29 March 2017

छत्तीसगढ़ में शराब बिक्री : रमन सरकार का एक स्वागत योग्य फैसला


सरकार का काम होता है, जनता की सेवा करना। आम लोगों का भला हो, ऐसे कार्य करना। और रमन सरकार तो शुरू से ही छत्तीसगढ़ हितैषी रही है, छत्तीसगढिय़ा हित के लिए नए-नए एक्सपेरीमेंट करते रही है। इसी कड़ी में अब उसने एक और पुनीत कार्य हाथ में लिया है... शराब बेचने का।

जी हां, सरकार अब शराब बेचेगी। और यकीन मानिए... यह शराब बेचने का फैसला उसके सेवाभावी स्वभाव की ही नजीर है। यह सेवाभावना ही तो है, जो कोचियों द्वारा अवैध दारू बेचकर लोगों को परेशान करते सुना तो उस पर रोक लगा दी और सुराप्रेमियों को सुविधा देेने खुद ही दारू बेचने लगे। अब पीने वालों को कोई परेशानी नहीं होगी, सही माल, सही रेट में मिलेगा।

वैसे, सरकार को यह सुयोग ऐसे ही हाथ नहीं लगा है। जब से सुप्रीम कोर्ट ने हाइवे से लगी शराब दुकानों पर डंडा डाला है, तभी से कई दारू-ठेकेदारों का मूड ऑफ  हो गया है। वे मद्यपान कराने जैसे आदरणीय कार्य को लेकर इंट्रेस्टेड नहीं रहे। बस फिर क्या था, सरकार ने मौका देख चौका मार दिया। इधर, कोचियों से लोग परेशान तो थे ही थे और उधर, ठेकेदारों के पीछे हटने से सरकार को तगड़े नुकसान की चिंता भी सता रही थी। ...सो लगे हाथ उसने दोनों मामले सलटा लिए,  एक तीर से दो शिकार कर लिया।
...तो अब सरकार शराब बेचेगी... कल्पना कीजिए, कैसा भव्य माहौल होगा... कैसा सुखद नजारा रहेगा...  शराब की दुकानों में बैठे हुए रमन सरकार के नुमाइंदे। जगह-जगह टंगे सरकार के हालमार्का वाले बैनर-पोस्टर। सरकार, शराब और समाजसेवा का बखान करते कुछ स्लोगन...कैसा अद्भुत समां बंधेगा। कसम से... पूरा माहौल सरकारीमय हो जाएगा।
नो डाउट इन दुकानों में दफ्तरी बाबू जैसे कुछ लोग भी होंगे ही। ऐसे लोग... जो काम के बोझ से दबा हूं (और थोड़ा भी लोड डाला तो मर ही जाऊंगा) जैसा शो करने वाले...। ये ग्राहक को बोतल भी देंगे तो एहसान करके... मानो बहुत बिजी हों। वास्तव में ये काम कौड़ी का नहीं करेंगे, लेकिन इनके पास फुरसत मिनटों की भी नहीं रहेगी। हां भीड़ बढऩे पर ये एक्टिव मोड में जरूर आ जाएंगे... कमीशन खाने...सौ की बोतल सवा सौ में बेचने।
वैसे ग्राहकी बढऩे पर सचमुच ही यहां  शिक्षा, स्वास्थ्य, नगर निगम जैसे विभाग के सरकारी कर्मचारी नजर सकते हैं। सरकार इनका उपयोग ले सकती है। चौंकिए मत, इसमें कुछ भी ऑड नहीं है।  वास्तव में, सरकार की नजर में सरकारी कर्मचारी आलराउंडर होते हैं। वास्तव में वह इन्हें अलादीन का जिन्न समझती है। और यह मानकर चलती है कि जिस काम को वे नहीं जानते उसके बारे में भी सब जानते हैं, उस काम को भी अच्छे से कर सकते हैं।  इसीलिए सरकार इनका कहीं भी, कभी भी उपयोग लेते रहती है। जनगणना कराना हो तो ये... पोलियो पर कुछ करना हो तो ये। लोक सुराज समाधान शिविर में भी ड्यूटी इनकी ही लगेगी, चुनाव होगा तो सारे काम भी इनके ही कर कमलों से संपन्न होंगे। कहने का मतलब, मूल काम छोड़कर इन्हें सारे काम करना होता है। और छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसे अलादीन के जिन्न बहुत पसंद आते हैं, इसीलिए तो उसने पूरे 32 विभाग के 60 फीसदी कर्मचारी डेपुटेशन में दूसरे काम में लगा रक्खे हैं।
