31 May 2012

चायनीज-मैनेजमेंट

क्या ऐसा हम लोग कर पाएंगे? अपने घर के साजो-सामान साधन के रूप में इस्तेमाल होने के लिए निकाल कर देंगे?  यह अद्भुत है, मेरी नजर में...
चीनियों की मैनेजमेंट कला मैं पहले से मुरीद रहा हूं। इस तसवीर को देखकर आप भी उनके कायल हो जाएंगे। यह एक क्रिएटिविटी ही है। इसके पहले चीन के ही एक पेशेवर व्यक्ति की, एक छोटे से रिक्शे जैसी सवारी में पीछे केरियल की जगह पर अतिविशाल साजो-सामान रखकर ले जाते हुए एक तसवीर और देखी थी। तंग जगह पर जनरल स्टोर के ढेर सारा सामान रखकर बेचने वाले एक और चीनी महिला की तसवीर भी जाहिर हुई थी। चीनी शायद मैनेज करने में कुशल होते हैं।

30 May 2012

मम्मी-ऐश्वर्या...


अंदाजे-रजनीकांत


रजनीकांत का टूथ पाउडर

http://navbharattimes.indiatimes.com/hansimazakshow/13633681.cmsरजनीकांत का टूथ पाउडर- Hansimazak - Times of India
http://navbharattimes.indiatimes.com/hansimazakshow/13633681.cmsरजनीकांत का टूथ पाउडर- Hansimazak - Times of India
http://navbharattimes.indiatimes.com/hansimazakshow/13353519.cmsमंगल ग्रह पर लाइफ...- Hansimazak - Times of Indरजनीकांत एक लड़की के साथ ताश खेल रहे थे।
रजनीकांत के पास तीन इक्के(AAA) थे, फिर भी रजनी हार गए,

 क्यों?
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क्योंकि लड़की के पास तीन रजनीकांत थे। 
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- रजनीकांत दांत मजबूत करने के लिए जिस टूथ पाउडर से दांत साफ करते थे, आज वह 'अंबुजा सीमेंट' के नाम से जाना जाता है।
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http://navbharattimes.indiatimes.com/hansimazakshow/13482700.cmsलाइट चली गई थी- Hansimazak - Times of India
एक दिन पूरे इंडिया में लाइट चली गई थी।
पता है क्यों?
क्योंकि...रजनीकांत भाई अपना मोबाइल चार्ज कर रहे थे।
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ग्राहम बेल ने टेलिफोन इंवेंट किया और चाय पीने चले गए।
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जब वह वापस लौटे...
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...
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उसमें रजनीकांत के दो मिस्ड कॉल्स थे। 

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सवाल पूछा गया...कौन-सा लिक्विड गर्म करने पर सॉलिड में बदल जाता है?

सारे साइंटिस्ट फेल हो गए पर रजनीकांत ने जवाब दे दिया।

रजनीकांत ने जवाब दिया...डोसा।

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http://navbharattimes.indiatimes.com/hansimazakshow/13353519.cmsमंगल ग्रह पर लाइफ...- Hansimazak - Times of India
एक बार नासा के वैज्ञानिकों को मंगल ग्रह पर कुछ उड़ता हुआ नजर आया।
खुश होकर साइंटिस्ट चिल्लाने लगे...'लाइफ ऑन मार्स, लाइफ ऑन मार्स।'
बाद में पता चला कि रजनीकांत धरती से मंगल पर पतंग उड़ा रहे थे...:)-
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एक बार रजनीकांत ने एक छोटे से बच्चे को जोक सुनाया..
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.....................
.....................
और...अब वह बच्चा लाफिंग बुद्धा के नाम से फेमस है।-
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तमिल में टाइटैनिक बनी तो हीरो रजनीकांत थे।
बाकी फिल्म तो वैसी ही थी लेकिन क्लाइमैक्स कुछ बदल गया।

इस फिल्म में रजनीकांत समुद्र तैर कर पार कर जाते हैं। उनके एक हाथ में हिरोइन थी और दूसरे में टाइटैनिक!  

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लोग जब किसी बात पर चौंकते हैं, तो कहते हैं- OMG (ओह माई गॉड!)
लेकिन जब भगवान चौंकते हैं तो?
तो वह कहते हैं- OMR (ओह माई रजनीकांत!)

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रजनीकांत ने अपनी बायॉग्रफ़ी लिखी।

आज वह किताब 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स' के नाम से जानी जाती है। 

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गर्लफ्रेंड- मेरा कोई पीछा करता रहता है। आजकल मैं दुखी हूं... 

रजनीकांत- ओके

अगले दिन...

