30 August 2012

सूफी कथा—आगे-आगे और आगे

एक पुरानी सूफी कथा है, एक फकीर जंगल में ध्‍यान करता और एक लकड़हारा रोज लकडियां काटता था। फकीर को उस की गरीबी पर दया आ गई, बह लकड़ हार बहुत बूढ़ा था। उसका शरीर तो बलिष्‍ठ था, पर उसकी बाल सफेद और कमर झुक गई थी। रोज सुबह से श्‍याम तक जंगल में लकड़ी काटते-काटते उसकी उम्र गुजर गई। और बचे बुढ़ापे के दिनों में अब कोई आस भी नहीं थी। क्‍योंकि अब तो वह इतना काम भी नहीं कर सकता था। तब साधु ने उसे बुलाया और कहां, सारी उम्र हो गई पागल तेरे को यहां लकड़ी काटते, तू जरा ओर आगे भी तो जा कर कभी देख…तो उस लकड़हारे ने कहां आगे जाने से क्‍या होगा। सारी उम्र तो कट गई। अब दूर जाने का साहस भी नहीं है मेरे पास। और आगे भी तो ऐसा ही जंगल होगा।
यहां पूरी उम्र गँवाई एक बार मेरी बात मान कर आगे और आग…. भी देख। काफी ना नुच करके वह मरे मन से आगे गया। आरे अभी मील भर आगे भी नहीं गया था कि लकड़हारा क्‍या देखता वहां तो तांबे कि एक बहुत बड़ी खान है। तब वह जितना तांबा ला सकता था उतना ला-ला कर रोज बेचने लगा। एक बार लाता और सात दिन के लिए काफी हो जाता। वह तो मस्‍त हो गया। छ: दिन आराम करे और एक दिन तांबा ला कर बेच। तब एक दिन उसके दिमाग में आई कि सारी उम्र में लकड़ी काटता रहा। तब कही बमुश्किल से फकीर के कहने से आगे गया। पर फकीर ने आगे और आगे…क्‍यों कहा। उस दिन वह जल्‍दी उठा और चल दिया तांबे की खान की और , वह तांबे की खदान को परा कर चलता रहा। मील दो मील चलने के बाद क्‍या देखता है। वहां पर तो चाँदी ही चाँदी है। जहां देखो। और उसने अपना सर घुन लिया। मैं भी कितना मुर्ख था। जो लकड़ी काटते-काटते पूरी उम्र गँवा दी। अब वह चाँदी की खदान से जितनी चाँदी ला सकता था ले आता और बेच देता, छ: महीने तक मौज से खाता। अब तो उसने अपना घर भी ठीक ठाक बनवा लिया। एक दिन काम करता और तीन महीने बैठ कर खाता। विश्राम ही विश्राम था। खूब सुख सुविधा मिल रही थी। भगवान ने अच्छा फकीर भेजा बुढ़ापा मौज से कट रहा था।
साल भर बाद फिर उसके मन में उत्‍सुकता जागी की आगे और आगे….क्‍यों न और आगे जा कर देख लूं और नही तो सेर सपाटा ही हो जायेगा। जो मुझे मिल गया है वह तो मुझसे छीना जाना है नहीं। तब वह एक दिन चाँदी की खादन को पार कर आगे चलता रहा। दोपहर हो गई जंगल और घना हो गया। पेड़ आसमान को छूने लगे थे। उसे लगता यहां के पेड़ काटने में कितना मजा आता। एक ही चंदन का पेड़ काट लेता तो महीना भर खाता पर अब क्‍या पेड़ काटना चाँद का काम अच्‍छा है। मेरे इतने पास इतना सब और मुझे पता तक नहीं। पूरा जंगल मेरा ही तो था। यहां सदा में आया, बस पास से ही लकडियां काट कर लोट जाता था। मैं भी कितना बुद्धू था। कभी मैने सोचा भी नहीं की जंगल में और संपदा ये भी हो सकती है।
तो वह गया। आगे उसे सोने की खदान मिली। फिर तो साल में एक आध बार घूमने की मस्‍ती में जाता और सोना उठा लाता। अब उसे काम कुछ भी नहीं था। तब एक दिन फकीर उसे बैठा ध्‍यान करता दिखाई दिया। वह बैठ गया। जब फकीर ने आंखे खोली तो उनके पैर छूकर कहां आप पहले क्‍यों नहीं मिल गये। मेरी पूरी उम्र यूं ही खत्‍म हो गई। तब फकीर ने कहां अब भी तो यूँ ही गंवा रहा है। कहां तक पहुंचा। तब उसने गर्व से कहा मैंने सोने की खाने खोज ली है। फकीर हंसा पाँच साल में भी तेरी समझ में कुछ नहीं आया। कुंजी तो में तुझे दे ही गया था। जब एक ताला खुला तो और खोलने की जिज्ञासा क्‍यों न आई। तू आज भी मूर्ख है। इतना जान कर भी आगे क्‍यों नहीं जाता।
