वह मामूली-सा पीपल का पेड़ है। सड़क किनारे, हनुमान मंदिर के पास सालों से मौजूद, साक्षी की तरह... सबको निहारता...। डॉ. राही मासूम रजा के ‘नीम का पेड़’1 जैसा उसे साहित्यिक रुतबा हासिल नहीं है। वह उतना नामचीन नहीं है, लेकिन उसने भी कई पीढ़ियों को मिट्टी में खेलते, पलते-बढ़ते और मिट्टी में ही मिलते देखा है। उसका विशाल कद किसी बड़े-बुजुर्ग की मौजूदगी का एहसास कराता। कभी-कभी वह पालथी मारकर बैठा दिखाई पड़ता, जिसकी जमीन से लगी, इधर-उधर फैली जड़ें, दादी-नानी की गोदी-सी महसूस होतीं। इसी पेड़ के साए में उसका बचपन भी परवान चढ़ा था। इसके पास मैदान में वह अपने दोस्तों के साथ खेला करता था। धूप में, छांव में, बारिश में... हर मौसम में, हर तरह के खेल। किल्लापारा में यह जगह उन बच्चों के लिए स्वर्ग जैसी थी।
मंदिर के चबूतरे में ठेठ छत्तीसगढ़ी में गप मारते लोग, स्थानीय कामचलाऊ होटल में आमनेर2 से लगे दारू भट्टी से ‘पीकर’ आए कुछ शराबी, ‘सेठघर’3 में किसानों-बैलगाड़ियों का मजमा... हो-हल्ला, शोरगुल... 80 के दशक के किल्लापारा की यही तसवीर थी। खैरागढ़ के इस बाहरी इलाके में एक-दो धनवान परिवारों को छोड़ दें, तो मध्यम, निम्न-मध्यम परिवार ही ज्यादा थे। यह अपेक्षाकृत शांत मोहल्ला था, जहां शहर के पंगे, गुटबंदी किस्सागोई तक ही सीमित थे। लोग-बाग जितनी बिंदास तबीयत के थे, उतने ही उत्सवधर्मी भी। गणेश चतुर्थी, सरस्वती-पूजा जैसे सार्वजनिक उत्सव में तो पूरा मोहल्ला ही संयुक्त परिवार में बदल जाता। मध्यम व निचले तबके के बीच का यह अपनापन ही किल्लापारा की आत्मा थी।
बस्ती से दूर बसे पारा-मोहल्लों में सामान्यत: उतनी बसाहट नहीं होती। किल्लापारा भी इसका अपवाद न था। फैले हुए इस खुले इलाके में तकरीबन दो-ढाई सौ मकान ही रहे होंगे। मुख्य सड़क के एक तरफ बड़े हिस्से को नगरसेठ 4 की हवेली ने घेरा था। इस तरफ अंदर की ओर कई मकान थे, जबकि दूसरी ओर खाली जगहों के बीच-बीच में इक्का-दुक्का घर तथा होटल-पान व सायकिल स्टोर जैसी कुछ बेतरतीब दुकानें थीं। थोड़ा आगे, हनुमान मंदिर के पास वह पीपल था, यहीं वह पला-बढ़ा, हंसा-रोया था। वहां की हर शै- मंदिर, मैदान, मकान सभी उसके बचपन के गवाह थे। उसका जुड़ाव वहां की हर चीज से था।
‘ पीपल के पत्तों से छन-छनकर आतीं सूर्य की किरणें... ऊपर पेड़ में कहीं, एक डाल से दूसरे में कूदते बंदर... पक्षियों की चहचहाहट... माहौल में रची-बसी धूप-अगरबत्ती, बंधन की खुशबू... असमतल मैदान में भागम-भाग, चिल्ल-पौं... ’
उफ! क्या जगह थी वह, जाने कैसा जादू था! वहां पहुंचते ही उसके भीतर कहीं हजारों गुलाब खिल उठते। अपने दोस्तों के साथ वो यहां खूूब धमा-चौकड़ी मचाया करता। वह मैदान उन बच्चों के लिए किसी लॉर्ड्स, किसी ईडन गार्डन से कम न था। स्कूल से आते ही वह उनका अखाड़ा हो जाता। क्रिकेट, फुटबाल, बैडमिंंटन ही नहीं, गिल्ली-डंडा, भौंरा, गड़ंची, टिल्लस, चित-पट, बांटी, पिट्टूल, छु-छुआल, उलानबाटी, लंगड़ी, रेस-टीप जैसे निरे देशज खेल भी यहां खेले जाते। यहां तक कि लड़कियों के साथ उसने बिल्लस भी खेली थी।
तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह में यह जगह और गुलजार हो जाती। होली में बच्चे यहां खूब मस्ती करते, वह भी खूब हुड़दंग मचाता, भाग-भागकर रंग लगाया करता। गणेशोत्सव के समय मंदिर के चबूतरे में महफिल जमती, दोस्तों के साथ सजावट के लिए वह ताव का तोरण बनाता। इन दिनों रात में, मैदान में ही वीसीआर में वीडियो दिखायी जाती थी, रात भर में करीब 3-4 फिल्म। अपने घर से बिछाने के लिए बोरे-दरी लेकर पूरा मोहल्ला वहां जमा हो जाता। पिक्चर देखने के लिए वह भी झटपट पढ़ाई कर, अपनी सीट पक्की कर लिया करता था।
यह 83-84 की बात है। यह वह दौर था, जब भूमंडलीकरण की शुरुआत नहीं हुई थी। भौतिक-विकास का रथ धीमी गति से चल रहा था। कार-एसी जैसी लक्जीरियस चीजें मध्यमवर्ग की पकड़ में नहीं आ पाईं थीं, इक्का-दुक्का घरों में ही टीवी थे। चीजें सीमित थीं, सुविधाएं कम। लेकिन उन बच्चों को तो जैसे इससे कोई सरोकार न था। हर छोटे-बड़े मौकों पर खुशियां बिनते हुए, धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे वे। खेलना, खाना और पढ़ना... यही तीन काम उनके पास था।
वैसे भी, बच्चों को किसी चीज की परवाह होती ही कहां है? वे तो जाने कौन-सा मस्ती का प्याला पीकर आते हैं। हमेशा खिलखिलाते रहते हैं, हर काम को खेल बना डालते हैं। बचपन की यही तो खासियत है। इस समय हर चीज का जायका ही अलग होता है। छोटी-छोटी बात पर छलक पड़ने वाली खुशी, बार-बार नाभि से उठने वाली आनंददायक लहर... इससे बच्चे इतने समृद्ध रहते हैं कि उसके आगे हर चीज दोयम दर्जे की हो जाती है। बचपन के इसी सोमरस को पाने के लिए इंसान ताउम्र तरसता है और बाद में... कल्पना में, उन एहसासों को दोबारा जीने की कोशिश करता है।
छुटपन की इसी मस्तानी फितरत से वह भी लबरेज था। उसकी उम्र 6-7 साल रही होगी। दिखने में दुबला-पतला, अन्य चंचल बच्चों जैसा ही था। वह जितना नटखट था, उतना ही जिद्दी भी। माहौल के मुताबिक ढलने की बजाय मन की किया करता, इसीलिए ज्यादा डांट भी उसके हिस्से आती। खैरागढ़ उसकी मातृभूमि भी था और जन्मभूमि भी। सेठघर के सामने मामा के मकान में वह रहता था। मम्मी यहां शिक्षिका थी, इसीलिए उसकी परवरिश भी यहीं हो रही थी। वैसे तो उसके टिंकू, दीपक, आलोक, काजू, गुड्डा, संतोष जैसे कई दोस्त थे, लेकिन गुड्डू, राजू से उसकी गाढ़ी छनती थी। ये उसके जिगरी दोस्त थे। गुड्डू जहां चतुर था, वहीं राजू सीधा। गुड्डू में स्मार्टनेस थी, समय की नब्ज पहचान कर चलता। उसका अड़ना-झुकना, बदमाशी करना-सीधा बन जाना... सब समय के हिसाब से होता, इसलिए वह ज्यादा तारीफें पाता। राजू स्वभाव से शांत था, मुंह में मिश्री, दिमाग में बर्फ। हर माहौल में ढल जाने वाला, हर रंग में पानी जैसा घुल जाने वाला। वह नंबर टू बना रहना पसंद करता। शायद कम महत्वाकांक्षी था, इसीलिए व्यवहार में किसी तरह की प्रतिस्पर्धा न थी।