गर्लफ्रेंड- अरे, मेरी परछाई कहां गई???? -


रजनीकांत पर एक से बढ़कर एक बेहतरीन जोक्स बने हैं। आप यहां  nice jokes  पर क्लिक कर उनका जायका ले सकते हैं।

28 May 2012

हद है बेशर्मी की

ए राजा,  पूर्व केंद्रीय मंत्री का जमानत मिलने के बाद संसद सत्र के बाहर एक खुशी मनाते हुई एक तसवीर भास्कर में प्रकाशित हुई थी। संभवत: संसद की 60वीं सालगिरह, जो कि हाल ही में मनाई गई थी, उसी के अवसर  पर वे दिल्ली संसद भवन पहुंचे थे। उस समय मीडिया से रूबरू होते हुए कैमरे के सामने हाथों से विशेष मुद्रा बनाकर अपनी खुशी का इजहार किया था।
ऐसा लगा मानों जो कुछ हुआ (स्पेक्ट्रम घोटाला) उससे वे बेअसर हैं, उस पर उनका कोई फर्क नहीं पड़ा...। फोटो बयान कर रही थी कि ऐसा तो चलो होता ही रहता है। दूसरी चीज जो महसूस हुई वो यह कि कहीं-न-कहीं चीजों का मखौल उड़ाने का,  हल्के में लेने का भाव भी था, जो कि उस फोटो से मुखर हो रहा था। उस फोटो को देखकर एक वाक्य में प्रतिक्रिया देनी हो तो शायद वो यह होगी... हद है बेशर्मी की।

26 May 2012

फुरसत और क्रिएटिविटी


फुरसत का क्रिएटिविटी से संबंध है, यह तो मुझे पता ही है। लगता ही है। समय-सीमा, सीमा तो तनाव को जन्म देती है। उसमें काम फिर पेशेवराना हो जाता है। फुरसत का तो मतलब ही रिलेक्सेशन है।
चीजों को दूरी से साक्षी बनकर, बिना किसी जुड़ाव के देखने में अलग तरह का आनंद, सुकून है। चीजें इसी तरीके से तो समझ में आती हैं। विषय विषयी के  सामने खुद को तभी उद्घाटित करता है, उघारता है। फुरसत के बिना काम तो महज काम हो जाता है। इसमें विषय को लेकर तो धारणाओं को आरोपित करने की ही कोशिश होती है, जबरदस्ती समझने की। फुरसत में ग्रहणशीलता बढ़ जाती है, समझ का, समझने का गुणधर्म बदल जाता है।
तो फुरसत और दूरी से संबंधित एक आर्टिकल जब भास्कर ब्लॉग में पिछले दिनों आया, तो स्वाभाविक रूप से इसके लिए आकर्षण जाग उठा। फुरसत शब्द ने अलग तरह का जादू जगा दिया। इस शब्द में अलग तरह का विश्राम है। फुरसत का यह गोपनीय अर्थ ही मेरे अंदर शायद अलग तरह की प्रतिक्रिया देता है। इसे सुनकर ही मेरे भीतर की हजारों-करोड़ों नाडिय़ों में शांति की लहर जाग उठती है।
न जाने कितने जन्मों की थकावट है मेरे भीतर मुझे पता नहीं, जो शांत होने के लिए, आराम पाने के लिए मचल रही है। काल्पनिक या छलावे के रूप में, मृगतृष्णा के रूप में भी रिलेक्सेशन की अनुभूति सामने आने पर मेरे समग्र का कोई छोटा अंश तृप्त होने लगता है। जैसे जेठ की तपती दोपहरी में प्यास से बेहाल शख्स का पानी पीने के ख्याल मात्र से एक तृप्ति का एहसास मन में आ जाए। एक संतुष्टि घेर ले।
राजीव सिंह जी दैनिक भास्कर के संपादकीय साथी ने यह फुरसत और दूरी पर आधारित आर्टिकल लिखा था। दार्शनिक अंदाज में लिखे इस लेख का विषय भी मूलत: दार्शनिक ही है। जिसे अनुभव लिया आदमी ही बेहतर समझ सकता है। अन्यथा सामान्य पाठक के लिए तो यह केवल बौद्धिक कसरत या विद्वता दिखाने की कवायद मात्र होगी... शायद। वैसे मूलत: यह लेख दूरी पर आधारित है। इसमें दूरी के अलग-अलग आयाम बताए गए हैं।  लेख का केंद्रीय तत्व दूरी है, लेकिन शुरुआत में फुरसत का जिक्र है... कि फुरसत से, एकांत से, चांद-सितारे की सोहबत से, कैसे समझ का द्वार खुल जाता है।  इस लेख को यहां http://www.bhaskar.com/article/  से पढ़ा जा सकता है।

15 May 2012

प्रथा

मरू-प्रदेश की भूमि में बहुत कम फल उपजते थे. अत: ईश्वर ने अपने पैगंबर को पृथ्वी पर यह नियम पहुंचाने के लिए कहा, -प्रत्येक व्यक्ति दिन में केवल एक ही फल खाए।

