30 August 2012

बैताल पचीसी—अद्भुत अध्‍यात्‍म रहस्‍य कथाएं

तुमने बैताल पच्चीसी का नाम सुना होगा। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि वह भी कोई ज्ञानियों की बात हो सकती है। बैताल पच्चीसी। पर इस देश ने बड़े अनूठे प्रयोग किए है। इस देश ने ऐसी किताबें लिखी है, जिनको बहुत तलों पर पढ़ा जा सकता है। जिनमें पर्त दर पर्त अलग-अलग रहस्‍य और अर्थ है। जिनमें एक साथ दो, तीन, चार या पाँच अर्थ एक साथ दौड़ते रहते है। जैसे एक साथ पाँच रास्‍ते चल रहे हो। पैरेलल, समानांतर।
तो जिसको जो सुविधा हो। एक छोटा बच्‍चा भी बैताल पच्चीसी पढ़कर प्रसन्‍न होगा और परम ज्ञानी भी पढ़कर प्रसन्‍न होगा। खोजी को मार्ग मिल जायेगा। पहुंचे हुए को मंजिल की प्रत्‍यभिज्ञा होगी। जो नहीं खोजी है, नहीं पहुंचा हुआ है, उसके लिए केवल चित के आनंद मनोरंजन होगा। वह भी क्‍या कम है। थोड़ी देर को मन बहलाव हो जायेगा।
बैताल पचीसी की पहली कथा है…..। पच्‍चीसों की कथाएं बड़ी अद्भुत है। लेकिन पहली कथा तुम से कहता हूं। पहली कथा है कि सम्राट विक्रमादित्‍य के दरबार में एक फकीर आया। सुबह का वक्‍त था। रिवाज के अनुसार लोग सम्राट को भेट चढ़ने के लिए सुबह-सुबह आया करते थे। उस फकीर ने भी जंगली सा दिखने वाला फल सम्राट को भेट किया। सम्राट थोड़ा मुस्‍कुराया भी। इस फल को भेंट करने के लिए इतनी दूर आने की जरूरत क्‍या थी? लेकिन फकीर है; लेकिन फकीर है फकीर के पास और हो भी क्‍या सकता है। तो राजा ने उसे स्‍वीकार कर लिया। पास ही बैठा वजीर था, उसने वह फल उसके हाथों में दे दिया, जो भेट आती थी वह वजीर लेता रहता और रखता जाता था।
यह क्रम दस वर्ष तक चला। वह फकीर रोज सुबह आता। और रोज वहीं ,उसी तरह का फिर एक जंगली फल ले आता। दस वर्ष। और रोज सम्राट वजीर को फल दे देता। न तो उसने कभी पूछा, क्‍योंकि सुबह सैंकड़ो लोग भेट लाते थे। फुरसत भी नहीं होगी। समय भी नहीं होगा पूछने का। शायद इस फकीर से पूछने जैसा कुछ लगा न होगा।
पर एक दिन पास ही सम्राट का पाला हुआ बंदर भी बैठा हुआ था। और सम्राट ने वजीर को फल न देकर बंदर को दे दिया। बंदर ने फल खाया और उसके मुंह से एक बहुत बड़ा हीरा, जो उस फल में छिपा था। नीचे गिर गया। सम्राट तो चौंका। इतना बड़ा हीरा तो उसने देखा भी नहीं था। वजीर से कहा कि बाकी फल कहां है?
