अनलहक़ÓÓ का निडर ऐलान करने वाले कई औलिया होंगे लेकिन इस कुफ्र के लिए अपने जिस्म की बोटी-बोट कटवाने वाला एक ही था: 'ÓमंसूरÓÓ
(कभी-कभी इंसान की मौत इतनी जिंदा हो जाती है कि उसकी जिंदगी को भी अपनी रोशनी से पुनरुज्जीवित कर देती है। पर्शियन सूफी औलिया अल-हृल्लास मंसूर का नाम दो चीजों के लिए इन्सानियत के ज़ेहन में खुद गया है : एक उसकी रूबाइयात और दूसरा उसकी मौत। 'Óअनलहक़ÓÓ का निडर ऐलान करने वाले कई औलिया होंगे लेकिन इस कुफ्र के लिए अपने जिस्म की बोटी-बोट कटवाने वाला एक ही था: 'ÓमंसूरÓÓ इस खौफनाक, अमानुष मौत की वजह से उसका प्यारा वचन 'Óअनलहक़ÓÓ भी दसों दिशाओं में अब तक गूंज रहा है। आदि शंकराचार्य ने भी 'Óअहं ब्रह्मास्मिÓÓ के महावाक्य का उद्घोष किया था लेकिन सहनशील, उदारमना हिंदू धर्म ने उन्हें इतनी कठोर सज़ा नहीं दी। तवासिन—(कहे मंसूर मस्ताना)
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जब तक आप यहां है हमारे हिस्से बन जाएं। हिस्सा लें, हमारे साथ एक हो जाएं। नाचे गायें। हमारे पास आपको देने के लिए और कुछ भी नहीं है।'Ó-
( इपिक्युरस अपने कम्यून को गार्डन कहता था। वे लोग वृक्षों के नीचे, सितारों तले रहते थे। एक बार राजा इपिक्?युरस को देखने आया क्?योंकि उसने सुना था कि कैसे ये लोग बहुत ही आनंदित रहते है। वह जानना चाहता था, उसको जिज्ञासा थी कि ये लोग इतने प्रसन्?न क्?यों है : क्?या कारण हो सकता है—क्?योंकि उनके पास कुछ भी नहीं है। वह परेशान था, क्?योंकि वे सचमुच प्रसन्?न थे, वे नाच और गा रहे थे।राजा ने कहा, 'Óइपिक्?युरस, मैं आप और आपके लोगों के साथ बहुत खुश हूं। क्?या आप मुझसे उपहार लेंगे?ÓÓइपिक्?युरस ने राजा से कहा, 'Óयदि आप वापस आते है, आप कुछ मक्?खन ला सकते है। क्?योंकि कई सालों से मेरे लोगों ने मक्?खन नहीं देखा है। वे ब्रेड बिना मक्?खन के खाते है। और एक बात और : यदि आप फिर आते है तो कृपया बाहरी व्?यक्?ति की तरह खड़े न रहे। जब तक आप यहां है हमारे हिस्?से बन जाएं। हिस्?सा लें, हमारे साथ एक हो जाएं। नाचे गायें। हमारे पास आपको देने के लिए और कुछ भी नहीं है।'ओशो खलील जिब्रान की बुक गार्डन ऑफ द प्राफेट के संबंध में चर्चा के दौरान... )
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ये सूत्र सदगुरू से सीधे उतरे है जैसे गंगोत्री से गंगा उतरी हो।
( मेबिल कॉलिन्स को प्रसाद रूप में हुए ये वचन समझने के लिए यह पृष्ठ भूमि उपयोगी होगी। थियोसाफी के सदस्यों का मार्ग दर्शन तिब्बत के कुछ अशरीरी सद्गुरु ने किया था। जिनमें 'Óके0 एच0ÓÓ सबसे अधिक चर्चित थे। थियोसाफी की कई किताबें के0 एच0 ने लिखवाई है। कृष्ण मूर्ति भी उन्हीं से जुड़े हुए थे। चूंकि ये किताबें सीधे गुरु से प्रगट हुई है, शिष्यों के लिए उनकी साधना के दौरान जो भी आवश्यक सूचनाएं थी वे इनमें दी गई है। मेबिल कॉलिन्स की यह किताब (लाइट ऑन पॉथ) वाकई में पथ का प्रदीप है। किताब की शैली सूत्र मय है। इसके दो भाग है और हर भाग में 21 सूत्र है। ये सूत्र सदगुरू से सीधे उतरे है जैसे गंगोत्री से गंगा उतरी हो। इन सूत्रों में जो भी अंश है उन्हें समझने के लिए मेबिल कॉलिन्स ने नोटस लिखे हे। वे नोटस स्पष्ट रूप से उसकी बुद्धि से उपजे है और सूत्रों में छिपे हुए अर्थों को उजागर करते है। - लाइट ऑन पॉथ)
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अगर झूठ भी खूबसूरत हो तो मैं उसके सौंदर्य के लिए उसकी तारीफ करूंगा।
