रविवार (4 मार्च २०१२) को उज्जैन, महाकाल के दर्शन कर लौटा हूं। (यह भी भगवान शंकर का ही मंदिर...। बनारस के बाद यहां ही जाना हुआ।
विचार तो पहले से था, लेकिन निश्चय (तय) सप्ताह भर पहले यकायक किया और पत्नी के साथ निकल पड़े भोलेनाथ की नगरी। एक दिन में घूमफिरकर वापस भी आ गए। महाकाल मंदिर सहित 'उज्जैन-दर्शनÓ की बस में बैठकर आठ-दस और दर्शनीय स्थान देखा।
अच्छा अनुभव था। कई खट्टी-मीठी यादें... वो ट्रेन का यूं लेट होना... वो वोहरा मुस्लिम का महाकाल के फोटो बेचना सबकुछ।
महाकाल का दर्शन भी बिना किसी तनाव के केवल एक घंटे में कर लिया... सुबह-सुबह। इसके तुरंत बाद 'उज्जैन-दर्शनÓ में सवार हो गए थे। उज्जैन-दर्शन को पाने की जल्दी के चलते ही महाकाल मंदिर के भीतर के दूसरे मंदिरों को नहीं देख पाए। यहीं बस जल्दबाजी का एहसास हुआ, बाद इसके कहीं भी हड़बड़ी नहीं थी।
घर आने के बाद लगा कि कुछ अचीव किया.... हल्की-सी लहर...। आमतौर पर मैं ठंडे स्वभाव का हूं, संवेदनाओं, अनुभूतियों, एहसासों को लेकर। मैं ज्यादा उत्साहित नहीं हो पाता। मेरे भीतर खुशी, उत्साह, गम, उदासी की लहर बहुत ज्यादा, बहुत तीव्रता से नहीं उठती। इसलिए यह संवेदना अपने आप में खास थी।
दरअसल, उज्जैन जाते समय भोपाल स्टेशन पर इंदौर जाने वाली एक लड़की मिली। मेरी श्रीमती जी से चर्चा में उसने कहा- 'मैं उज्जैन दो मर्तबा गई हूं, लेकिन महाकाल के दर्शन एक बार भी नहीं किए। बाबा मुझे नहीं बुला रहे हैं।Ó ऐसी ही एक और बात पत्नी ने कही। उज्जैन से लौटते समय, दर्शन करने की वजह से वो काफी खुश थी। दूसरे रिश्तेदारों का हवाला देकर वह कह रही थी... 'सब कहते थे- सब देख लिए महाकाल भर बच गया है। उनकी बात से लगता था, महाकाल दर्शन बड़ी बात है। सो यह हो गया, तो एक उपलब्धि, एक सार्थकता महसूस हो रही है।Ó इन दो वाकयों से मैं भी कुछ खास हासिल करने के एहसास से भर उठा।
विचार तो पहले से था, लेकिन निश्चय (तय) सप्ताह भर पहले यकायक किया और पत्नी के साथ निकल पड़े भोलेनाथ की नगरी। एक दिन में घूमफिरकर वापस भी आ गए। महाकाल मंदिर सहित 'उज्जैन-दर्शनÓ की बस में बैठकर आठ-दस और दर्शनीय स्थान देखा।
अच्छा अनुभव था। कई खट्टी-मीठी यादें... वो ट्रेन का यूं लेट होना... वो वोहरा मुस्लिम का महाकाल के फोटो बेचना सबकुछ।
महाकाल का दर्शन भी बिना किसी तनाव के केवल एक घंटे में कर लिया... सुबह-सुबह। इसके तुरंत बाद 'उज्जैन-दर्शनÓ में सवार हो गए थे। उज्जैन-दर्शन को पाने की जल्दी के चलते ही महाकाल मंदिर के भीतर के दूसरे मंदिरों को नहीं देख पाए। यहीं बस जल्दबाजी का एहसास हुआ, बाद इसके कहीं भी हड़बड़ी नहीं थी।
घर आने के बाद लगा कि कुछ अचीव किया.... हल्की-सी लहर...। आमतौर पर मैं ठंडे स्वभाव का हूं, संवेदनाओं, अनुभूतियों, एहसासों को लेकर। मैं ज्यादा उत्साहित नहीं हो पाता। मेरे भीतर खुशी, उत्साह, गम, उदासी की लहर बहुत ज्यादा, बहुत तीव्रता से नहीं उठती। इसलिए यह संवेदना अपने आप में खास थी।
दरअसल, उज्जैन जाते समय भोपाल स्टेशन पर इंदौर जाने वाली एक लड़की मिली। मेरी श्रीमती जी से चर्चा में उसने कहा- 'मैं उज्जैन दो मर्तबा गई हूं, लेकिन महाकाल के दर्शन एक बार भी नहीं किए। बाबा मुझे नहीं बुला रहे हैं।Ó ऐसी ही एक और बात पत्नी ने कही। उज्जैन से लौटते समय, दर्शन करने की वजह से वो काफी खुश थी। दूसरे रिश्तेदारों का हवाला देकर वह कह रही थी... 'सब कहते थे- सब देख लिए महाकाल भर बच गया है। उनकी बात से लगता था, महाकाल दर्शन बड़ी बात है। सो यह हो गया, तो एक उपलब्धि, एक सार्थकता महसूस हो रही है।Ó इन दो वाकयों से मैं भी कुछ खास हासिल करने के एहसास से भर उठा।
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