30 March 2017

क्या शराबबंदी होगा रमन सरकार का मास्टरस्ट्रोक?

  छत्तीसगढ़ सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर विपक्ष को ऐसा हथियार दे दिया है, जिसकी गूंज अगले साल यहां होने वाले विधानसभा चुनाव तक रहेगी।  इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह आगामी चुनावों में सबसे प्रमुख मुद्दा बन जाए।
मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित अजीत जोगी की जनता कांग्रेस (जे) ने इस मुद्दे को लपक लिया है और महीने भर से रमन सरकार की नाक में दम किए हुए हैं।
आए दिन शराबबंदी को लेकर धरना-प्रदर्शन, विधानसभा घेराव आदि किए जा रहे हैं। जैसे कभी नरेंद्र मोदी के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर तमाम विपक्षी पार्टियों को एक छत के नीचे लाने की कोशिश हो रही थी, वैसा ही यहां शराब के मुद्दे पर एक हवा, एक लहर बनाने के प्रयास चल रहे हैं और बहुत हद तक इसमें सफलता भी मिल चुकी है।
आमजनता खुलकर इस फैसले के विरोध में है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 416 दुकानों को हाइवे से हटाकर अन्यत्र खोलने की कोशिश कर रही सरकार को बहुत अड़चनें आ रही हैं। कहीं लोग दुकान नहीं खुलने दे रहे हंै, तो कहीं प्रस्तावित दुकानों में तोडफ़ोड़ की जा रही है। हाल में खुले में शौच से मुक्त घोषित अंबिकापुर के बतौली गांव की महिलाओं ने शराब दुकान खुलने पर फिर से खुले में शौच करने का फरमान भी सुना दिया है।
कहा जाता है, चुनाव में जब लहर का जोर रहता है, तब अन्य दूसरे मुद्दे पूरी तरह अप्रासंगिक भी हो जाते हैं। इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए चुनाव में और किसी मुद्दे की प्रासंगिकता नहीं रह गई थी। सहानुभूति लहर पर सवार होकर  राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए थे। इसी तरह का नजारा 80 के दशक में हुए चुनाव में देखने मिला था, जिसमें राम लहर के चलते दूसरे सारे मुद्दे गौण हो गए थे। हाल में हुए यूपी चुनाव में जहां मोदी लहर ने सालों से चले आ रहे सियासी समीकरणों को ध्वस्त कर मिथकों को तोड़ डाला, वहीं सब तरफ पटखनी खा रही कांग्रेस ने सत्ताविरोधी लहर में सवार होकर पंजाब फतह कर लिया।
चुनावी लहरों को ज्वालामुखी के समान माना जा सकता है, जो भीतर-ही-भीतर खौलता रहता है और समय आने पर फूट पड़ता है।  ये लहरें भी आम जनता के भीतर खौलते हुए विचारों को, उसके सामूहिक अवचेतन में घर कर गए धारणाओं को ही प्रगट करती हैं। और मौजूदा समय में शराब को लेकर छत्तीसगढ़ में जैसा माहौल गरमाया हुआ है, उससे तो यही लगता है कि यदि आज चुनाव हो जाएं तो इसके आगे सारे मुद्दे फीके पड़ जाएंगे। बाकी सारी बातों को छोड़, तमाम पार्टी इसी शराब के मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाएंगी। यह मुद्दा ही निर्णायक भूमिका अदा करेगा।
लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनाव अगले साल होने हैं। उस लिहाज से अभी काफी महीने बाकी हैं। अगर राजनीतिक लाभ के नजरिए से देखें तो अभी विपक्ष की जरूरत बहुत दूसरे तरह की होगी। उसे न केवल इस मु्ददे को चुनाव तक जिंदा रखना है, बल्कि एक खास समय तक  विराट जनआंदोलन बनने से भी रोकना है। ऐसा न होने पर, हो सकता है सरकार दबाव में आकर सचमुच शराब बंदी का ऐलान कर दे और एक बेहतरीन मुद्दा हाथ से निकल जाए। तो राजनीतिक फायदे की नीयत से विपक्ष शराब-विरोध के इस अलाव को चुनाव तक मध्यम आंच में ही सुलगाए रखना चाहेगा और ऐन चुनाव के पहले इसे विराट आंदोलन में तब्दील होते देखना चाहेगा। ऐसा होने पर ही वह इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाकर लाभ उठा सकता है।
