रोगी को चमत्‍कारिक ढंग से ठीक कर देगा।
तिब्‍बत में वे चिकित्‍सक को सिखाते है कि जब रोगी के हाथ या नाड़ी को पकड़ो, तो एक खास ढंग से श्‍वास लो; केवल तभी चिकित्‍सक रोगी की श्‍वास प्रक्रिया को ठीक से जान सकेगा। और जब एक बार रोगी की श्‍वास-प्रक्रिया को चिकित्‍सक ठीक से जान लेता है तो वह रोगी की पूरी बीमारी को जान लेता है। और अब चिकित्‍सक को पता होता है कि क्‍या करना चाहिए। साधारण तो डाक्‍टर मरीज के लक्षणों की जांच करते समय स्‍वय उस स्‍थिति में नहीं जाते जिसमे रोगी है। लेकिन तिब्‍बत में—और उनकी पूरी विधि पतंजलि के योग पर आधारित है। पहले तो डाक्‍टर को उसके विशेष आयामों में आन होता है। ताकि वह रोगी के रोग का अनुभव कर सके। रोगी की श्‍वास प्रक्रिया में कहां पर बाधा है। कहां पर उसकी श्‍वास अवरूद्ध हो रही है।
चौथा है उदान, वाणी और संप्रेषण। जब तुम बोलते हो, तो चौथे प्रकार के प्राण का उपयोग करते हो। और इस प्राण को प्रशिक्षित किया जा सकता है। अगर यह प्राण प्रशिक्षित कर लिया जाए तो व्‍यक्‍ति के बोलने में, भाषण देने में, गीत गाने में एक तरह का सम्‍मोहन होगा। तब वाणी में एक तरह सम्‍मोहन होगा। तब बस, आवाज को सून कर ही चुंबक की तरह खींचे चले आते है।
और ठीक ऐसा ही संप्रेषण के साथ भी होता है। जिन लोगों को संप्रेषण करना कठिन होता है—और बहुत से लोग है जो इसी कठिनाई में है कि दूसरे व्‍यक्‍ति के साथ कैसे संबंधित हों, दूसरे के साथ कैसे खुल सकें। बंद न रहें। कैसे बात चीत करें, कैसे प्रेम करे, कैसे मैत्री बनाए, कैसे दूसरे के साथ कम्‍यूनिकेट करें, उन सभी की उदान को लेकिर ही कोई न कोई कठिनाई है। वे नहीं जानते कि इस प्राण ऊर्जा का उपयोग कैसे करना है। जो कि व्‍यक्‍ति को प्रवाह मान बनाती है। और ऊर्जा को खोल देती है, तब आसानी से दूसरे के साथ संप्रेषण हो सकता है। दूसरे तक पहुंचना हो सकता है। और तब फिर कहीं कोई अवरोध नहीं रहता।
उदना उर्जा-प्रवाहिनी को सिद्ध करने से योगी पृथ्‍वी से ऊपर उठ पाता है। और किसी आधार किसी संपर्क के बिना पानी, कीचड़, कांटों को पार कर लेता है।
अगर व्‍यक्‍ति स्‍वयं के साथ समस्‍वरता पा लेता है और उदना के नाम से पहचाने जाने वाले प्राण को सिद्ध कर लेता है तो वह हवा में ऊपर उठ सकता है। क्‍योंकि यह उदना ही है जो व्‍यक्‍ति को गुरुत्वाकर्षण के साथ जोड़ कर रखती है।
तुम आकाश में पक्षियों को, बड़े-बड़े पक्षियों को उड़ते हुए देखते हो। अभी भी वैज्ञानिकों के लिए यह एक रहस्‍य ही बना हुआ है कि पक्षी इतनी भार के साथ कैसे उड़ते है। ये पक्षी प्रकृति की और से ही उदना के बारे में जानते है। इसलिए उनके लिए उड़ना सहज और स्वभाविक होता है। वह एक विशेष ढंग विशेष श्‍वास लेते है। अगर तुम भी उसी ढंग से श्‍वास को ले सको तो तुम पाओगे कि तुम्‍हारा संबंध गुरुत्वाकर्षण से टूट गया है। गुरुत्वाकर्षण के साथ जो व्‍यक्‍ति का संबंध है। वह उसके अंतर-अस्‍तित्‍व से ही है। वह उसके भीतर से ही है। इसलिए इसे तोड़ा भी नहीं जा सकता है।
और पांचवी है, व्‍यान, समन्‍वय और संघटन।
पांचवी व्‍यक्‍ति को संघटित रखती है। जब पाँचवीं शरीर को छोड़ देती है। तो व्‍यक्‍ति की मृत्‍यु हो जाती है। तब शरीर विघटित होना शुरू हो जाता है। अगर पांचवी मौजूद रहता है। तो चाहे पूरी की पूरी श्‍वास प्रक्रिया क्‍यों न रूक जाए, व्‍यक्‍ति जीवित रहेगा।
यही तो योगी कर रहे है। जब योगी जनता के सामने प्रदर्शन करके यह दिखाते है कि वे अपनी ह्रदय गति को रोक सकते है। तो वह पहले के चार प्राणों को रोक देते है। पहले के चार प्राणों को—वे पांचवें पर ठहर जाते है। लेकिन पाँचवीं प्राण ऊर्जा इतनी सूक्ष्‍म है कि आज तक कोई ऐसा यंत्र नहीं बना है जो उसका पता लगा सके। तो दस मिनट तक सभी तरह से डाक्‍टर या कोई भी व्‍यक्‍ति निरीक्षण कर सकता है और उन्‍हें लगेगा कि योगी मर गया है। और डाक्‍टर उसका प्रमाण पत्र भी दे देंगे। कि वह मर गया है। और योगी फिर से जीवित हो जाएगा। फिर सक उसकी श्‍वास प्रारंभ हो जाएगी, फिर से उसका ह्रदय धड़कना प्रारंभ कर देगा।
पांचवी प्रक्रिया सर्वाधिक सूक्ष्‍म है और यही वह धागा है जो व्‍यक्‍ति को एक जैविक एका में ऑर्गेनिक यूनिटी में बांधकर रखता है।
अगर पांचवें को जान लिया जाये तो परमात्‍मा को जाना जा सकता है। उसे पहले परमात्‍मा को नहीं जाना जा सकता। क्‍योंकि हमारे भी पांचवें का वही कार्य है जो कि परमात्‍मा का उसकी समग्रता में कार्य है। परमात्‍मा व्‍यान है। वह संपूर्ण अस्‍तित्‍व को एकसाथ जोड़े हुए है—चाँद-तारें, सूरज, संपूर्ण ब्रह्मांड को, सब को एक दूसरे के साथ जोड़े हुए है।
पतंजलि: योग-सूत्र, भाग-4, प्रवचन-19, ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क, पुणे

कूर्म-नाड़ी पर संयम संपन्‍न करने से योगी पूर्ण रूप से थिर हो जाता है—पतंजलि

कूर्मनाडयां स्‍थैर्यम्–
कूर्म-नाड़ी प्राण की, श्‍वास की वाहिका है। अगर हम चुपचाप, शांतिपूर्वक अपने श्वसन पर ध्‍यान दें, किसी भी ढंग से श्‍वास की लय न बिगड़े, न तो स्‍वास तेज हो, और न ही धीमी हो, बस उसे स्‍वाभाविक और शिथिल रूप से चलने दें। तब अगर हम केवल श्‍वास को देखते रहे, तो हम धीरे-धीरे थिर होने लगेंगे। फिर भीतर किसी तरह की कोई हलन-चलन नहीं होगी। क्‍यों?