लोगों में मसीहा की बात मानी और दिन में केवल एक ही फल खाना प्रारंभ कर दिया. यह प्रथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रही. दिन में एक ही फल खाने के कारण इलाके में फलों की कमी नहीं पड़ी. जो फल खाने से बच रहते थे उनके बीजों से और भी कई वृक्ष पनपे. जल्द ही प्रदेश की भूमि उर्वर हो गयी और अन्य प्रदेशों के लोग वहां बसने की चाह करने लगे.
लेकिन लोग दिन में एक ही फल खाने की प्रथा पर कायम रहे क्योंकि उनके पूर्वजों के अनुसार मसीहा ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा था. दूसरे प्रदेश से वहां आनेवाले लोगों को भी उन्होंने फलों की बहुतायत का लाभ नहीं उठाने दिया.
इसका परिणाम यह हुआ कि अधिशेष फल धरती पर गिरकर सडऩे लगे. उनका घोर तिरस्कार हो रहा था.
ईश्वर को यह देखकर दु:ख पहुंचा. उसने पुन: पैगंबर को बुलाकर कहा, "उन्हें जाकर कहो कि वे जितने चाहें उतने फल खा सकते हैं. उन्हें फल अपने पड़ोसियों और अन्य शहरों के लोगों से बांटने के लिए कहो।
मसीहा ने प्रदेश के लोगों को ईश्वर का नया नियम बताया. लेकिन नगरवासियों ने उसकी एक न सुनी और उसपर पत्थर फेंके. ईश्वर का बताया पुराना नियम शताब्दियों से उनके मन और ह्रदय दोनों पर ही उत्कीर्ण हो चुका था.
समय गुजऱता गया. धीरे-धीरे नगर के युवक इस पुरानी बर्बर और बेतुकी प्रथा पर प्रश्नचिह्न लगाने लगे. जब उन्होंने देखा कि उनके बड़े-बुजुर्ग टस-से-मस होने के लिए तैयार नहीं हैं तो उन्होंने धर्म का ही तिरस्कार कर दिया. अब वे मनचाही मात्रा में फल खा सकते थे और उन्हें भी खाने को दे सकते थे जो उनसे वंचित थे.
केवल स्थानीय देवालयों में ही कुछ ऐसे लोग बच गए थे जो स्वयं को ईश्वर के अधिक समीप मानते थे और पुरानी प्रथाओं का त्याग नहीं करना चाहते थे. सच तो यह है कि वे यह देख ही नहीं पा रहे थे कि दुनिया कितनी बदल गयी थी और परिवर्तन सबके लिए अनिवार्य हो गया था.
(पाउलो कोएलो के ब्लॉग से)