 शराबबंदी नफा-नुकसान से परे आमजनता की सेहत से जुड़ा सीधा मसला है। भले ही कांग्रेस या जोगी कांग्रेस, राजनीतिक लाभ के इतर, सामाजिक सरोकार के चलते छत्तीसगढ़ में शराब-बिक्री का विरोध कर रहे होंगे, लेकिन उन्हें भी पता है कि आगामी चुनावों में शराबबंदी का मुद्दा केंद्रीय भूमिका निभाने वाला है और इसका उन्हें लाभ भी मिलने वाला है। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में बह रही शराबबंदी की बयार यही इशारा कर रही है कि रमन सरकार के लिए समय के साथ-साथ मुश्किलें और भी बढऩे वाली हैं।
लेकिन अहम बात तो यह है कि जिस बात को हर कोई देख पा रहा है, क्या वह छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को नजर नहीं आ  रहा है? क्या सचमुच मौजूदा सरकार शराबबंदी के मुद्दे की गंभीरता को समझ नहीं पा रही है, या उसे जानबूझकर नजरअंदाज कर रही है? या उसे अपने विकास कार्यों पर ज्यादा भरोसा है और वह उसे लेकर ही आगामी चुनाव में जनता के बीच जाना चाह रही है?  प्रदेश के मुखिया डॉ. रमन सिंह का यह तीसरा टर्म है। जनता की नब्ज पढ़कर ही उन्होंने हैट्रिक मारी है। तकरीबन 13 सालों से वे प्रदेश की बागडोर थाम रहे हैं और गांव-गरीब, से लेकर शहर-अमीर...  सबकी तासीर... सबकी अपेक्षा-आकांक्षाओं से अच्छी तरह परीचित हैं। ऐसे में यह नहीं माना जा सकता कि शराबबंदी जैसे मुद्दे के चुनावी असर से वे अनजान होंगे। मुझे तो लगता है कि वे अभी जानबूझकर विपक्ष को उछल-कूद करने दे रहे हैं। भारत के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की तरह वे भी गेम को आखिरी ओवर तक ले जाना चाह रहे हैं। आखिरी ओवर में ही छक्का मारकर वे मैच जीतना चाहते हैं। बहुत संभव है, ऐन चुनाव के पहले ही वे शराबबंदी की घोषणा करेंगे और इस मुद्दे की हवा निकाल देंगे, विपक्षियों को क्लीन बोल्ड कर देंगे। यही उनका मास्टरस्ट्रोक होगा... उनके सारे विकास कार्यों के इतर...।
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29 March 2017

छत्तीसगढ़ में शराब बिक्री : रमन सरकार का एक स्वागत योग्य फैसला


सरकार का काम होता है, जनता की सेवा करना। आम लोगों का भला हो, ऐसे कार्य करना। और रमन सरकार तो शुरू से ही छत्तीसगढ़ हितैषी रही है, छत्तीसगढिय़ा हित के लिए नए-नए एक्सपेरीमेंट करते रही है। इसी कड़ी में अब उसने एक और पुनीत कार्य हाथ में लिया है... शराब बेचने का।

जी हां, सरकार अब शराब बेचेगी। और यकीन मानिए... यह शराब बेचने का फैसला उसके सेवाभावी स्वभाव की ही नजीर है। यह सेवाभावना ही तो है, जो कोचियों द्वारा अवैध दारू बेचकर लोगों को परेशान करते सुना तो उस पर रोक लगा दी और सुराप्रेमियों को सुविधा देेने खुद ही दारू बेचने लगे। अब पीने वालों को कोई परेशानी नहीं होगी, सही माल, सही रेट में मिलेगा।

वैसे, सरकार को यह सुयोग ऐसे ही हाथ नहीं लगा है। जब से सुप्रीम कोर्ट ने हाइवे से लगी शराब दुकानों पर डंडा डाला है, तभी से कई दारू-ठेकेदारों का मूड ऑफ  हो गया है। वे मद्यपान कराने जैसे आदरणीय कार्य को लेकर इंट्रेस्टेड नहीं रहे। बस फिर क्या था, सरकार ने मौका देख चौका मार दिया। इधर, कोचियों से लोग परेशान तो थे ही थे और उधर, ठेकेदारों के पीछे हटने से सरकार को तगड़े नुकसान की चिंता भी सता रही थी। ...सो लगे हाथ उसने दोनों मामले सलटा लिए,  एक तीर से दो शिकार कर लिया।
...तो अब सरकार शराब बेचेगी... कल्पना कीजिए, कैसा भव्य माहौल होगा... कैसा सुखद नजारा रहेगा...  शराब की दुकानों में बैठे हुए रमन सरकार के नुमाइंदे। जगह-जगह टंगे सरकार के हालमार्का वाले बैनर-पोस्टर। सरकार, शराब और समाजसेवा का बखान करते कुछ स्लोगन...कैसा अद्भुत समां बंधेगा। कसम से... पूरा माहौल सरकारीमय हो जाएगा।
