09 March 2012

रीयल हीरो की फीकी विदाई

'कांग्रेस नेता माधव राव सिंधिया से एक बार इंटरव्यू में पूछा गया था कि क्या वे अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानते हैं? उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा था- नहीं, क्योंकि मुझमें किलर इंस्टिक्ट की कमी है।Ó
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जो आगे-आगे होते हैं। हमेशा आगे रहना चाहते हैं, एवरेस्ट पर खड़े होने की चाह रखते हंै। दूसरा वर्ग उन लोगों का है, जो अगर एक कदम पीछे भी हैं, तो उन्हें कोई शिकायत नहीं रहती। वे उतने में भी अपने को राजी कर लेते हैं, मना लेते हैं, संतुष्ट कर लेते हैं। जितना वे करते हैं, उतना उन्हें श्रेय नहीं मिलता। ज्यादातर मौकों पर उनका काम भी नजर में नहीं आ पाता। पता ही नहीं चलता कि उन्होंने कुछ उल्लेखनीय, कुछ बड़ा कर डाला है, क्योंकि वे चौके-छक्के मारकर सेंचुरी नहीं बनाते, बल्कि एक-दो रन दौड़-दौड़कर वे शतकवीर बनते हैं। वे शेर जैसे आक्रामक नहीं होते, लेकिन कर्मठ बैल जैसा दबाव झेलकर चुपचाप काम करते चले जाते हैं। उनके पास शेर के शिकारी पंजे नहीं होते, लेकिन हिरण के सिंग होते हैं और जिनका रोल शिकार करने में नहीं, बल्कि आत्म-रक्षा के समय दिखाई पड़ता है। उनका मिजाज और कार्यशैली ही ऐसी होती है कि वे इमारत के शिखर पर चमचमाती टाइल नहीं बन पाते, बल्कि चुपचाप नींव को मजबूत करते हैं, नींव का पत्थर बने रहते हैं। यह उन लोगों का वर्ग है, जो खुद को झुकाकर, दूसरों को बढऩे का मौका दे देतेे हैं। अपना मूल्यांकन कम होने का भी इन्हें मलाल नहीं रहता। खेल हो या जीवन... हर मोर्चे पर, ये हमेशा सेकंडमैन, उपकप्तान बने रहते हैं, बिना किसी गिला के। इनमें किलर इंस्टिक्ट नहीं होता, लेकिन ये चुपचाप काम करते रहते हैं।
राहुल द्रविड़ भी इसी दूसरे वर्ग से आते हैं। यह एक ऐसा खिलाड़ी का नाम है, जिसने साइलेंट काम किया। राहुल के बनाए 36 में से 32 सैकड़ों के चलते या तो भारत ने मैच जीते हैं, या वह मैच बचाने में कामयाब हुआ है। लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को याद है, इसके विपरीत उसके माथे पर हमेशा बोरिंग, डिफेंसिव खिलाड़ी का तमगा लगा रहा। उसे मैच विनर खिलाड़ी के रूप में कभी देखा ही नहीं गया। सच्चाई यह है कि टेस्ट में सचिन तेंदुलकर के बाद सबसे ज्यादा रन बनाने वाले इस खिलाड़ी का कभी सही मूल्यांकन ही नहीं हुआ। उसे वह नहीं मिला, जो उसका जायज हक था।
किलर इंस्टिक्ट न होने वाले हर शख्स के साथ शायद ऐसा ही होता है। वह दूर का तारा होता है। दरअसल, उसके आसपास वह उत्तेजना, रोमांच, सनसनी, तेज या तरंग नहीं होती, जो लोगों को सम्मोहित कर सके। उसमें पूर के जैसी अराजकता नहीं होती, झील के जैसी शांति होती है। और स्वाभाविक रूप से इंसानी फितरत सनसनी का असर लेने की है। उसे मद्धम संगीत सुनाई ही नहीं पड़ता, क्योंकि उसे सुनने के लिए जिस भीतरी शांति की दरकार होती है, वह तो धीरे-धीरे विकसित होती है।
इसीलिए, गोल मारने वाले, शिखर में झंडा लेकर खड़े होने वाले (किलर इंस्टिक्ट समूह) लोग ही ज्यादा पसंद किए जाते हंै, वे 'हीरोÓ होते हैं। लेकिन दूसरे वर्ग के लोगों का, सेकंडमैन का अपना महत्व है। ये बुनियाद को मजबूत करने वाले होते हैं। ये गोल मारने वाले नहीं, लेकिन गोल बनाने में मदद करने वाले होते हैं। लिहाजा, इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। इसीलिए द्रविड़ का यूं चुपचाप (एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके क्रिकेट को अलविदा कहना) जाना अखरता है। श्रीलंका को वल्र्ड कप जिताने वाले कप्तान अर्जुना रणतुंगा को जिस तरह भरे स्टेडियम में भावभीनी विदाई दी गई थी, क्या द्रविड़ उससे कम के हकदार हैं....???
यह आर्टिकल द्रविड़ की संन्यास की घोषणा वाले दिन ही मैंने प्रकाशन के लिए भेजी थी, लेकिन वह उस समय तुरंत प्रकाशित नहीं हो पाया। क्योंकि यह मैटर जल्दी में लिखा गया था, लिहाजा यह कोयला था, हीरा जैसा तराशा हुआ नहीं था। इसे तुरंत ही द्रविड़ की फीकी विदाई कहना शायद समय से पहले की बात हो जाती। लेकिन कुछ दिनों बाद बीसीसीआई ने इधर द्रविड़ की विदाई पर जलसा किया और उधर सचिन के महाशतक पर मुकेश अंबानी ने जश्न मनाया। स्वाभाविक रूप से तुलनात्मक स्थिति पैदा हो गई। लिहाजा मेरे पुराने मैटर की सार्थकता प्रगट होने लगी और उसे प्रकाशित करने का सही समय भी आ गया। लिहाजा सुशोभित ने मेरे मूल मैटर में अंबानी और बीसीसीआई वाला हिस्सा शुरू में जोड़कर उसे पब्लिश कर दिया। सुशोभित सक्तावत ही यहां भास्कर में एडिट पेज के इंचार्ज हैं। एक बहुत जहीन युवा ... उत्कृष्ट की चाह, एक्यूरेसी की चाह, सर्वश्रेष्ठ की चाह, उनकी लेखनी में झलकती है। उन्होंने मेरे मूल मैटर के अंितम हिस्से में भी (... इन्हें खारिज करना अपने भीतर के ठोस को खारिज करना है) यह लाइन जोड़ी है। भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित इस मैटर की लिंक ये रही... http://www.bhaskar.blag/amit
राहुल की क्षमताओं-योगदान का मूल्यांकन करता हुआ एक बहुत ही सारगर्भित लेख राजदीप सरदेसाई ने भीपूर्व में लिखा है। उसकी लिंक ये है...

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