च्राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर में पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन में जमकर प्रदर्शन हुए। यह प्रदर्शन उसी च्हिंदू सेनाज् ने किया था, जिसने 14 जून को ट्रंप के जन्मदिन पर 7 किलो का बड़ा केक काटा था। प्रदर्शन के दौरान, इसके कार्यकर्ता ट्रंप के पक्ष में नारे लगा रहे थे। उन्हें मानवता का रक्षक बता रहे थे।ज्
रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी ट्रंप के मुस्लिम विरोधी बयानों ने एक तरफ जहां उन्हें विवादित किया है, वहीं दूसरी ओर, उनकी लोकप्रियता गैर मुस्लिम देशों में बढ़ा भी दी है। और हिंदु व हिंदुस्तान की तारीफ करने के बाद, तो उनके फैन क्लब में कट्टरपंथियों के साथ-साथ अनेक भारतीय व भारतवंशी (अमेरिका में रहने वाले) भी शामिल हो गए हैं। ट्रंप ने भारत की शान में खूब कसीदे पढ़े हैं। वे कहते हैं- 'मैं हिंदू और भारत का प्रशंसक हूं, अगर मैं चुना जाता हूं तो हिंदू समुदाय को व्हाइट हाउस में सच्चा दोस्त मिल जाएगा। हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत का साथ देंगे, सैन्य सहयोग भी मजबूत करेंगे।Ó
ट्रंप के ऐसे विचारों से अभिभूत अनेक भारतीय व च्हिंदू सेनाज् जैसे संगठन चाहते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी के इस उम्मीदवार को अमेरिका का राष्ट्रपति बनना चाहिए। तो क्या भारत हितैषी होने भर से ट्रंप, भारतीयों के नैतिक समर्थन व भारतवंशियों के वोट के हकदार बन जाते हैं? क्या किसी व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व, उसकी विचारधारा गौण हो सकती है? कोई व्यक्ति हमारी तारीफ करता है, इसलिए उसकी सारी चीजों को नजरअंदाज कर, हमें उसे समर्थन दे देना चाहिए... या फिर कथा सम्राट प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी च्पंच-परमेश्वरज् के किरदारों (अलगू चौधरी, जुम्मन शेख) की तरह व्यक्तिगत संबंधों के ऊपर सही व न्यायोचित चीजों के साथ हो लेना चाहिए?
दरअसल, ट्रंप को लेकर दुनिया भर में वैचारिक सुनामी चल रही है। उनके बयान व उन पर लग रहे आरोपों ने विश्व समुदाय को चिंता में डाल रखा है। ट्रंप मुस्लिमों के अमेरिका-प्रवेश पर प्रतिबंध के पक्षधर हैं। वे आतंकी गतिविधियों के लिए लगातार मुस्लिमों पर आरोप लगाते रहे हैं। उन्होंने कहा है- च् वे इस समुदाय के प्रवासियों की संख्या पर रोक लगाने सीमा पर नियंत्रण व्यवस्था मजबूत करेंगे।ज् टं्रप अनेक देशों के तनावपूर्ण रिश्तों में बारूद भरने का काम भी करते रहे हैं। उन्होंने सत्ता में आने पर विवादित येरूशलम को इजराइल की 'वास्तविकÓ राजधानी के रूप में मान्यता देने का वादा किया है। उनके इस बयान को पूर्वग्रह से प्रेरित व इजराइल-फिलिस्तीन के सुलगते रिश्तों में घी डालने वाला माना जा रहा है। इसके अलावा, इस रिपब्लिक प्रत्याशी के महिलाओं के संबंध में विचार भी शर्मसार करने वाले हैं। च्वॉशिंगटन पोस्टÓ के पास उनका 2005 का एक वीडियो मौजूद है। इसमें वे रेडियो एवं टीवी प्रस्तोता बिली बुश के साथ बातचीत के दौरान, बिना सहमति के महिलाओं को छूने और उनके साथ यौन संबंध को लेकर बेहद अश्लील टिप्पणियां करते दिखाई दे रहे हैं।ज्
मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ने कहा है, च्व्यक्ति के विचार उसके अंतर्मन का दर्पण होते हैं और ये ही उसके भविष्य को संचालित करते हैं।ज् ट्रंप के विचार उनके भीतर बैठे तानाशाह को उजागर करते हैं, इनसे सामंती सोच पता चलती है। महिलाओं के संबंध में उनकी हरकतें उनकी अय्याश तबीयत को नुमांया करते हैं। ऐसा शख्स जो सेलेब्रिटी स्टेटस का फायदा उठाकर, पूरी बेशर्मी के साथ महिलाओं को तंग करता है। जो महिलाओं का सम्मान करना नहीं चाहता और अपनी इच्छा पूरी करने किसी भी हद तक जा सकता है। इसी तरह, उनके मुस्लिम विरोधी विचार उस मनोवृति को दर्शाते हैं, जिससे हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह कभी शासित हुए थे। हो सकता है, सत्ता में आने पर ट्रंप भी अपने इस्लामोफोबिया के चलते पूर्वग्रह से भरे फैसले लेते चले जाएं... नए सिरे से विश्व का इतिहास लिखने की कोशिश करने लगें। आखिर, कभी नाजी तानाशाह हिटलर ने भी तो आर्य रक्त को श्रेष्ठ मानकर, दोबारा विश्व का नक्शा खींचने की कोशिश की थी... अपनी सनक भरी नफरत के चलते लाखों यहुदियों को मौत के घाट उतारा था।
इन्हीं सब वजह से संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार उच्चायुक्त जैद राद अल हुसैन सहित अनेक लोग मानते हैं- च्ट्रंप का अमेरिका जैसे च्चौधरीज् राष्ट्र का महामहिम बनने से वैश्विक शांति, सहिष्णुता कभी भी दांव पर लग सकती है।ज् इसीलिए यह सवाल उठना भी लाजमी है, क्या ट्रंप का च्भारत प्रेमज् भारत व भारतवंशियों के लिए उनके समर्थन का एकमात्र आधार हो सकता है?
खैर, इस बात को भी छोड़ दें और स्वार्थी होकर सोचें, भारतीय नजरिए को तवज्जो दें... तब भी- इसकी क्या गारंटी है कि राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप भारत के लिए मुफीद ही होंगे? हो सकता है, अब तक की उनकी बातें चुनावी शिगूफा हों, लफ्फाजी हों। यह संदेह इसलिए है क्योंकि यह हमारा सालों का तर्जुबा रहा है। हम भारत में देखते आए हैं, चुनावी घोषणा पत्र कैसे होते हैं और उनकी कितनी बातें अमल में आ पाती हैं? अमेरिका भी कोई इससे अलग नहीं है। यहां भी अनेक चुनावी वायदे च्हाथी के दांतज् बनकर रह जाते हैं।
खैर, यह भी मान लें कि ट्रंप का भारत-प्रेम सच्चा है, अपनी बातों को लेकर वे ईमानदार हैं। लेकिन, तब भी च्कुर्सी के तकाजोंज् के चलते क्या वे भारत के हितों का ख्याल रखने की स्थिति में होंगे? क्या अमेरिका की विदेश नीति इसकी इजाजत देगी? यह चिंता भी इसीलिए सर उठा रही है क्योंकि अनेक मर्तबा यह देखने में आया है कि नीयत होते हुए भी सत्ता शीर्ष में बैठे लोग अपने वायदों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं। हमें याद करना चाहिए, 2014 के भारत के लोकसभा चुनाव... जिसमें भाजपा ने काला धन वापस लाने का वादा किया था। लेकिन अब तक नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली पूर्ण बहुमत की सरकार इसे पूरा नहीं कर पाई है, बावजूद इसके कि यह मुद्दा भाजपा व उसकी मातृसंस्था आरएसएस की नीति, छवि व एजेंडे के अनुकूल है।