(फिर भी मैं इस किताब को अपनी मन पंसद किताब में शामिल करता हूं, क्?योंकि यह बड़ी खूबसूरती से लिखी गई है। मैं ऐसा आदमी हूं—कृपा करके इसे दर्ज करो—अगर झूठ भी खूबसूरत हो तो मैं उसके सौंदर्य के लिए उसकी तारीफ करूंगा। उसके झूठ के लिए नहीं, कौन फ्रिक करता है वह झूठ है या नहीं। लेकिन उसकी सुंदरता उसे पढऩे का आनंद देती है। कन्फेशन्स झूठों का श्रेष्?ठतम कृति है। लेकिन इस आदमी ने अपना काम बेहतरीन ढंग से किया है। निन्यानवे प्रतिशत सफल हुआ है। उसके बाद कइयों ने कोशिश की—टालस्टाय ने भी, लेकिन वह सफल नहीं हुआ। अगस्तीन उससे बेहतर साबित हुआ।-ओशो-
दी कन्फेशन्सय ऑफ सेंट ऑगस्टीन -
इसके आगे मैने नहीं पढ़ा, और न ही इसकी कोई जरूरत थी, क्योंकि इस वाक्य के समाप्त होते ही मेरे ह्रदय में एक सुस्पष्ट और अमिट रोशनी प्रगट हुई जिसमें मेरे पुराने संदेहों का अंधेरा छट गया।
- (मैंने एपॉसल की किताब वहां छुपा रखी थी। जब मैं वहां से उठा था। मैंने जल्दी से वह किताब उठाई उसे खोला और जहां मेरी नजर पड़ी वहीं से पढऩा शुरू किया- न तो दंगे-फसाद में न शराब में, न तो व्यभिचार में उच्छृंखल आचरण में, न संघर्ष और ईष्र्यामें वरन अपने ध्यान को परमात्मा क्राइस्ट में केंद्रित करो। और मांस और उसकी सुख पूर्ति के लिए कुछ भी न करो। इसके आगे मैने नहीं पढ़ा, और न ही इसकी कोई जरूरत थी, क्योंकि इस वाक्य के समाप्त होते ही मेरे ह्रदय में एक सुस्पष्ट और अमिट रोशनी प्रगट हुई जिसमें मेरे पुराने संदेहों का अंधेरा छट गया। फिर किताब को बंद करके उस पर एक उँगली रखकर मैंने शांत मुद्रा से अलिपियस को वह सब बताया जो घटा था। और उसने मुझे वह सब कहा जो उसके भीतर तरंगायित हुआ था। और जिसके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था। फिर उसने मुझे वह अंश दिखाने के लिए कहा जो मैंने पढ़ा था। वह उससे आगे की पंक्ति पढऩे लगा: और अब उसे अपने साथ ले चलो जिसका विश्वास कमजोर है।'Ó और यह संदेश उसने अपने आप पर लागू किय—और वैसा मुझे कहा भी। इस आदेश से उसे बहुत बल मिला और बिना किसी झंझट या विलंब से वह मेरे साथ हो लिया। हालांकि मेरे साथ उसके मतभेद थे लेकिन शुभ उद्देश्य और निश्चय के तले वे सब विलीन हो गए। -दी कन्फेशन्सय ऑफ सेंट ऑगस्टीन-)
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मनुष्य देह में चेतना को पूर्ण विकसित होने के लिए सात तलों से गुजरना पड़ता है। वे तल है; पत्थर से खनिज, खनिज से वनस्पति, वनस्पति से कीटक, कीटक से मछली, मछली से पक्षी, पक्षी से पशु, पशु से मनुष्य।
( तीसरे परिच्छेद में बाबा कहते है कि मनुष्य देह में चेतना को पूर्ण विकसित होने के लिए सात तलों से गुजरना पड़ता है। वे तल है; पत्थर से खनिज, खनिज से वनस्पति, वनस्पति से कीटक, कीटक से मछली, मछली से पक्षी, पक्षी से पशु, पशु से मनुष्य। चेतना जब स्थूल तल पर जीने से ऊब जाती है तब उच्च तलों पर उठने की चेष्टा करती है। यही उसकी आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ है। चेतना जब ऊध्र्व गति करती है तो वह भी सात तलों से गुजरती है। ये सात तल स्थूल से सूक्ष्म की और बढ़ते चले जाते है। लेकिन चेतना जो कि सातवें तल पर याने कि उसके मूल रूप में अपरिसीम है, उसे विकसित होने के लिए मनुष्य की देह ही धरनी होती है। मनुष्य देह में मन और बुद्धि की संभावना है, इसलिए बुद्धत्व भी वहीं संभव है।
मेहर बाबा, गॉड स्पीक्स)-
मरने से पूर्व हर सूफी मुर्शिद अपने मुरीदों( शिष्यों) से माफी मांगता है।
