08 October 2011

जब तुम्ही अनजान बनकर रह गए तो...


जब तुम्ही अनजान बनकर रह गए तो
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं

जब न तुमसे स्नेह के दो कण मिले
व्यथा कहने के लिए दो क्षण मिले
जब तुम्ही ने की सतत अवहेलना
तो विश्व का सम्मान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ...

बस एक ही आशा एक ही अरमान था
हृदय को बस तुम पर अभिमान था
जब तुम ही न अपना सके हमें
तो व्यर्थ का सम्मान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ... 

दूं तुम्हे कैसे जलन मैं अपनी दिखा 
दूं तुम्हे कैसे लगन मैं अपनी दिखा
जो स्वरित होकर भी कुछ न कह सके
मैं भला वे गान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ...

अर्चना निष्प्राण की आखिर कब तक करूं
कामना वरदान की आखिर कब तक करूं
जो बना युग-युग पहेली-सा
मौन वह भगवान लेकर क्या करूं...
जब तुम्ही अनजान बनकर ...।।

(नोट : इस कविता को किसने लिखा है मुझे नहीं पता, यदि किसी सज्जन को मालूम हो तो कृपया जरूर बताएं।)


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