हिंदी उपन्यासों की दुनिया का कालजयी उपन्यास रागदरबारी के रचियता श्रीलाल शुक्ल मेरे पसंदीदा लेखकों में हैं। रागदरबारी लिखकर उन्होंने मेरे दिल पर अपनी हुकूमत स्थापित कर ली है। उन्होंने बाथरूम पर एक कविता या गजल... जो भी कहिए, लिखी है। बाथरूम जैसे विषय पर यह अनौपचारिक गजल लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? इस आर्टिकल को पढि़ए, उन्ही की जुबानी...
आर्टिकल स्रोत- फुरसतिया
1945 की बात है। तब तक विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी को देखते ही उसे लफ़ंगा मानने का चलन नहीं हुआ था। ऐसे प्रोफ़ेसर काफ़ी संख्या में थे जो लड़कों को ’जेंटिलमैन’ कहकर संबोधित करते थे, यही नहीं, उन्हें ऐसा समझते भी थे।
मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में था। वातावरण सब प्रकार से विद्यार्थी को जेंटिलमैन बना डालने वाला था। हमारे छात्रावासों में मीटिंग हाल में योग्य और विशिष्टता पाने वाले विद्यार्थियों की सूचियां टंगी हुईं थीं। ये आई.सी.एस. में , पी.सी.एस. में, इसमें, उसमें -किसी भी तुक की सरकारी नौकरी की परीक्षा में सफ़ल होने वालों की सूचियां थीं। हम किसी-न-किसी दिन इन्हीं सूचियों में टंगने की उम्मीद बांधे चुपचाप किताबें पढ़ते रहते, उससे भी ज्यादा चुप होकर खेलते और छात्रावास के पुरातनकालीन शौचालयों, गंध भरे, लगभग गंदे भोजनालयों और बिन पानी के गुसलखानों में आते-जाते हुये अपने को जैंटिलमैन बनाये रखने की कला सीखते।
मेस और रेलवे बोर्ड की भाषा में- संडास तो जैसे-तैसे चल जाते, क्योंकि वे जैसे-जैसे अपने उद्धेश्य की पूर्ति कर देते थे, पर बिना पानी का गुसलखाना कहॉं तक सहा जाता? शायद पानी का दबाब कम था। जो भी हो, नल से बूंद-बूंद पानी टपकता था। बूंद-बूंद से घंटेभर में बाल्टी भरती थी और चौथाई मिनट में रीती हो जाती थी। गुसलखाने के आगे ’क्यू’ लगता था, पर ’क्यू’ का कोई नियम जरूरी नहीं था। नहाने वालों की भीड़ में दंगे की स्थिति पैदा हो जाती थी। इसी स्थिति ने कुछ नेता पैदा किये। नेताओं ने नहाने की व्यवस्था में सुधार करना चाहा। तब तक हम सीख गये थे कि किसी भी सुधार के लिये धुंआधार आंदोलन करना ही एकमात्र तरीका है। हम आंदोलन पर उतर आये।
सिर्फ़ बाथरूमी चप्पल और पैजामे पहने हुये, हाथ में तौलिया और साबुन लिये नंगे बदन जवांमर्दों का एक जत्था हमारे छात्रावास से बाहर निकला। जुलूस की शक्ल में हम वाइसचांसलर डॉ. अमरनाथ झा के बंगले की ओर बढ़े। आसपास के छात्रावासों के लड़के भी हमारे दुख से दुखित होकर जिस्म से कपड़े उतार-उतारकर तौलिया झटकारते हुये, जुलूस में शामिल हो गये। ’इन्कलाब जिन्दाबाद’ का वातावरण बन गया। ’लोटे-लोटे की झनकार, सारे बाथरूम बेकार’ के नारों से खुद हमारे ही दिमाग गूंज उठे।
ऐसे मौके पर प्रयाण-गीत के लिये मैंने एक कविता लिखी थी, जिसे यहॉं दोहराना ही इस टिप्पणी का असली उद्धेश्य है।
यह कविता उस जमाने के प्रसिद्ध प्रयाण गीत -
खिदमते हिंद में जो मर जायेंगे
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।
खिदमते हिंद में जो मर जायेंगे
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।
की तर्ज पर लिखी गयी थी और इस प्रकार थी-
” हम बिना बाथरूम के मर जायेंगे।
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।
यह न पूछो कि मरकर किधर जायेंगे,
होगा पानी जिधर, बस उधर जायेंगे।
जून में हम नहाकर थे घर से चले,
अब नहायेंगे फ़िर जब कि घर जायेंगे।
यह हमारा वतन भी अरब हो गया,
आज हम भी खलीफ़ा के घर जायेंगे।
-आदि-आदि।”
होगा पानी जिधर, बस उधर जायेंगे।
जून में हम नहाकर थे घर से चले,
अब नहायेंगे फ़िर जब कि घर जायेंगे।
यह हमारा वतन भी अरब हो गया,
आज हम भी खलीफ़ा के घर जायेंगे।
-आदि-आदि।”
यह मेरी पहली व्यंग्य रचना थी। पता नहीं, उस ’करुण-करुण मसृण-मसृण’ वाले जमाने में जबकि जबकि ज्यादातर मैं खुद उसी वृत्ति का शिकार था -मैं यह प्रयाण- गीत कैसे लिख ले गया। जो भी हो, इसका यह नतीजा जरूर निकला कि लगभग दस साल बाद मैंने जब व्यंग्य लिखना शुरु किया तो मुझमें यह आत्मविश्वास था कि मैं दस साल की सीनियारिटी वाला व्यंग्य-लेखक हूं और दूसरों की तरह किसी भी पोच बात को सीनियारिटी के सहारे चला सकता हूं।
खैर, अपने व्यंग्य-लेखन के बारे में इतना तो मैंने लगे हाथ यूं ही बता दिया। जहां तक बाथरूमों की बात है, खलीफ़ा- डॉ. झा ने हमारे आंदोलन को सफ़ल बनाने में बड़ी मदद की। आज की तरह विद्यार्थियों के जुलूस को देखते ही उन्होंने पुलिस नहीं बुलाई, गोली नहीं चलवाई, प्रेस के लिये तकरीर नहीं दी, इसे अपनी इज्जत का सवाल नहीं बनाया। सिर्फ़ एक-दो छोटे-छोटे वाक्यों में जुलूस के सनकीपन का हवाला देते हुये उन्होंने आश्वासन दिया कि ठीक ढंग के नये बाथरूमों की व्यवस्था हो जायेगी। यही नहीं-आज आपको ऐसी बात सुनकर अचंभा भले ही हो- उन्होंने अपना आश्वासन जल्दी ही पूरा भी कर दिया।
श्रीलाल शुक्ल
धर्मयुग, 1963
(श्रीलाल शुक्ल- जीवन ही जीवन से साभार)
धर्मयुग, 1963
(श्रीलाल शुक्ल- जीवन ही जीवन से साभार)
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