तो कभी आपको शराब दुकानों में यदि कोई सरकारी कर्मचारी दिखाई पड़ेगा, तो चौंकिएगा मत, बल्कि उसके चेहरे को देखकर अलादीन के जिन्न की कल्पना कीजिएगा।
खैर, मूल विषय पर लौटते हैं, सरकार अभी तो दारू बेच रही है, और हो सकता है, आगे रिस्पांस बढिय़ा मिलने पर (जो कि मिलना ही है) वह दारू बनाना भी शुरू कर दे। तब नेताओं-मंत्रियों को इंडीविज्वल ठेका भी मिलने लगेंगे। तब कुछ दुकानों के नाम ऐसे भी हो सकते हैं-  रमन स्कॉच सेंटर, अमर पक्की वाला... राजेश का देसी ठर्र्रा... मोहन की चिल्ड बियर। लगे हाथ पर्सनल ब्रांडिंग भी होती चली जाएगी।
शराब बिक्री का मामला रमन सरकार के लिए हर लिहाज से फायदे का सौदा है, बस एक छोटी-सी नैतिक अड़चन है। वो यह कि सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कभी दारूबंदी का जिक्र किया था। लेकिन डोंट माइंड.... घोषणा पत्र की कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? भाजपा या रमन सरकार ही नहीं... किसी भी दल, किसी भी पार्टी के घोषणापत्र को देखिए....  सब में ठन-ठन गोपाल... जनता के हाथ बाबा जी का ठुल्लू ही हाथ आता है।  वास्तव में झूठ तो राजनीति का सद्गुण है। इसके बिना तो काम ही नहीं चल सकता।
घोषणापत्र वाला मामला बहुत बड़ा इशु नहीं है। सरकार को बिना किसी गिल्टी के बिंदास  धंधा करना चाहिए। दारू बेचकर राजस्व बढ़ाने, घाटा कवर करने पर फोकस करना चाहिए। किसी की सेहत की नैतिक जिम्मेदारी उसकी थोड़े ही है... जिसको मरना है मरे... उसका लक्ष्य तो पैसे कमाना ही होना चाहिए। यदि शराब बेचकर भी राजस्व वृद्धि उसके मन मुताबिक न हो तो तंबाकू, अफीम, चरस, हेरोइन का ऑप्शन भी खुला है। उसमें भी हाथ आजमाया जा सकता है। और ये भी कम पड़े तो और दूसरे भी इसी तरह के स्वनाम धन्य धंधे हैं।
पर लगता है, शायद उन सबकी जरूरत नहीं पड़ेगी, दारू बेचने भर से बात बन जाएगी।  इतना कॉन्फिडेंस इसलिए है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में दारूखोरी का बैरोमीटर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। छत्तीसगढिय़ा लोगों का सुरा-प्रेम काबिले-रश्क है। वे खाने में कंप्रोमाइज कर सकते हैं, लेकिन पीने में बिलकुल नहीं। घर में चार दिन चूल्हा न जले, कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन दो दिन दारू न मिले,  तो वे आसमान सर पर उठा लेंगे, भूचाल ले आएंगे।  उनकी इसी लगन के चलते तो आबकारी विभाग वाले खूब चांदी काट रहे हैं। आंकड़े बताते हैं, राज्य  स्थापना के समय आबकारी से 32.16 करोड़ का राजस्व मिला था जो 16 साल में बढ़कर 3347.54 करोड़ का हो गया है।
