05 March 2012

तीर्थों में तीर्थ कैलाश...
मेरा कैलाश...
मुझे हमेशा से आकर्षित करता रहा है।
यह शायद सबसे कठिन और सबसे महानतम तीर्थ माना जाता है...
शायद इसीलिए मेरे मन में इसके लिए आग्रह बना है।
इंसान की फितरत है ना, जमीन में पड़ी दूब को नजरअंदाज करता है और एवरेस्ट की ख्वाइश रखता है। कठिन-दुर्लभ को पाने-जीतने में अहंकार को भी बड़े होने का एहसास मिलता है, शायद इसीलिए।
बहरहाल, कारण चाहे जो भी हो... कैलाश की चाह, पहाड़ों की चाह... जाने क्यों मेरे अंतरम को खींचती है। कैलाश के अलावा भी पहाड़ी जीवन मुझे खींचता रहा है। शायद इसीलिए हिमालय दर्शन, गुल गुलशन गुलफाम टीवी सीरियल की डीवीडी मैं अरसे से तलाश रहा हूं। मुझे इनकी तलब होती रही है।
फिर बात अगर कैलाश की करूं, तो यही कि यहां पहुंचने की मेरी बड़ी इच्छा रही है। कैलाश-मानसरोवर की यात्रा में जाने की और दूसरे श्रद्धालुओं की तरह मेरी भी बड़ी तमन्ना है।
 कैलाश और बनारस (जहां से मैं एक बार हो कर आ चुका हूं) यही दो तो हैं, जो मेरे मेंरे भीतर के धार्मिक संस्कार को जगाते हैं। बनारस भी मुझे मोहता रहा है... बनारस के साथ भी संभवत: वही बात जुड़ी है। यह कालजयी सनातन शहर अपने ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक और न जाने कितने रहस्यपूर्ण महत्व के कारण मेरे लिए चुंबकीय बन गया है। इसके गुरुत्वाकर्षण के आगे मैं बेबस हो जाता हूं। एक बार जा चुका हूं, और फिर जाने की तमन्ना है। एक बार देखा है और देखने की तमन्ना है, एक बार खाया है और खाने की ...। एक बार पीया है और दोबारा...। इस शहर में मैं संभवत: 2004 में गया था, तब ही से यह दोबारा मुझे बुला रहा है। कि यहां कुछ ऐसा है, जो छूट गया है, जिसे मुझे देखना है। बनारस के बारे में फिर कभी अलग से लिखूंगा.. ।
 दिलचस्प बात यह है यह दोनों स्थान भगवान शंकर से संबद्ध हैं। और शिवजी तो मेरे बचपन के आराध्य हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तिकड़ी में मुझे यह अवधूत ही लुभाते थे। मेरे दोस्त अतुल को विष्णु (उनका रंगीन पहनावा) पसंद थे। हम दोनों की पसंद के बाद, तीसरे दोस्त भवानी के लिए ब्रह्मा ही बच गए थे। जाहिर है उसके पास कोई च्वाइस नहीं थी। लेकिन उसने कभी ऐतराज भी जाहिर नहीं किया था ब्रह्मा को लेने से और न ही कभी शिव या विष्णु के प्रति विशेष लगाव ही दर्शाया था।
तो कैलाश, बनारस, भोलेनाथ सब एक ही थैली के हैं और शायद मैं भी...। हालांकि अब बड़े होने के बाद, विवेकानंद के राजयोग, जे कृष्णमूर्ति, ओशो, बुद्ध जैसे निर्गुण उपासकों को पढऩे के बाद ईश्वर को लेकर नई अवधारणा चेतन मन में पैठ गई। भगवान या ईश्वर अब ईश्वर तत्व बन गए, सैद्धांतिक रूप से ही सही...। (ईश्वर का मतलब होता है, जो कभी नष्ट नहीं होता।  यह नश्वर का विपरीत शब्द है। ऐसा मैंने ओशो द्वारा पतंजलि योगसूत्र की व्याख्या में पढ़ा था)
तो इसी कैलाश की चाह के पीछे मैं इससे संबंधित चीजें पढ़ता रहा हूं। दो लोग जो कैलाश की यात्रा पर जा चुके हंै, उनके संस्मरण को बहुत स्वाद लेकर पढ़ा। ऐसे कि उनके अनुभव से मैं ही गुजर रहा हूं। उसी दौरान मैंने एक चीज मैंने पाई थी भारत (दिल्ली) से कैलास-मानसरोवर की यात्रा का मार्ग। इसे मैंने अपने पास रख लिया वो ये हैं...

हल्द्वानी--- कौसानी--- बागेश्वर--- धारचूला--- तवाघाट--- पांगू--- सिरखा--- गाला--- माल्पा--- बुधि--- गुंजी--- कालापानी--- लिपू लेख दर्रा--- तकलाकोट---जैदी--- बरखा मैदान--- तारचेन--- डेराफुक---श्रीकैलाश...

अगर आप भी कैलाश- संस्मरण को पढऩे के इच्छुक हैं, तो उनकी लिंक नीचे है...

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