(5 फरवरी, 1927 को मुर्शिद इनायत खान शरीर छोड़ दिये। उससे पहले वे हिंदुस्तान लौट आये थे। शरीर छोडऩे से पहले उन्?होंने अजमेर जाकर ख्?वाजा मोइनुद्दीन चिश्?ती के दरगाह पर हाजिऱी लगाई जो तेरहवी शताब्?दी में सूफीवाद को हिंदुस्?तान लाये थे। वे मुरशिदों के मुर्शिद कहलाते थे। उन्?होंने इनायत खान के मुर्शिद ख्?वाजा अबू हाशिम मदानी को आदेश दिया था कि वे इनायत खान को सूफी संदेश लेकर पश्?चिम भेजे। मरने से पूर्व हर सूफी मुर्शिद अपने मुरीदों( शिष्?यों) से माफी मांगता है। जाने अनजाने किसी को दिल दु:खाया हो तो वे माफ कर दें। इनायत खान ने भी वह रिवाज निभाया। पूरी पृथ्?वी पर फैले हुए शिष्?यों के लिए इनायत खान का अंतिम संदेश यह था:
तुम्?हारे मस्?तिष्?क की भूमि में मैंने अपने विचारों के बीज बोये है
मेरा प्यार तुम्हारे दिलों को भेद चुका है
मेरे लफ्ज तुम्?हारी जबान पर है
मेरी रोशनी तुम्?हारी रूह को रोशन कर गई है
मेरा काम मैंने तुम्?हारे हाथों में सौंपा है।)
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बोलने-चालने के शिष्टाचार का आडंबर करने वाले पश्चिम के मनुष्य को उन्होंने असली शिष्ट आचरण सिखाया।
(पूर्णतया भौतिकवादी, वैज्ञानिक बुद्धि के पाश्चात्य मनुष्य को पूरब की प्रज्ञा से अवगत कराने का कठिन काम हजऱत इनायत खान ने अपने जीवन के अंत तक—1927 तक किया। उनके रोम-रोम में बसा हुआ संगीत स्त्री-पुरूषों से संबंधित होने में बहुत मदद गार साबित हुआ। उनके लिए हर व्?यक्?ति एक सुर था। और हर समाज इन सुरों को स्वर मेल, एक सिंफनी। वे बड़ी संवेदनशीलता के साथ व्?यक्?तियों से संबंध बनाते थे। सूफी जिसे 'Óमुरव्?वतÓÓ कहते है, 'Óउस गुण का प्रयोग वे अपने शिष्?यों को सिखाते। बोलने-चालने के शिष्?टाचार का आडंबर करने वाले पश्?चिम के मनुष्?य को उन्?होंने असली शिष्?ट–आचरण सिखाया। वे कहते, आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई, इसे यंत्रवत कहने से कहीं अच्?छा होगा यदि आप उस व्?यक्?ति की पसंदगी-नापसंदगी का सम्?मान करें। उसे सिगरेट पसंद नहीं है तो उसके सामने न पिये। उसे जो व्?यक्?ति प्रिय है उसकी बुराई न करें। उसकी पसंद का संगीत बजाये। शिष्?टाचार संवेदनशील आचरण में है, न कि चिकने-चुपड़े शब्?दों में।) '
Óदि सूफी मैसेज ऑफ हजऱत इनायत खानÓ-
यह बात तर्क हीन नहीं है। तर्कातीत भला हो।
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बुद्ध ने जब यह कहा कि मैं भी सफल, तू भी सफल; तू भी खुश हो, हम भी खुश है। शैतान की बात में कुछ किसी तरह का व्यवधान बुद्ध को पैदा न हुआ। तो शैतान पूछने लगा,यह कैसे? या तो मैं सफल, या तूम जीते। मन ऐसा तो कभी मानता ही नहीं कि हम दोनों जीत जाएं। लेकिन कुछ ऐसी घड़ियाँ है जब दोनों जीत जाते है। समझ हो ता हार होती ही नहीं। हार में भी हार नहीं होती। इसी समझ का सूत्र है इस कथा में।
बुद्ध ने कहा नहीं यह बात तर्क हीन नहीं है। तर्कातीत भला हो। मगर तर्क स्पष्ट है—तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने मे, भ्रमित करने में। वही तेरा काम है। तेरी सफलता पूरी रही। तू खुश हो, तू जा नाच, गा, आनंद कर। तू सफल हुआ। लोगों ने तेरी मान ली। और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। अपमान भारी था। द्वार-द्वार भीख मांगने गया और दो दाने भिक्षा पात्र में न पड़े। (
ओशो एस धम्मो सनंतनो प्रवचन—69 )
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बुलाकी राम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी बहा ले गया। आँख से जैसे एक पर्दा उठ गया। ओशो—(झरत दसहुं दिस मोती, प्रवचन-01)
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