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च् मान्यताएं-धारणाएं कब सोच में घर कर जाती हैं, पता ही नहीं चलता। लेकिन गाहे-बगाहे, औपचारिक-अनौपचारिक मौकों पर हमारा व्यवहार-प्रतिक्रिया हमारे अवचेतन का आईना बन ही जाते हैं। ज्
हाल में टीवी शो 'कॉमेडी नाइट्स बचाओÓ में एक्ट्रेस तनिष्ठा चटर्जी के सांवले रंग को लेकर जमकर मजाक बनाया गया था। उन्हें इतना कुछ कहा गया कि वे नाराज होकर... शो बीच में छोड़कर चली गईं। तनिष्ठा को चिढ़ाते हुए कहा गया- आपने बचपन में जामुन बहुत खाया होगा। उनके सरनेम चटर्जी का जिक्र कर व्यंग्य किया गया कि वे ब्राह्मण होकर भी सांवली हैं।
पश्चिम से आयातित इस शो का स्वरूप इसी तरह का है। इसमें आने वाले मेहमानों की जमकर खिंचाई की जाती है। उनकी कमियों-कमजोरियों को निशाना बनाया जाता है। तनिष्ठा के साथ जो कुछ हुआ उसकी स्क्रिप्ट भी पहले से तय होगी। माना जा सकता है, उन्हें जो कुछ कहा गया, उसके पीछे जानबूझकर अपमानित करने की नीयत नहीं होगी। शो के एंकर्स का इरादा अपनी च्स्टाइलज् में केवल कॉमेडी करना होगा।
लेकिन इसके बाद भी तनिष्ठा के रंग को लेकर किया गया तंज कहीं-न-कहीं हमारे अवचेतन में छिपे गोरे रंग के प्रति आग्रह को ही दर्शाता है। इससे यही बात जाहिर होती है कि हम भले कितने ही खुले विचारों वाले... कितने ही विकसित हो जाएं, लेकिन हमारी सोच में कहीं-न-कहीं गौरवर्ण के लिए महीन आकर्षण बरकरार रहता है।
और इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि सोच में जड़ जमाए इस तरह के विचार हमारे व्यवहार-प्रतिक्रिया पर भी असर डालते हैं। आखिरकार, कुछ समय पहले अभिनेत्री नंदिता दास ने सांवलेपन के कारण फिल्में न मिलने की बात कही ही थी। समानांतर सिनेमा का परिचित चेहरा कोंकणा सेन शर्मा ने भी माना था कि फिल्म इंडस्ट्री में रंग को लेकर भेदभाव होता है। वास्तव में, त्वचा के रंग को लेकर भारतीय जनमानस में कुंठा नई बात नहीं है। आज भी गोरे रंग व गोरे लोगों को स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ माना जाता है। आज भी हमारे यहां शादी के लिए लड़की का रंग महत्वपूर्ण पैमाना होता है। अधिकांश मां-बाप गोरी लड़कियों को ही तरजीह देते हैं।
कुछ लोग तर्क देते हैं, 150 साल तक अंग्रेजों (गोरों) की गुलामी ने हमारे भीतर हीनभावना भर दी है। हमारे अवचेतन ने अंग्रेज, अंग्रेजी, अंग्रेजियत को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार कर लिया है। इसीलिए हमारे भीतर गोरे रंग को लेकर इतना लगाव है। यह बात कितनी सच है, यह तो नहीं पता, लेकिन गौरवर्ण के चाहने वाले सारी दुनिया में हैं। समाजवादी कहे जाने वाले चीन में भी इसके शैदाई हैं। पिछले दिनों वहां एक विज्ञापन ने बहुत सुर्खियां बटोरी थी। उसमें च्एक चीनी औरत एक काले आदमी को डिटर्जेंट खिलाकर वॉशिंग मशीन में डाल देती है, जिसमें धुलने के बाद वो नीग्रो गोरा होकर निकलता है। महिला यह देखकर खुश हो जाती है और मुस्करा कर उसका स्वागत करती है।ज्
इस एड की चीन में जमकर आलोचना हुई थी, इसे काले लोगों के प्रति नस्लीय रवैये का उदाहरण माना गया था। इस तरह के विज्ञापन का विरोध बिलकुल सही है। वास्तव में, गोरे रंग के प्रति आकर्षण बहुत ही घातक है। इससे जबरदस्त विभाजन पैदा होता है। इतिहास गवाह है, इसके चलते ही नस्लीय भेदभाव हुए हैं। टेनिस स्टार सेरेना विलियम्स, अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी से लेकर दिवंगत बॉक्सर मोहम्मद अली, महात्मा गांधी तक इसके शिकार हो चुके हैं। शायद, इन्हीं सब खतरे को देखकर हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रंगभेद के प्रति उदार रवैया अपनाया था और आजादी के तुरंत बाद अफ्रीकी छात्रों के लिए शिक्षण संस्थाओं के द्वार खोल दिए थे। प्राचीन हिंदू समाज भी शायद रंगभेद की गंभीरता को समझता था। इसीलिए, संभवत: हमारे अनेक देवी-देवताएं श्याम वर्ण के बताए गए हैं।
लेकिन बदकिस्मती से ये विचार हमारी सोच में जगह नहीं बना पाए। मजे की बात यह है कि हम सब, प्रत्यक्ष (चेतन ) रूप से कई चीजों को जानते-समझते हैं, लेकिन उसके बाद भी परोक्ष (अचेतन) रूप से हम उसे बढ़ावा देते चले जाते हैं। जैसे, हम अच्छी तरह जानते हैं, त्वचा के रंग के लिए भौगोलिक परिवेश जिम्मेदार होते हैं। हम यह भी जानते हैं, रंग कभी भी योग्यता का पर्याय नहीं बन सकते। बावजूद इसके, हमारे अंदर गोरे होने की ललक बनी रहती है... काले रंग के प्रति कमतरी का भाव बना रहता है।
पिछले दिनों, एक मार्केट रिसर्च कंपनी ग्लोबल इंडस्ट्री एनालिस्ट इनकॉर्पोरेटेड ने दावा किया कि विश्व में 2020 तक गोरे होने वाले उत्पादों का कारोबार 23 बिलियन डॉलर्स तक जा पहुंचेगा और उसमें सबसे बड़ी भागीदारी एशियाई देशों की होगी। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि त्वचा के रंग को लेकर हमारे मन में किस तरह की हीनता, किस तरह के पूर्वग्रह हैं।
और जब तक हमारी सोच इस तरह की होगी, तब तक तनिष्ठा चटर्जी जैसे लोग अपनी त्वचा के रंग को लेकर अपमानित होते रहेंगे...
और जिस दिन हम फेयर क्रीम खरीदना बंद कर देंगे, उस दिन शायद माना जा सकेगा कि हमारा अवचेतन रंगों की गुलामी से मुक्त हो चुका है...
एक बात और...
कोच्चि, केरल की जया ने इस साल 26 जनवरी से 100 दिन का मिशन शुरू किया था। वे रंगभेद को लेकर जागरुक करने रोजाना चेहरे पर कालिख पोतकर सड़कों पर घूमा करती थीं। मांट्रियल, कनाडा में भी काली लड़कियां गोरी जितनी खूबसूरत, स्मार्ट व आकर्षक मानी जाती हैं। यहां के क्लबों में अफ्रीकन नृत्यांगनाओं को गोरी लड़कियों से ज्यादा दाम दिए जाते हैं।
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