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यह जयप्रकाश चौकसे के एक आर्टिकल का हिस्सा है। चौकसे को बॉलीवुड का चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है। दैनिक भास्कर अखबार में सालों से छप रहा उनका कॉलम 'परदे के पीछेÓ बहुत लोकप्रिय है। चौकसे जी की उपमाएं और उनकी संवेदनाएं लाजवाब है। एक सहकर्मी मित्र ने उनके बारे में टिप्पणी की- 'चौकसे ने लोगों को लिखना सिखाया है।Ó यकीनन इसमें कोई दो राय नहीं है कि चौकसेजी की अपनी स्टाइल है, जिसकी अपनी खासियत है और जिसका वृत थोड़ा जहीन पाठक से उच्च बौद्धिक स्तर तक है।
फिल्म के बारे में, फिल्मी व्यक्तियों के बारे में, उनसे जुड़ी घटनाएं, घटनाओं के पीछे अचेतन में छुपे कारणों की पड़ताल, दुनिया जहान का नॉलेज... जीवन के प्रति आग्रह... चौकसे प्रभावित ही करते हैं।
लेकिन इधर के सालों में उनके आर्टिकल में दोहराव इस कदर ज्यादा है कि खीझ होती है। दरअसल, बहरहाल, गोया कि... उनके आर्टिकल का स्थायी राग बन गया है। कई मर्तबा तो एक ही आर्टिकल में चार-छह बार दरअसल, बहरहाल, दिखाई पड़ा है।
इस तरह के लेखन में खानापूर्ति की... बस काम को निबटाने की बू आती है। व्यावसायिक तकाजों के चलते शायद आर्टिकल को ज्यादा समय देने की वे स्थिति में नहीं रह पा रहे हैं।
ेदूसरी बात... राजकपूर और उनके परिवार के संबंध में अक्सर लिखना और अक्सर गुणगान करना। और अब तो राजकपूर के साथ-साथ सलीम खान (अभिनेता सलमान खान के पिता) की फेमिली भी चौकसे जी की गुडबुक में है...। भास्कर के एक सुधि पाठक ने पोस्टकार्ड भेजा था... जिसमें उन्होंने चौकसे पर कपूर खानदान की चापलूसी करने का आरोप लगाया था। पाठक का कहना था... पब्लिक को बेवकूफ मत समझिए...।
तीसरी बात... चौकसे का भ्रष्टाचार, नैतिकता के मुद्दे पर बार-बार घुमाफिराकर लिखना। अक्सर यह महसूस होता है कि चौकसे के पास नियमित लिखने के लिए मुद्दों का अकाल पड़ रहा है और वे घूमफिरकर ... उन्ही के शब्दों में चूसे हुए गन्ने का रस निकाल रहे हैं।
पता नहीं क्यूं मुझे लगता है कि चौकसे जब व्यक्ति के बारे में लिखते हैं, तो बहुत ही लाजवाब लिखते हैं, सहज रूप से लिखते हैं। लेकिन जब वे दूसरे मुद्दों पर जाते हैं, तो फिर उन्हें अलग से मेहनत करनी पड़ती है। वे एक घटना लेते हैं... अपनी स्टाइल में उसका पोस्टमार्टम करते हैं... फिर उसे फिल्मों से जोड़ते हैं और अंत में जजमेंटल बन जाते हैं।
शायद सात दिन का खाना बनाना उन्हें भारी पड़ रहा है। रोज बनाने पर तो चावल-दाल जैसी सादी चीज बनाने वाली गृहणी भी दाल जला बैठती है, उसका भी चावल कच्चा रह जाता है। फिर पुलाव-खीर मोहन रोज बनाने में तो हाथ जलेगा ही और चौकसे तो फाइव स्टार के रसोइए जैसे हैं, जो कि पुलाव- खीरमोहन परोसना ही पसंद करते हैं।
लेकिन अगर वे सप्ताह में तीन दिन लिखें व स्टाइल बदलें, तो फिर से मेरे दिल के मैदान पर सेंचुरी मारने लगेंगे...
बहरहाल तमाम शिकायतों के बाद भी चौकसे को पढऩा छोड़ा नहीं जा सकता... उनका लेख एक लत की तरह है... जिस पर एक नजर मारे बिना दिल नहीं मानता... पढऩे में रुचि लेने वाला कोई भी शख्स उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकता शायद...