क्‍योंकि सभी हलन-चलन, गति श्‍वास के द्वारा ही होती है। श्‍वास से ही पूरी की पूरी गति होती है। श्‍वास ही सारी हलन-चलन और गतियों का संचरण करती है। जब श्‍वास रूक जाती है। तो व्‍यक्‍ति मर जाता है। फिर वह चल फिर नहीं सकता। हिल-डुल नहीं सकता।
अगर व्‍यक्‍ति निरंतर श्‍वास पर ही संयम करता है, कूर्म-नाड़ी पर ही केंद्रित रहे, तो धीरे-धीरे एक ऐसी अवस्‍था आ जाएगी जहां पर स्‍वास करीब-करीब रूक ही जाती है।
योगी इस ध्‍यान की प्रक्रिया को दर्पण के सामने करते है, क्‍योंकि योगी की श्‍वास धीरे-धीरे इतनी शांत हो जाती है। कि उसे श्‍वास चल रही है या नहीं इसकी प्रतीति भी नहीं रह जाती है। अगर दर्पण पर श्‍वास की कुछ धुंध आ जाए, तो ही उन्‍हें मालूम पड़ता है कि उनकी श्‍वास चल रही है। कई बार योगी ध्‍यान में इतनी शांत और थिर हो जाते है कि उन्‍हें यह मालूम ह नहीं पड़ता कि वह भी जिंदा है या नहीं है। ध्‍यान की गहराई में तुम्‍हें भी यह अनुभव कभी न कभी घटेगा। उससे भयभीत मत होना। उस समय श्‍वास लगभग रूक सी जाती है। जब होश अपनी परिपूर्णता पर होता है, उस समय श्‍वास लगभग ठहर जाती है। लेकिन उस समय परेशान मत होना। भयभीत मत होना, यह काई मृत्‍यु नहीं है। वह तो केवल शांत अवस्‍था है।
योग का संपूर्ण प्रयास ही इस बात के लिए है कि व्‍यक्‍ति को ऐसी गहन शांत अवस्‍था तक ले आए कि फिर उस शांति को कोई भी भंग न कर सके। चेतना ऐसी शांत अवस्‍था को उपलब्‍ध हो जाए कि फिर उसकी शांति भंग न हो सके।
योग का अर्थ है, एक होने की विधि। योग का अर्थ है, जो कुछ अलग-अलग जा पडा है। उसे फिर से जोड़ना। योग का अर्थ है जोड़। योग का अर्थ है, यूनिओ मिस्‍टिका। योग का अर्थ है, एकता। हां, लाभ की प्राप्‍त तभी होती है जब हम दो का एक कर सकें।
और योग का पूरा प्रयास ही इसके लिए है कि शाश्‍वतता को कैसे पा सकें, जीजों के पीछे छीपी एकात्‍मकता को कैसे पा सकें। सभी परिवर्तनों, सभी गतियों के पीछे छीपी थिरता को कैसे प्राप्‍त कर सकें—अमृत को कैसे उपल्‍बध हो सकें, मृत्‍यु का अतिक्रमण कैसे कर सकें।
निश्‍चित ही हमारी आदतें बाधा खड़ी करेंगी। क्‍योंकि लंबे समय से हम इन्‍हीं गलत आदतों के साथ जीते आ रहे है। हमारे मन का गलत आदतों के साथ तालमेल बैठ गया है। इसी कारण हम हमेशा हर चीज को खंड-खंड में तोड़ देते है। आदमी की बुद्धि इसी के लिए प्रशिक्षित हुई है कि पहले हर चीज को विभक्‍त कर दो और फिर चीजों का विश्‍लेषण करो और एक चीज को बहुत रूपों में विभाजित कर दो। मनुष्‍य आज तक बुद्धि से ही जीता आया है, और वह भूल ही गया है कि चीजों को कैसे जोड़ना है, कैसे एक करना है।
लेकिन हमारी पुरानी आदतें चीजों को विश्‍लेषित करने की, चीर फाड़ करने की है। हमारी पुरानी आदतें यही है कि उसे खोजना है जो निरंतर परिवर्तनशील है। मन तो हमेशा नए में और परिवर्तन में ही रोमांच का अनुभव करता है। अगर कुछ भी बदले नहीं, सब कुछ वैसा का वैसा ही रहे, तो मन उदास हो जाता है, हमें मन की इन आदतों के प्रति सचेत होना होगा। अन्यथा आदतें तो किसी ने किसी रूप में बनी ही रहेंगी। और मन बहुत चालाक है।
ध्यान रहे मन कि आदत विश्‍लेषण करने की है। और योग है संश्‍लेषण, तो जब कभी मन विश्लेष ण करे, उसे उठाकर एक तरफ रख देना। विश्‍लेषण के द्वारा तुम अंतिम छोर तक, छोटे से छोटे, अणु परिमाणु तक पहुंच जाओगे। लेकिन संश्‍लेषण के द्वारा तुम विराट और समग्र तक पहुंच जाओगे। विज्ञान खोज करते-करते अणु तक जा पहुंचा। और योग खोजते-खोजते, आत्‍मा तक पहुंच गया। अणु का अर्थ है: लघु और छोटा, और आत्‍मा का अर्थ है, विराट। योग ने संपूर्ण को जाना है, समग्र हो अनुभव किया है। और विज्ञान ने छोटे और उससे भी छोटे तत्‍व को जाना है। और इसी तरह वह लधु की और चलता जा रहा है।
पहले तो विज्ञान ने पदार्थ को अणु में विभाजित किया। फिर विज्ञान ने पाया कि अणु को विभाजित करना कठिन है; फिर जब वे अणु का भी विभाजन करने में सफल हो गए, तो उन्‍होंने उसे परमाणु कहा। अणु का अर्थ ही होता है वह तत्‍व जो अविभाज्‍य जिसे अब और अधिक विभाजित न किया जा सके। लेकिन विज्ञान ने उसे भी विभाजित कर दिया। फिर विज्ञान इलेक्ट्रॉन न न्यूट्रॉन तक जा पहुंचा, और उसने सोचा कि अब और विभाजन संभव नहीं है। क्‍योंकि पदार्थ लगभग अदृश्‍य ही हो गया था। उसे अब देखना संभव नहीं था। जब इलेक्ट्रॉन दिखाई ही नहीं देता, तो कैसे उसका विभाजन संभव हो सकता है। लेकिन अब विज्ञान उसे भी विभाजित करने में सफल हो गया है। बिना इलेक्ट्रॉन को देखे, वैज्ञानिकों के उसको भी विभक्‍त कर दिया है।
वैज्ञानिक इसी तरह से चीजों को विभक्‍त करते चले जाएंगे……अब सभी कुछ हाथ के बाहर हो गया है।
योग ठीक इसके विपरीत प्रक्रिया है: योग संश्‍लेषण की प्रक्रिया है। योग जुड़ते जाने की और अधिकाधिक जुड़ते जाने की प्रक्रिया है, जिससे अंत में व्‍यक्‍ति अपने पूर्ण स्‍वरूप तक जा पहुंचे, स्‍वयं के साथ एक हो जाए। अस्‍तित्‍व एक है।