नो डाउट इन दुकानों में दफ्तरी बाबू जैसे कुछ लोग भी होंगे ही। ऐसे लोग... जो काम के बोझ से दबा हूं (और थोड़ा भी लोड डाला तो मर ही जाऊंगा) जैसा शो करने वाले...। ये ग्राहक को बोतल भी देंगे तो एहसान करके... मानो बहुत बिजी हों। वास्तव में ये काम कौड़ी का नहीं करेंगे, लेकिन इनके पास फुरसत मिनटों की भी नहीं रहेगी। हां भीड़ बढऩे पर ये एक्टिव मोड में जरूर आ जाएंगे... कमीशन खाने...सौ की बोतल सवा सौ में बेचने।
वैसे ग्राहकी बढऩे पर सचमुच ही यहां  शिक्षा, स्वास्थ्य, नगर निगम जैसे विभाग के सरकारी कर्मचारी नजर सकते हैं। सरकार इनका उपयोग ले सकती है। चौंकिए मत, इसमें कुछ भी ऑड नहीं है।  वास्तव में, सरकार की नजर में सरकारी कर्मचारी आलराउंडर होते हैं। वास्तव में वह इन्हें अलादीन का जिन्न समझती है। और यह मानकर चलती है कि जिस काम को वे नहीं जानते उसके बारे में भी सब जानते हैं, उस काम को भी अच्छे से कर सकते हैं।  इसीलिए सरकार इनका कहीं भी, कभी भी उपयोग लेते रहती है। जनगणना कराना हो तो ये... पोलियो पर कुछ करना हो तो ये। लोक सुराज समाधान शिविर में भी ड्यूटी इनकी ही लगेगी, चुनाव होगा तो सारे काम भी इनके ही कर कमलों से संपन्न होंगे। कहने का मतलब, मूल काम छोड़कर इन्हें सारे काम करना होता है। और छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसे अलादीन के जिन्न बहुत पसंद आते हैं, इसीलिए तो उसने पूरे 32 विभाग के 60 फीसदी कर्मचारी डेपुटेशन में दूसरे काम में लगा रक्खे हैं।
तो कभी आपको शराब दुकानों में यदि कोई सरकारी कर्मचारी दिखाई पड़ेगा, तो चौंकिएगा मत, बल्कि उसके चेहरे को देखकर अलादीन के जिन्न की कल्पना कीजिएगा।
खैर, मूल विषय पर लौटते हैं, सरकार अभी तो दारू बेच रही है, और हो सकता है, आगे रिस्पांस बढिय़ा मिलने पर (जो कि मिलना ही है) वह दारू बनाना भी शुरू कर दे। तब नेताओं-मंत्रियों को इंडीविज्वल ठेका भी मिलने लगेंगे। तब कुछ दुकानों के नाम ऐसे भी हो सकते हैं-  रमन स्कॉच सेंटर, अमर पक्की वाला... राजेश का देसी ठर्र्रा... मोहन की चिल्ड बियर। लगे हाथ पर्सनल ब्रांडिंग भी होती चली जाएगी।
शराब बिक्री का मामला रमन सरकार के लिए हर लिहाज से फायदे का सौदा है, बस एक छोटी-सी नैतिक अड़चन है। वो यह कि सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कभी दारूबंदी का जिक्र किया था। लेकिन डोंट माइंड.... घोषणा पत्र की कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? भाजपा या रमन सरकार ही नहीं... किसी भी दल, किसी भी पार्टी के घोषणापत्र को देखिए....  सब में ठन-ठन गोपाल... जनता के हाथ बाबा जी का ठुल्लू ही हाथ आता है।  वास्तव में झूठ तो राजनीति का सद्गुण है। इसके बिना तो काम ही नहीं चल सकता।
घोषणापत्र वाला मामला बहुत बड़ा इशु नहीं है। सरकार को बिना किसी गिल्टी के बिंदास  धंधा करना चाहिए। दारू बेचकर राजस्व बढ़ाने, घाटा कवर करने पर फोकस करना चाहिए। किसी की सेहत की नैतिक जिम्मेदारी उसकी थोड़े ही है... जिसको मरना है मरे... उसका लक्ष्य तो पैसे कमाना ही होना चाहिए। यदि शराब बेचकर भी राजस्व वृद्धि उसके मन मुताबिक न हो तो तंबाकू, अफीम, चरस, हेरोइन का ऑप्शन भी खुला है। उसमें भी हाथ आजमाया जा सकता है। और ये भी कम पड़े तो और दूसरे भी इसी तरह के स्वनाम धन्य धंधे हैं।