वजीर ने भी ये सोचा था की जंगली फल है। पर फिर भी उसने सोचा कि सम्राटों के पास सम्‍हलकर रहना पड़ता है। तो एक तलघरे में वह फेंकता जाता था। क्‍योंकि फलों का करोगे क्‍या? जंगली थे; खाने योग्‍य भी नहीं लगते थे। स्‍वाद भी ठीक नहीं होगा।
तल घरा खोला गया। भंयकर बदबू से भरा था। क्‍योंकि सारे फल सड़ गये थे। लेकिन उन सड़े हुए फलों के बीच हीरे चमक रहे थे। ऐसे हीरे कभी सम्राट ने देखे नहीं थे।
फकीर को कहा की यह क्‍या राज है? तुम क्‍या चाहते हो? किस लिए दस साल से यह भेट ला रहे हो? और मैं कैसा अज्ञानी कि मैंने कभी देखा भी नहीं। मैंने समझा, जंगली फल है। होश न हो तो जिन्‍दगी ऐसे ही चूक जाती है।
दूसरी समानांतर अर्थ की धारा शुरू होती है:–
उस फकीर ने कहा की रोज ही जिन्‍दगी लाती है। लेकिन जंगली फल समझकर तुम फेंकते चले जाते हो। और हर फल के अंदर हीरा छिपा है। जिसे तुमने कभी देखा नहीं। खैर, जो हुआ सो हुआ। अब पीछे की तरफ मत जाओ। अन्‍यथा फिर तुम चुक जाओगे। और आगे की तरफ भी मत दौड़ों। कयोंकि मैं देखता हूं, सपने दौड़ रहे है। क्‍योंकि इतने हीरे। दुनिया के तुम सबसे बड़े सम्राट हो गये। आगे भी मत जाओ। पीछे भी मत जाओ। मैं कुछ और तुमसे कहना चाहता हूं। वह सुन लो।
सम्राट सजग होकर बैठ गया, यह आदमी साधारण नहीं है। अब तक समझे कि फकीर है।
जिंदगी साधारण नहीं है। और जिंदगी ने तुम्‍हें जो दिया है। वह बिलकुल असाधारण है। लेकिन तुम्‍हें होश नहीं है। तुम हंसोगे कि दस साल तक यह आदमी क्‍यों बेहोश रहा? तुम कई जन्‍मों से हो। राजा वीर विक्रमादित्‍य तुम भी हो। हजारों साल से तुम ऐसे ही बैठे हो और जिंदगी रोज फल दिए जा रही है। हर पल छिपा हुआ जीवन का हीरा तुम्‍हारे पास आता है।
अब ये कोई साधारण आदमी नहीं था, तब राजा ने कहा तुम्‍हारी एक-एक बात सुनने जैसी है। उसने कहा कि मैं दस वर्ष से आ रहा हूं, इसी प्रतीक्षा में कि किसी दिन तुम जागोगे। क्‍योंकि मैं एक ऐसा आदमी चाहता हूं, जो वीर हो, वह तुम हो।
इस लिए विक्रमादित्‍य का नाम वीर विक्रमादित्‍य पडा। सिर्फ दो ही आदमियों को भारत ने वीर कहा है, एक महावीर को और एक विक्रमादित्‍य को।
निश्‍चित तुम वीर हो, इसमे कोई शक-शुबहा नहीं; लेकिन काफी नहीं है वीर होना। इस लिए में चाहता हूं कि तुम जागों वर्तमान के प्रति। तब तुम मेरे काम के हो सकते हो। अब दोनों बातें घट गई। अब तुम वीर हो, होश और साहस। मैं एक बड़े महान तंत्र पर कार्य करने में लगा हूं। उसमें मुझे एक ऐसे आदमी की जरूरत है। जो बहुत वीर हो, जिसे कोई चीज भयभीत न करे सके, और जो होश पूर्ण हो। अगर तुम तैयार हो तो आज अमावस की रात है। तुम सांझ मरघट पर पहुंच जाओ मैं तुम्‍हें वही मिलूगा।
वह फकीर तो चला गया। सम्राट ने कई बार सोचा भी कि इस झंझट में पड़ना कि नहीं। लेकिन फिर यह तो कायरता होगी। और यह आदमी ऐसा हैं कि इसके साथ थोड़ी दुर तक जा कर देखने जैसा है। पता नहीं हम जैसे जंगली फल को फेंकते रहे…..,पता नहीं मरघट में कौन से स्‍वर्ग का या मोक्ष का द्वार खुल जाए।