तो कुल जमा यही निष्कर्ष निकलता है, ट्रंप भारत, विश्व व खुद अमेरिका के लिए कितना उपयोगी साबित हो पाएंगे, इसमें भारी संदेह है। वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं है कि डोनाल्ड ने मौजूदा चुनाव को काफी रोचक व चटखारेदार बना दिया है। भारत में दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव से इसमें समानता भी नजर आ रही है। आपको याद ही होगा, 2014 में हमारे यहां हुआ चुनाव मोदी बनाम अन्य में तब्दील हो गया था। इसमें प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत छवि बड़ा मुद्दा थी। 2002 में हुई गुजरात हिंसा का प्रेत तब भी उनका पीछा कर रहा था। विपक्षी नेताओं ने उन्हें च्मगरूरज्, च्मौत का सौदागरज् च्उग्र हिंदू नेताज् बताया था। अनेक व्यक्ति-संगठन उन्हें शांति-अखंडता के लिए खतरा मानकर, उनके खिलाफ कैंपेन चला रहे थे। कुछ लोगों ने उनके पीएम बनने पर देश छोडऩे का एलान तक कर दिया था।
कुछ इसी तरह का इस बार ट्रंप के साथ भी हो रहा है। वे भी अपनी निगेटिव छवि को लेकर सबके निशाने पर हैं। उनके बयान, उनकी हरकतें... बड़ा मुद्दा बन चुकी हैं। ये चुनाव भी जबरदस्त ध्रुवीकरण का इशारा कर रहे हैं। काउंसिल ऑन अमेरिकन-इस्लामिक रिलेशन्स (सीएआईआर) के सर्वे के अनुसार, अमेरिका में रहने वाले 33 लाख प्रवासी मुस्लिमों में से 72 प्रतिशत ट्रंप के विरोध में हैं। ऐसा ही एकतरफा विरोधी रुख महिला मतदाताओं का भी नजर आ रहा है।
बहरहाल, मोदी तो तमाम नकारात्मक प्रचार के बावजूद, अपने आभामंडल व एंटी इन्कंबंसी की लहर पर सवार होकर न केवल धमाकेदार जीत दर्ज कर चुके हैं, बल्कि प्रधानमंत्री बनकर नए रूप ( कम आक्रामक, ज्यादा समन्वयवादी, सुलझे हुए) में भी दिखाई पड़ रहे हैं... जबकि ट्रंप अभी इम्तिहान देने बैठ रहे हैं, लोगों का विश्वास जीतने, जुगत कर रहे हैं।
अब यह तो नवंबर में होने वाले चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि डोनाल्ड ट्रंप 33 लाख प्रवासी मुस्लिमों, 34 लाख भारतवंशियों सहित 200 मिलियन अमेरिकी वोटर में कितनों का दिल जीत पाते हैं? लेकिन एक बात तय है, उन्होंने मौजूदा चुनाव को ऐसी लड़ाई में तब्दील कर दिया है, जिससे अछूता नहीं रहा जा सकता... या तो लोग उनके साथ होंगे या उनके विरोध में... यकीनन, ये चुनाव ट्रंप के लिए परीक्षा और अमेरिका के लिए अग्नि परीक्षा साबित होने वाले हैं...
एक बात और...
एक तरफ ट्रंप के समर्थन में 'एवीजी ग्रुप ऑफ कंपनीजÓ के अध्यक्ष भारतीय-अमेरिकी शलभ कुमार हैं, जिन्होंने उनके चुनावी अभियान में 10 लाख अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा का योगदान दिया है, तो दूसरी तरफ ट्रंप विरोधी प्रवासी नेता राज मुखजी भी हैं, जो कहते हैं- च्यदि आप असली हिंदू हैं तो आप एक मुसलमान भी हैं... आप ईसाई व यहूदी भी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इसी में मेरा समुदाय विश्वास करता है।ज्
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