मन को भी सूर्य-मन, और चंद्र-मन में विभक्‍त किया जा सकता है। सूर्य मन वैज्ञानिक होता है, चंद्र मन काव्यात्मक होता है। सूर्य-मन विश्‍लेषणात्‍मक होता है, चंद्र-मन संश्‍लेषणात्‍मक होता है। सूर्य-मन गणितीय, तार्किक, अरस्‍तुगत होता है। चंद्र-मन बिलकुल अलग ही ढंग का होता है—असंगत होता है। अतार्किक होता है। सूर्य-मन और चंद्र-मन दोनों इतने अलग-अलग ढंग से कार्य करते है कि उनके बीच कही कोई संवाद नहीं हो पाता।
तुम कौन से केंद्र पर हो इसको जानने का प्रयत्‍न करो, तुम सूर्य-मन हो—तब गणित और तर्क तुम्‍हारे जीवन की शैली है। अगर तुम चंद्र-मन हो तो—तो काव्‍य, कल्‍पनाशीलता तुम्‍हारी जीवन-शैली होगी। तो तुम क्‍या हो और तुम्‍हारी क्‍या स्‍थिति है, पहले तो इसे जानना जरूरी है।
और ध्‍यान रहे, दोनों मन आधे-आधे होते है, तुम्‍हें दोनों के ही पार जाना है। अगर तुम सूर्य मन हो तो पहले चंद्र मन तक आना होगा। फिर उसके भी आगे जाना है। अगर तुम गृहस्‍थ हो, तो पहले जिप्‍सी हो जाओ।
यही है, संन्‍यास। मैं तुम्‍हें जिप्‍सी बना रहा हूं, घुमक्कड़ बना रहा हूं। अगर तुम बहुत ज्‍यादा तार्किक हो, तो मैं तुमसे कहता हूं, श्रद्धा करो, समर्पण करो, त्‍याग करो, सर्व-स्‍वीकार भाव से झुको। अगर तुम बहुत ज्‍यादा तार्किक हो, तो मैं तुम से कहूंगा कि यहां तर्क की कोई जरूरत नहीं है, बस मेरी और देखो और प्रेम में डूब जाओ। अगर ऐसा कर सको तो अच्‍छा है, क्‍योंकि यह एक प्रेम का नाता है। अगर तुम श्रद्धा में जी सकते हो, तो तुम्‍हारी ऊर्जा सूर्य से चंद्र की और सरक जाएगी।
जब तुम्‍हारी ऊर्जा सूर्य से चंद्र की और सरक जाती है। तो एक नयी ही संभावना का द्वार खुलता है। तुम फिर चंद्र के भी पार जा सकत हो, तब तुम साक्षी हो जाते हो, और वही है उद्देश्‍य, वही है मंजिल।
ओशो पतंजलि : योग-सूत्र, भाग—4, प्रवचन—13

भगवान बुद्ध और ज्‍योतिषी

एक गर्म दोपहरी थी। भगवान बुद्ध नदी किनारे चले जा रहे थे। नंगे पाव होने के कारण ठंडी बालु रेत का सहारा ले पैरों को ठंडा कर लेते थे। आस पास कहीं कोई वृक्ष नहीं था। नदी का पाट गर्मी के सुकड़ कर सर्प की तरह आड़ा तिरछा और संकरा भी हो गया। चारों और बालु का विस्‍तार फैला हुआ था। सुर्य शिखर पर था। रेत गर्मी के कारण तप रही थी। भगवान पैरो की जलन को कम करने के लिए गीली रेत पर चल कर पैरो को ठंडा कर रहे थे। जिसके कारण उनके पद चाप नदी के गिले बालु पर चित्र वत छपे अति सुंदर लग रहे है। दुर तक कोई बड़ा पेड़ न होने के कारण, पास ही एक कैंदु की झाड़ी की छांव को देख कर पल भर विश्राम करने के लिए रूप गये। कैंदु की छांव इतनी सधन थी कि कोई-कोई धूप का चितका छन कर ही आपा रहा था।
संयोगवश काशी से ज्योतिष पढ़ कर एक महा पंडित अपने घर आ रहा था। उसने ज्योतिष और अंक गणित के रहस्‍यों को जाने के लिए बारह साल लगाये थे। कीमती से कीमती ग्रंथ उस के पास था। उसके गुरु ने उसे महाविद्यालय उपाधि दे कर विदा किया था। गर्मी के कारण वह बैल गाड़ी से उतर कर पानी पीने नदी के किनारे आया। बालु पर जो भगवान के पद चाप छपे थे उन्‍हें देख कर उसे यकीन ही नहीं आया। वह इतना हैरान और परेशान हुआ की भाग कर बैल गाड़ी के गया और एक ग्रंथ निकाल कर लाया। और उन चिन्‍हों को उनके साथ मिलान करने लगा। वह सोचने लगा तो फिर जो मैंने बारह वर्ष तक सिखा है वह बेकार है। इस भर दोपहरी में ये पद चिन्‍ह इस निर्जन जंगल में । ये कैसे हो सकता है। वह उन पद चिन्‍हों का पीछा करता हुआ चला। दस र्फलांग चलने पर ही उसने एक आदमी को एक झाड़ के नीचे विश्राम करते हुए देखा।
वह उस और चल दिया। भगवान पैर पर पैर रख कर आराम कर रहे थे। पास बैठ कर ज्योतिषी ने उन चिन्‍हों का मिलान किया। पहले तो अपने को भाग्‍य शाली समझा की जो लाखों सालों में करोड़ों आदमियों में भी दुर्लभ चिन्‍ह है उन्‍हे देखने को मिले। पर ये खुशी पल भर में ही गायब हो गई।
क्‍योंकि चरण चिन्‍ह पर जो रेखाएं थी, वे उस शास्‍त्रों के अनुसार चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए। वैसी रेखाएं केवल उस के ही पैर में हो सकती है। जो सारे जगत को, छहों महाद्वीपों का एकमात्र सम्राट हो, जो पूरी पृथ्‍वी का मालिक हो। लेकिन जिस व्‍यक्‍ति को सामने लेटा हुआ देख रहा था। वह तो एक भिखारी था। उसके कपड़े फटे हुए नंगे पैर। जो धूप में चलने के लहू लूहान हो गये थे। एक दीद दरिद्र नदी के किनारे सोता हुआ भिखारी। पर उसके चेहरे पर तेज था। एक आभा थी, एक गौरव गरिमा थी। एक प्रसाद था एक शांति थी, जो उसे भी घेर रही थी। वह अपना सर पकड़ कर बैठ गया। अब उसके चलने कि हिम्‍मत जवाब दे चुकी थी। अब या ता जो सालों जाना है वो बेकार, या इस बात का और क्‍या रहस्‍य हो सकता है। इस बात को जाने के लिए वह भगवान के सौकर उठने का इंतजार करने लगा। मन में लगातार विचार चल रहे थे कि ऐसा कैसे हो सकता जिस मनुष्‍य के पैरों में पद्म हो और वो भिखारी, देख रहा है अपने सामने भिक्षा पात्र, जीर्ण-शीर्ण वस्‍त्र, न पास कोई रक्षक, न मंत्रि गण, न रथ, अकेला, वह भी इस निर्जन जंगल में। बारह वर्ष जो कड़ी मेहनत कर शिक्षा अर्जित की है वह किस काम, की उस ज्योतिषी को और भी अधिक मुश्‍किल में डाल दिया। एक-एक पल उसके लिए भारी हो रहा था। कि कब ये मनुष्‍य आंखे खोले और उसके मन में उठ रहे तूफान का निर्वाण करे।