अपने आप को राजा वीर विक्रमादित्‍य समझाता रहा…..अंदर-अंदर थोड़ा डर भी लग रहा था।
बहादुर से बहादुर आदमी भी डरता है। तुम यह मत सोचना कि सिर्फ कायर डरते है। डरते तो बहादुर भी है। फर्क क्‍या है बहादुर और कायर में? बहादुर डरता है, तो भी करता है। कायर डरता है, भाग खड़ा होता है। डरते तो दोनों है। डरने के संबंध में कोई फर्क नहीं है। क्‍योंकि जो डरे ही नहीं, वह तो बहादुर भी क्‍या उसको कहना। वह तो लोहे, लकड़ी, पत्‍थर का बना हुआ आदमी है। वह बहादुर नहीं है। जो डरे ही न। डर तो स्‍वाभाविक है। लेकिन बहादुर डर को किनारे पर रख देता है। और घूस जाता है। और भयभीत डर को सिर पर रख लेता है, और भाग खड़ा होता है।
खेर आधी रात विक्रमादित्‍य पहुंच गया मरघट पर। बड़ा डर लगता था। बड़ी । वह कोई साधारण रात नहीं मालूम होती थी। शायद इतनी भंयकर रात को इससे पहले कभी वीर विक्रमादित्‍य न जाना भी नहीं था। इससे पहले इतनी रात को कभी मरघट आया भी नहीं होगा। महलों में ही रहा है। मरघट सिर्फ एक शब्‍द था। जो पढ़ा और सूना होगा। आज मरघट पर जीवन है। उसका दाव है। आज मरघट केवल शब्‍द ही नहीं रहा। आज एक अनुभव है।
तुम भी कभी आधा रात अमावस की मरघट जाओ, तब तुम्‍हें इस शब्‍द का अर्थ पहली बार पता चलेगा। आपके शब्‍द कोश जो अर्थ लिखा है वो सत्‍य नहीं है।
मरघट एक अनूठी घटना है। चारों तरफ रहस्‍य। चारों तरफ फैली एक गहन शांति कि गहन तरंगें, भय, खतरा, भूत-प्रेत,की काल्‍पनिक चीख पुकार। और वह तांत्रिक अपना मंडल रचकर बैठा है नग्‍न। चारों और मानव खोपड़ियों का ढोर लगा है। और एक मानव लाश पास ही रखी है। जिसका उसने सर काट रखा है।
सम्राट ने कहा मैं आ गया हूं, तांत्रिक ने उसकी और गोर से देखा ओर कहां। वह जो वक्ष है। दूर जिस पर थोड़ी-थोड़ी रोशनी पड़ रही है। वह विशाल वृक्ष देख रहे हो ना। उस पर कुछ लाश लटकी है। तुम उस लाश को वृक्ष से उतार कर मेरे पास लाना है। लेकिन एक बात का ध्‍यान रखना। एक दम सजग रहना। होश पूर्ण। यह तलवार की धार पर चलने जैसा ही है। जरा चूके कि गए। शांत रहना। शायद फिर मैं भी तुम्‍हारी कोई सहायता न कर सकूंगा।
धड़कती छाती से विक्रमादित्‍य उस वृक्ष की और चला। हाथ में उसने नंगी तलवार ले रखी थी। चारों तरफ गहन शांति थी। पेर जब जमीन पर पड़े सूखे पत्‍तों पर पड़ रहे थे, उनकी उनका शोर खड़खड़ाहाट भी बहुत भारी कर रही थी कदमों को। अपनी ही साँसे कैसी शांति को चीर रही थी। वह धीरे-धीरे उस वृक्ष के नजदीक जाने लगा, जिस पर लाश लटकी हुई थी। एक नहीं पूरी पच्‍चीस, बड़ी भंयकर बदबू आ रही थी। उन लाशों के चारों और पेड़ो और उनकी टहनीयों पर चमगादड़ उल्‍टे लटके होने का अहसास और भी मन में भय भर रहे थे। उनकी कर्कश ध्‍वनि से, और दुर्गंध से दम घुटा जा रहा था वीर विक्रमादित्‍य का। अंदर तक कहीं कोई भर की लहर भी बीच-बीच में पूरे बदन को कंप-कंपा जाती थी।………..(क्रमश: अगले अंक में)
ओशो गीता-दर्शन,भाग—8, अध्‍याय-17, प्रवचन—10 
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बैताल पचीसी—अद्भुत अध्‍यात्‍म रहस्‍य कथाएं (2)
