आखिरी बात जो तीर्थ के बाबत ख्याल ले लेना चाहिए, वह यह कि सिंबालिक ऐक्ट का, प्रतीकात्मक कृत्य का भारी मूल्य है। जैसे जीसस के पास कोई आता है और कहता है। मैंने यह पाप किए। वह जीसस के सामने कन्फेस कर देता है, सब बता देता है मैंने यह पाप किए। जीसस उसके सिर पर हाथ रख कर कह देते है कि जा तुझे माफ किया। अब इस आदमी न पाप किए है। जीसस के कहने से माफ कैसे हो जाएंगे? जीसस कौन है,और हाथ रखने से माफ हो जाएंगे, जिस आदमी ने खून किया, उसका क्या होगा, या हमने कहा, आदमी पाप करे और गंगा में स्नान कर ले, मुक्त हो जाएगा। बिलकुल पागलपन मालूम हो रहा है। जिसने हत्या की है, चोरी की है, बेईमानी की हे, गंगा में स्नान करके मुक्त कैसे हो जाएगा।
यह दो बातें समझ लेनी जरूरी है। एक तो यह, कि पाप असली घटना नहीं है। स्मृति असली घटना है—मैमोरी । पाप नहीं, ऐक्ट नहीं असली घटना जो आप में चिपकी रह जाती है। वह स्मृति है। आपने हत्या की है। यह उतना बड़ा सवाल नहीं है। आखिर में। आपने हत्या की है, यह स्मृति कांटे की तरह पीछा करेगी।
जो जानते है…..वे जो जानते है कि हत्या की है या नहीं। वह नाटक का हिस्सा है, उसका कोई मूल्य नहीं है। न कभी मरता है कोई न कभी मार सकता है कोई। मगर यह स्मृति आपका पीछा करेगी कि मैंने हत्या की, मैंने चोरी की। यह पीछा करेगी और यह पत्थर की तरह आपकी छाती पर पड़ी रहेगी। वह कृत्य तो गया, अनंत में खो गया, वह कृत्य तो अनंत ने संभाल लिया। सच तो यह है सब कृत्य तो अनंत के है; आप नाहक उसके लिए परेशान है। और चोरी भी हुई है आपसे तो अनंत के ही द्वारा आपसे हुई है। हत्या भी हुई है तो भी अनंत के द्वारा आपसे हुई है, आप नाहक बीच में अपनी स्मृति लेकर खड़े है। मैंने किया। अब यह ‘’मैंने किया’’ यह स्मृति आपकी छाती पर बोझ है।
क्राइस्ट कहते हैं, तुम कन्फेस कर दो, मैं तुम्हें माफ किए देता हूं। और जो क्राइस्ट पर भरोसा करता है वह पवित्र होकर लोट गा। असल में क्राइस्ट पाप से तो मुक्त नहीं कर सकते, लेकिन स्मृति से मुक्त कर सकते हे। स्मृति ही असली सवाल हे। गंगा पाप से मुक्त नहीं कर सकती, लेकिन स्मृति से मुक्त कर सकती हे। अगर कोई भरोसा लेकर गया है। कि गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप से बाहर हो जाऊँगा और ऐसा अगर उसके चित में है। उसकी कलेक्टव अनकांशेस में है, उसके समाज की करोड़ों वर्ष से छुटकारा नहीं होगा वैसे, क्योंकि चोरी को अब कुछ और नहीं किया जा सकता। हत्या जो हो गई, हो गयी लेकिन यह व्यक्ति पानी के बाहर जब निकला तो सिंबालिक एक्ट हो गया।
क्राइस्ट कितने दिन दुनिया में रहेंगे, कितने पापी यों से मिलेंगे,कितने पापी कन्फेस कर पाएंगे। इसके लिए हिंदुओं ने ज्यादा स्थायी व्यवस्था खोजी है। व्यक्ति से नहीं बांधा। यह नदी कन्फेशन लेती रहेगी। वह नदी माफ करती रहेगी, यह अनंत तक रहेगी, और ये धाराएं स्थायी हो जाएंगी। क्राइस्ट कितने दिन रहेंगे। मुश्किल से क्राइस्ट तीन साल काम कर पाए, कुल तीन साल। तीस से लेकर तैंतीस साल की अम्र तक, तीन साल में कितने पापी कन्फेस करेंगे। कितने पापी उनके पास आएंगे। कितने लोगों के सिर पर हाथ रखेंगे। यहां के मनीषी यों ने व्यक्ति से नहीं बांधा, धारा से बाँध दिया।
