हम बड़े मजेदार लोग है। हम में से अनेक लोग गुरु को खोजते फिरते है। पूछो कहां जा रहे हो, वो कहते है हम गुरु की खोज कर रहे है।
आप कैसे गुरु की खोज करिएगा? आपके पास कोई मापदंड, कोई तराजू है? आप तौलिएगा कैसे कि कौन गुरु आपका? और अगर आप इतने कुशल हो गए है कि गुरु की भी जांच कर लेते है, तो अब बचा क्या है ? जिसकी हम जांच करते है। उससे हम ऊपर हो जाते है। तो आप तो गुरु पहले हो गए। परीक्षा तो होनी है गुरु की उतर जाएं, पास हो जाएं, उतीर्ण हो जाएं, तो ठीक। अनु तीर्ण हो जाए?
तो शिष्य घूम-घूम कर गुरूओं को अनुत्तीर्ण करते रहते है। कहते है, फलां गुरु बेकार साबित हुआ। अब वे दूसरे गुरु की तलाश में जा रहे है।
गुरु को शिष्य नहीं खोज सकता। यह असंभव हे। इसका कोई उपाय नहीं है। यह तो बात ही व्यर्थ है। हमेशा गुरु शिष्य को खोजता हे। वि बात समझ में आती है। तर्क बद्ध हे। तो गुरु शिष्य को खोजता है। तो जब भी आप शिष्य होने के लिए तैयार हो जाते है गुरू प्रकट हो जाता है। वह आपको खोज लेगा। फिर आप बच नहीं सकते। वह आपको खोज लेगा। फिर आपके बचने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए बड़ी चीज गुरु को खोजना नहीं है, बड़ी चीज शिष्य बनने की तैयारी है। आप गड्ढे बन जाएं; पानी बरसेगा और झील भर जायेगी। आप सीखने के गड्ढे बन जाएं; चारों तरफ से आपको खोजने वे सूत्र निकल पड़ेंगे जो आपके गुरु बन जाएंगे। शिष्य का गड्ढा जहां भी होता है, वहाँ गुरु की झील तैयार हो जाती है। लेकिन गड्ढे खोजने नहीं जा सकते। खोजने का कोई उपाय नहीं है।
दो-तीन आखिरी बातें। यह जरूरी नही हे कि आप गुरु को जांच सकें; यह जरूरी हे कि आप अपने शिष्य होने की जांच करें। जो आवश्यक है वह यह है कि आप यह जाँचते रहें कि मेरे शिष्य होने की पात्रता, मेरे सीखने की क्षमता निखालिस है, शुद्ध है।
बायजीद अपने गुरु के पास था। बायजीद के गुरु ने बायजीद के कहा कि बायजीद, तू जो मुझसे सीखने आया है, उसके अलावा मैं क्या हूं,यह भी तू जानना चाहता है? बायजीद ने कहा कि उससे मुझे क्या प्रयोजन है। जो मैं सीखने आया हूं वह आप हे। इतना मेरे जानने के लिए काफी है।
फिर एक दिन बायजीद आया है और गुरु शराब की सुराही रखे बैठा है। प्याली में शराब ढालता है ओर चुस्कियां लेता है। और बायजीद को समझाता जाता है। एक और शिष्य भी बैठा था। उसके बरदाश्त के बाहर हो गया कि हद हो गई। बरदाश्त की भी एक सीमा होती है। और भरोसे का भी एक अंत है। आखिर विश्वास कोई अंधविश्वासी तो नहीं हूं, मैं, उसने कहा यह क्या हो रहा है? यह अध्यात्म किस प्रकार का है?
गुरु ने उस शिष्य को कहा कि अगर तुम्हें नहीं सीखना हे, तुम जा सकते हो। मतलब यह कि हमारा गुरु शिष्य का संबंध टूट गया। लेकिन किस शर्त पर? मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं शराब नहीं पीऊंगा?
बायजीद की तरफ गुरु ने देखा और बायजीद से कहा कि तुम्हें तो कुछ नहीं पूछना?
बायजीद ने कहां नहीं मुझे कुछ नहीं पूछना।
बारह वर्ष बायजीद था। इस बारह वर्ष में बारह हजार दफे ऐसे मौके लाया होगा जब कि कोई भी पूछ लेता कि यह क्या हो रहा है। यह नहीं होना चाहिए। बारह साल बाद जिस दिन बायजीद विदा हो रहा था, उसके गुरु ने कि तुम्हें कुछ पूछना नहीं है मेरे और संबंधों में? मेरे बाबत?
