06 May 2012

कृपा का कारोबार, आस्था के सौदागर

मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग का कथन है- मनुष्य मूलत: तार्किक प्राणी है, वह पहले संदेह करता है और उसके बाद विश्वास करता है, यानी श्रद्धा बाद में आती है। पर शायद हिंदुस्तानी मन इस नियम के अपवाद कहे जा सकते हैं, धर्म-आस्था के मामले मे। ताजातरीन उदाहरण एक कथित 'संत पुरुषÓ का है, जिन पर इन्कम टैक्स चोरी करने का आरोप लगा और उनके चाहने वालों में अप्रत्याशित कमी आ गई । एक रिपोर्ट के अनुसार, पहले उनके खाते में रोजाना 4 से साढ़े चार हजार लोग औसतन एक करोड़ रुपए जमा कराते थे, लेकिन आरोप के बाद केवल 18 सौ लोगों ने ही दान दिया। खाते में जमा होने वाली राशि घटकर 34 लाख हो गई। यानी श्रद्धा पर संदेह भारी पड़ा।
हिंदुस्तान को कभी साधुओं और सपेरों का देश अकारण ही नहीं कहा जाता था। सचमुच यहां संत-महात्माओं पर लोगों की श्रद्धा आसानी से उतरती है और
इसीलिए यहां बाबागिरी का व्यवसाय भी जमकर चलता है। अनेक तथाकथित संत आस्था का बिजनेस करते हैं।  टीवी चैनलों से लेकर गली-मोहल्ले में इसी श्रद्धा का दोहन होता है।
दरअसल, इस भाग्यवादी देश में अधिकतर लोगों को धार्मिक बैसाखी की जरूरत पड़ती है। अपनी समस्याओं, परेशानियों का सीधा सामना करने, उसका हल ढूंढऩे की बजाय, उन्हें बाहरी आश्वासन-सांत्वना की तलाश होती है। इसीलिए वे कृपा, आशीर्वाद के पीछे भागते हैं। और इस पलायनवादी सोच के चलते ही इन आस्था के सौदागरों का कारोबार चलता है। उन्हें भक्तों की कमी भी नहीं रहती।
मजे की बात यह है कि अपनी समस्याओं से तंगदिल लोग यह तक नहीं ध्यान दे पाते कि उनका गुरु कितना परिष्कृत है? रोशनी बेचने वाले ये साहूकार कहीं अंधेरे की फसल तो नहीं काट रहे? दार्शनिक सुकरात का कहना है कि कोई व्यक्ति किसी मामले में सहायता करने की स्थिति में तभी आता है, जब वह उसके बारे में समग्रता से जानता हो। उसके सभी पहलुओं को, सभी स्तरों, सभी तलों की उसे जानकारी हो। मानसरोवर की यात्रा पूरी करने वाला ही बता सकता है कि यह यात्रा कठिन है, या आसान, सुखद है या तकलीफदेह। धारचूला,  तकलाकोट या दारचेन तक पहुंचे व्यक्ति का अनुभव-ज्ञान तो अधूरा होगा, लिहाजा उसका व्यक्तव्य प्रामाणिक नहीं हो पाएगा।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पांच लाख बाबा हैं। और इनमें से ज्यादातर को देखकर-सुनकर, 'गेरुएÓ वस्त्रों में लिपटी इनकी नाम, पद, पैसे, प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षाओं को महसूस कर तो यही लगता है कि ये भी आम लोगों की तरह अपने-अपने 'मानसरोवरÓ की यात्रा (आत्मविकास) के बीच में ही अटके हैं।
बेशक इनमें से कई हमसे आगे हो सकते हैं। हमारी छलांग चार फीट है, तो ये भले छह फीट कूद रहे हों, लेकिन  12 फीट ऊंचे 'बोधिवृक्षÓ के फल से वे भी आम लोगों तरह ही महरूम हंै।
यह स्थापित तथ्य है कि रुपांतरण एक अवस्था से गुजरने के बाद ही आता है। पानी 100 डिग्री के बाद ही भाप बनता है। हो सकता है इनके भीतर का पानी हमसे ज्यादा खौला हो, लेकिन वह भाप नहीं बना है। इनकी हरकतें बताती हैं कि वे आम लोगों के तल पर ही हैं।  उन्हीं क्षुद्र इच्छाओं के दलदल में फंसे हुए। गुणात्मक रूप से उनमें और आम लोगों में फर्क नहीं है। अंतर है तो मात्रा का, गहराई का... हम ज्यादा ज्यादा फंसे हैं, वे कम। लेकिन फंसे तो वे भी हैं ही ना।
तो इस तरह के- यात्रा पूरी न करने वाले, रास्ते की मुश्किलों-चुनौतियों के बारे में पूरी मालूमात न रखने वालों, रास्ते में ही अटके मुसाफिरों से समाधान की अपेक्षा कितनी व्यवहारसंगत है। निश्चित है उनका समाधान भी, उतना ही अधूरा, अधपका, उथला होगा।
जहां तक आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता का सवाल, रहस्यदर्शी जे कृष्णमूर्ति 'प्रथम और अंतिम मुक्तिÓ में कहते हैं- स्वबोध का जरा-सा भी अंश मिलने के बाद गुरु की आवश्यकता खत्म हो जाती है। मानवता के महानतम शिक्षकों में से एक महात्मा बुद्ध ने भी अपने शिष्य से इसी तरह का कुछ कहा था- 'अप्प दीपो भव:Óअप्पो दीप भव:-
यह आर्टिकल दैनिक भास्कर में पिछले दिनों आंशिक फेरबदल के साथ प्रकाशित हुआ था। उसे यहां  http://www.bhaskar.com/ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है। 


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