पर लगता है, शायद उन सबकी जरूरत नहीं पड़ेगी, दारू बेचने भर से बात बन जाएगी।  इतना कॉन्फिडेंस इसलिए है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में दारूखोरी का बैरोमीटर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। छत्तीसगढिय़ा लोगों का सुरा-प्रेम काबिले-रश्क है। वे खाने में कंप्रोमाइज कर सकते हैं, लेकिन पीने में बिलकुल नहीं। घर में चार दिन चूल्हा न जले, कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन दो दिन दारू न मिले,  तो वे आसमान सर पर उठा लेंगे, भूचाल ले आएंगे।  उनकी इसी लगन के चलते तो आबकारी विभाग वाले खूब चांदी काट रहे हैं। आंकड़े बताते हैं, राज्य  स्थापना के समय आबकारी से 32.16 करोड़ का राजस्व मिला था जो 16 साल में बढ़कर 3347.54 करोड़ का हो गया है।
छत्तीसगढिय़ों के इतना शराब-प्रेम की वजह जरा दार्शनिक टाइप की है। दरअसल, यहां लोग यथार्थ की समस्याओं को कल्पना के धरातल से हल करने पर यकीन करते हंै। और इस थ्योरिटकल जैसे व्यावहारिक कृत्य को करने में उन्हें दारू से बड़ी हेल्प मिलती है। और चूंकि वे ज्यादा यर्थाथवादी होते हैं, इसीलिए उन्हें समस्याएं भी ज्यादा आती हैं, इसीलिए वे सोमरस की भी ज्यादा हेल्प लेते हैं।
तो सरकार को रेवेन्यू बढ़ाने वाले नेक इरादे में निराशा हाथ लगने की संभावना नगण्य है। हां, टारगेट से थोड़ा-बहुत उन्नीस-बीस भले हो सकता है। पर उसका भी टेंशन नहीं,  जिम्मेदार शहरी मदद के लिए आगे आ जाएंगे। जो दारू नहीं पीते हैं वे भी दरूए बन जाएंगे... वे भी ज्यादा-से-ज्यादा दारू खरीदकर पीएंगे, सरकार का खजाना बढ़ाने में मदद करेंगे।
आप सोचिए तो सही, रमन सरकार ज्यादा पैसे क्यों कमाना चाह रही है? क्या उसे अपने लिए कुछ चाहिए?  बिलकुल नहीं जनाब। एक बात जान लीजिए, नेता होने का मतलब ही है, परहित अभिलाषी। ये अपने लिए कुछ नहीं करते, इनके हर कार्य में दूसरे के हित की सदइच्छा ही छुपी होती है। यदि ये घोटाला भी करते हैं तो रॉबिनहुड स्टाइल में समाज की सेवा करने... लूट, हत्या, डकैती में भी फंसते हैं, तो धर्म, न्याय जैसे उच्च आदर्शों को बनाए रखने। और कई मर्तबा जब उनके भीतर सेवा भावना प्रबल हो जाती है, बहुत जोर मारने लगती है, तो वे दवा देने के लिए पहले दर्द दे देते हैं। मदद करने के लिए पहले छीन लेते हैं। भला करने के लिए पहले बुरा कर देते हैं। संक्षेप में, उनका पूरा जीवन ही परोपकार को समर्पित रहता है और इसे पूरा करने वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।  और मुझे पूरा यकीन है, रमन सरकार भी पूरी तरह परोपकार के लिए समर्पित है और इसे पूरा करने किसी भी हद तक जा सकती है। इसीलिए पहले वह दारू बेचकर लोगों से पैसे वसूलेगी और बाद में उनके ही पैसों को उनके ही भले के लिए इस्तेमाल करेगी।
फिर दोहराता हूं, रमन सरकार को बिना किसी गिला के... बिना किसी अपराधबोध के इस परोपकारी कृत्य को करना चाहिए। कोई इस काम को अगर गंदा कहे तो उसे बिलकुल माइंड नहीं करना चाहिए। भारत जैसे आध्यात्मिक देश में न कोई काम छोटा होता है, न कोई काम गंदा होता है। यही हमारे हजारों सालों के चिंतन का निचोड़ रहा है। वैसे भी जब धंधा करने उतर आए तो क्या सही, क्या गलत, बनियागीरी में कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता।
वैसे मुझे लगता है, इस फैसले में तो रमन सरकार को हाईकमान का भी समर्थन मिल रहा होगा।  देखिए, भाजपा को तो बनियों की सरकार कहा ही जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार के यूं धंधा करने से पार्टी की पारंपरिक छवि ही मजबूत हो रही है, लिहाजा इसके लिए तो सीएम एंड कंपनी को तो जमकर शाबासी मिली होगी। हाईकमान ने ऐसी आला दर्जे की क्रिएटिविटी के लिए खूब पीठ थपथपाई होगी।
