मिश्र में एक अद्भुत फकीर हुआ है झुन्नून। एक युवक ने आकर उससे पूछा, मैं भी सत्संग का आकांक्षी हूं। मुझे भी चरणों में जगह दो। झुन्नून ने उसकी तरफ देखा—दिखाई पड़ी होगी बही बुद्ध की कलछी वाली बात जो दाल में रहकर भी उसका स्वाद नहीं ले पाती। उसने कहा, तू एक काम कर। खीसे में से एक पत्थर निकाला और कहा, जा बाजार में, सब्जी मंडी में चला जा, और दुकानदारों से पूछना कि इसके कितने दाम मिल सकते है।
वह भागा हुआ गया। उसने जाकर सब्जियां बेचने वाले लोगों से पूछा। कई ने तो कहां हमें जरूरत ही नहीं है। दाम का क्या सवाल? दाम तो जरूरत से होता है। हटाओं अपने पत्थर को। पर किसी ने कहा कि ठीक है, सब्जी तौलने के काम आ जाएगा। तो दो पैसे ले लो। चार पैसे ले लो, पत्थर रंगीन था। मन को भा रहा था।
पर झुन्नून ने कहा थ, बेचना मत, सिर्फ दाम पूछ कर आ जाना। ज्यादा से ज्यादा कितने दाम मिल सकते है। सब तरफ पूछकर आ गया, चार पैसे से ज्यादा कोई देने को तैयार नहीं हुआ।
आकर उसने झुन्नून से कहा की चार पैसे से कोई एक पैसा ज्यादा देने को तैयार नहीं है। बहुत तो लेने को ही तैयार नहीं थे। कईयों ने तो डांट कर भगा दिया। सुबह बोनी का वक्त है। आ गये पत्थर बेचने। चल भाग यहां से। हम ग्राहकों से बात कर रहे है बीच में अपने पत्थर को उलझाये हुए है। अभी तो सांस लेनी की भी फुरसत नहीं है। श्याम के वक्त आना। पर हमारे ये काम का ही नहीं है मत आना। किसी ने उत्सुकता भी दिखाई तो इस लिए सब्जी तौलने के काम आ जायेगा। इसका बांट बना लेगा। एक आदमी तो ऐसा भी मिला की काम को तो कोई नहीं है पर दे जा बच्चे खेल लेंगे। अब तुम ले आये हो तो चलो दे ही दो। और ये चार पैसे। बड़ी दया से चार दे रहे थे। जैसे मुझ पर बड़ा एहसान कर रहे हो। कहो तो बेच आऊं।
गुरु ने कहा, अब तू ऐसा कर, सोने चाँदी वाले बाजार में जा और वहां जा कर पूछ आ। लेकिन बेचना नहीं है। सिर्फ दाम ही पूछ कर आने है। चाहे कोई कितने ही दाम क्यों न लगाये। क्योंकि यह पत्थर मेरा नहीं यह मेरे पास किसी कि अमानत है। इसलिए मैं तुझे दिये देता हूं केवल इसे अमानत ही समझना और वह भी अमान पे अमानत। इसे बेचने का हक न तो मेरा है न तेरा। इस बात को गांठ बाद ले। वह बजार गया। वह तो हैरान होकर लौटा। सोने-चाँदी के दुकान दार हजार रूपये देने को तैयार है। भरोसा ही नहीं आ रहा कहां चार पैसे और कहां हजार रूपये। कितना फर्क हो गया। एक बार तो लगा की बैच ही दे। यह आदमी बाद में हजार दे या न दे। पर गुरु ने मना किया था इस लिए उसके हाथ बंधे थे वरना तो वह कब का बेच चुका होता। लौटकर आया और अपने गुरू को कहने लगा इस पत्थर के एक आदमी हजार रूपये देने को तैयार हो गया है। पाँच सौ से तो कम कोई देने को तैयार ही नहीं था। अब कहो तो इसे बेच आऊं।
गुरु ने कहा, अब तू ऐसा कर, इसे बेच मत देना। बात तुझे याद है न। यह मेरे पास अमानत है ये अमानत में तुझे दे रहा हूं। अब तू जा हीरे-जवाहरात जहां बिकते है। जौहरी और पारखी जहां है। वहां ले जा; लेकिन बेचना नहीं है। चाहे कोई कितनी भी कीमत क्यों न लगाये। तेरे मन में कितना ही उत्साह और लालच आ जाए। बस मोल-भाव करना है। कीमत पता करनी है। कितने का बिक सकता है।
वह गया तो और भी चकित रह गया। वहां तो दस लाख रूपया तक देने को तैयार है। इस पत्थर के। वह तो पागल ही हो गया। उसे लगा कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा। कहा दो पैसे, चार पैसे, और कहां हजार और कहां लाखों। इस बार उससे नही रहा जा रहा था। मन कर रहा था इससे सुनहरी मौका फिर नहीं आएगा। इसे बेच ही दे।
जल्दी-जल्दी लौट कर अपने गुरु के पास आया। और गुरु ने उसका चेहरा देखते ही कहा पत्थर कहां है पहले वो दे। और पत्थर दे दिया। फिर पूछा सब ठीक है। समझा जो पत्थर तुझे दिया था उसकी कीमत देखी,अब अपनी और देख सत्य का तू आकांक्षी है, इतने से ही सत्य नहीं मिलता; पारखी भी है या नहीं? नहीं है तो हम सत्य देंगे और तू दो पैसे दाम बताएगा । शायद दो पैसे का भी नहीं समझेगा। पारखी होना जरूरी है। पहले पारखी होकर आ। सत्य तो है हम देने को भी तैयार है। लेकिन सिर्फ इतना तेरे कहा देने से कि तू आकांक्षी है, काफी नहीं हल होता। क्योंकि मैं देखता हूं, अकड़ तेरी भारी है। पैर भी तूने झुककर छुए है। शरीर तो झुका, तू नहीं झुका। छू लिए है उपचार वश। छूने चाहिए इसलिए। और लोग भी छू रहे है इसलिए। झुकना ही तुझे नहीं आता। तो जिन हीरों की यहां चर्चा है। वह तो झुकने से ही उनकी परख आती है। तो पहले झुकना सीख कर आ।
ओशो एस. धम्मो सनंतनो, भाग-3, प्रवचन—23
No comments:
Post a Comment