छत्तीसगढिय़ों के इतना शराब-प्रेम की वजह जरा दार्शनिक टाइप की है। दरअसल, यहां लोग यथार्थ की समस्याओं को कल्पना के धरातल से हल करने पर यकीन करते हंै। और इस थ्योरिटकल जैसे व्यावहारिक कृत्य को करने में उन्हें दारू से बड़ी हेल्प मिलती है। और चूंकि वे ज्यादा यर्थाथवादी होते हैं, इसीलिए उन्हें समस्याएं भी ज्यादा आती हैं, इसीलिए वे सोमरस की भी ज्यादा हेल्प लेते हैं।
तो सरकार को रेवेन्यू बढ़ाने वाले नेक इरादे में निराशा हाथ लगने की संभावना नगण्य है। हां, टारगेट से थोड़ा-बहुत उन्नीस-बीस भले हो सकता है। पर उसका भी टेंशन नहीं,  जिम्मेदार शहरी मदद के लिए आगे आ जाएंगे। जो दारू नहीं पीते हैं वे भी दरूए बन जाएंगे... वे भी ज्यादा-से-ज्यादा दारू खरीदकर पीएंगे, सरकार का खजाना बढ़ाने में मदद करेंगे।
आप सोचिए तो सही, रमन सरकार ज्यादा पैसे क्यों कमाना चाह रही है? क्या उसे अपने लिए कुछ चाहिए?  बिलकुल नहीं जनाब। एक बात जान लीजिए, नेता होने का मतलब ही है, परहित अभिलाषी। ये अपने लिए कुछ नहीं करते, इनके हर कार्य में दूसरे के हित की सदइच्छा ही छुपी होती है। यदि ये घोटाला भी करते हैं तो रॉबिनहुड स्टाइल में समाज की सेवा करने... लूट, हत्या, डकैती में भी फंसते हैं, तो धर्म, न्याय जैसे उच्च आदर्शों को बनाए रखने। और कई मर्तबा जब उनके भीतर सेवा भावना प्रबल हो जाती है, बहुत जोर मारने लगती है, तो वे दवा देने के लिए पहले दर्द दे देते हैं। मदद करने के लिए पहले छीन लेते हैं। भला करने के लिए पहले बुरा कर देते हैं। संक्षेप में, उनका पूरा जीवन ही परोपकार को समर्पित रहता है और इसे पूरा करने वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।  और मुझे पूरा यकीन है, रमन सरकार भी पूरी तरह परोपकार के लिए समर्पित है और इसे पूरा करने किसी भी हद तक जा सकती है। इसीलिए पहले वह दारू बेचकर लोगों से पैसे वसूलेगी और बाद में उनके ही पैसों को उनके ही भले के लिए इस्तेमाल करेगी।
फिर दोहराता हूं, रमन सरकार को बिना किसी गिला के... बिना किसी अपराधबोध के इस परोपकारी कृत्य को करना चाहिए। कोई इस काम को अगर गंदा कहे तो उसे बिलकुल माइंड नहीं करना चाहिए। भारत जैसे आध्यात्मिक देश में न कोई काम छोटा होता है, न कोई काम गंदा होता है। यही हमारे हजारों सालों के चिंतन का निचोड़ रहा है। वैसे भी जब धंधा करने उतर आए तो क्या सही, क्या गलत, बनियागीरी में कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता।
वैसे मुझे लगता है, इस फैसले में तो रमन सरकार को हाईकमान का भी समर्थन मिल रहा होगा।  देखिए, भाजपा को तो बनियों की सरकार कहा ही जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार के यूं धंधा करने से पार्टी की पारंपरिक छवि ही मजबूत हो रही है, लिहाजा इसके लिए तो सीएम एंड कंपनी को तो जमकर शाबासी मिली होगी। हाईकमान ने ऐसी आला दर्जे की क्रिएटिविटी के लिए खूब पीठ थपथपाई होगी।