तब उस लकड़ हारे ने आश्‍चर्य से कहां,अब और क्‍या हो सकता है। सोना तो आखिरी है। इसके आगे क्‍या हो सकता है। मेरी तो समझ में नहीं आता।
फकीर ने कहा: कोई भी चीज कभी आखरी नहीं होती, हर पेडी एक नया द्वार खोलती है। जरा और भी आगे जा कर देख इस संसार में रूकने के लिए कोई स्‍थान नहीं है। चलना ही मंजिल है…..
वह और आगे गया वहां पर हीरे की खादन थी। वह उन में से इतना उठा लाया कि जन्‍म भर कुछ करने की जरूरत नहीं रही। फिर एक दिन खुद उसके घर पर पहुंच गया। बह ठाठ से रह रहा था। तू तो रूक गया और आगे तुझे कुछ दिखाई नहीं दिया।
उस लकड़हारे ने कहां और आगे क्‍या? अपने लिए तो इतना ही काफी है, मेरी सात पीढ़ी भी बैठ कर खा सकती है। अब तो आराम करने दो। और थोड़ा भगवान का भजन करने दो। एक बार और भी जा कर देख,घर पर भी तो तुझे कुछ काम नहीं हे। अब तो तेरा स्‍वस्‍थ भी अच्‍छा हो गया हे। खूब पौष्टिक भोजन करता हे। चेहरा लाल हो गया। बुढ़ापा भी कम झलक रहा है तेरे चेहरे पर। कमर जो झुक गई थी। सीधी हो गई हो आराम के कारण।
उसने मरे मन से कहां और क्‍या हो सकता है हीरों से आगे?
अब हीरो के आगे जाने का उसका मन नहीं था, पर फकीर के सामने मना भी नहीं कर सका। चल दिया दो दिन चार दिन चलने के बाद। जब हीरों की खदान भी पार गया तो क्‍या देखता है। वहीं फकीर तो बैठ हुआ है—परम शांत, अपूर्व उसकी शांति थी। भूल गया लकड़हारा। जो फकीर उसके पास घर आया था वह ये तो नहीं था। आज उसकी आभा देखने जैसी थी। या शायद उसकी उलझी आंखें उसे देख नहीं पाई थी। और यहां न जाने क्‍या हो रहा है चारों और का सौन्‍दर्य देखते ही बनता है। वह झुक गया फकीर कि चरणों में, और उसने आंखें बंध कर ली घड़ी बीती दो घड़ी बीती वह नहीं उठा फकीर के चरणों में अभूत पूर्व आनंद बरस रहा था उन चरणों में पूरे जीवन की जो जलन पीड़ा झेली थी वह न जाने कहा पल में गायब हो गई। ऐसी शांति ऐसा आनंद उसने कभी नहीं जाना था। एक शांति की जल धार बह रही थी। फकीर ने आंखे खोली ओर चिल्लाया पागल फिर भूल गया मैंने जो कहां था। आगे और आगे….तू तो यहीं रूक गया। इन चरणों में भी नहीं रूकना। ये भी मंजिल नही है। और थोड़ा आगे।
उसने कहां अब और नहीं इतनी शांति इतना आनंद तो हीरे जवाहरातों में भी नहीं था। जो आपके चरणों में है। बस और नहीं मुझे यहीं रहने दो। इससे मधुर और इससे सुंदर और आगे क्‍या हो सकता है।
नहीं और आगे जा, तूने देखा है न जिसे तू अंत समझता था वह भी अंत नहीं है। आगे पूर्ण है जा और पूर्ण हो जा। जब तक आदमी पूर्ण नहीं हो जाता तब तक अतृप्‍ति बनी ही रहती है। गुरु के चरणों में सुख है आनंद है, शांति है, संसार के सामने अगर तौलो तो अपूर्व है। लेकिन परमाता के सामने तौलो तो कुछ भी नहीं। गुरु तो तराजू है जो तुम अनुभव देगा। मार्ग बतलायेगा, तुम सुख, दुःख गुरु के तराजू पर तोल सकते है। पर वहां कोई रूकना थोड़े ही है। आगे जाना है परमात्‍मा से पहले कोई पूर्णता तुम्‍हें रोके तो रूकना नहीं। चलते जाना है, और आगे और आगे……

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