अचानक भगवान ने आंखे खोली सामने एक ज्‍योतिषी को बैठे देख, और मुस्‍कुराये। उनकी हंसी मैं भी एक सौंदर्य था। एक तृप्‍ति थी, एक प्रसाद था। ज्‍योतिषी ने दोनों हाथ जोड़ कर निवेदन किया, महाराज आप मेरी शंका का निवारण कीजिए। मेरे भीतर एक अराजकता पैदा हो गई है। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है। मैं बनारस से ज्‍योतिष की शिक्षा ग्रहण करके लोट रहा हूं। आपके पैरों में जो पद्म है। वह अति दुर्लभ है, हजारों साल में कभी किसी भाग्य शाली को देखने को मिलता है। पर हमारी ज्‍योतिष कहती है कि उस व्‍यक्‍ति को चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए, परन्‍तु आप…..। और ज्‍योतिषी कहते-कहते चुप हो गया। लेकिन आपकी आंखे, आपका संग, एक सुगंध से लवलीन है, इतनी जीवित आंखे मैने आज तक नहीं देखी। आप केवल भिक्षु ही नहीं उस सब के भी पास कुछ और को पा चुके हो। पर शंका अपनी जगह वहीं के वही है। आपको चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए। मैं बहुत मुश्‍किल में हूं कृपा मेरी मुश्‍किल को सुलझाओं।
भगवान बुद्ध हंसे और उन्‍होंने कहा, जब तक में बंधा था, इस प्रकृति की पकड़ में, तब तक आपका ये ज्‍योतिष काम करता था। अब मैं सब बंधनों से, मुक्‍त हो गया हूं, न तो प्रकृति मेरा उपयोग कर सकती है, यहां तक जन्‍म-मृत्यु भी अब उस के बस के बहार हो गया है। आप उस पाश में बंधे है। आप चाह कर अपनी इच्‍छा से कहीं जनम नहीं ले सकते। प्रकृति जहां धक्‍के मारेगी वहीं जाना हो। और मुक्ति का क्‍या अर्थ की घर बार छोड़ दिया, जंगलों में भाग गये। ये तो उपरी थोड़ा आडम्बर है। हाँ साधना में सह योग दे सकता है। पर ये पूर्ण मुक्‍ति नहीं है। अब मैं मुक्‍त हूं, आपका ज्योतिष मुझ पर काम नहीं कर सकता। जो सोए है, उनके सबंध में ये ठीक है। जो बंधे है बंधन में उनके लिए ठीक है। पर जो मुक्‍त हो गये, वहां ये नकारा हो जाता है। वहां ये कुछ काम नहीं कर सकता।
ज्‍योतिषी की कुछ समझ में नहीं आया। मुक्‍त बंधन तो ठीक है, पर मैं ये पूछना चाहता हूं की आप मनुष्य तो है। आपका शरीर है, मन है, फिर ये सब आप पर काम क्‍यों नहीं करता। क्‍या आपको भूख नहीं लगती। क्‍या पृथ्‍वी का गुरुत्वाकर्षण आपको खिचता नहीं। क्‍या आपको सर्दी नहीं लगती। क्‍या आपके मन, दया का, वेदना का भाव मिट गया। आप चलते है, सोते है।…..
बोघिक तोर से भरे मन को समझना अति कठिन है।
वो सब तो होता है।
तो फिर क्‍या आप मनुष्‍य न होकर कोई देवता है।
बुद्ध ने कहां,नहीं।
तो किन्‍नर है।
बुद्ध ने कहा नहीं।
तो क्‍या आप यक्ष है।
यूं ज्‍योतिषी पूछता चला गया। और भगवान बुद्ध उत्‍तर देते चले गये। तब उसने कहा तो आप खुद ही बताये की आप कोन है।
भगवान बुद्ध ने कहां, मैं तुम्‍हें कहा चुका हूं मैं केवल एक जागा हुआ आदमी हूं। अब सोया हुआ नहीं हूं, इस अवस्‍था को ही हमने मुक्‍ति कहा है, मोक्ष कहा है। परम स्वतंत्रता कहा है। कैवल्‍य कहा है, समाधि कहां है।
पर पता नहीं बेचारे ज्‍योतिषी को कुछ समझ आया या नहीं, वह केवल उठा और भारी कदमों से अपनी बेल गाड़ी की तरफ चला गया। रत पर उसके पैरों के कदम भी बनते चले गये। सुर्य भी अपनी तपीस को समेट कर घर जाने की तैयारी कर रहा था। नदी पर और बालु पर पड़ रही उसकी किरण स्‍वर्णिम होने का भ्रम दे रही थी। दुर पक्षियों का झुंड संध्‍या से पहले अपने शरीर को उष्मा देने के लिए उड़ारी भर रहा था। पेड़ पौधे भी दिन भर की तपीस के बाद अब चेन की सांस ले सोन की तैयारी कर रहे थे। जैसे भगवान पुरी प्रकृति भगवान के उत्‍तर से प्रश्न थी। की एक तो मुक्‍त हुआ। कल हमारी भी बारी है। पर ज्‍योतिष हताश और मायूस चला जा रहा था। भगवान बस बैठे देखते रहे उसे जाते हुए और फिर कमंडल उठा कर आगे बढ़ गये।

भगवान बुद्ध और यशोधरा

गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्‍ध होने के बाद घर वापस लौटे। बारह साल बाद वापस लौटे। जिस दिन घर छोड़ा था, उनका बच्‍चा, उनका बैटा एक ही दिन का था। राहुल एक ही दिन का था। जब आए तो वह बारह वर्ष का हो चुका था। और बुद्ध की पत्‍नी यशोधरा बहुत नाराज थी। स्‍वभावत:। और उसके एक बहुत महत्‍वपूर्ण सवाल पूछा। उसने पूछा कि मैं इतना जानना चाहती हूं; क्‍या तुम्‍हें मेरा इतना भी भरोसा न था कि मुझसे कह देते कि मैं जा रहा हूं? क्‍या तुम सोचते हो कि मैं तुम्‍हें रोक लेती? मैं भी क्षत्राणी हूं। अगर हम युद्ध के मैदान पर तिलक और टीका लगा कर तुम्‍हें भेज सकते है, तो सत्‍य की खोज पर नहीं भेज सकेत? तुमने मेरा अपमान किया है। बुरा अपमान किया है। जाकर किया अपमान ऐसा नहीं। तुमने पूछा क्‍यों नहीं? तुम कह तो देते कि मैं जा रहा हूं। एक मौका तो मुझे देते। देख तो लेते कि मैं रोती हूं, चिल्‍लाती हूं, रूकावट डालती हूं।
कहते है बुद्ध से बहुत लोगों ने बहुत तरह के प्रश्‍न पूछे होंगे। मगर जिंदगी में एक मौका था जब वे चुप रह गए। जवाब न दे पाये। और यशोधरा ने एक के बाद एक तीर चलाए। और यशोधरा ने कहा कि मैं तुमसे दूसरी यह बात पूछती हूं कि जो तुमने जंगल में जाकर पाया, क्‍या तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो कि वह यहीं नहीं मिल सकता था?