बायजीद ने कहा कि अगर मैं पूछता दूसरी चीजों के संबंध मे तो मैं वंचित ही रह जाता तुमसे। मैंने उनके संबंध में नहीं पूछा। मैं तो उस संबंध में ही डुबता चला गया जिसके लिए आया था। और आज मैं जानता हूं कि वह सब जो क्या था वह कैसा नाटक था मैंने पूछा नहीं, लेकिन आज मैं जानता हूं कि वह सब नाटक था। अगर में उस नाटक के बाबत पूछता तो मैं वह जो असली आदमी था यहां मौजूद, उससे वंचित हर जाता।
तिब्बत में शिष्यों के लिए सूत्र है कि गुरु अगर पाप भी कर रहा हो सामने तो उसकी शिकायत नही की जा सकती। बड़ी अजीब है और उचित नहीं मालूम पड़ता। अंधविश्वास पैदा करने वाला है। लेकिन जो सीखने आया है। उसे व्यर्थ की बातों में रस लेना खतरनाक है। और उसकी सीखने की क्षमता नष्ट होती है।
नारोपा एक भारतीय गुरु तिब्बत गया। मिलारेपा उसका पहला शिष्य था। नारोपा बहुत ही अद्भुत व्यक्ति था। और वह मिलारेपा को ऐसे-ऐसे काम करने को कहता है कि किसी की भी हिम्मत टूट जाये। वह मिलारेपा से कहता है कि यह पहाड़ से पत्थर काटो। मिलारेपा का मन होता है कि मैं सत्य की साधना करने आया हूं। या पत्थर काटने। लेकिन नारोपा ने कहा कि जिस दिन तुझे संदेह उठे उसी दिन चले जाना; बताने मत आना कि संदेह उठा है। संदेह करने वालों के साथ मैं मेहनत नहीं करता।
लेकिन मिलारेपा भी नारोपा से कम अद्भुत आदमी नहीं था। उसने पत्थर काटे। फिर नारोपा ने कहा कि अब इसका एक छोटा मकान बनाओ। उसने मकान बनाया। जिस दिन मकान बन कर खड़ा हो गया, वह दौड़ा आया और उसने सोचा कि शायद आज मेरी शिक्षा शुरू होगी। यह परीक्षा हो गई। नारोपा के पास आकर चरणों में सिर रख कर कहा कि मकान बन कर तैयार हो गया है। नारोपा गया। और उसने कहा कि अब इसको गिराओं।
कहानी कहती है, ऐसे सात दफे नारोपा ने वह मकान गिरवाया। गिरवा कर वह पत्थर वापस फेंको खाई में। फिर चढ़ाओं, फिर मकान बनाओ। ऐसा सात साल तक चला। सात बार वह मकान गिराया गया और बनवाया गया। और सांतवीं बार जब मकान गिर रहा था, तब भी मिलारेपा ने नहीं कहा कि क्यो?
और कहते है कि नारोपा ने कहा कि तेरी शिक्षा पूरी हो गई। जो मुझे तुझे देना था, मैंने दे दिया। और जो तू पा सकता था वह तूने पा लिया है। मिलारेपा चरणों में गिर पडा।
मिलारेपा से बाद में उसके शिष्य पूछते थे कि हम कुछ समझे नहीं यह क्या हुआ। क्योंकि कोई और शिक्षा तो हुई नहीं। यह लगाना, यह गिराना, बस यही हुआ। मिलारेपा ने कहा कि पहले तो मैं भी यह समझता था। कि ये क्या हो रहा है? लेकिन फिर मेंने कहा कि जब एक दफा तय ही कर लिया, तो ज्यादा से ज्यादा एक जिंदगी ही जाएगी न। बहुत जिंदगी बिना गुरु के चली गई। एक जिंदगी गुरु के साथ सही। ज्यादा से ज्यादा, उसने कहा एक जिंदगी ही जाएगी न, तो ठीक है। बहुत जिंदगीयां ऐसे बिना गुरु के भी गंवा दीं। अपनी बुद्धि से गंवा दी। इस बार बुद्धि को गंवा कर दूसरे के हिसाब से चल कर देख लेते है। जिस दिन मिलारेपा ने कहा, मैंने यह तय कर लिया, उस दिन से मैं बिलकुल शांत होने लगा। वह पत्थर जमाना नही था, जन्मों–जन्मों का मेरा जो सब था। उसने जमवाय-उखडवाया, जमवाय-उखडवाया। वह सात बार जो मकान का बनना और मिटना था; तुम्हें मकार का दिख रहा था। वह मेरा ही बनना और मिटना था। और जिस दिन सांतवीं बार मैंने मकान गिराया उस दिन मैं नहीं था। इसलिए उसने मुझ से कहा कि जो मुझे तुझे देना था, दे दिया। और जो तू पा सकता था वह पा लिया। तुझे कुछ और चाहिए?
लेकिन जो न अपने गुरू को मूल्य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है,वह वही है जो दूर भटक गया है, यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।
अक्सर—यद्यपि नहीं—अक्सर वह विद्वान होता है।
यही सूक्ष्म वह गुह्म रहस्य है।
–ओशो, ताओ उपनिषाद भाग—3 प्रवचन—57
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