वे तीनों ‘भगवान’ थे... ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’। उसे शुरू से भगवान शंकर की पर्सनालिटी पसंद आती थी, एक बार खेल-खेल में उसने कहा- ‘मैं तो शिवजी बनूंगा। मुझे वो बहुत अच्छे लगते हैं। उनके गले में नाग, त्रिशूल, जानवर की खाल, सब-कुछ मुझे भाता है। ’ गुड्डू को खूबसूरत पहनावा आकर्षित करता था। वह बोला- ‘ मैं तो विष्णु को लूंगा। वे बहुत सुंदर हैं, उनके खूबसूरत कपड़े मुझे अच्छे लगते हैं।’ रह गए, ब्रह्मा ... वो राजू के हिस्से आए। उसने बिना किसी ना-नुकुर के ब्रह्मा बनना स्वीकार कर लिया। इस तरह वे ‘त्रिदेव’ बने थे।
वे तीनों बहुत खुराफाती थे। मोहल्ले का एक व्यक्ति उन्हें पसंद न था, तो उसे सामने ही चिढ़ाते, अपनी स्टाइल में। वे कहते- ‘लुका लासा त्ताकु है’5। मजे की बात, वह व्यक्ति उन बच्चों की इस कूट-भाषा को समझ न पाता था। माहौल की गंभीरता को ठेंगा दिखाते हुए, तीनों कहीं-भी, कुछ-भी कर सकते थे... ‘गुड्डू जैनी था, उसके यहां अक्सर प्रार्थना सभा होती। एक दिन वह भी वहां था। प्रार्थना के दौरान ‘नाना लाल जी मरासाव’ कहा गया। ‘नाना’ शब्द सुनते ही पता नहीं उसे क्या हुआ? जाने किसने ‘चाबी’ भरी और उसकी हंसी छूट पड़ी। उसकी देखा-देखी गुड्डू के भीतर भी हंसी का फव्वारा झरने लगा। सब भौंचक्के देखते रहे और वे दोनों मुंह दबाकर हंसते रहे। ऐसे ही एक बार मोहल्ले के एक मकान में वे पिक्चर देख रहे थे। एके हंगल6 को विशिष्ट तरीके से ‘काका’ पुकारा गया। बस! वे तीनों फिर दांत दिखाने लगे...। जाने कितने दिन तक वह ‘काकाआआआआआह! ’ उनकी जबान पर चढ़ा रहा।
उन तीनों में लड़ाई भी खूब होती थी, लेकिन जल्द ही ‘खट्टी’ से ‘मिट्ठी’ भी हो जाती। बाल-सुलभ राग-द्वेष, छल-कपट सब-कुछ उनमें था, लेकिन एक-दूसरे लिए दिल भी उतने ही अपनेपन से धड़कता था। ... एक बार उसे ‘छोटी माता’ आई थी, वो लंबे बेड-रेस्ट पर था। गुड्डू उसके पास आया, बोला - ‘चिंता मत कर, स्कूल में जो भी पढ़ाया जाएगा, मैं बता दूंगा। रोज मेरी कॉपी ले लेना।’ एक बार कंपास खरीदने के लिए मिले पांच-सात रुपए उसने गुमा दिए। वह रो रहा था, राजू पसीज उठा... कहने लगा- ‘यार! मेरे पास इतने पैसे तो नहीं हैं, लेकिन एक रुपए बोलेगा तो मैं दे दूंगा।’