यह भी भगवान बुद्ध कैसे कहें कि यहीं नहीं मिल सकता था। क्‍योंकि सत्‍य तो सभी जगह है। और भ्रम वश कोई अंजान कह दे तो भी कोई बात मानी जाये, अब तो उन्‍होंने खुद सत्‍य को जान लिया है, कि वह जंगल में मिल सकता है, तो क्‍या बाजार में नहीं मिल सकता। पहले बाजार में थे तब तो लगता था सत्‍य तो यहां नहीं है। वह तो जंगल में ही है। वह संसार में कहां वह तो संसार के छोड़ देने पर ही मिल सकता है। पर सत्‍य के मिल जाने के बात तो फिर उसी संसार और बाजार में आना पडा तब जाना यहां भी जाना जा सकता था सत्‍य का नाहक भागे। पर यहां थोड़ा कठिन जरूर है, पर ऐसा कैसे कह दे की यहां नहीं है। वह तो सब जगह है। भगवान बुद्ध के पास इस बात का कोई उत्‍तर नहीं था। उन्‍होंने आंखे झुका ली।
और तीसर प्रश्न जो यशोदा ने चोट की, शायद यशोदा समझ न सकी की बुद्ध पुरूष का यूं चुप रह जाना अति खतरनाक है। उस पर बार-बार चोट कर अपने आप को झंझट में डालने जैसा है, बुद्धों के पास क्‍या होता है। ध्‍यान-ध्‍यान-ध्‍यान और सन्‍यास। सो इस आखरी चोट में यशोदा उलझ गई। तीसरी बात उसने कहीं, राहुल को सामने किया और कहा कि ये तेरे पिता है। ये देख, ये जो भिखारी की तरह खड़ा है, हाथ में भिक्षा पात्र लिए। यहीं है तेरे पिता। ये तुझे पैदा होने के दिन छोड़ कर कायरों की तरह भाग गये थे। अंधेरे में अपना मुहँ छूपाये। जब तू मात्र के एक दिन का था। अभी पैदा हुआ नवजात। अब ये लौटे है, तेरे पिता, देख ले इन्‍हीं जी भर कर। शायद फिर आये या न आये। तुझे मिले या न मिले। इनसे तू अपनी वसीयत मांग ले। तेरे लिए क्‍या है इनके पास देने के लिए। वह मांग ले।
यह बड़ी गहरी चोट थी। बुद्ध के पास देने को था ही क्‍या। यशोधरा प्रतिशोध ले रही थी बारह वर्षों का। उसके ह्रदय के घाव जो नासूर बन गये थे। बह रहा था पीड़ा और संताप का मवाद। नहीं सूखा था वो जख्‍म जो बुद्ध उस रात दे कर चले गये थे। लेकिन उसने कभी सोचा भी नहीं था कि ये घटना कोई नया मोड़ ले लेगी। वह तो भाव में बहीं जा रही थी। बात को इतने आगे तक खींच लिया था अब उस का तनाव उसकी तरफ वापस लौटेगा। इस की और उसका ध्‍यान गया ही नहीं। भगवान जो इतनी देर से शांत बैठे थे उनके चेहरे पर मंद हंसी आई, यशोधरा का क्रोध और भभक उठा। उस इस बात का एहसास भी नहीं हो रहा था की वह बंद रही है मकड़ी की तरह अपने ही ताने बाने में।
भगवान ने तत्क्षण अपना भिक्षा पात्र सामने खड़े राहुल के हाथ में दे दिया। यशोधरा कुछ कहें या कुछ बोले। यह इतनी जल्‍दी हो गया। कि उसकी कुछ समझ में नहीं आया। इस के विषय में तो उसने सोचा भी नहीं था। भगवान ने कहा,बेटा मेरे पास देने को कुछ और है भी नहीं, लेकिन जो मैंने पाया है वह तुझे दूँगा। जिस सर्व सब के लिए मैने घर बार छोड़ा तुझे तेरी मां, और इस राज पाट को छोड़, और आज मुझे वो मिल गया है। मैं खुद चाहूंगा वही मेरे प्रिय पुत्र को भी मिल जाये। बाकी जो दिया जा सकता है। क्षणिक है। देने से पहले ही हाथ से फिसल जाता हे। बाकी रंग भी कोई रंग है। संध्‍या के आसमान की तरह,जो पल-पल बदलते रहते है। में तो तुझे ऐसे रंग में रंग देना चाहता हूं जो कभी नहीं छुट सकता। तू संन्‍यस्‍त हो जा।
बारह वर्ष के बेटे को संन्‍यस्‍त कर दिया। यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। उसने कहां ये आप क्‍या कर रहे है।
पर बुद्ध ने कहा,जो मरी संपदा है वही तो दे सकता हूं। समाधि मेरी संपदा है, और बांटने का ढंग संन्‍यास है। और यशोधरा, जो बीत गई बात उसे बिसार दे। आया ही इसलिए हूं कि तुझे भी ले जाऊँ। अब राहुल तो गया। तू भी चल। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ हूं। उसकी तूँ भी मालिक हो जा।
और सच में ही यशोधरा ने सिद्ध कर दिया कि वह क्षत्राणी थी। तत्‍क्षण पैरों में झुक गई और उसने कहा, मुझे भी दीक्षा दें। और दीक्षा लेकर भिक्षुओं में, संन्‍यासियों में यूं खो गई कि फिर उसका कोई उल्‍लेख नहीं है। पूरे धम्म पद में कोई उल्‍लेख नहीं आता। हजारों संन्‍यासियों कि भीड़ में अपने को यूँ मिटा दिया। जैसे वो है ही नहीं। लोग उसके त्‍याग को नहीं समझ सकते। अपने मान , सम्‍मान, अहंकार को यूं मिटा दिया की संन्‍यासी भूल ही गये की ये वहीं यशोधरा है। भगवान बुद्ध की पत्‍नी। बहुत कठिन तपस्‍या थ यशोधरा की। पर वो उसपर खरी उतरी। उसकी अस्‍मिता यूं खो गई जैस कपूर। बौद्ध शास्‍त्रों में इस घटना के बाद उसका फिर कोई उल्‍लेख नहीं आता। कैसे जीयी, कैसे मरी,कब तक जीयी, कब मरी, किसी को कुछ पता