यकीनन, रमन सरकार ने शराब बेचने का फैसला लेकर बहुत ऊंचा ओहदा हासिल कर लिया है। पर जाने क्यों कुछ तथाकथित समाजसेवी और कांग्रेसी इस पुण्य कार्य का विरोध कर रहे हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि खुद सरकार के कुछ मंंत्री भी सरकार की फीलिंग्स नहीं समझ पा रहे हंै। पर आप तो जानते ही हैं, सत्य के कई पहलू होते हैं और जैसी हमारी धारणा होती है, वैसी ही चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। कहते हैं, हनुमान जी को गुस्से में होने के कारण अशोक वाटिका में लाल फूल दिखे थे, जबकि वास्तव में फूल सफेद थे। वैसा ही हाल शराब-बिक्री का विरोध करने वालों का भी है। उन्हें निगेटिव देखना है, इसीलिए निगेटिविटी दिखाई पड़ रही है। खैर, जाकी रही भावना जैसी...।
पर शुक्र है भगवान का.... सही काम की कदर होती ही है। वो कहते भी हैं ना... अच्छाई ट्रैवल करती है, उसे कोई रोक नहीं सकता। तो विरोधियों के लाख हाय-तौबा मचाने के बाद भी रमन सरकार के हालिया फैसले से इंप्रेस होने वालों की कमी नहीं है। हाल ही में छत्तीसगढ़ से प्रेरित होकर झारखंड की सरकार ने भी शराब बेचने का फैसला कर लिया है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि आगे और भी राज्य प्रेरणा लेते रहेंगे। मुझे तो यहां तक यकीन है कि शराबबंदी लागू करने वाली बिहार व गुजरात की सरकार भी आत्मग्लानि से भर उठेगी और न केवल शराबबंदी का फैसला वापस लेगी, बल्कि वह खुद भी शराब बेचने लगेगी। उनके आत्मनिरीक्षण से भी यही निष्कर्ष निकलेगा कि कहां वे महात्मा गांधी के विचारों को अपनाए हुए थे और जबरन शराब बेचने जैसा आदरणीय कार्य करने से बच रहे थे।
कोई माने या न माने, लेकिन हकीकत यही है।  दारू बेचने का रमन सरकार का फैसला बहुत क्रांतिकारी, बहुत स्वागतयोग्य है। और जैसा कि हर अच्छे फैसले के साथ होता है... उसे लागू करने में कठिनाई आती है, उसकी राह में कांटे बोए जाते हैं। लोग उसके महत्व को, उसके समाज हितैषी दूरगामी प्रभाव को देख-समझ नहीं पाते हैं। वैसा ही इस फैसले के साथ भी हो रहा है। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि रमन सरकार को हर मुश्किल का डटकर सामना करना चाहिए। सारे दबाव के बावजूद शराब बेचने के यशवर्धक कार्य से कदम वापस नहीं खींचना चाहिए।  और शराब बंदी की तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। ... इसके विपरीत उसे अपनी ग्राहकी बढ़ाने के लिए मार्केटिंग स्ट्रेटेजी पर काम करना चाहिए। जैसे उसने चावल और नमक में सब्सिडी दी है। वैसे ही उसे शराब के कुछ ब्रांड में भी छूट दे देनी चाहिए। ऑनलाइन कंपनियों की तरह ग्राहकों को लुभाने, फेस्टिवल ऑफर जैसी नई-नई स्कीम लानी चाहिए, डोर-टू-डोर कैंपेन चलाने चाहिए। इसके अलावा, सरकारी कर्मचारियों, गरीबी रेखा से नीचे वालों, आरक्षण प्राप्त जातियों व वृद्ध, नि:शक्त, निराश्रित जनों के लिए भी छूट का प्रावधान कर देना चाहिए। इससे न केवल उसकी कमाई बढ़ेगी, बल्कि लोकप्रियता में भी चार चांद लगते चले जाएंगे।
और यही तो वह चाहती भी है ... सारी कवायद भी तो इसी के लिए है ना...

15 March 2017

क्या सचमुच है देश में मोदी की सुनामी?

यूपी, उत्तराखंड में भाजपा की धमाकेदार जीत पर टीवी चैनल से लेकर प्रिंट मीडिया सबमें एक ही बात कही जा रही है… मोदी की वजह से ही शानदार जीत मिली… मोदी की सुनामी चल रही है।
मोदी निश्चित ही करिश्माई नेता हैं, उन्होंने इन चुनावों में बहुत मेहनत भी की है। लेकिन क्या महज मोदी फैक्टर ही यूपी-उत्तराखंड में भाजपा की प्रचंड जीत के पीछे है? क्या सचमुच देश में मोदी-लहर चल रही है? मोदी की नीतियों नोटबंदी आदि जैसे कृत्यों को आम जनता का समर्थन है। ये चुनाव नतीजे क्या सचमुच मोदी की नीतियों के प्रति जनादेश है?