तीर्थ है, वहां जाएगा कोई, वह मुक्त होकर लौटे गा। तो स्मृति से मुक्त होगा। स्मृति ही तो बंधन है। वह स्वप्न जो आपने देखा, आपका पीछा कर रहा है। असली सवाल वही है, और निश्चित ही उससे छुटकारा हो सकता है। लेकिन उस छुटकारे में दो बातें जरूरी है। बड़ी बात तो यह जरूरी है कि आपकी ऐसी निष्ठा हो कि मुक्ति हो जाएगी। और आपकी निष्ठा कैसे होगी। आपकी निष्ठा तभी होगी जब आपको ऐसा ख्याल हो कि लाखों वर्ष से ऐसा वहां होता रहा है। और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन है—जैसे काशी, वह सनातन है। सच बात यह है, पृथ्वी पर कोई ऐसा समय नहीं जब काशी तीर्थ नहीं था। वह एक अर्थ में सनातन है। बिलकुल सनातन है। यह आदमी का पुरानी से पुराना तीर्थ हे। उसका मूल्य बढ़ जाता है। क्योंकि इतन बड़ी धारा, सजेशन। वहां कितने लोग मुक्त हुए, वहां कितने लोग शांत हुए है। वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड़ गए—वह एक लंबी धारा है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है। वह सरल चित में जाकर निष्ठा बन जाएगी। वह निष्ठ बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता हे। वह निष्ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता। आपका कोऔपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोऔपरेशन तभी देते है कि जब तीर्थ की एक धारा हो एक इतिहास हो।
हिंदू कहते है, काशी इस जमीन का हिस्सा नहीं है। इस पृथ्वी का हिस्सा नहीं है। वह अलग ही टुकडा है। वह शिव की नगरी अलग ही है। वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़े गे काशी बनी रहेगी। इसलिए कई दफा हैरानी होती है। व्यक्ति तो खो जाते है—बुद्ध काशी आये, जैनों के तीर्थकर काशी में पैदा हुए और खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर आए खो गए। काशी ने तीर्थ देखे अवतार देखे। संत देखे सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा। लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को , उन सारे लोगों के पुण्य को उन सारे लोगों की जीवन धारा को उनकी सब सुगंध को आत्मसात कर लेती है और बना रहती हे।
यह जो स्थिति हे। यह निश्चित ही पृथ्वी से अलग हो जाती है। मेटाफरीकली। यह इसका अपना एक शाश्वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्यक्तित्व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गूजरें, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। यह सब कहानी हो गयी। वह सब स्वप्नवत् हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है वह फिर से पाश्रर्वनाथ को गुजरते हुए देख सकता है। वह फिर से देखेगी तुलसी दास को वह फिर से देखेगी कबीर को।
अगर कोई निष्ठा से इस काशी के निकट जाए तो यह काशी साधारण नगरी ने रह जाएगी लंदन या बम्बई जैसी। एक असाधारण चिन्मय रूप ले लेगी। और इसकी चिन्मय ता बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते है। असभ्यताऐं बनती है। आती है और चली जाती है। और यह अपनी एक अंत: धारा करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्सा हो गए है एक अंत धारा को संजोए हुए चलती है। इसके रास्ते पर खड़ा होना,इसके घाट पर स्नान करना इसमें बैठकर ध्यान करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्सा हो गए है एक अंत: धारा के। यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लुंगा,खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में—उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में उसका सहारा लिया जा सकता है। सहारे के लिए यह सारा आयोजन है।
यह कुछ बातें जो ठीक से समझ में आ सकें वह मैंने कहीं। बुद्धि जिनको देख पाये समझ पाये, पर यह पर्याप्त नहीं है। बहुत सी बातें है तीर्थ के साथ,जो समझ में नहीं आ सकेंगी पर घटित होती है। जिनको बुद्धि साफ-साफ नहीं देख पाएगी। जिनका गणित नहीं बनाया जा सकेगा। लेकिन घटित होती है।
–ओशो (मैं कहाता आंखन देखी)
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