17 April 2015

‘टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी’

सोशल मीडिया में कुछ दिन पहले एक जोक्स  ट्रेंड कर रहा था.  ‘ 2013 से पहले •ाारत में मनोरंजन के साधन हुआ करते थे- क्रिकेट व सिनेमा. लेकिन अब हैं- क्रिकेट, सिनेमा और आम आदमी पार्टी (आप).
इन दिनों इस जोक्स का सुनाई पड़ना बेवजह नहीं है. कहीं-न-कहीं  आप की विश्वसनीयता में कमी आई, है, उसे लोग गं•ाीरता से नहीं ले रहे हैं.  दरअसल,  ‘आप’ में लगातार कुछ-न-कुछ हो ही रहा है. आरोप- प्रत्यारोप, मान-मनौव्वल, स्टिंग आॅपरेशन, त्यागपत्र, दिग्गजों की छुट्टी और अब स्वराज अ•िायान, स्वराज संवाद. और इस कुछ-न-कुछ  होने से आप का गां•ाीर्य •ाी खो गया है. फेसबुक, ट्विटर फालो करने  वाली जनरेशन के लिए तो ‘आप’ का यह घमासान इंटरटेनमेंट पैकेज जैसा ही है. 
हां, लेकिन ऐसे लोग जो पूरी शिद्दत से ‘आप’ से जुड़े हैं, या वे लोग जो ‘आप’ को •ाारतीय राजनीति के सार्थक और निर्णायक बदलाव का वाहक मानते हैं, उनका •ारोसा जरूर टूटा है, उम्मीदों का कमल जरूर मुरझाया है. आखिरकार, इसी के चलते तो हाल में एक ‘आप’ कार्यकर्ता ने अपने सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से कार वापस मांग ली, तो दूसरे ने ‘आप’ का लोगो इस्तेमाल न करने का अल्टीमेटम दे दिया.
सच तो यह है कि केजरीवाल हों, चाहें योगेंद्र-प्रशांत गुट दोनों ने आम जनता के जस्बातों पर रोड-रोलर चलाया है. केजरीवाल यदि चाहते तो ‘आप’ की अंतर्कलह थाम सकते थे. वे संयोजक पद खुद ही छोड़ सकते थे. योगेंद्र-प्रशांत से सीधे संवाद कर सकते थे.  सारे मसले पार्टी के समक्ष रखकर बहुमत के अनुसार चल सकते थे. लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता अख्तियार किया. योगेंद्र-प्रशांत को ठिकाने लगाने की कवायद शुरू कर दी. पार्टीजनों को अपने और उनमें से किसी एक को चुनने की अनिवार्य शर्त रखी.
इधर, केजरीवाल ने अहंकार की लड़ाई लड़ी, तो उधर योगेंद्र-•ाूषण •ाी आदर्शवाद के नाम पर झुकने को तैयार नहीं हुए. प्रशांत •ाूषण ने तो दिल्ली चुनाव के दौरान इमोशनल ब्लैकमेल तक किया. वे त्यागपत्र देकर ‘खुलासे’ की अघोषित धमकी देते रहे.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1992 में राममंदिर मुद्दे पर धार्मिक असहिष्णुता बढ़ने का अंदेशा जताया था, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई. वे हाशिए में रहे, पर उन्होंने बगावत नहींंंंंं की और बाद में उनकी वापसी हुई. •ाूषण को यदि पार्टी के फैसले पसंद नहीं थे, तो वे •ाी चुप रहकर सही समय का इंतजार कर सकते थे, बजाय, बागी बनने के.
यदि योगेंद्र-•ाूषण यह तर्क दें  कि वे अपने रहते ‘आप’ का पतन कैसे होने दे सकते थे... तो यह •ाी स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि ये दोनो ं वैसे ही केजरीवाल एंड कंपनी से लड़कर हाशिए में जा चुके थे, लिहाजा ये ‘नख-दंत विहीन’ पार्टी में कोई सुधार करने या नैतिक-शुचिता बनाए रखने की स्थिति में नहीं थे.
वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘आप’ के आदर्शों का किला ढहा है. उसकी कथनी-करनी में अंतर आया है. जो पार्टी लोकपाल को लेकर अस्तित्व में आई, उसने अपने लोकपाल रामदास को बिना बताए हटा दिया. जो पार्टी पारदर्शिता का दावा करती रही, उसी ने राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के पहले सबके मोबाइल अलग रखवा लिए.
सं•ावत: केजरीवाल और योगेंद्र-प्रशांत के लक्ष्य अलग हैं. केजरीवाल के लिए जहां साध्य की अहमियत है, वहीं, योगेंद्र-प्रशांत साधन और साध्य दोनों को तरजीह देते रहे हैं. अरविंद दिल्ली का कायाकल्प करना चाहते हैं, उसे मॉडल बनाना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने दिल्ली चुनाव में कई समझौते कर लिए. बड़े आदर्श के लिए छोटे आदर्श की तिलांजलि दे दी. योगेंद्र गुट के लिए सिद्धांत ही सर्वोपरि थे, इसी वजह से इनके बीच रस्साकशी बढ़ती चली गई.
जैसे स्वाधीनता संग्राम में गांधी-सु•ााष को •ाारत-जापान में लोगों ने खुलकर धन-धान्य, जेवर... जिसके पास जो था वैसा सहयोग दिया था, वैसे ही इस बार केजरीवाल एंड कंपनी के लिए •ाी स्वस्फूर्त जस्बात उमड़े थे. सबकी यही इच्छा-अपेक्षा थी कि ‘आप’ कुछ सार्थक करे, लेकिन आप के इस गृह-क्लेश ने अपेक्षाओं से •ारे न जाने कितने दिल तोड़ दिए हैं. अफसोस इसी बात का है कि अपने-अपने विचारधाराओं और सिद्धांतों की आड़ में दोनो गुट ने अहंकार की लड़ाई •ाी लड़ी,  जन•ाावना को नजरअंदाज किया. 
बेशक, ‘आप’ के  ये  ‘खिलाड़ी’ शह-मात में उलझे हुए हैं, लेकिन सियासत की शतरंज खेलते हुए  वे यह •ाूल रहे हैं कि असली बादशाह तो जनता है और शतरंज में पैदल मात •ाी होती है. 
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