10 March 2012

अजब तेरी लीला...

अजब तेरी लीला, अजब तेरी माया... एक तरफ दाने-दाने के लिए तरसते लोग... दूसरी ओर पालतू कुत्तों पर बेतहाशा खर्च...। अमेरिकन पेट्स एसोसिएशन की रिपोर्ट है कि अमेरिकन सालाना 50 बिलियन डालर, यानी तकरीबन २५ खरब रुपए अपने पेट्स के रखरखाव पर खर्च करते हैं।
आज ही भास्कर डॉट कॉम में टाइम्स ऑफ इंडिया के हवाले से एक खबर पढ़ा ...पश्चिम बंगाल में एक ऐसा गांव है, जहां हर दूसरा व्यक्ति किडनी बेचता है। रायगंज जिले का यह बिंदोल गांव किडनी गांव के नाम से ही जाना जाता है। जाहिर है किडनी बेचना कोई ऐसा काम तो  नहीं है, जिसे करने में किसी को खुशी मिले या सार्थकता हासिल हो। भुखमरी के चलते लोग ऐसा कर रहे हैं। वेश्या के कोठे पर जिस तरह दलाल मिलते हैं, वैसे ही आपको यहां किडनी के दलाल मिल जाएंगे।
कभी-कभी ऊपर वाले का यह अति का सिद्धांत समझ में नहीं आता। वो समता-मूलक क्यों नहीं है...। जाहिर है, जिसे हम भगवान कहते हैं, उसकी कुछ खास लोगों पर कोई कृपादृष्टि हो, या फिर गरीबों के लिए  सौतेला रवैया हो, ऐसा भी नहीं है...। कार्य-कारण सिद्धांत से परे जाकर सोचूं, तो लगता है कि वह जानबूझकर ऐसा करता है। जानबूझकर, एक सोची-समझी प्लानिंग के तहत....। प्लानिंग क्या है... किसी को क्या समझाना-दिखाना है? किस तरह उत्प्रेरित करना है यह नहीं पता?

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