वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्पति की कुछ समझ में नहीं आया। इसलिए उन्होंने हां भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति लगा था परमात्मा की खोज में। उसे कुछ और समझ में नहीं आ रहा था। कोई कुछ भी बोले,वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा हां।
उसने शायद कुछ और सुना होगा, की परमात्मा से मिलोंगे। जैसा की हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है उससे कहो, धर्म खोजोंगे? वह समझता है,शायद कह रहे है, धन खोजोंगे, उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है। वहीं हम सुन पाते है। वाचस्पति ने शायद सुना; हां भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा कहां ले जा रहे हो? उसके पिता ने कहा, पागल तूने हां भरी थी। विवाह करने चल रहे है। तो फिर उसने न कहना उचित न समझा; क्योंकि जब हाँ भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्नी घर में आ गई, और वाचस्पति को ख्याल ही न रहा। रहता भी क्या। न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्म सूत्र पर एक टीका लिखता रहा। वह बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीपक जला जाती। रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता तो चुपके से उसकी थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष के लम्बे समय तक अपनी पत्नी का वहां होने का वाचस्पति को पता ही नहीं चला। की वह वहां है। पत्नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए; बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्योंकि उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात को पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठाया—उनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्तर तक पहली दफा बारह वर्ष में, कथा कहती है। वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्त हुआ था। अब मन बंधा नहीं था किसी काम में। हाथ देखा, चूड़ियाँ देखीं, चूड़ियों की आवज सूनी, लौट कर पीछे देखा और कहा, स्त्री, इस आधी रात अकेले मेरी कुटिया में। तू कौन है? यहां कैसे आई। द्वारा दरवाजे तो सब बंध है। तू कहां से आई है? इतनी रात को एक पराये मर्द के कमरे में। चल तू जहां से आई है मैं तुझे वहां पहुंचा दूँ।
उसकी पत्नी ने कहा: शायद आप भूल गये होगें। बहुत काम था। बाहर वर्ष से आप इस काम में लगे हो। आप आपने काम में इतना तल्लीन हो। आपके आस पास क्या घट यहाँ है, कोन आता है। इसकी खबर तक नहीं है। बारह वर्ष पहले आप ख्याल करो, शायद याद आ जाये। आप मुझे पत्नी की तरह घर लेकर आये थे। तब से मैं यहीं हूं।
वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई। क्योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस देन यह ग्रंथ पूरा हो जायेगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूँगा। तो यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया। भोर होने के करीब है; तो मैं तो जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्यों नहीं बताया। थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई है।
वाचस्पति की आंखों में आंसू देख कर पत्नी ने अपना सर उनके चरणों में रख दिया। और कहने लगी: जो भी मुझे मिल सकता था। वह इन आंसुओं से मिल गया। इससे सुंदर और क्या हो सकता है। यही आपकी पूर्णता एक दिन मुझे भी पूर्ण कर देगा। इससे कीमती और दुनियां में कुछ और हो भी नहीं सकता हे। अब मुझ कुछ भी नहीं चाहिए। आप निश्चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी? मैं धन्य हुई, मुझे बहुत कुछ मिल गया। आप दिल पर बोझ ले कर मत जाना। सब निरझरा हो कर जाना।
वाचस्पति ने अपने ब्रह्म सूत्र की टीका का नाम ‘’ भामति’’ रखा है। भामति को कोई संबंध टीका से नहीं है। ब्रह्म सूत्र से कोई लेना देना नहीं है। यह उसकी अपनी पत्नी का नाम था। यह कह कर की मैं कुछ और तेरे लिए कर नहीं सकता हूं। लेकिन मुझे लोग चाहे भूल जाये। तुझे न भूले, इसलिए भामति नाम देता हूं। अपने ग्रंथ को। वाचस्पति को बहुत लोग भूल गए है; भामति को भूलना मुश्किल है। भामति लोग पढ़ते है। अद्भुत टीका है। ब्रह्म सूत्र की वैसी दूसरी टीका नहीं है। उस का नाम भामति है।
फेमिनिन मिस्ट्रि इस स्त्री के पास होगी। और मैं मानता हूं कि उस क्षण में उसने वाचस्पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष चेष्टा करके कोई स्त्री किसी पुरूष को नहीं पा सकती । उस क्षण में, उस क्षण में वाचस्पति जिस भांति एक हो गया होगा इस सत्री के ह्रदय से, वैसा कोई पुरूष को कोई स्त्री कभी नहीं पा सकती । क्योंकि फेमिनिन मिस्ट्रि वह जो रहस्य है। वह अनुपस्थित का है।
छुआ क्या प्राण को वाचस्पति के? कि बारह वर्ष, और उस स्त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहां हूं। और वह रोज दिया उठाती रही होगी। जलती रही होगी। कपड़े धोती रही होगी स्नान का पानी खर देती होगी। भोजन परोस देती होगी। पर अपने होने का वाचस्पति को अहसान तक ने होने दिया, बहार ही नहीं वह अंदर के अहं को भी देखती रही है। कि में हूं। वाचस्पति ने कहा की आज तक तेरा हाथ भी मुझे क्यों न दिखाई दिया क्या में इतना अंधा हो गया था।
भामति ने कहां की अगर मेरा हाथ भी आपको दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित न हो गई होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती थी, कि आपको मेरे होने पता भी ने चले में अपने में इतनी विलय होकर आपके कमरे में आती थी कि मेरी उर्जा भी आपको छू नहीं पाती थी।
तो जरूरी नहीं कि कोई स्त्री स्त्रैण रहस्य को उपलब्ध ही हो। यह तो लाओत्से ने नाम दिया, क्योंकि यह नाम सूचक है और समझा सकता है। पुरूष भी हो सकता है। असल में आस्तित्व के साथ तादात्म्य उन्हीं को होता है। जो इस भांति प्रार्थना पूर्ण को उपलब्ध होते है।
इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी जन्मे और चाहे स्वर्ग, इस आस्तित्व की गहराई में जो रहस्य छिपा हुआ है। उससे ही सबका जन्म होता है। इसलिए मैंने कहा, जिन्होंने परमात्मा को मदर, मां की तरह देखा,दुर्गा या अंबा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्मा को पिता की तरह देखने से ज्यादा गहरी है। अगर परमात्मा कहीं भी है। तो वह स्त्रैण होगा। क्योंकि इतने बड़े जगत को जन्म देने का क्षमता पुरूष में नहीं है। इतने विराट चांद-तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।
ओशो ताओ उपनिषद—1, प्रवचन -18
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