ऐसे ही खट्टे-मीठे पलों के बीच वे आठवीं में पहुंच गए। अब उन्हें ‘हाफ पेंट’ अखरता था, वे फुलपेंट पहनकर ‘बड़ा’ होना चाहते थे। समय बदल रहा था, मानसिकता भी बदल रही थी। लेकिन एक चीज नहीं बदली थी... ‘गति देखना’। राजू और वो चुपचाप लोगों की हरकतों को वॉच कर आपस में हंसते थे। यही उन दोनों का ‘गति देखना’ था। ‘साक्षी भाव’ से यूं लोगों को निहारना, ‘विपश्यना’7 का यह उनका टाइप था। यह सिलसिला स्कूल के साथ-साथ मंदिर के पास बैठकर भी चला करता।
बहरहाल... लोगों की ’गति‘ तो वो खूब देख रहा था, लेकिन समय की ’गति‘ का उसे अंदाजा न था। उसे पता न था- ‘जल्द ही यह सब छूटने वाला है। उसके जाने का समय आ चुका है, हमेशा के लिए अपनों से दूर... अपनी जड़ों से दूर... ’
वे सावन के दिन थे। फिजा में मिट्टी का सौंधापन घुला था, हर तरफ मुस्कराहट बिखरी थी। उन दिनों उसके पापा आए थे बालाघाट से। उसे ठीक से याद नहींं, जाने की बात कैसे निकली? बस, यकायक तय हो गया कि अब वह आगे की पढ़ाई यहां नहीं करेगा।
और वो यहां से चला गया... जाते समय वह बहुत खुश था, क्योंकि जाने का फैसला खुद उसने लिया था।
जाने के बाद, पहले-पहल वो गर्मी की छुट्टियों में यहां आता भी था, लेकिन बाद में, धीरे-धीरे आना कम होता चला गया... और एक दिन बंद ही हो गया...
सालों बीत गए। अब वह बड़ा हो गया था, 25-26 साल का युवक। वह जॉब करने लगा था। अरसे बाद उसका फिर यहां आना हुआ। यह 2002-03 की बात रही होगी। अब खैरागढ़ पहले जैसा न था, हर चीज में बदलाव ने अपने निशान छोड़ दिए थे। किल्लापारा में भी उसे वह पहले वाली बात नजर नहीं आ रही थी। जहां कभी खुशियां अपनी दुकान सजाया करती थीं, अब वहां उदासी ने तंबू गाड़ लिए थे। ऐसा लग रहा था, मानों हर चीज ने मौनव्रत ले रखा हो। सेठ घर में न वो रश था, न शोर-शराबा। पुराने होटल खंडहर में तब्दील हो चुके थे। जो चेहरे उसने पहले खिले-खिले देखे थे, अब उनमें समय की धूल पड़ गई थी। राजू, गुड्डू भी दूसरे शहरों में नौकरी कर रहे थे। सब-कुछ बदल चुका था...
वह पतझड़ का मौसम था। पूरे वातावरण में बेरुखी सी पसरी थी। हवाओं के गर्म थपेड़े उसके चेहरे पर पड़ रहे थे। टूटे पत्ते इधर-उधर उड़ रहे थे। डाल पर बैठे बंदरों की कर्कश आवाजें सुनाई दे रही थीं... बदलाव को देखते-देखते वह उस जगह पहुंच गया था, जहां उसके जीवन का सबसे कीमती समय गुजरा था... उसका बचपन।
वह बिलकुल नहीं बदली थी, मंदिर, मैदान, पीपल... वैसे ही थे, निहारते हुए ... नि:शब्द...। पता नहीं, क्यों! एक अनजाना-सा अपराधबोध उसके भीतर आ गया। उसे लगा, यहां से जाकर उसने गलत किया था। उसके अंदर कुछ पिघलने लगा... झर-झर आंसू बहने लगे। वह पीपल से लिपट गया।
उसका ‘अनाहत’8 सक्रिय हो चुका था। समय का पहिया पीछे घूम रहा था, उसे सब-कुछ याद आने लगा। वह जगह फिर से प्राणवान हो उठी...
‘उसे गेंद फेंकते हुए 5-6 साल का राजू दिखा... गुड्डू की आवाज सुनाई पड़ी- आउज दैट! उसने झल्लाकर बैट पटकते हुए खुद को पाया। बैट के हत्थे की ग्रिप वह अपने हाथों में महसूस कर रहा था...’
