यूपी, उत्तराखंड में भाजपा की धमाकेदार जीत पर टीवी चैनल से लेकर प्रिंट मीडिया सबमें एक ही बात कही जा रही है… मोदी की वजह से ही शानदार जीत मिली… मोदी की सुनामी चल रही है।
मोदी निश्चित ही करिश्माई नेता हैं, उन्होंने इन चुनावों में बहुत मेहनत भी की है। लेकिन क्या महज मोदी फैक्टर ही यूपी-उत्तराखंड में भाजपा की प्रचंड जीत के पीछे है? क्या सचमुच देश में मोदी-लहर चल रही है? मोदी की नीतियों नोटबंदी आदि जैसे कृत्यों को आम जनता का समर्थन है। ये चुनाव नतीजे क्या सचमुच मोदी की नीतियों के प्रति जनादेश है?
अगर हम ठीक से देखें तो हमें मालूम पड़ेगा… शायद ऐसा नही हैं। अगर वास्तव में मोदी-लहर होती तो वह पंजाब, गोवा व मणिपुर के चुनावों में भी दिखाई पड़ती। लेकिन इनमें से किसी में करारी हार, किसी में कांटे की टक्कर, किसी में संघर्षपूर्ण जीत मिली है। इससे यही जाहिर होता है कि लोकल इशुज व अन्य दूसरे समीकरण का राज्यवार अपना असर रहा है, वही केंद्र पर रहे हैं। बेशक, मोदी फैक्टर का भी अपना रोल, अपनी भूमिका रही है, लेकिन वह सोने पर सुहागा जैसी है। जिन राज्यों में एंटी इन्कंबंसी थी, दीगर लोकल इशुज थे, भाजपा के अनुकूल चीजें थीं… वहां मोदी फैक्टर ने मिलकर करिश्माई असर दिखा दिया, लेकिन जहां भाजपा के लिए अनुकूलता न थी, वहां चमत्कार नहीं हो पाया।
कुछ ऐसा ही पिछले लोकसभा चुनावों में भी हुआ था। इसमें मिली भाजपा की प्रचंड जीत को भी मोदी का करिश्मा कहा गया था, जबकि ऐसा नहीं था। मुझे लगता है, यदि मनमोहन सरकार को लेकर जबरदस्त निगेटिव, निराशाजनक माहौल नहीं होता, सत्ता विरोधी लहर न होती… तो तथाकथित मोदी लहर नहीं चल पाती, भाजपा को वैसी धुआंधार जीत नहीं मिल पाती। उस समय भाजपा को मिली प्रचंड जीत में मनमोहन सरकार को लेकर चल रही सत्ता विरोधी लहर का भी अहम योगदान था। बेशक, यदि मोदी न होते तो वैसी करिश्माई जीत नहीं मिल पाती, लेकिन वैसी सत्ता विरोधी लहर नहीं होती, तो शायद वह तथाकथित मोदी लहर भी चल नहीं पाती। सत्ता विरोधी लहर के साथ मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने सोने पे सुहागा का काम किया था… यूपी, उत्तराखंड के हालिया विधानसभा चुनावों की तरह ही।
यह सही है कि वास्तव में जनता के मन में क्या चल रहा है… उसे कौन से इशु क्लिक करेंगे… उसे समझना कठिन होता है। यह बिलकुल अगणितीय होता है, इसके पीछे कोई तार्किक नियम काम नहीं करते। यह भी सही है कि विधानसभा चुनाव में नेशनल इशु भी अनेक मर्तबा निर्णायक रोल निभाते देखे गए हैं। लेकिन सामान्यत: यही होता है कि लोकल चुनावों में लोकल इशु ही काम करते हैं। नेशनल लेबल का जब तक कोई बहुत बड़ा मुद्दा न हो, तब तक उनका क्षेत्रीय चुनावों में असर नहीं पड़ता है।
इसीलिए इन चुनावों को मोदी की नीतियों के प्रति समर्थन या मोदी लहर के तौर पर देखना शायद ठीक न होगा। यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा पंजाब में हुए इन विधानसभा चुनावों में मोदी फैक्टर के इतर अन्य मुद्दे भी अहम रहे हैं, जिनका नतीजों में अपना अहम योगदान रहा है। राजनीतिक पंडित भले ही इन्हें नजरअंदाज करें या न देखना पसंद करें, लेकिन हकीकत यही है।
मोदी निश्चित ही करिश्माई नेता हैं, उन्होंने इन चुनावों में बहुत मेहनत भी की है। लेकिन क्या महज मोदी फैक्टर ही यूपी-उत्तराखंड में भाजपा की प्रचंड जीत के पीछे है? क्या सचमुच देश में मोदी-लहर चल रही है? मोदी की नीतियों नोटबंदी आदि जैसे कृत्यों को आम जनता का समर्थन है। ये चुनाव नतीजे क्या सचमुच मोदी की नीतियों के प्रति जनादेश है?