यकीनन, रमन सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर बहुत ऊंचा ओहदा हासिल कर लिया है। पर जाने क्यों कुछ तथाकथित समाजसेवी और कांग्रेसी इस पुण्य कार्य का विरोध कर रहे हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि खुद सरकार के कुछ मंंत्री भी सरकार की फीलिंग्स नहीं समझ पा रहे हंै। पर आप तो जानते ही हैं, सत्य के कई पहलू होते हैं और जैसी हमारी धारणा होती है, वैसी ही चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। कहते हैं, हनुमान जी को गुस्से में होने के कारण अशोक वाटिका में लाल फूल दिखे थे, जबकि वास्तव में फूल सफेद थे। वैसा ही हाल शराब-बिक्री का विरोध करने वालों का भी है। उन्हें निगेटिव देखना है, इसीलिए निगेटिविटी दिखाई पड़ रही है। खैर, जाकी रही भावना जैसी...।
पर शुक्र है भगवान का.... सही काम की कदर होती ही है। वो कहते भी हैं ना... अच्छाई ट्रैवल करती है, उसे कोई रोक नहीं सकता। तो विरोधियों के लाख हाय-तौबा मचाने के बाद भी रमन सरकार के हालिया फैसले से इंप्रेस होने वालों की कमी नहीं है। हाल ही में छत्तीसगढ़ से प्रेरित होकर झारखंड की सरकार ने भी शराब बेचने का फैसला कर लिया है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि आगे और भी राज्य प्रेरणा लेते रहेंगे। मुझे तो यहां तक यकीन है कि शराबबंदी लागू करने वाली बिहार व गुजरात की सरकार भी आत्मग्लानि से भर उठेगी और न केवल शराबबंदी का फैसला वापस लेगी, बल्कि वह खुद भी शराब बेचने लगेगी। उनके आत्मनिरीक्षण से भी यही निष्कर्ष निकलेगा कि कहां वे महात्मा गांधी के विचारों को अपनाए हुए थे और जबरन शराब बेचने जैसा आदरणीय कार्य करने से बच रहे थे।
कोई माने या न माने, लेकिन हकीकत यही है।  दारू बेचने का रमन सरकार का फैसला बहुत क्रांतिकारी, बहुत स्वागतयोग्य है। और जैसा कि हर अच्छे फैसले के साथ होता है... उसे लागू करने में कठिनाई आती है, उसकी राह में कांटे बोए जाते हैं। लोग उसके महत्व को, उसके समाज हितैषी दूरगामी प्रभाव को देख-समझ नहीं पाते हैं। वैसा ही इस फैसले के साथ भी हो रहा है। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि रमन सरकार को हर मुश्किल का डटकर सामना करना चाहिए। सारे दबाव के बावजूद शराब बेचने के यशवर्धक कार्य से कदम वापस नहीं खींचना चाहिए।  और शराब बंदी की तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। ... इसके विपरीत उसे अपनी ग्राहकी बढ़ाने के लिए मार्केटिंग स्ट्रेटेजी पर काम करना चाहिए। जैसे उसने चावल और नमक में सब्सिडी दी है। वैसे ही उसे शराब के कुछ ब्रांड में भी छूट दे देनी चाहिए। ऑनलाइन कंपनियों की तरह ग्राहकों को लुभाने, फेस्टिवल ऑफर जैसी नई-नई स्कीम लानी चाहिए, डोर-टू-डोर कैंपेन चलाने चाहिए। इसके अलावा, सरकारी कर्मचारियों, गरीबी रेखा से नीचे वालों, आरक्षण प्राप्त जातियों व वृद्ध, नि:शक्त, निराश्रित जनों के लिए भी छूट का प्रावधान कर देना चाहिए। इससे न केवल उसकी कमाई बढ़ेगी, बल्कि लोकप्रियता में भी चार चांद लगते चले जाएंगे।
और यही तो वह चाहती भी है ... सारी कवायद भी तो इसी के लिए है ना...

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