नहीं। हां राहुल का जरूर जिक्र आता है बौद्ध शास्‍त्रों में जब उसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्‍त हुआ, शायद वह सोलह साल का था। उस रात उसे मार ने डराया, वह संन्‍यासियों की कतार में बहुत दूर सोता था। एक साधारण सन्‍यासी की तरह। उस रात वह जब मार ने उसे डराया, तब वह गंध कुटी के बहार आ कर सो गया। भगवान बुद्ध की कुटिया को गंध कुटी कहते थे। उसी रात राहुल ब्रह्म ज्ञान को उपलब्‍ध हुआ। मात्र राहुल का भी बौद्ध ग्रंथों में यही वर्णन आता है। कठिन था जीवन, रोज-रोज भिक्षा मांग कर खानी होती थी। और जब आप अति विशेष हो तो आपको अपनी अति विशेषता को छोड़ना अति कठिन है। यशोधरा और राहुल ने छोड़ा, उन संन्यासियों की भिड़ में ऐसे गुम हो गये। यूं लीन हो गये, यूं डूब गये, इसको कहते है आन। कि आने के पद चाप भी आप न देख सके कोई ध्वनि भी न हुई, कोई छावा तक नहीं बन। तभी कोई अपने घर आ सकता है। बेड़ बाजा बजा कर केवल आने का भ्रम पैदा कर देना है।
–ओशो आपुई गई हिराय, प्रवचन—10, ओशो आश्रम, पूना,

राहुल पर मार का हमला—(कथा यात्रा)

राहुल गौतम बुद्ध का बेटा था। राहुल के संबंध में थोड़ा जान लें। फिर इस दृश्‍य को समझना आसान हो जायेगा।
जिस रात बुद्ध ने घर छोड़ा, महा अभिनिष्क्रमण किया, राहुल बहुत छोटा था। एक ही दिन का था। अभी-अभी पैदा हुआ था। बुद्ध घर छोड़ने के पहले गए थे यशोधरा के कमरे में इस नवजात बेटे को देखने। यशोधरा अपनी छाती से लगाए राहुल को सो रही थी। चाहते थे, देख ले राहुल का मुंह, क्‍योंकि फिर मिले देखने ल मिले। लेकिन इस डर से की अगर राहुल के और पास गए, उसका मुंह देखने की कोशिश की, कहीं यशोधरा जग न जाए, जग जाए, तो रोएगी, चीखेगी, चिल्‍लाएगी, जाने न देगी। इसलिए चुपचाप द्वार से ही लोट गए थे।
उस बेटे को राहुल का नाम भी बुद्ध ने इसी लिए दिया था—राहु-केतु के अर्थों में। इसलिए दिया कि बुद्ध घर छोड़ने जा रहे थे। तब यह बेटा हुआ। सोचते थे कब छोड़ दू्ं, कब छोड़ दू्ं, तब यह बेटा पैदा हुआ। इस बेटे का प्रबल आकर्षण, और हजार शंकाओं-कुशंकाओं का जमघट लग गया।
मेरे घर बेटा आया है और मैं छोड़कर भाग रहा हूं—यह उचित है छोड़कर भागना, जिम्‍मेदारी, उत्तरदायित्व….। इस बेटे के जन्‍म से मेरा उतना ही हाथ है, जितना यशोधरा का, और मैं छोड़कर भाग रहा हूं। इस असहाय स्‍त्री पर अकेला बोझ छोड़कर भागा जा रहा हूं, यह उचित नहीं है।
ये सारी शंकाएं उठने लगी थीं। इसलिए नाम राहुल दिया था कि मैं किसी तरह मुक्‍त होने के करीब था कि तू राहू की तरह मेरे कले को फंसाने आ गया।
फिर बारह वर्षों बाद बुद्ध घर लौटे थे—बुद्धत्‍व को पाकर—तब राहुल बारह वर्ष का था। यशोधरा बहुत नाराज थी। स्‍वभाविक। मानिनी स्‍त्री थी। इसलिए सीधे तो उसने कुछ भी न कहा। लेकिन तीखा व्‍यंग्‍य किया। परोक्ष व्‍यंग्‍य किया।
जब बुद्ध घर पहुंचे, तो उसने अपने बेटे राहुल को कहा कि बेटा, ये तुम्‍हारे पिता है। तू जब एक दिन का था तब तुझे छोड़कर भाग गये थे। ये भगोड़े है। यहीं तेरे पिता है, तू बार-बार मुझसे पूछता था कि मेरे पिता कोन है? ये सज्‍जन जो आकर खड़े हो गए है। यही तेरे पिता है, इनसे तू मांग ले अपनी वसीयत, ये तेरे पिता जो सामने खड़े है। फिर पता नहीं मिलना हाँ या न हो। इनसे मांग ले हाथ फैलाकर—कि इस संसार में जीने के लिए मेरी कुछ वसीयत।
उसने तो व्‍यंग्‍य किया था। वह व्‍यंग्‍य महंगा पड़ गया।
बुद्ध ने आनंद से कहा: आनंद मेरा, भिक्षा पात्र कहां है, क्‍योंकि मेरे पास संसार की कोई संपदा ता नहीं है, एक भिक्षा पात्र है, वह मैं अपने बेटे को दे देता हूं। संन्‍यास की संपदा है, तू उसका मालिक हो गया।
भिक्षा पात्र देकर बुद्ध ने कहा: बेटा तू भिक्षु हो गया। तू संन्‍यस्‍त हो गया। मेरे पास संसार की कोई संपदा नहीं है, संन्‍यास है वह मैं अपने बेटे को दे देता हूं। लेकिन भिक्षा पात्र तो भिक्षु को दिया जा सकता है।
महंगा पड़ गया व्‍यंग्‍य। राहुल भी बेटा तो बुद्ध का था; उसने ना-नुच भी न की। उसने चरण छुए और बुद्ध के पीछे हो लिया। यशोधरा तो बहुत घबरा गई। पति तो गया ही गया, अब बैटा भी गया। तब कोई और उपाय न देख उसने बुद्ध से कहा: फिर मुझे भी भिक्षुणी बना लें। अब मैं किसके लिए रहूंगी। ऐसे राहुल के कारण यशोधरा भी भिक्षुणी बनी।