ज्ञान बांटना : दुनिया का सबसे आसान काम

कहना हमेशा से आसान रहा है और करना उतना ही कठिन। इसीलिए कहने वालों, यानी न करने वालों, यानी केवल ज्ञान बांटने वालों की, कभी-भी, कहीं-भी कमी नहीं रही। 'ज्ञान बांटनाÓ शायद दुनिया का सबसे आसान काम है, इसीलिए हर चौक, हर गली 'ज्ञानियोंÓ से गुलजार रहती है। सड़क से सं...द तक, गांव से शहर तक, हर ओर इस कला के पारखी खूंटा गाड़ के बैठे मिलते हैं। हर गुलशन इनसे आबाद रहता है, हर तरफ ये महकते रहते हैं।
अच्छा, ऐसा मत सोच लेना कि ज्ञान बांटने का कॉपीराइट केवल पके बाल वालों के पास है, जैसा कि आमतौर पर सोचा जाता है। अजी, सर्वहारा वर्ग की इसमें मास्टरी है। फुलटाइम काम करने वाले भी इसमें पार्टटाइम हाथ आजमाते हैं। यहां तक कि लंगड़े घोड़े भी रेस जीतने के फंडे बताते हैं, गूंगे भी 'हाऊ टू स्पीकÓ कोर्स चलाते हैं। कसम से... ऐसे-ऐसे लोग ज्ञान बांटते दिखते हैं, जो न लीपने के हैं न पोतने के (और न ही कभी थे)। जिन्होंने खुद कोई कमाल नहीं किया, लेकिन बातें ऐसी करते हैं, मानों उनसे बड़ा जानकार कोई नहीं। दावा ऐसे करते हैं, मानों सीधे ब्रह्मा से कॉन्फ्रेंस करके चले आ रहे हों।
और ऐसे चितकबरों को भाव भी बहुत मिलता है। इनमें से कुछ तो मीडिया में भी छाए रहते हैं। वे टीवी में भी दिखते हैं, अखबारों में भी छपते हैं। द्रविड़ के संन्यास पर ये ही आपको बताएंगे कि यह सही समय पर लिया फैसला है या नहीं। तेंदुलकर को कब बल्ला टांग देना चाहिए, इसका इलहाम भी इन्हें ही होगा। टीम की जीत-हार से लेकर, खिलाड़ी की खूबी-कमी, पिच का मिजाज, क्या हो, क्या नहीं... सब पर ये ज्ञान पिलाएंगे। लेकिन इन बातों के बाजीगरों से कोई पूछे खुद इन्होंने क्या तीर मारा? अब क्रिकेट में हिंदुस्तान को जीतने की आदत लगे, कप-मैडल के साथ डेटिंग करते, १०-१५ साल तो हुए ही हैं। इसके पहले तो हालत ऐसी थी, जैसे महीनों से भूखे को रोटी मिले। सारी खींचतान, उठापटक ही ड्रॉ के लिए होती थी। लेकिन ये ऐसे बोलेंगे, मानों जीतने के फंडे इन्ही के पास हैं।
अच्छा, ऐसे फंडेबाज फिल्मलाइन में भी हैं। जो फ्लॉप तो एक तरफ, अच्छी फिल्म का भी पोस्टमार्टम करके, उसमें हजार कमियां गिना देंगे। आड़े-तिरछे सारे एंगल से समीक्षा करेंगे, जी भर कर ज्ञान पेलेंगे। लेकिन जब खुद फिल्म बनाएंगे, तो वही ढाक के तीन पात। जीरो बटे सन्नाटा। हफ्ते भर में टॉकीज से पोस्टर उतर आए।
वैसेे, ज्ञान बांटने वालों का किसी लाइन में तोड़ा (कमी) नहीं है। क्या सियासत, क्या धर्म, हर क्षेत्र में इन्होंने झंडे गाड़ रखे हैं। औपचारिक-अनौपचारिक, जैसा बन पड़े, ये लपर-लपर ज्ञान बांटते हैं...  सड़क पर, चैनल पर, मंच पर, किताबें छपाकर, कैसे भी। लेकिन जैसे हाथी के दांत होते हैं ना, खाने के और दिखाने के और। वैसी ही इनकी बातें होती हैं- केवल कहने वाली और, फॉलो करने वाली और।
इवेंट कुछ भी हो, ये मुंह उठाए चले आते हैं। माकूल अवसर मिला नहीं, कुकुरमुत्ते जैसा उग जाते हैं। अब ज्ञान बांटने में कुछ जाता तो है नहीं। कुछ करके दिखाना तो है नहीं। बस मुंह फाडऩा है और जो अटरम-सटरम दिमाग में आए, उसे दार्शनिक अंदाज में कह देना है। चूना लगे ना फिटकरी। इतना करने में किसी के बाप का क्या जाता है? और कुछ ऊंच-नीच, गफलत हो भी जाए, तो कुछ बिगड़ता तो है नहीं। कोई गलतबयानी का केस ठोंकने तो जा नहीं रहा। कोई जूता मारने तो आ नहीं रहा। इसीलिए ये ज्ञानचंद ऑफिशियली-अनऑफिशियली बातों की बमबार्डिंग करते रहते हैं। जहां पाए वहां मुंह मारते रहते हैं।
जार्ज बर्नार्ड शॉ ने 'मैक्सिजम फॉर रिवोल्यूशनरिस्टÓ में तंज कसा है- 'जो कर सकता है, वह करता है। जो नहीं कर सकता, वह सिखाता है।Ó यह लिखते समय उसके दिमाग में शायद ऐसे ही बातों के खलीफा रहे होंगे। ---
यह आर्टिकल थोड़ा फेरबदल के साथ भास्कर ब्लॉग में प्रकाशित हुआ था। एडिट पेज के इंचार्ज थोड़ा डिफेंसिव हैं, ज्यादा आक्रमकता या तीखापन उन्हें डराता है। इसीलिए पेज के नेचर के अनुकूल ना होने की बात कहकर उन्होंने अनेक चीजों में बदलाव किया है, लेख का तीखापन कम किया है। इसके चलते कई जगह मैटर की हारमनी भी बदल गई है।  आर्टिकल की लिंक ये रही... http://www.bhaskar.com/article/

