एक उछलता हुआ झरना रेगिस्तान पहुंचा। उसे दिखाई दिया कि वह उसे पार नहीं कर सकेगा। बारीक रेत में उसका पानी तेजी से सूख रहा था। झरने ने स्वयं से कहा, ‘’रेगिस्तान को पार करना मेरी नियति है लेकिन उसके आसार नजर नहीं आते है।
यह शिष्य की स्थिति है जिसे सदगुरू की जरूरत होती है। लेकिन वह किसी पर श्रद्धा नहीं कर सकता। यह मनुष्य की दुखद हालत है।
रेगिस्तान की आवाज ने कहा, ‘’हवा रेगिस्तान को पार करती है, तुम भी कर सकते हो।‘’
झरना बोला, ‘’जब भी मैं कोशिश करता हूं मेरा पानी रेत में समा जाता है, और मैं कितना ही जोर लगाऊं थोड़ी दूर ही जा पाता हूं। हवा रेगिस्तान के साथ जोर नहीं लगाती। लेकिन हवा उड़ सकती है, मैं उड़ नहीं सकती।
तुम गलत ढंग से सोच रही हो। अकेले उड़ने की कोशिश मूढ़ता है। हवा को तुम्हें ले जाने दो।झरने ने कहा कि वह अपनी निजता को खोना नहीं चाहता। इस तरह तो उसकी हस्ती खो जाएगी। रेत ने समझाया कि इस तरह सोचना तर्क का एक भाग है लेकिन यथार्थ के साथ उसका कोई ताल्लुक नहीं है। हवा जल की नमी को आत्म सात कर लेती है। रेगिस्तान के पार ले जाती है। और फिर बरसात बन कर पुन: नीचे ले आती है।
झरना पूछता है, ‘’यदि ऐसा है तो क्या मैं यही झरना रहूंगा जो आज हूं।‘’ रेत बोली; ‘’यों भी किसी सूरत में तुम यही नहीं रहोगे। तुम्हारे पास कोई चुनाव नहीं है। हवा तुम्हारे सार तत्व को, सूक्ष्म अंश को ले जाएगी। जब रेगिस्तान के पार, पहाड़ों में तुम फिर नदी बन जाओगे। फिर लोग तुम्हें किसी और नाम से पुकारेगा। लेकिन भीतर गहरे में तुम जानोंगे: ‘’मैं वहीं हूं।‘’ हवा की स्वागत करती हुई बांहों में स्मारक झरना रेगिस्तान के पार चला गया। हवा उसे पर्वत की चोटी पर ले गई और फिर धीरे से, लेकिन दृढ़ता से जमीन पर गिरा दिया। झरना बुदबुदाया: ‘’अब मुझे मेरी वास्तविक अस्मिता का पता चला। फिर भी एक प्रश्न उसके मन में था। ‘’मैं अपने आप को क्यों नहीं जान सका।‘’ रेत को मुझे क्यों बताना पडा। एक छोटी सी आवाज उसके कानों में गूँजी। रेत का एक कण बोल रहा था: सिर्फ रेत ही जान सकती है क्योंकि उसने कई बार इसे घटते देखा है। क्योंकि वह नदी से लेकिर पर्वत तक फैली हुई है। जीवन की सरिता अपनी यात्रा कैसे करेगी इसका पूरा नक्श रेत में बना होता है।‘’
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