राहुल अद्भुत बैटा था। बारह साल के बच्‍चे से यह आशा करनी, पर बुद्ध का बेटा था, तो अद्भुत तो होना ही था। बारह साल के बेटे से यह अपेक्षा करनी, लेकिन वह भिक्षु की तरह रहा। चूंकि छोटा था, इसलिए भिक्षुओं का जो प्रथम द्वार है—श्रामणेर, उसकी ही दीक्षा उसे बुद्ध ने दी थी। लेकिन श्रामणेर रहते हुए भी वह छोटा सा बच्‍चा अर्हत की अवस्‍था के करीब आ गया था। बुद्ध होने के करीब आने लगा था।
मार का हमला तभी होता है, जब कोई बुद्ध होने के करीब आने लगता है। उसके पहले हमला नहीं होता। तुम्‍हारा शैतान से मिलना नहीं हुआ है, तो उसका कारण यह नहीं है, कि शैतान नहीं है। उसका केवल इतना ही कारण है कि तुम अभी इस योग्‍य नहीं कि शैतान तुम पर ध्‍यान दे। उसके लिए पात्रता चाहिए, योग्‍यता चाहिए।
तुम में शैतान को कुछ रस नहीं है, तुम गड्ढे में वैसे ही पड़े हो। शैतान तुम से जो करवाए,वि तुम अपने आप की कर रहे हो। शैतान तुम्‍हें जहां ले जाए, तुम अपनी मर्जी से ही कर रहे हो। अब शैतान और क्‍या करे, तुम्‍हारे साथ कोई उपाय नहीं है।
शैतान तो तुम्‍हारे जीवन में तभी प्रकट हो सकता है। जब तुम्‍हारे जीवन से बुराई गिरने के आखिरी स्थल पर आ जाती है।
शैतान कोई बाहर नहीं है; शैतान तुम्‍हारे मन की आखिरी चेष्‍टा है तुम्‍हें बांधने की, शैतान का इतना ही अर्थ है कि तुम्‍हारा मन अपनी मलकियत तुम पर आसानी से नहीं छोड़ देगा।
लेकिन जब तक तुम खुद ही उसके गुलाम हो, तब तक मलकियत कायम करने की कोई जरूरत भी नहीं है। तुम गुलाम हो ही। जब तुम मालिक होने लगते हो, और मन को यह लगता है कि अब मैं गया; अब मेरी मलकियत गयी; अब यह आदमी होश सम्‍हालता जा रहा है; जल्‍दी ही मेरा हुकूमत समाप्‍त हो जाएगी। इसकी हुकूमत आने के करीब हे; जल्‍दी ही मेरी ताकत को इकट्ठी करके….।
और बड़ी ताकत है मन की, क्‍योंकि जन्‍मों–जन्‍मों से मन मालिक रहा है। उसे तुम्‍हारी सारी कमजोरी पता है। उसे तुम्‍हारे सारे भय पता है। उसे तुम्‍हारी सारी वासनाएं पता है। वह तुमसे भली भांति परिचित है। वह जानता है, तुम कहां-कहां कमजोर हो, वह कमजोर स्‍थल पर उँगली रखकर दबाना जानता है तुम कहां-कहां कमजोर हो, तुमसे उससे ज्‍यादा परिचित और कौन है। जन्‍मों–जन्‍मों में उसने तुम्‍हें जाना है।
शायद मार ने इसीलिए हमला किया। इस घटना में कुछ अतिथि आ गए है। उनको ठहराने की जगह चाहिए, तो राहुल का कमरा उनको दे दिया गया है। रात राहुल सोने के लिए जगह नहीं पाता। कोई और उपाय न देखकर, जहां बुद्ध ठहरे थे, गंधकुटी में…।
बुद्ध जहां ठहरते थे, उस कुटी का नाम गंधकुटी होता था। क्‍योंकि बुद्ध में एक गंध है, परलोक की। जहां ठहरते थे। उसका नाम गंधकुटी रखा गया था। वहां परमात्‍मा की सुगंध होती। वहां बिना किसी सुगंध के सुगंध होती। वहां बिना किसी वाद्य के संगीत बजता। वहां एक रोशनी होती अंधेरे में भी। वहां बुद्धत्‍व का वास था। वह जगह मंदिर थी।
कोई जगह ने देख कर राहुल फिर बुद्ध की गंधकुटी के बाहर बरामदे में जाकर सो गया।
एक तो राहुल धीरे-धीरे, यद्यपि ऊपर से श्रामणेर था, बच्‍चा था, लेकिन भीतर थिर होता जा रहा था। अंतिम घड़ी करीब आ रही थी। और शायद उस दिन अंतिम घड़ी बहुत करीब आ गयी। बुद्ध के सान्निध्य के कारण पहली बार बुद्ध के बरामदे में सोया था राहुल। बुद्धत्‍व की मौजूदगी, उसके भीतर जो जागता हुआ बुद्धत्‍व है, उसको बड़ा सहारा बन गयी होगी।
यही तो साधु-संग का रहस्‍य और राज है। अगर तुम किसी साधु के पास हो, तो तुम्‍हारे भीतर साधुता को छलांग लेने की सुविधा ज्‍यादा होगी। तुम अगर असाधु के पास हो, तो तुम्‍हारे भीतर जो शैतान है, उसका बस तुम पर ज्‍यादा होगा। क्‍योंकि आदमी अनुकरण में जीता है।
तुमने कभी ख्‍याल किया, चार आदमी उदास बैठे हों और तुम भी उनके पास जाकर बैठ जाओ, तो तुम उदास हो जाते हो। चार आदमी हंसते हो; तुम उदास आए थे, चार आदमियों को हंसते देखकर तुम भी मुस्‍कुराने लगते हो, हंसने लगते हो। भूल ही जाते हो।
बुद्धत्‍व की सन्निधि उस रात; बुद्ध अपनी गंधकुटी में भीतर सोए है, और राहुल बाहर बरामदे में लेट रहा है। शैतान ने हमला किया; मार ने हमला किया।
मार जानता है; छोटा बच्‍चा है। तेरह-चौदह वर्ष का। काम वासना के द्वार इस पर हमला नहीं क्या जा सकता। कामवासना का हमला चौदह साल के बाद हो सकता है।
दो ही हमले संभव है। यहाँ तो काम का भय, छोटा बच्‍चा भय के द्वारा ही डाँवा डोल किया जा सकता है। जवान आदमी शायद भय से डांवाडोल न भी हो। लेकिन कामवासना से डांवाडोल होता है।