अगर हम ठीक से देखें तो हमें मालूम पड़ेगा… शायद ऐसा नही हैं। अगर वास्तव में मोदी-लहर होती तो वह पंजाब, गोवा व मणिपुर के चुनावों में भी दिखाई पड़ती। लेकिन इनमें से किसी में करारी हार, किसी में कांटे की टक्कर, किसी में संघर्षपूर्ण जीत मिली है। इससे यही जाहिर होता है कि लोकल इशुज व अन्य दूसरे समीकरण का राज्यवार अपना असर रहा है, वही केंद्र पर रहे हैं। बेशक, मोदी फैक्टर का भी अपना रोल, अपनी भूमिका रही है, लेकिन वह सोने पर सुहागा जैसी है। जिन राज्यों में एंटी इन्कंबंसी थी, दीगर लोकल इशुज थे, भाजपा के अनुकूल चीजें थीं… वहां मोदी फैक्टर ने मिलकर करिश्माई असर दिखा दिया, लेकिन जहां भाजपा के लिए अनुकूलता न थी, वहां चमत्कार नहीं हो पाया।
कुछ ऐसा ही पिछले लोकसभा चुनावों में भी हुआ था। इसमें मिली भाजपा की प्रचंड जीत को भी मोदी का करिश्मा कहा गया था, जबकि ऐसा नहीं था। मुझे लगता है, यदि मनमोहन सरकार को लेकर जबरदस्त निगेटिव, निराशाजनक माहौल नहीं होता, सत्ता विरोधी लहर न होती… तो तथाकथित मोदी लहर नहीं चल पाती, भाजपा को वैसी धुआंधार जीत नहीं मिल पाती। उस समय भाजपा को मिली प्रचंड जीत में मनमोहन सरकार को लेकर चल रही सत्ता विरोधी लहर का भी अहम योगदान था। बेशक, यदि मोदी न होते तो वैसी करिश्माई जीत नहीं मिल पाती, लेकिन वैसी सत्ता विरोधी लहर नहीं होती, तो शायद वह तथाकथित मोदी लहर भी चल नहीं पाती। सत्ता विरोधी लहर के साथ मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने सोने पे सुहागा का काम किया था… यूपी, उत्तराखंड के हालिया विधानसभा चुनावों की तरह ही।
यह सही है कि वास्तव में जनता के मन में क्या चल रहा है… उसे कौन से इशु क्लिक करेंगे… उसे समझना कठिन होता है। यह बिलकुल अगणितीय होता है, इसके पीछे कोई तार्किक नियम काम नहीं करते। यह भी सही है कि विधानसभा चुनाव में नेशनल इशु भी अनेक मर्तबा निर्णायक रोल निभाते देखे गए हैं। लेकिन सामान्यत: यही होता है कि लोकल चुनावों में लोकल इशु ही काम करते हैं। नेशनल लेबल का जब तक कोई बहुत बड़ा मुद्दा न हो, तब तक उनका क्षेत्रीय चुनावों में असर नहीं पड़ता है।
इसीलिए इन चुनावों को मोदी की नीतियों के प्रति समर्थन या मोदी लहर के तौर पर देखना शायद ठीक न होगा। यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा पंजाब में हुए इन विधानसभा चुनावों में मोदी फैक्टर के इतर अन्य मुद्दे भी अहम रहे हैं, जिनका नतीजों में अपना अहम योगदान रहा है। राजनीतिक पंडित भले ही इन्हें नजरअंदाज करें या न देखना पसंद करें, लेकिन हकीकत यही है।

01 March 2017

"व्यंग्य : अफरीदी तुम संन्यास कैसे ले सकते हो?"

आपने सुना! च्साहिबजादाज् ने फिर संन्यास ले लिया है। नहीं पहचान रहे... अरे! अफरीदी... अपना शाहिद अफरीदी... उसकी बात कर रहा हूं... ये उसका ही ऑफिशियल नाम है। कैसा फील आ रहा है... मिजाज से मेल खाता है ना?  खैर, अपने बब्बा ने फिर बल्ला टांग दिया है। अरे! आप तो हंसने लगे... प्लीज हंसिए मत.... शुरू में मैं भी हंसा था। लेकिन जब देखा कि ब्रेकिंग न्यूज चल रही है- च्इस बार का संन्यास पूरा सच्चा वाला है... हंड्रेड परसेंट डेफिनिट...ज् तब मेरी हंसी गुम हो गई थी। मुझे यकीन नहीं हो पा रहा था,  ऐसा कैसे हो गया? ऐसा कैसे हो सकता है? हमारा च्स्वीट सिक्सटीनज्, च्डटीज़् सिक्स्टीज् कैसे बन सकता है? वह पक्का वादा कैसे कर सकता है? वह इतना बूढ़ा, यानी मैच्योर तो कभी न था... बल्कि उसके लटके-झटके, उसके कारनामों से तो यही लगता था कि उसका बचपना गया ही नहीं है... और कभी जाएगा भी नहीं। 
लेकिन जब बार-बार दोहराया जाने लगा कि च्वह मैच्योर हो गया है, मैच्योर हो गया है...ज् तो थोड़ा यकींन आने लगा। वो कहते हैं ना झूठ को बार-बार कहने से वो सच हो जाता है। तो इसलिए अब मुझे भी लग रहा है हमारा सदाबहार सिकंदर... चिरयुवा

