महाभारत का युद्ध चल रहा था। पांडवों ने कूटनीति से द्रोणाचार्य का वध कर दिया था। द्रोणाचार्य के पुत्र और हाथी दोनों का नाम अश्वत्थामा था। युद्ध के दौरान हाथी मारकर आचार्य के सामने हल्ला मचा दिया गया कि अश्वत्थामा, यानी उनका पुत्र मारा गया। पुत्रमोह के चलते वे नैराश्य से घिर गए और अर्जुन के हाथों जान गंवा बैठे। बाद में शाम को भगवान कृष्ण के साथ पांडव बाणों की शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह से मिलने पहुंचे। पांडवों के चेहरे लटके हुए थे। भीष्म ने इसका कारण पूछा, तो युधिष्ठिर ने सविस्तार घटना का जिक्र किया और अनैतिक कृत्यों का भी जिक्र किया।
यह सुनकर भीष्म को बहुत वितृष्णा हुई। पांडवों को फटकार लगाते हुए उन्होंने उनके कृत्य को शर्मनाक करार दिया। यह तक कह डाला कि तुम कायर हो, जो तुम्हें छल का सहारा लेना पड़ा। यह सुनकर पांडव तो विषाद में घिर गए, लेकिन पितामह की इस तीखी प्रतिक्रिया पर पास खड़े वासुदेव को गुस्सा आ गया। नाराजगी जताते हुए वे बोले-'तो आप क्या चाहते हैं कि पांडव यह युद्ध हार जाएं। ये पांचों भाई मिलकर आचार्य द्रोण को संभाल नहीं पा रहे थे। अगर द्रोण आज युधिष्ठिर को बंदी बना लेते, तो पांडव यह युद्ध हार जाते। और बाद में दुर्योधन इतिहासकारों से लिखवा लेता कि धर्म के पक्ष में वह था, पांडव तो अन्याय के सारथी थे। लाक्षागृह का षड्यंत्र कभी रचा ही नहीं गया, द्रौपदी का कभी चीरहरण हुआ ही नहीं। क्या आप यह सब चाहते हैं?
मैं अंतिम परिणिति को देख रहा हूं, इसीलिए मैंने यह छल करवाया। मेरी नजर में साध्य की अहमियत है और साध्य हमेशा साधन के ऊपर ही रहेगा। साध्य पवित्र है और साधन अपवित्र है... एक बार यह चल जाएगा, लेकिन साधन पवित्र है और साध्य अपवित्र यह हरगिज भी स्वीकार्य नहीं होगा। साधन और साध्य की पवित्रता में एक को चुनना पड़े, तो साध्य को ही वरीयता देना होगा। Ó
कृष्ण ठीक ही कहते हैं कोई व्यक्ति गरीबों की मदद करने के लिए मुनाफाखोरों से धन लूटने वाला डाकू बन जाए, यह कबूल है। लेकिन कोई संतों का चोला ओढ़कर भोले-भाले लोगों को ठगने लगे यह अक्षम्य है। खुद ही सोचें, संत बनकर भोले-भालों को ठगने वाला व्यक्ति स्वीकार होगा कि डाकू बनकर मुनाफाखोरों से धन लूटकर गरीबों को बांटने वाला। एक ने संतगिरी को साधन बनाया, दूसरे ने लूटपाट को... पर दोनों का साध्य, यानी उददेश्य अलग-अलग हैं।
यह सुनकर भीष्म को बहुत वितृष्णा हुई। पांडवों को फटकार लगाते हुए उन्होंने उनके कृत्य को शर्मनाक करार दिया। यह तक कह डाला कि तुम कायर हो, जो तुम्हें छल का सहारा लेना पड़ा। यह सुनकर पांडव तो विषाद में घिर गए, लेकिन पितामह की इस तीखी प्रतिक्रिया पर पास खड़े वासुदेव को गुस्सा आ गया। नाराजगी जताते हुए वे बोले-'तो आप क्या चाहते हैं कि पांडव यह युद्ध हार जाएं। ये पांचों भाई मिलकर आचार्य द्रोण को संभाल नहीं पा रहे थे। अगर द्रोण आज युधिष्ठिर को बंदी बना लेते, तो पांडव यह युद्ध हार जाते। और बाद में दुर्योधन इतिहासकारों से लिखवा लेता कि धर्म के पक्ष में वह था, पांडव तो अन्याय के सारथी थे। लाक्षागृह का षड्यंत्र कभी रचा ही नहीं गया, द्रौपदी का कभी चीरहरण हुआ ही नहीं। क्या आप यह सब चाहते हैं?
मैं अंतिम परिणिति को देख रहा हूं, इसीलिए मैंने यह छल करवाया। मेरी नजर में साध्य की अहमियत है और साध्य हमेशा साधन के ऊपर ही रहेगा। साध्य पवित्र है और साधन अपवित्र है... एक बार यह चल जाएगा, लेकिन साधन पवित्र है और साध्य अपवित्र यह हरगिज भी स्वीकार्य नहीं होगा। साधन और साध्य की पवित्रता में एक को चुनना पड़े, तो साध्य को ही वरीयता देना होगा। Ó
कृष्ण ठीक ही कहते हैं कोई व्यक्ति गरीबों की मदद करने के लिए मुनाफाखोरों से धन लूटने वाला डाकू बन जाए, यह कबूल है। लेकिन कोई संतों का चोला ओढ़कर भोले-भाले लोगों को ठगने लगे यह अक्षम्य है। खुद ही सोचें, संत बनकर भोले-भालों को ठगने वाला व्यक्ति स्वीकार होगा कि डाकू बनकर मुनाफाखोरों से धन लूटकर गरीबों को बांटने वाला। एक ने संतगिरी को साधन बनाया, दूसरे ने लूटपाट को... पर दोनों का साध्य, यानी उददेश्य अलग-अलग हैं।
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