यह छोटा बच्‍चा है। इसके पास नंगी अप्‍सराएं नचाने से कुछ न होगा। वह ऋषि-मुनियों के पास नचाना ठीक है। यह छोटा ही बच्‍चा है। यह इसको समझेगा ही नहीं। यह शायद बैठकर मजा लेने लगे। सोचे कि क्‍या हो रहा है। तमाशा हो रहा है। इस पर कुछ परिणाम न होगा नंगी अप्सराएं नाचने से। यह शायद मस्‍त होकर सो जाए कि ठीक है। नाचो, खूब नाचो खूब नाचो जितना नाचना हो। इसमें कोई परिणाम न हो, क्‍योंकि तभी हो सकता है, जब कामवासना सजग हो गयी हो।
बूढ़े में हो सकती है कभी-कभी तो जवान से भी ज्‍यादा होती है बूढ़े में। क्‍योंकि जवान में शक्‍ति भी होती है वासना भी होती है। बूढ़े में वासना तो उतनी की उतनी होती है। शक्‍ति खो गयी होती है। तो जवान में शक्‍ति भी होती है। वासना भी होती है। चाहे तो अपनी शक्‍ति से वासना को दबाए रख सकता है। लेकिन बूढ़े के पास शक्‍ति भी नहीं बचती। वह अपनी वासना को दबा भी नहीं सकता। बूढ़ा बड़ा अवश हो जाता है। वासना उतनी की उतनी होती है। उतनी ही जवान, जितनी पहले थी। और जो ताकत थी जवानी की, वह खो गयी है।
लेकिन राहुल को वासना से नहीं डिगाना जा सकता था। इसलिए यह कहानी अनूठी है। चूंकि बारह-चौदह साल के ऋषि मुनि होते ही नहीं। इसलिए कहानी अनूठी है। तुमने जो कहानियां पढ़ी है, ऋषि-मुनियों की, वे सब वृद्ध ऋषि-मुनियों की है। वहां उर्वशी आती है और नाचती है; और शृंगार करके आती है। और सब उस तरह का काम होता है। यह राहुल छोटा सा बच्‍चा है।
मार ने क्‍या किया? यह अर्हत हुआ जा रहा है। वह एक बड़ा हाथी बनकर आया है। छोटा बच्‍चा है, उसके लिए बड़ा हाथी इतना ही नहीं, सूंड़ में राहुल की गरदन फंसा ली है। और भयंकर चीत्‍कार की।
कहानी को तथ्‍य मत समझ लेना। ऐसा भीतर हुआ होगा। हो सकता है, सपने में हुआ हो। एक दुःख स्‍वप्‍न हुआ हो। मन ही है। जो यह रूप रखता है। लेकिन यह चीत्‍कार की आवाज, हो सकती राहुल के मुंह से निकल गई हो।
तुम्‍हारे कभी-कभी मुंह से निकल जाती है। दुःख स्‍वप्‍न में। छाती पर कोई आकर राक्षस बैठ गया है और चीत्‍कार निकल जाती है। या पहाड़ से गिरा दिये गए और चीत्‍कार निकल जाती है। यहाँ कोई तुम्‍हारी छाती में छुरा भोंक रहा है और चीत्‍कार निकल जाती है।
ऐसा चीत्‍कार छोटे से राहुल के मुंह से निकल गई होगी। बुद्ध ने गंधकुटी के भीतर से ही मार को जानकर ऐसे शब्‍द कहे—मार,तेरे जैसे लाखों भी मेरे पुत्र को भय नहीं उत्‍पन्‍न कर सकते।
यहां एक बात और ख्‍याल रख लेना। बुद्ध राहुल को ही मेरा पुत्र कहते है, ऐसा नहीं। जितने भिक्षु है, सभी को मेरा पुत्र कहते है। राहुल तो पुत्र भी है। लेकिन भिक्षु सभी बुद्ध के पुत्र है—बुद्ध संतति।
गुरु पिता है। एक बहुत नए अर्थों में पिता है। पिता से तो शरीर को जन्‍म मिलता है, गुरु से आत्‍मा को। पिता से तो जो शरीर मिला है। वह आज नहीं तो कल मौत ले जाएगी। गुरु से जो आत्‍मा मिलती है। उसे फिर कोई नहीं ले सकता। पिता से तो संसार मिलता है, गुरु से संन्‍यास। संसार क्षण भंगुर है, संसार शाश्वत।
बुद्ध ने कहा: मार, मेरे बेटे को तेरे जैसे लाखों भी भय उत्‍पन्‍न नहीं कर सकते। मेरा पुत्र निर्भीक, तृष्‍णारहित, महाबलवान और महाबुद्धिमान है। यह कहकर इस गाथाओं को कहा।
जिस मनुष्‍य ने अर्हत का पद पा लिया, जो भय रहित है,
जो वीत तृष्णा और निष्‍कलुष है,
जिसने संसार के शल्‍यों को काट दिया है,
यह उसकी अंतिम देह है।.
अर्हत का अर्थ होता है। जिसके शत्रु समाप्‍त हो गये हो। अरि-हत। अरि यानी शत्रु, हत यानी नष्‍ट हो गये हो।
जिसने अर्हत का पद पा लिया हो वह सादा भय रहित है। बुद्ध ने कहा, जो वीत तृष्णा और निष्‍कलुष हे, जिसने संसार के शल्‍यों को दिया, यह उनकी अंतिम देह है।
मार को उन्‍होंने कहा: सुन पागल, यह राहुल की अंतिम देह है। अब तू इसे डरा न सकेगा। यह तो आखिरी घड़ी आ गयी इसकी। इसके बाद इसकी दुबारा देह होने वाली नहीं है। यह फिर नहीं जन्‍मेंगा। अब तू इसे मौत से न डरा सकेगा।
मौत कब तक डरा सकती है। मौत तभी तक डरा सकती है। जब तक जीवन का आकर्षण है। ख्‍याल कर लेना। जब तक तुम चाहते हो: जीवन बना रहे, बना रहे, सदा बना रहे: जीवेषणा जबतक है, तब तक मौत डरा सकती है।
बुद्ध कहते है: इसकी जो जीवेषणा ही चली गयी है। यह तो अब दुबारा पैदा होना ही नहीं चाहता; इसके भीतर चाह ही न बची अब बचने की। इसकी भव तृष्णा समाप्‍त हो गयी है। यह इसकी अंतिम देह है। इस बार इसकी देह गिरेगी, तो दुबारा यह किसी गर्भ में नहीं उतरेगा। यह महाशून्‍य में प्रवेश करने के लिए तैयार खड़ा है। इसको अब तुम डरा नहीं सकते। काम से तू डरा नहीं सकता। भय से भी तू डरा नहीं सकता। चेष्‍टा व्‍यर्थ है तेरी मार।
–ओशो एस धम्‍मो सनंतनो, प्रवचन—107, भाग—11, ओशो आश्रम, पूना।