कलंदर सचमुच बूढ़ा (मैच्योर) हो गया है। और इसके बाद मुझे अब मैच्योरिटी पर गुस्सा आ रहा है। ये भी साली बड़ी ऊटपटांग चीज है, कभी-भी किसी को आ जाती है... इसके चक्कर में ही व्यक्ति अनाप-शनाप फैसले ले लेता है। और इसका उम्र से तो कोई कनेक्शन ही नहीं होना चाहिए। अब देखिए ना... लोग-बाग यही कह रहे हैं, अपना साहिबा इसी उम्र के प्रेशर में आ गया है। वह 36 का हो गया है, इसीलिए उसने सच्चा वाला संन्यास लिया है। 
अब मेरे लिए यह दूसरा झटका है... पहला तो उसकी मैच्योरिटी और दूसरा उसकी उमर। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा है कि अपना छोटा चेतन सीधे 36 का कैसे हो गया है? अब तक तो न उसे युवा होते सुना था न अधेड़। मुझे तो यही लगता था कि वे हमेशा 16-17 साल के लौंडे-लपाटे ही रहेंगे, ता-उम्र मैदान में लोलो-लपाटा करते नजर आएंगे। 
अब आप ऐसा मत सोचिए कि मैं कोई उनका अंतरंग साथी हूं और उनके अंदरूनी शारीरिक बदलावों को करीब से देखता रहता हूं, इसलिए मुझे ऐसा लग रहा है। अपनी कल्पनाशक्ति को जरा नैतिकता के दायरे में ही उड़ान भरने दें। बात असल में यूं है कि  96-97 में जब उन्होंने डेब्यू किया था, तब भी उनकी उम्र 16 साल ही थी और बाद के सालों में जब भी उमर का मसला खड़ा होता तो वे अंडर-16 ही कहे जाते थे। इसीलिए मेरी बुद्धि ने (पूरी तरह साजिशन) मान लिया था कि वे कभी च्बड़ेज् ही नहीं होंगे...  वे सुकुमार हैं, नौनिहाल हैं, कभी बूढ़े ही नहीं होंगे। वास्तव में अपन तो यही माने बैठे थे वे जनाना हैं... मेरा मतलब जनानियों की तरह हैं... यानी उनकी उम्र ठहरी ही रहेगी। 
अब महिलाओं को तो आप जानते ही हैं...उनकी भी उम्र कभी बढ़ती ही नहीं है। वे भी अपने को चिर युवा, सदा जवान मानती हैं। 50 के पेटे पर भले ही पहुंच जाएं, लेकिन होड़ लेने की बात हो तो मुकाबला किसी षोडशी से ही करती हैं। इसीलिए तो कोमलांगियों से उम्र पूछने का रिवाज नहीं है... बल्कि ऐसा करना तो गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन विडंबना देखिए, हमारे वंडर बाय की तो कोई वैल्यू ही नहीं समझी जाती थी। कुछ लोग उनकी उम्र पर भी लाल स्याही लगाते थे। और यह  गुनाह-ए-लज्जत करने वाले कौन... अपने ही पाले वाले...बिरादरी भाई... वही आदमी जात... वही पुरुष पत्रकार...। अरे कमबख्तों.... तुम्हें तो गर्व  करना था कि पुरुष समाज के पास भी महिलाओं को टक्कर देने वाला एक नगीना है... ऐसा नगीना जो पूरी महिला बिरादरी से अकेले लोहा लेता है। पर नाशुक्रे ऐसे नायाब हीरे की कदर ही नहीं करते थे।
खैर, पाकिस्तान के पास यदि अफरीदी जैसा अजूबा है तो हिंदुस्तान के पास भी अपना कोहिनूर है। हिंदुस्तानियों को गिल्टी फील करने की, अंडर स्टीमेट होने की बिलकुल जरूरत नहीं है। अगर उधर कोई चिरयुवा है तो इधर हमारे पास भी युवराज है। 42 साल का युवराज... अपना राहुल बाबा। दस-बारह साल पहले भी वे युवराज थे... आज भी युवराज ही कहे जाते हैं, और 52 के भी हो जाएंगे, तब भी शायद प्रिंस ही माने जाएंगे। इस ऐंगल से तो अपने राहुल भी अफरीदी की तरह चिरयुवा ही हैं।  और हो सकता है वे भी युवा रहते हुए सीधे बूढ़े हो जाएं,  यानी रिटायर हो जाएं, यानी कोई काम न करें। 
पर लगता है, ऐसा शायद  कभी नहीं होगा।  दरअसल, वे जिस पेशे से आते हैं, उसमें कोई रिटायर ही नहीं होता है। कब्र में पांव लटकने वालों की महत्वाकांक्षा भी सातवें आसमान तक उड़ान भरती है। यकीन मानिए, राजनीति सदा सुहागन रहती है... इसमें जब चाहे चौका मार सकते हैं। हमारे आडवाणी जी और तिवारी जी को ही लीजिए.... उन्हें देखकर क्या आपको नहीं लगता कि अब भी वे कुछ कर गुजरने में ही लगे हैं। और जब ऐसे धाकड़ जमे हुए हैं तो अपने बाबा तो अभी यंग हैं और कुछ लोग तो उन्हें युवा भी नहीं मानते... बच्चा समझते हैं और प्यार से पप्पू बुलाते हैं। उनकी पार्टी की ही शीलाजी समझती हैं कि उनकी उमर कम है... उनमें मैच्योरिटी (फिर वही मैच्योरिटी) आना बाकी है। ...तो इसलिए राहुल के रिटायरमेंट का सवाल ही पैदा नहीं होता, बल्कि ऐसा सोचना भी पाप होगा... उसी तरह जैसे किसी महिला से उसकी उमर पूछना। तो यह तय रहा, राहुल ना तो जवानी से रिटायर होंगे और न ही राजनीति से। वे कुछ-न-कुछ तो करेंगे ही... और कुछ नहीं तो मार्गदर्शक मंडल से मार्ग बताने का ही काम करेंगे। 