वह भावनाओं में गोते लगा रहा था, उसे वहां की एक-एक चीज बोलती मालूम पड़ रही थी। तभी, उसकी नजर मंदिर की खिड़की में जाकर ठहर गई। इसकी सलाखों को पकड़कर, कभी वह ऊपर चढ़ जाया करता था और मंदिर के भीतर झांकता था। उसके दिल में एक लहर उठी... फिर से उसी पुराने अंदाज में, वहां चढ़ने की इच्छा बलवती हुई... लेकिन तत्काल विरोधी विचार मन में आया और वह हाथ-पैर गंदे होने, पेंट फटने के डर से नहीं चढ़ा।
वह मुस्करा उठा। सोचने लगा... ‘यही तो बचपन व ‘बड़ेपन’ का फर्क है। वो लापरवाही, वो बेफिक्री... वो बिंदास तबीयत ... अब कहां? अब तो सिर्फ दुनियादारी है, प्रतिस्पर्धा है... महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ है। अब पल-पल जीने का हुनर कहीं खो गया है और छोटी-छोटी चीजों से मिलने वाली खुशी भी...।
उसके अंदर कसक सी उठी। काश! फिर से वे दिन लौट आते... लोग-बाग, सब-कुछ पहले जैसा हो जाता। फिर से उसे बचपन जीने का मौका मिल जाता। समय वहीं ठहर जाता...
मन उसे छल रहा था... और यूं छला जाना, उसे अच्छा भी लग रहा था, अजीब-सा सुख मिल रहा था। इंसान की प्रवृत्ति होती है ना... जो चीज उसे पसंद आती है, उसे और, और पाना चाहता है। पसंदीदा लोग, चीजें, यादों से हमेशा चिपके रहना चाहता है।
... हालांकि, वह जानता था- न वो लौटेगा, न ही वो समय... वो बचपन...। जो बीत चुका है, वह लौट नहीं सकता। परिवर्तन संसार का नियम है और बदलाव ही स्थायी है। लेकिन फिर भी बचपन के मोहपाश से वह निकल नहीं पा रहा था। वह महसूस कर रहा था... यहां से दूर होकर वह गरीब हो गया है और यह गरीबी ऐसी है, जिसे वह दुनिया का सबसे दौलतमंद आदमी बनकर भी दूर नहीं कर पाएगा। यह वो जगह है, जिसकी कमी आज भी अपने में पाता है और कल भी पाता रहेगा...
वह ख्यालों में खोया था, तभी उसकी नजर जमीन पर पड़े एक टूटे पत्ते पर पड़ी। उसने उसे उठा लिया। वह उसे एकटक देख रहा था... उसमें उसे अपना अक्स नजर आ रहा था। उसे लगा... वह भी उस टूटे पत्ते की तरह ही है, जो अपनी जड़ों से दूर हो चुका है और अब दोबारा कभी जुड़ भी नहीं पाएगा...
उसने लंबी सांस छोड़ी और थके कदमों से वहां से चल पड़ा...
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अंक-संकेत
1. आजादी के समय, मुस्लिम जमींदारी की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रसिद्ध कृति, जिस पर 90 के दशक में दूरदर्शन पर टीवी सीरियल भी बना.
2. नदी, जिसके किनारे खैरागढ़ बसा है.
3. शहर के बड़े सेठ, जिनका आवास इसी नाम से जाना जाता था.
4. वही सेठ जिनके मकान का पूर्व में सेठघर के रूप में जिक्र हुआ है.
5. शब्दों को उल्टा करके बोलने का विशिष्ट अंदाज
6. प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता
7. महात्मा बुद्ध की ध्यान विधि, जिसमें विचारों-भावनाओं को तटस्थता के साथ देखने कहा जाता है.
8. भारतीय योग के अनुसार, भावनाओं को नियंत्रित करने वाला ‘चक्र’.
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( यह कहानीनुमा संस्मरण मैंने अपने एक फ्रेंड के लिए लिखा है.)
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