पान सिंह तोमर के साथ आप हंसते हैं, ठिठोली करते हैं, आंसू बहाते हैं और आपको खेद होता है कि आप उसके साथ अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए मर क्यों नहीं गए। दिल के आरामपसंद अय्याश कोने से आवाज आती है कि मरे नहीं, क्योंकि हम पान सिंह तोमर नहीं हैं, हम चंबल में नहीं जन्मे, हमारे पास अन्याय के विरोध का माद्दा नहीं है।
यह जयप्रकाश चौकसे के एक आर्टिकल का हिस्सा है। चौकसे को बॉलीवुड का चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है। दैनिक भास्कर अखबार में सालों से छप रहा उनका कॉलम 'परदे के पीछेÓ बहुत लोकप्रिय है। चौकसे जी की उपमाएं और उनकी संवेदनाएं लाजवाब है। एक सहकर्मी मित्र ने उनके बारे में टिप्पणी की- 'चौकसे ने लोगों को लिखना सिखाया है।Ó यकीनन इसमें कोई दो राय नहीं है कि चौकसेजी की अपनी स्टाइल है, जिसकी अपनी खासियत है और जिसका वृत थोड़ा जहीन पाठक से उच्च बौद्धिक स्तर तक है।
फिल्म के बारे में, फिल्मी व्यक्तियों के बारे में, उनसे जुड़ी घटनाएं, घटनाओं के पीछे अचेतन में छुपे कारणों की पड़ताल, दुनिया जहान का नॉलेज... जीवन के प्रति आग्रह... चौकसे प्रभावित ही करते हैं।
लेकिन इधर के सालों में उनके आर्टिकल में दोहराव इस कदर ज्यादा है कि खीझ होती है। दरअसल, बहरहाल, गोया कि... उनके आर्टिकल का स्थायी राग बन गया है। कई मर्तबा तो एक ही आर्टिकल में चार-छह बार दरअसल, बहरहाल, दिखाई पड़ा है।
इस तरह के लेखन में खानापूर्ति की... बस काम को निबटाने की बू आती है। व्यावसायिक तकाजों के चलते शायद आर्टिकल को ज्यादा समय देने की वे स्थिति में नहीं रह पा रहे हैं।
ेदूसरी बात... राजकपूर और उनके परिवार के संबंध में अक्सर लिखना और अक्सर गुणगान करना। और अब तो राजकपूर के साथ-साथ सलीम खान (अभिनेता सलमान खान के पिता) की फेमिली भी चौकसे जी की गुडबुक में है...। भास्कर के एक सुधि पाठक ने पोस्टकार्ड भेजा था... जिसमें उन्होंने चौकसे पर कपूर खानदान की चापलूसी करने का आरोप लगाया था। पाठक का कहना था... पब्लिक को बेवकूफ मत समझिए...।
तीसरी बात... चौकसे का भ्रष्टाचार, नैतिकता के मुद्दे पर बार-बार घुमाफिराकर लिखना। अक्सर यह महसूस होता है कि चौकसे के पास नियमित लिखने के लिए मुद्दों का अकाल पड़ रहा है और वे घूमफिरकर ... उन्ही के शब्दों में चूसे हुए गन्ने का रस निकाल रहे हैं।
पता नहीं क्यूं मुझे लगता है कि चौकसे जब व्यक्ति के बारे में लिखते हैं, तो बहुत ही लाजवाब लिखते हैं, सहज रूप से लिखते हैं। लेकिन जब वे दूसरे मुद्दों पर जाते हैं, तो फिर उन्हें अलग से मेहनत करनी पड़ती है। वे एक घटना लेते हैं... अपनी स्टाइल में उसका पोस्टमार्टम करते हैं... फिर उसे फिल्मों से जोड़ते हैं और अंत में जजमेंटल बन जाते हैं।
शायद सात दिन का खाना बनाना उन्हें भारी पड़ रहा है। रोज बनाने पर तो चावल-दाल जैसी सादी चीज बनाने वाली गृहणी भी दाल जला बैठती है, उसका भी चावल कच्चा रह जाता है। फिर पुलाव-खीर मोहन रोज बनाने में तो हाथ जलेगा ही और चौकसे तो फाइव स्टार के रसोइए जैसे हैं, जो कि पुलाव- खीरमोहन परोसना ही पसंद करते हैं।
लेकिन अगर वे सप्ताह में तीन दिन लिखें व स्टाइल बदलें, तो फिर से मेरे दिल के मैदान पर सेंचुरी मारने लगेंगे...
बहरहाल तमाम शिकायतों के बाद भी चौकसे को पढऩा छोड़ा नहीं जा सकता... उनका लेख एक लत की तरह है... जिस पर एक नजर मारे बिना दिल नहीं मानता... पढऩे में रुचि लेने वाला कोई भी शख्स उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकता शायद...
उनके आर्टिकलों के लिंक वाले पेज की लिंक ये रही...
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