वैसे, बात अगर रिटायरमेंट की ही है तो डाउट तो अपने साहिबजादे के मामले में भी है... उसके पक्के वाले वादे के बाद भी। नहीं, मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा हूं कि राजनीति की तरह क्रिकेट में भी आखिर तक च्चौके-छक्केज् मारे जा सकते हैं। यकीनन, क्रिकेट राजनीति जैसी नहीं है, यहां सब टाइम-टू-टाइम होता है... रिटायरमेंट भी। पर यह मामला थोड़ा अलग है। यह मामला सरहद पार का है और आप तो जानते ही हैं, वहां कुछ भी हो जाता है...  किसी का कोई माई-बाप नहीं है। वहां तो खेल में भी सियासत घुसी है और सियासत में बड़े-बड़े खेल हो जाते हैं। राजनीति को खेल समझ लिया जाता है और खेल में राजनीति हो जाती है। एक्च्युअल में वहां सियासत वाले खिलाडिय़ों से प्रेरणा लेते हैं और खिलाड़ी राजनीतिज्ञों को रोल मॉडल मानते हैं। इसीलिए वहां के सियासतदार कभी-भी, किसी का भी खेल कर देते हैं। खेल-खेल में जेल भिजवा देते हैं, खेल-खेल में तख्ता पलट देते हैं। पूरी खिलाड़ी भावना से एक-दूसरे का गेम बजाने में लगे रहते हैं।  
और जहां तक खेल में सियासत की बात... वहां भी पड़ोसियों को वाकओवर मिला हुआ है।  वहां कोई भी खिलाड़ी खुद को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से कम नहीं समझता। हर खिलाड़ी खुद में खुदा है, जिससे खुजाए (पंगा लिए) उसी से निबटे। इसीलिए तो कभी वसीम-वकार जैसे सीनियर आपस में भिड़ते रहते हैं,  तो कभी रमीज-युसुफ में ठनती रहती है। पाकिस्तानी क्रिकेट में पॉलिटिक्स का आलम यह है कि सारे कप्तान हटने के लिए ही बनते हैं। इधर बने नहीं, उधर हटे। अब क्या करें... अनऑफिशियली तो पूरे 11 के 11 खुद ही कप्तान हैं, फिर ऑफिशियली किसी को कैसे हजम कर लें? अच्छा, इस मामले में  पीसीबी का भी कंसेप्ट क्लीयर है, वह भी केवल खिलाडिय़ों की प्रोफाइल मजबूत करने ही कप्तान बनाता है। उसे टीम के भले से कोई लेना-देना नहीं है.. टीम की ऐसी की तैसी... टीम जाए चूल्हे में। 
पड़ोसियों की खेल और राजनीति की इस जुगलबंदी को देखकर ही लगता है कि वहां राजनीतिज्ञ परमानेंट रिटायर हो सकता है और खिलाड़ी आजीवन खेलता दिख सकता है। यहां तक कि रिटायरमेंट भी खेल का हिस्सा हो सकता है। आप इमरान सहित कई खिलाडियों को तो जानते ही हैं, जो जब मूड आया रिटायर हुए और जब मूड बना फिर खेलने भिड़ गए। खुद अफरीदी को ही देखिए, अपना वस्ताद 2006 से अब तक आधा दर्जन बार रिटायर हो चुका है। 
जब खिलाड़ी से लेकर टीम का ऐसा ट्रैक रिकॉर्ड है, तो इस सच्चे वाले संन्यास पर भी डाउट आता है। यह भरोसा जगता है कि अपना बब्बा फिर बल्ला थामेगा... रिटायरमेंट केंसिल करेगा। और वो जो उमर का प्रेशर वाली बात है ना... इस पर तो आप जाइए ही मत। ये 36 वाला... मैच्योरिटी वाला मामला तो मेरे को शुरू से ही नहीं जम रहा है। मुझे तो लगता है अफरीदी का या तो बीवी से झगड़ा हुआ है या घरवालों से किसी बात पर ठनी है। उसी के चलते उसने उधर फायर करने की बजाय, इधर फायर कर दिया है।  उसने झूठ-मूठ ही अपनी उमर 36 बताकर परमानेंट संन्यास का एलान कर दिया है। मुझे तो पूरा भरोसा है... जिस दिन भी मांडवली होगी... अपना चिरयुवा सिकंदर फिर से मैदान में बचपना दिखाने.. बचकानी हरकत करने पहुंच जाएगा। वो सच का खुलासा करेगा कि वो 36 का नहीं बल्कि 16-17 का स्वीट सिक्सटीन ही है.. भावनाओं में बहकर उसने उम्र गलत बताई थी।
 यकीं मानिये ऐसा ही कुछ होगा...  अफरीदी का संन्यास स्थायी है लेकिन घोषणा अस्थायी...
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