14 May 2012

फीलिंग्स

अनलहक़ÓÓ का निडर ऐलान करने वाले कई औलिया होंगे लेकिन इस कुफ्र के लिए अपने जिस्म की बोटी-बोट कटवाने वाला एक ही था: 'ÓमंसूरÓÓ
(कभी-कभी इंसान की मौत इतनी जिंदा हो जाती है कि उसकी जिंदगी को भी अपनी रोशनी से पुनरुज्जीवित कर देती है। पर्शियन सूफी औलिया अल-हृल्लास मंसूर का नाम दो चीजों के लिए इन्सानियत के ज़ेहन में खुद गया है : एक उसकी रूबाइयात और दूसरा उसकी मौत। 'Óअनलहक़ÓÓ का निडर ऐलान करने वाले कई औलिया होंगे लेकिन इस कुफ्र के लिए अपने जिस्म की बोटी-बोट कटवाने वाला एक ही था: 'ÓमंसूरÓÓ इस खौफनाक, अमानुष मौत की वजह से उसका प्यारा वचन 'Óअनलहक़ÓÓ भी दसों दिशाओं में अब तक गूंज रहा है। आदि शंकराचार्य ने भी 'Óअहं ब्रह्मास्मिÓÓ के महावाक्य का उद्घोष किया था लेकिन सहनशील, उदारमना हिंदू धर्म ने उन्हें इतनी कठोर सज़ा नहीं दी। तवासिन—(कहे मंसूर मस्ताना)
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जब तक आप यहां है हमारे हिस्से बन जाएं। हिस्सा लें, हमारे साथ एक हो जाएं। नाचे गायें। हमारे पास आपको देने के लिए और कुछ भी नहीं है।'Ó- 
( इपिक्युरस अपने कम्यून को गार्डन कहता था। वे लोग वृक्षों के नीचे, सितारों तले रहते थे। एक बार राजा इपिक्?युरस को देखने आया क्?योंकि उसने सुना था कि कैसे ये लोग बहुत ही आनंदित रहते है। वह जानना चाहता था, उसको जिज्ञासा थी कि ये लोग इतने प्रसन्?न क्?यों है : क्?या कारण हो सकता है—क्?योंकि उनके पास कुछ भी नहीं है। वह परेशान था, क्?योंकि वे सचमुच प्रसन्?न थे, वे नाच और गा रहे थे।राजा ने कहा, 'Óइपिक्?युरस, मैं आप और आपके लोगों के साथ बहुत खुश हूं। क्?या आप मुझसे उपहार लेंगे?ÓÓइपिक्?युरस ने राजा से कहा, 'Óयदि आप वापस आते है, आप कुछ मक्?खन ला सकते है। क्?योंकि कई सालों से मेरे लोगों ने मक्?खन नहीं देखा है। वे ब्रेड बिना मक्?खन के खाते है। और एक बात और : यदि आप फिर आते है तो कृपया बाहरी व्?यक्?ति की तरह खड़े न रहे। जब तक आप यहां है हमारे हिस्?से बन जाएं। हिस्?सा लें, हमारे साथ एक हो जाएं। नाचे गायें। हमारे पास आपको देने के लिए और कुछ भी नहीं है।'ओशो खलील जिब्रान की बुक  गार्डन ऑफ द प्राफेट के संबंध में चर्चा के दौरान... )
ये सूत्र सदगुरू से सीधे उतरे है जैसे गंगोत्री से गंगा उतरी हो।
( मेबिल कॉलिन्स को प्रसाद रूप में हुए ये वचन समझने के लिए यह पृष्ठ भूमि उपयोगी होगी। थियोसाफी के सदस्यों का मार्ग दर्शन तिब्बत के कुछ अशरीरी सद्गुरु ने किया था। जिनमें 'Óके0 एच0ÓÓ सबसे अधिक चर्चित थे। थियोसाफी की कई किताबें के0 एच0 ने लिखवाई है। कृष्ण मूर्ति भी उन्हीं से जुड़े हुए थे।  चूंकि ये किताबें सीधे गुरु से प्रगट हुई है, शिष्यों के लिए उनकी साधना के दौरान जो भी आवश्यक सूचनाएं थी वे इनमें दी गई है। मेबिल कॉलिन्स की यह किताब (लाइट ऑन पॉथ) वाकई में पथ का प्रदीप है। किताब की शैली सूत्र मय है। इसके दो भाग है और हर भाग में 21 सूत्र है। ये सूत्र सदगुरू से सीधे उतरे है जैसे गंगोत्री से गंगा उतरी हो। इन सूत्रों में जो भी अंश है उन्हें समझने के लिए मेबिल कॉलिन्स ने नोटस लिखे हे। वे नोटस स्पष्ट  रूप से उसकी बुद्धि से उपजे है और सूत्रों में छिपे हुए अर्थों को उजागर करते है। - लाइट ऑन पॉथ)
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अगर झूठ भी खूबसूरत हो तो मैं उसके सौंदर्य के लिए उसकी तारीफ करूंगा।
