धोनी और उनके धुरंधर... क्या कहा जाए? बेचारे... जबरन टारगेट में आ जाते हैं। जरा-सा कुछ हुआ नहीं कि उन पर लानत-मलामत शुरू हो जाती है, लोग कोचकना शुरू कर देते हैं। इनकी इमोशन, फीलिंग कोई समझना ही नहीं चाहता। अभी टीम इंडिया ने विदेश में दो सीरीज क्या गंवाई, शोर मचना शुरू हो गया कि इसको हटाना था, उसको रखना था, ये तो बस घर के शेर हैं, वगैरह, वगैरह।
यार, ये बड़ी दिक्कत है। अरे, दो सीरीज ही तो हारे हैं, कोई सल्तनत तो नहीं लुटा आए। केवल दो सीरीज... वो भी विदेश में... उसी में इतना हल्ला हो रहा है। ये भी कोई बात हुई। जब तक परदेस में बारह-पंद्रह सीरीज न हारें, तब तक सीरियसली लेना ही नहीं चाहिए। और खिलाड़ी तीस-चालीस पारी में खराब न खेले, उसे ऊंगली करना ही नहीं चाहिए। पता नहीं क्यों, लोग-बाग एक-दो मेें ही माइंड करना शुरू कर देते हैं।
भई, मेरा तो स्पष्ट मानना है कि विदेश में दो सीरीज हारना कहीं से बुरा नहीं है, बल्कि विदेशों में हारना ही बुरा नहीं है। सच पूछिए, तो यह बड़े फक्र की बात है। दरअसल, इससे हमारी सनातन परंपरा को बढ़ावा मिलता है। संभवत: यह बात टीम इंडिया भी जानती है, इसीलिए वह इस पुण्य-कार्य को पूरे मनोयोग से करती है।
आपको तो पता ही है, भारत आध्यात्मिक देश है और समता-सहिष्णुता इसके मेरुदंड हैं। इसी समतामूलक विचारधारा को हमारी टीम फालो करती है और हमारे खिलाड़ी ‘जीयो और जीने दो’ के तर्ज पर ‘जीतो और जीतने दो’ का फलसफा अपनाते हैं। इसीलिए वे घर में जीतते हैं और विदेशों में हारते हैं।
इसके अलावा अतिथिभाव ... यह भी एक अहम वजह है, जिसके चलते भारतीय टीम हारने में इंट्रेस्टेड रहती है। अब आप ही सोचिए, मेजबान को उसके घर में हराना, लाखों-करोड़ों स्थानीय दर्शकों का दिल दुखाना, क्या अच्छी बात है? क्या यह अतिथि को शोभा देगा? उसकी गरिमा के अनुरूप होगा? अरे, साहब, मेहमानवाजी के भी अपने उसूल होते हैं। और हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि भारतीय टीम इसमें पूरी तरह निपुण है। हमारे लोग कहीं भी जाकर, किसी भी टीम से, यहां तक कि क्वालीफायर से भी मैच हारकर आ सकते हैं।
और यकीन मानिए, विदेशों में मैच हारकर हमारे खिलाड़ी मेहमानवाजी का तकाजा भर पूरा करते हैं। आध्यात्मिकतावश ही ये ‘घर के शेर’ बाहर मेमने बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें मेजबान टीम को घर का शेर बनाना होता है। हां, जहां मेजबानी ज्यादा पसंद आती है, वहां सीधे क्लीप स्वीप होते हैं। नहीं पसंद आती तो एक-दो मैच जीतकर, मलाल करने छोड़ देते हैं।
और अब तो शेर-मेमने वाले इस भारतीय दर्शन को अन्य टीमों ने भी आत्मसात करना शुरू कर दिया है। मिसाल के तौर पर 2013 का रिकार्ड उठाकर देखिए। इक्का-दुक्का को छोड़ दें, तो सारी टीमें आपसी भाई-चारे के तहत विदेशों में सीरीज थ्रो करके आई हैं। यानी हमारी फिलासफी फैल रही है।
तो अब आप ही सोचिए, पूरे विश्व में सनातन-चिंतन का प्रचार प्रसार करने वाली हमारी टीम इंडिया को निशाने पर लेना सही है? अरे, ये तो हमारे मिशनरी हैं... युुवा मिशनरी। सीरीज हारकर स्वदेश लौटने पर इनका जोरदार स्वागत होना चाहिए... भव्य स्वागत, यादगार स्वागत। पर होता है, इसका उलटा।
खैर, धर्म-अध्यात्म, सत्य-अहिंसा की राह तो कांटो भरी होती ही है। हंसते-हंसते जहर पीना पड़ता है। इसीलिए मैं धोनी ब्रिगेड से पूरा जोर देकर कहना चाहूंगा कि उन्हें आलोचनाओं पर कान देने की जरूरत नहीं है। विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपनी आध्यात्मिकता अक्षुण्य रखें, अतिथिभाव बनाए रखें। अपना आत्मविश्वास कतई न खोएं और विदेशों में हारना बिलकुल बंद न करें। आलोचनाओं से कुछ अपसेट हों, तो किशोर कुमार का गीत है... कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना... इसे बार-बार सुनें।
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