किसी तरह नाक को अवरूद्ध कर के वृक्ष पर चढ़ा। हाथ-पैर कंप रहे थे । वृक्ष पर चढ़ना भी बहुत मुश्‍किल था। किसी तरह उस लाश की डोरी काटी। वह लाश जमीन पर धम्‍म से नीचे गिरी, न केवल गिरी , बल्‍कि खिलखिला कर हंसी। विक्रमादित्‍य के प्राण निकल गये होगें। सोचा था मुर्दा है, वह जिंदा मालूम होता है। और जिंदा भी अजीब हालत में। घबड़ाया हुआ नीचे आया। और उससे पूछा क्‍यों हंसे? क्‍या मामला है। बस, इतना कहना था कि लाश उड़ी वापस जाकर वृक्ष पर लटक गई थी। और लाश ने कहा कि शांत होना, तो ही तुम मुझे उस फकीर तक ले जा सकते हो। तुम बोले और चुक गये।
दोबारा लाश को काट कर नीचे लाया। बड़ा मुश्‍किल काम था। बोलने से भी थोड़ी राहत मिलती है। क्‍योंकि जब आदमी को भय लगता है कुछ बोलना चाहता है। भय जब लगे आपने को भुलाने के लिए गीत गुनगुनाने लग जाता है। थोड़ी हिम्‍मत बड़ जाती है। राम-राम जपने लग जाता है। कोई सहारा चाहिए। अब बोलना भी नहीं है। शांत भी रहना है भयंकर सन्‍नाटा; और चारों ओर मौत।
शायद इस लिए आदमी अतीत की सोचता है। भविष्‍य की सोचता है। क्‍योंकि डरता है। वर्तमान के क्षण में जीवन भी है और मौत भी। दोनों ही एक साथ है। क्‍योंकि वर्तमान में ही तुम मरोगे और वर्तमान में ही तुम जीते है। न तो कोई भविष्‍य में मर सकता है और न भविष्‍य में जी ही सकता है।
तुम भविष्‍य में मर सकते हो? जब मरोगे, तब अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में मरोगे आज मरोगे। कल तो कोई भी नहीं मरता। कल तो मरोगे कैसे? कल तो आता ही नहीं, जब मर नहीं सकते कल में तो जीओगे कैसे? कल का कोई आगमन ही नहीं होता। कल है ही नहीं। जो है, वह अभी और यहीं है। बोले कि चूक जाते हो। सोचे की चुक जाते हो।
बड़ा कर विक्रमादित्‍य ने अपने आप को रोका। आदमी बहादूर था। मुरदा काट कर फिर से नीचे गिराया। फिर हंसा, उसकी भयंकर खिलखिहट से सारा वातावरण क्षण भर के लिए कंप गया। छाती कंप गई। नीचे उतरा। मुरदे को कंधे पर रखा। चलने लगा। मुरदे ने कहा कि सुनो, राह लंबी है, रात अंधेरी है, और तुम्‍हारा बोझ हलका करने के लिए तुम्‍हें एक कहानी सुनाता हूं। ऐसी पहली कहानी।
उसने कहा की तीन युवक थे ब्राह्मण……..।
विक्रमादित्‍य सुनना भी नहीं चाहता था। पड़ना भी नहीं चाहता था चक्‍कर में, क्‍योंकि जब तुम सुनोंगे, तो पता नहीं, बीच में बोल उठो। या कुछ हो जाए। या कम से कम सुनने में ही लग जाओ और जो तुमने सम्‍हाल रखा है अपने को, वह चुक जाए। क्षण में चूक सकती है बात। मगर इससे नहीं कहना भी ठीक नहीं है। क्‍योंकि नहीं कहते ही लाश उड़ जायेगी। और फिर वृक्ष पर चढ़ना पड़ेगा। और उसे नीचे गिराना होगा। इस लिए विक्रमादित्‍य चुप ही रहा। और वह मुर्दा कहानी कहने लगा।
एक गुरु के आश्रम में तीन युवक थे। तीनों ही गुरु की लड़की के प्रेम में पड़ गये……।
कहानी में रस आने लगा। प्रेम की कहानी में किसे रस नहीं आता। विक्रमादित्‍य थोड़ा बेहोश होने लगा। सम्‍हाल रहा है, लेकिन उत्‍सुकता जग गई; जिज्ञासा, कि फिर क्‍या हुआ?