(फिर भी मैं इस किताब को अपनी मन पंसद किताब में शामिल करता हूं, क्?योंकि यह बड़ी खूबसूरती से लिखी गई है। मैं ऐसा आदमी हूं—कृपा करके इसे दर्ज करो—अगर झूठ भी खूबसूरत हो तो मैं उसके सौंदर्य के लिए उसकी तारीफ करूंगा। उसके झूठ के लिए नहीं, कौन फ्रिक करता है वह झूठ है या नहीं। लेकिन उसकी सुंदरता उसे पढऩे का आनंद देती है। कन्फेशन्स झूठों का श्रेष्?ठतम कृति है। लेकिन इस आदमी ने अपना काम बेहतरीन ढंग से किया है। निन्यानवे प्रतिशत सफल हुआ है। उसके बाद कइयों ने कोशिश की—टालस्टाय ने भी, लेकिन वह सफल नहीं हुआ। अगस्तीन उससे बेहतर साबित हुआ।-ओशो- दी कन्फेशन्सय ऑफ सेंट ऑगस्टीन 
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इसके आगे मैने नहीं पढ़ा, और न ही इसकी कोई जरूरत थी, क्योंकि इस वाक्य के समाप्त होते ही मेरे ह्रदय में एक सुस्पष्ट और अमिट रोशनी प्रगट हुई जिसमें मेरे पुराने संदेहों का अंधेरा छट गया। 
- (मैंने एपॉसल की किताब वहां छुपा रखी थी। जब मैं वहां से उठा था। मैंने जल्दी से वह किताब उठाई उसे खोला और जहां मेरी नजर पड़ी वहीं से पढऩा शुरू किया- न तो दंगे-फसाद में न शराब में, न तो व्यभिचार में उच्छृंखल आचरण में, न संघर्ष और ईष्र्यामें वरन अपने ध्यान को परमात्मा क्राइस्ट में केंद्रित करो। और मांस और उसकी सुख पूर्ति के लिए कुछ भी न करो। इसके आगे मैने नहीं पढ़ा, और न ही इसकी कोई जरूरत थी, क्योंकि इस वाक्य के समाप्त होते ही मेरे ह्रदय में एक सुस्पष्ट और अमिट रोशनी प्रगट हुई जिसमें मेरे पुराने संदेहों का अंधेरा छट गया। फिर किताब को बंद करके उस पर एक उँगली रखकर मैंने शांत मुद्रा से अलिपियस को वह सब बताया जो घटा था। और उसने मुझे वह सब कहा जो उसके भीतर तरंगायित हुआ था। और जिसके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था। फिर उसने मुझे वह अंश दिखाने के लिए कहा जो मैंने पढ़ा था। वह उससे आगे की पंक्ति पढऩे लगा: और अब उसे अपने साथ ले चलो जिसका विश्वास कमजोर है।'Ó और यह संदेश उसने अपने आप पर लागू किय—और वैसा मुझे कहा भी। इस आदेश से उसे बहुत बल मिला और बिना किसी झंझट या विलंब से वह मेरे साथ हो लिया। हालांकि मेरे साथ उसके मतभेद थे लेकिन शुभ उद्देश्य और निश्चय के तले वे सब विलीन हो गए। -दी कन्फेशन्सय ऑफ सेंट ऑगस्टीन-)
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मनुष्य देह में चेतना को पूर्ण विकसित होने के लिए सात तलों से गुजरना पड़ता है। वे तल है; पत्थर से खनिज, खनिज से वनस्पति, वनस्पति से कीटक, कीटक से मछली, मछली से पक्षी, पक्षी से पशु, पशु से मनुष्य।
( तीसरे परिच्छेद में बाबा कहते है कि मनुष्य देह में चेतना को पूर्ण विकसित होने के लिए सात तलों से गुजरना पड़ता है। वे तल है; पत्थर से खनिज, खनिज से वनस्पति, वनस्पति से कीटक, कीटक से मछली, मछली से पक्षी, पक्षी से पशु, पशु से मनुष्य। चेतना जब स्थूल तल पर जीने से ऊब जाती है तब उच्च तलों पर उठने की चेष्टा करती है। यही उसकी आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ है।  चेतना जब ऊध्र्व गति करती है तो वह भी सात तलों से गुजरती है। ये सात तल स्थूल से सूक्ष्म की और बढ़ते चले जाते है। लेकिन चेतना जो कि सातवें तल पर याने कि उसके मूल रूप में अपरिसीम है, उसे विकसित होने के लिए मनुष्य की देह ही धरनी होती है। मनुष्य देह में मन और बुद्धि की संभावना है, इसलिए बुद्धत्व भी वहीं संभव है। मेहर बाबा, गॉड स्पीक्स)
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मरने से पूर्व हर सूफी मुर्शिद अपने मुरीदों( शिष्यों) से माफी मांगता है।