अगर हम ठीक से देखें तो हमें मालूम पड़ेगा… शायद ऐसा नही हैं। अगर वास्तव में मोदी-लहर होती तो वह पंजाब, गोवा व मणिपुर के चुनावों में भी दिखाई पड़ती। लेकिन इनमें से किसी में करारी हार, किसी में कांटे की टक्कर, किसी में संघर्षपूर्ण जीत मिली है। इससे यही जाहिर होता है कि लोकल इशुज व अन्य दूसरे समीकरण का राज्यवार अपना असर रहा है, वही केंद्र पर रहे हैं। बेशक, मोदी फैक्टर का भी अपना रोल, अपनी भूमिका रही है, लेकिन वह सोने पर सुहागा जैसी है। जिन राज्यों में एंटी इन्कंबंसी थी, दीगर लोकल इशुज थे, भाजपा के अनुकूल चीजें थीं… वहां मोदी फैक्टर ने मिलकर करिश्माई असर दिखा दिया, लेकिन जहां भाजपा के लिए अनुकूलता न थी, वहां चमत्कार नहीं हो पाया।
कुछ ऐसा ही पिछले लोकसभा चुनावों में भी हुआ था। इसमें मिली भाजपा की प्रचंड जीत को भी मोदी का करिश्मा कहा गया था, जबकि ऐसा नहीं था। मुझे लगता है, यदि मनमोहन सरकार को लेकर जबरदस्त निगेटिव, निराशाजनक माहौल नहीं होता, सत्ता विरोधी लहर न होती… तो तथाकथित मोदी लहर नहीं चल पाती, भाजपा को वैसी धुआंधार जीत नहीं मिल पाती। उस समय भाजपा को मिली प्रचंड जीत में मनमोहन सरकार को लेकर चल रही सत्ता विरोधी लहर का भी अहम योगदान था। बेशक, यदि मोदी न होते तो वैसी करिश्माई जीत नहीं मिल पाती, लेकिन वैसी सत्ता विरोधी लहर नहीं होती, तो शायद वह तथाकथित मोदी लहर भी चल नहीं पाती। सत्ता विरोधी लहर के साथ मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने सोने पे सुहागा का काम किया था… यूपी, उत्तराखंड के हालिया विधानसभा चुनावों की तरह ही।
यह सही है कि वास्तव में जनता के मन में क्या चल रहा है… उसे कौन से इशु क्लिक करेंगे… उसे समझना कठिन होता है। यह बिलकुल अगणितीय होता है, इसके पीछे कोई तार्किक नियम काम नहीं करते। यह भी सही है कि विधानसभा चुनाव में नेशनल इशु भी अनेक मर्तबा निर्णायक रोल निभाते देखे गए हैं। लेकिन सामान्यत: यही होता है कि लोकल चुनावों में लोकल इशु ही काम करते हैं। नेशनल लेबल का जब तक कोई बहुत बड़ा मुद्दा न हो, तब तक उनका क्षेत्रीय चुनावों में असर नहीं पड़ता है।
इसीलिए इन चुनावों को मोदी की नीतियों के प्रति समर्थन या मोदी लहर के तौर पर देखना शायद ठीक न होगा। यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा पंजाब में हुए इन विधानसभा चुनावों में मोदी फैक्टर के इतर अन्य मुद्दे भी अहम रहे हैं, जिनका नतीजों में अपना अहम योगदान रहा है। राजनीतिक पंडित भले ही इन्हें नजरअंदाज करें या न देखना पसंद करें, लेकिन हकीकत यही है।
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