तीनों एक से थे, योग्‍य थे, अप्रतिम थे। प्रतिभाशाली थे। जिज्ञासा, कि फिर क्‍या हुआ। गुरु मुश्‍किल में पड़ गया। कि किसे चुने। और किसे छोड़। युवती भी मुश्‍किल में पड़ गई। और कोई उपाय न देख की कोन जीवन साथी बने। तीनों के गण धर्म इतने गहरे और अंतस को खींचने वाले थे की वह किसी को छोड़ नहीं पाई। और अंत में हार कर आत्‍म हत्‍या कर ली। उसके लिए कोई मार्ग नहीं था। वह जानती थी अगर किसी को छोड़ा तो जीवन भर पछतावा रहेगा की वहीं काबिल था। और एक को चुनने के लिए दो को छोडना ही होता। वह हार गई और अपना जीवन ही समाप्‍त कर दिया।
बड़ी अड़चन थी। तीन से विवाह तो नहीं कर सकती थी। और उसकी लाश को जला दिया गया।
उन तीन युवकों में से एक तो उसी मरघट पर रहनें लगा। उसकी राख के पास एक कुटिया बना ली। और वहां एक मढ़ी बना कर धुनि बना कर ध्‍यान करने लगा। दीवाना हो गया।
दूसरा युवक इतने दुःख से भर गया कि यात्रा पर निकल गया,अपना दुःख भुलाने को। घूमता रहेगा संसार में। अब बसना नहीं है। क्‍योंकि जिसके सा बसना था, वहीं न रही। अब घर नहीं बसाना है। वह परिव्राजक हो गया, एक फकीर, भटकता हुआ आवारा फक्‍कड़ योगी।
और तीसरे युवक किसी आशा से भरा हुआ, क्‍योंकि उसने सुन रखा था कि ऐसे मंत्र भी है कि अस्‍थिपंजर को पुनरुज्जीवित कर दें, तो उसने सारी अस्‍थियां इकट्ठी कर लीं। रोज उसको गंगा जल में ले जाता और धोकर साफ करता। फिर ले आकर रख लेता। उनकी रक्षा करता कि कभी कोई मंत्र का जानने वाला मिल जाए।
वर्षों बित गये। जो घूमने निकल गया था यात्रा पर, उसे एक आदमी मिल गया, जो मंत्र जानता था। उससे उसने मंत्र सीख लिया। मंत्र का शास्‍त्र ले लिया। भागा। वहां से जल्‍दी थी उसे पहुंचने की। डर था उसे कि वो अस्‍थिर पंजर बचेंगे या नहीं। क्‍योंकि वह तो कभी के फेंक दिये होगें। लेकिन जब पहुंचा तो अपने को आश्वस्त पाया, अस्थिर पंजर अभी भी बचे हुए थे। उन को उसके ही एक साथी ने सम्‍हाल, सहज कर रखा था।
उसने उन अस्थिर पिंजरों को जोड़ कर मंत्र पढ़ा। वह युवती पुनरुज्जीवित हो गई। पहले से भी ज्‍यादा सुंदर। मंत्र-सिक्‍त। उसकी देह स्‍वर्ण की हो गई। उसके अंदर कमल की सा कोमलता और ताजगी प्रवेश कर गई। उसका रूप और यौवन देखते ही बनता था। पर फिर वहीं कलह शुरू हो गया। कि अब यह किसकी?
अब तक सम्राट भी भूल गया थ कि वह क्‍या कर रहा है और यह सुनने में लग गया था। जैसा तूम सुनने में लग गए।
उस मुरदे ने पूछा की सम्राट ध्‍यान से सुनो। गौर से सुनो। फिर वहीं झगड़ा शुरू हो गया। अब सवाल यह है कि उन तीन में से यह युवती किसकी? तुम्‍हारे इस विषय में क्‍या ख्‍याल है? और अगर तुम्‍हारे भीतर उत्‍तर आ जाये और तुमने उत्‍तर नहीं दिया तो तुम्हारे सर के टुकड़े-टुकडे हो जायेंगे और तुम तत क्षण में मर जाओगे। हां अगर उत्‍तर न आये तो कोई हर्ज नहीं।
बड़ा मुश्‍किल है उत्‍तर नआना। आदमी का इतना वश थोड़े ही है अपने मन पर। कोई बुद्ध पुरूष हो, तो न आये। ठीक है, सुन लिया प्रश्‍न: कोई हर्ज नहीं ।