(5 फरवरी, 1927 को मुर्शिद इनायत खान शरीर छोड़ दिये। उससे पहले वे हिंदुस्तान लौट आये थे। शरीर छोडऩे से पहले उन्?होंने अजमेर जाकर ख्?वाजा मोइनुद्दीन चिश्?ती के दरगाह पर हाजिऱी लगाई जो तेरहवी शताब्?दी में सूफीवाद को हिंदुस्?तान लाये थे। वे मुरशिदों के मुर्शिद कहलाते थे। उन्?होंने इनायत खान के मुर्शिद ख्?वाजा अबू हाशिम मदानी को आदेश दिया था कि वे इनायत खान को सूफी संदेश लेकर पश्?चिम भेजे। मरने से पूर्व हर सूफी मुर्शिद अपने मुरीदों( शिष्?यों) से माफी मांगता है। जाने अनजाने किसी को दिल दु:खाया हो तो वे माफ कर दें। इनायत खान ने भी वह रिवाज निभाया। पूरी पृथ्?वी पर फैले हुए शिष्?यों के लिए इनायत खान का अंतिम संदेश यह था:
तुम्?हारे मस्?तिष्?क की भूमि में मैंने अपने विचारों के बीज बोये है
मेरा प्यार तुम्हारे दिलों को भेद चुका है
मेरे लफ्ज तुम्?हारी जबान पर है
मेरी रोशनी तुम्?हारी रूह को रोशन कर गई है
मेरा काम मैंने तुम्?हारे हाथों में सौंपा है।)
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बोलने-चालने के शिष्टाचार का आडंबर करने वाले पश्चिम के मनुष्य को उन्होंने असली शिष्ट आचरण सिखाया।
(पूर्णतया भौतिकवादी, वैज्ञानिक बुद्धि के पाश्चात्य मनुष्य को पूरब की प्रज्ञा से अवगत कराने का कठिन काम हजऱत इनायत खान ने अपने जीवन के अंत तक—1927 तक किया। उनके रोम-रोम में बसा हुआ संगीत स्त्री-पुरूषों से संबंधित होने में बहुत मदद गार साबित हुआ। उनके लिए हर व्?यक्?ति एक सुर था। और हर समाज इन सुरों को स्वर मेल, एक सिंफनी। वे बड़ी संवेदनशीलता के साथ व्?यक्?तियों से संबंध बनाते थे। सूफी जिसे 'Óमुरव्?वतÓÓ कहते है, 'Óउस गुण का प्रयोग वे अपने शिष्?यों को सिखाते। बोलने-चालने के शिष्?टाचार का आडंबर करने वाले पश्?चिम के मनुष्?य को उन्?होंने असली शिष्?ट–आचरण सिखाया। वे कहते, आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई, इसे यंत्रवत कहने से कहीं अच्?छा होगा यदि आप उस व्?यक्?ति की पसंदगी-नापसंदगी का सम्?मान करें। उसे सिगरेट पसंद नहीं है तो उसके सामने न पिये। उसे जो व्?यक्?ति प्रिय है उसकी बुराई न करें। उसकी पसंद का संगीत बजाये। शिष्?टाचार संवेदनशील आचरण में है, न कि चिकने-चुपड़े शब्?दों में।) 'Óदि सूफी मैसेज ऑफ हजऱत इनायत खानÓ
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यह बात तर्क हीन नहीं है। तर्कातीत भला हो।
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बुद्ध ने जब यह कहा कि मैं भी सफल, तू भी सफल; तू भी खुश हो, हम भी खुश है। शैतान की बात में कुछ किसी तरह का व्यवधान बुद्ध को पैदा न हुआ। तो शैतान पूछने लगा,यह कैसे? या तो मैं सफल, या तूम जीते। मन ऐसा तो कभी मानता ही नहीं कि हम दोनों जीत जाएं। लेकिन कुछ ऐसी घड़ियाँ है जब दोनों जीत जाते है। समझ हो ता हार होती ही नहीं। हार में भी हार नहीं होती। इसी समझ का सूत्र है इस कथा में।
बुद्ध ने कहा नहीं यह बात तर्क हीन नहीं है। तर्कातीत भला हो। मगर तर्क स्‍पष्‍ट है—तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्‍ट करने मे, भ्रमित करने में। वही तेरा काम है। तेरी सफलता पूरी रही। तू खुश हो, तू जा नाच, गा, आनंद कर। तू सफल हुआ। लोगों ने तेरी मान ली। और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। अपमान भारी था। द्वार-द्वार भीख मांगने गया और दो दाने भिक्षा पात्र में न पड़े। (ओशो एस धम्‍मो सनंतनो प्रवचन—69 )
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बुलाकी राम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी बहा ले गया। आँख से जैसे एक पर्दा उठ गया। ओशो—(झरत दसहुं दिस मोती, प्रवचन-01) 
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06 May 2012