विक्रमादित्‍य बड़ी मुश्‍किल में पडा। उत्‍तर तो आ रहा है। बुद्धिमान आदमी था। तर्क-निष्‍ठ था, समझदार था, शास्‍त्र का ज्ञात था। तर्क साफ था। तब मुरदे ने कहा की अगर उत्‍तर आ रहा है तो बोल दे, वरना तू इसी क्षण मर जायेगा।
तब विक्रमादित्‍य ने कहां की उत्‍तर तो आ रहा है। इसलिए बोलना ही पड़ेगा। अत्‍तर मुझे यह आ रहा है। कि जिसने मंत्र पढ़ कर युवती को जिलाया, वह तो पितातुल्‍य है; उसने जन्‍म दिया है। इसलिए वह विवाह के हक से बहार हो गया। पिता तुल्‍य से कोई विवाह थोड़े ही किया जाता है। उसने तो उसे जन्‍म दिया है। और जिसने अस्‍थियां सम्‍हाल कर रखी थी। रोज गंगा जल में पवित्र करता था। उनकी देख रेख करता था। वह तो पुत्र तुल्‍य है। कर्तव्‍य, सेवा, उससे शादी नहीं हो सकती है। प्रेमी तो वही है, जो धूनी रमाए, राख लपेटे, भूखा-प्‍यास मरघट पर ही बैठा रहा, न कहीं गया, न कहीं आया। विवाह तो उसी से….।
लाश छूटी, जाकर वृक्ष से फिर लटक गई। क्‍योंकि न बोलने की बात खत्‍म हो गई विक्रमादित्‍य बोल गया।
इसी तरह की पच्‍चीस कहानियां बारी-बारी से चलती रहती है। और बैताल पच्चीसी तैयार हो जाती है।
जीवन में तुम चूकते हो, जब भी मूर्च्‍छा पकड़ लेती है। जब भी तुम होश खो देते हो। जब भी जागे हुए नहीं होते। तत्‍क्षण जीवन का सुत्र हाथ से छूट जाता है। जब भी तुम जरा से अशांत हो जाते हो, विचार की तरंगें चलने लग जाती है। और तभी आप देखना जीवन का सूत्र आपके हाथ से सरक गया। क्‍योंकि विचार की तरंग। और तुम वर्तमान से च्‍युत। इधर उठी तरंग,उधर तुम हटे वर्तमान से।
वह विक्रमादित्‍य हार गया। वह फिर…। ऐसी पच्‍चीस कहानियां चलती रहती है पूरी रात। और हर बार चुकता जाता है। हर बार चूकता जाता है। पच्‍चीसवीं कहानी पर सम्‍हल पाता है। हर कहानी में ज्‍यादा से ज्‍यादा हिम्‍मत बढ़ती है; साहस बढ़ता है; ज्‍यादा देर तक रोकता है। ज्‍यादा देर तक विचार की तरंगें नहीं अनुकंपित करती। पच्चीसवीं कहानी आते-आते कहानी चलती रहती है। विक्रमादित्‍य सुनता रहता है, भीतर कुछ भी नहीं होता।
जीवन एक तैयारी है। यहां बहुत कुछ है तुम्‍हें उलझा लेने को। बाजार है पूरा,मीना बाजार है। वहां सब तरफ बुलावा है—उत्‍सुकता को, जिज्ञासा को, मनोरंजन को। प्रश्‍न है, विचार की सुविधा है। सोच-विचार का उपाय है, चिंता का कारण है । सब तरह के उलझाव हे।
अगर तुम इस सारे संसार से ऐसे गुजर जाओ,जैसे विक्रमादित्‍य उस मरघट से बिना बोले, चुप चाप और जागा हुआ पच्‍चीसवीं कहानी पर गुजर गया, तो तुम वर्तमान क्षण की अनुभूति को उपलब्‍ध होओगे। अन्यथा तुमने वर्तमान जाना ही नहीं है।
तुम वर्तमान से गुजर जरूर रहे हो, क्‍योंकि और कोई जगह नहीं जहां से तुम गुजर सको। लेकिन बेहोश, सोए हुए गुजर रहे हो। या तो अतीत में खोए हुए गुज़रे हो, या भविष्‍य में डूबे हुए गुज़रे हो। वर्तमान से तुम्‍हारा कभी तालमेल नहीं बैठा है। वर्तमान से संगीत नहीं छिड़ा है। वर्तमान के साथ स्‍वर नहीं मिले।
वर्तमान से स्‍वर मिल जाए, तुम पाओगे, एक ही है; अनेक उसके रूप है। एक है सागर; अनेक है लहरें।
–ओशो गीता दर्शन, भाग—8, अध्‍याय—17, प्रवचन—10,

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