कृपा का कारोबार, आस्था के सौदागर

मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग का कथन है- मनुष्य मूलत: तार्किक प्राणी है, वह पहले संदेह करता है और उसके बाद विश्वास करता है, यानी श्रद्धा बाद में आती है। पर शायद हिंदुस्तानी मन इस नियम के अपवाद कहे जा सकते हैं, धर्म-आस्था के मामले मे। ताजातरीन उदाहरण एक कथित 'संत पुरुषÓ का है, जिन पर इन्कम टैक्स चोरी करने का आरोप लगा और उनके चाहने वालों में अप्रत्याशित कमी आ गई । एक रिपोर्ट के अनुसार, पहले उनके खाते में रोजाना 4 से साढ़े चार हजार लोग औसतन एक करोड़ रुपए जमा कराते थे, लेकिन आरोप के बाद केवल 18 सौ लोगों ने ही दान दिया। खाते में जमा होने वाली राशि घटकर 34 लाख हो गई। यानी श्रद्धा पर संदेह भारी पड़ा।
हिंदुस्तान को कभी साधुओं और सपेरों का देश अकारण ही नहीं कहा जाता था। सचमुच यहां संत-महात्माओं पर लोगों की श्रद्धा आसानी से उतरती है और
इसीलिए यहां बाबागिरी का व्यवसाय भी जमकर चलता है। अनेक तथाकथित संत आस्था का बिजनेस करते हैं।  टीवी चैनलों से लेकर गली-मोहल्ले में इसी श्रद्धा का दोहन होता है।
दरअसल, इस भाग्यवादी देश में अधिकतर लोगों को धार्मिक बैसाखी की जरूरत पड़ती है। अपनी समस्याओं, परेशानियों का सीधा सामना करने, उसका हल ढूंढऩे की बजाय, उन्हें बाहरी आश्वासन-सांत्वना की तलाश होती है। इसीलिए वे कृपा, आशीर्वाद के पीछे भागते हैं। और इस पलायनवादी सोच के चलते ही इन आस्था के सौदागरों का कारोबार चलता है। उन्हें भक्तों की कमी भी नहीं रहती।
मजे की बात यह है कि अपनी समस्याओं से तंगदिल लोग यह तक नहीं ध्यान दे पाते कि उनका गुरु कितना परिष्कृत है? रोशनी बेचने वाले ये साहूकार कहीं अंधेरे की फसल तो नहीं काट रहे? दार्शनिक सुकरात का कहना है कि कोई व्यक्ति किसी मामले में सहायता करने की स्थिति में तभी आता है, जब वह उसके बारे में समग्रता से जानता हो। उसके सभी पहलुओं को, सभी स्तरों, सभी तलों की उसे जानकारी हो। मानसरोवर की यात्रा पूरी करने वाला ही बता सकता है कि यह यात्रा कठिन है, या आसान, सुखद है या तकलीफदेह। धारचूला,  तकलाकोट या दारचेन तक पहुंचे व्यक्ति का अनुभव-ज्ञान तो अधूरा होगा, लिहाजा उसका व्यक्तव्य प्रामाणिक नहीं हो पाएगा।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पांच लाख बाबा हैं। और इनमें से ज्यादातर को देखकर-सुनकर, 'गेरुएÓ वस्त्रों में लिपटी इनकी नाम, पद, पैसे, प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षाओं को महसूस कर तो यही लगता है कि ये भी आम लोगों की तरह अपने-अपने 'मानसरोवरÓ की यात्रा (आत्मविकास) के बीच में ही अटके हैं।
बेशक इनमें से कई हमसे आगे हो सकते हैं। हमारी छलांग चार फीट है, तो ये भले छह फीट कूद रहे हों, लेकिन  12 फीट ऊंचे 'बोधिवृक्षÓ के फल से वे भी आम लोगों तरह ही महरूम हंै।
यह स्थापित तथ्य है कि रुपांतरण एक अवस्था से गुजरने के बाद ही आता है। पानी 100 डिग्री के बाद ही भाप बनता है। हो सकता है इनके भीतर का पानी हमसे ज्यादा खौला हो, लेकिन वह भाप नहीं बना है। इनकी हरकतें बताती हैं कि वे आम लोगों के तल पर ही हैं।  उन्हीं क्षुद्र इच्छाओं के दलदल में फंसे हुए। गुणात्मक रूप से उनमें और आम लोगों में फर्क नहीं है। अंतर है तो मात्रा का, गहराई का... हम ज्यादा ज्यादा फंसे हैं, वे कम। लेकिन फंसे तो वे भी हैं ही ना।
तो इस तरह के- यात्रा पूरी न करने वाले, रास्ते की मुश्किलों-चुनौतियों के बारे में पूरी मालूमात न रखने वालों, रास्ते में ही अटके मुसाफिरों से समाधान की अपेक्षा कितनी व्यवहारसंगत है। निश्चित है उनका समाधान भी, उतना ही अधूरा, अधपका, उथला होगा।
जहां तक आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता का सवाल, रहस्यदर्शी जे कृष्णमूर्ति 'प्रथम और अंतिम मुक्तिÓ में कहते हैं- स्वबोध का जरा-सा भी अंश मिलने के बाद गुरु की आवश्यकता खत्म हो जाती है। मानवता के महानतम शिक्षकों में से एक महात्मा बुद्ध ने भी अपने शिष्य से इसी तरह का कुछ कहा था- 'अप्प दीपो भव:Óअप्पो दीप भव:-
यह आर्टिकल दैनिक भास्कर में पिछले दिनों आंशिक फेरबदल के साथ प्रकाशित हुआ था। उसे यहां  http://www.bhaskar.com/ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है।