अभी एक बहुत अद्भुत नृत्यकार हुआ पश्चिम में—निजिन्सकी। उसका नृत्य असाधारण था, शायद पृथ्वी पर वैसा नृत्यकार इसके पहले नहीं था। असाधारण यह थी वह अपने नाच में जमीन से 10-12 फीट हवा में ऊपर उठ जाता था। जितना की साधारणतया उठना नामुमकिन है। और इससे भी ज्यादा आश्चर्य जनक यह था कि वह ऊपर से जमीन की तरफ आता था तो इतने स्लोली, इतने धीमें आता था कि जो बहुत हैरानी की बात है। क्योंकि इतने धीमे नहीं आया जा सकता। जमीन का जो खिंचता है वह उतने धीमे आने की आज्ञा नहीं देता। यह उसका चमत्कारपूर्ण हिस्सा था। उसने विवाह किया, उसकी पत्नी ने जब उसका नृत्य देखा तो वह आश्चर्य चकित हो गयी। वह खुद भी नर्तकी थी।
उसने एक दिन निजिन्सकी को कहा—उसकी पत्नी ने आत्मकथा में लिखा है, मैंने एक दिन अपने पति को कहा—व्हाट ए शैम दैट यू कैन नाट सी युअरसेल्फ डांसिंग—कैसा दुःख कि तुम अपने को नाचते हुए नहीं देख सकते। निजिन्सकी ने कहा—हू सैड,आइ कैन नाट सी। आई डू आलवेज सी। आइ एम आलवेज आउट। आइ मैक सैल्फ डान्स फ्राम दि आउट साइड। निजिन्सकी ने कहा—मैं देखता हूं सदा,क्योंकि मैं सदा बाहर होता हूं। और मैं बाहर से ही अपने को नाच करवाता हूं। और अगर मैं बाहर नहीं रहता हूं तो मैं इतने ऊपर नहीं जा पाता हूं। और अगर मैं बाहर रहता हूं तो इतने धीमे जमीन पर वापस नहीं लौट पाता हूं। जब मैं भीतर होकर नाचता हूं तो मुझ में बजन होता है। और जब मैं बाहर होकर नाचता हूं तो उसमें वज़न खो जाता है।
योग कहता है—अनाहत चक्र जब भी किसी व्यक्ति का सक्रिय हो जाए, तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण उस पर प्रभाव कम कर देता है। और विशेष नृत्यों का प्रभाव अनाहत चक्र पर पड़ता है। अनायास ही मालूम होता है। निजिन्सकी ने नाचते-नाचते अनाहत चक्र को सक्रिय कर लिया। और अनाहत चक्र की दूसरी खूबी है कि जिस व्यक्ति का अनाहत चक्र सक्रिय हो जाए वह आउट आफ बाड़ी एक्सापिरियंस,शरीर के बाहर के अनुभवों में उतर जाता है। वह अपने शरीर के बाहर खड़े होकर देख सकता है। लेकिन जब आप शरीर के बहार होते है। तब जो शरीर के बाहर होता है, वही आपकी प्राण ऊर्जा है। वही वस्तुत: आप है। वह जो ऊर्जा है उसे ही महावीर ने जीवन अग्नि कहा है। और उस ऊर्जा को जगाने को ही वैदिक संस्कृति में यज्ञ कहा है।
उस ऊर्जा के जग जाने पर जीवन में एक नयी ऊष्मा भर जाती है। नए नया उत्ताप,जो बहुत शीतल है। यही कठिनाई है समझने की, एक नया उत्ताप जो बहुत शीतल है। तो तपस्वी जितना शीतल होता है उतना कोई भी नहीं होता। यद्यपि हम उसे कहते है तपस्वी। तपस्वी का अर्थ हुआ कि वह ताप से भरा हुआ है। लेकिन तप जितना जग जाती है यह अग्नि उतना केन्द्र शीतल हो जाता है। चारों और शक्ति जग जाती है। भीतर केन्द्र पर शीतलता आ जाती है।
वैज्ञानिक पहले सोचते थे कि यह जो सूर्य है हमारा,यह जलती हुई अग्नि है, है ही,उबलती हुई अग्नि। लेकिन अब वैज्ञानिक कहते है कि सूर्य अपने केन्द्र पर बिलकुल शीतल हे, दि कोल्डेस्ट स्पाट इन दि यूनिवर्स, यह बहुत हैरानी की बात है। चारों और अग्नि का इतना वर्तुल है, सूर्य अपने केन्द्र पर सर्वाधिक शीतल है। और उसका कारण अब ख्याल में आना शुरू हुआ है। क्योंकि जहां इतनी अग्नि हो, उसको संतुलित करने के लिए इतना ही गहन शीतलता का बिन्दु होना चाहिए नहीं तो संतुलन टूट जायेगा।
ठीक ऐसी ही घटना तपस्वी के जीवन में घटती है। चारों और ऊर्जा उत्तप्त हो जाती है। लेकिन उस उत्तप्त ऊर्जा को संतुलित करने के लिए केन्द्र बिलकुल शीतल हो जाता है। इसलिए तप से भरे व्यक्ति से ज्यादा शीतलता को बिन्दु इस जगत में दूसरा नहीं है। सूर्य भी नहीं। इस जगत में संतुलन अनिवार्य है। असंतुलन….चीजें बिखर जाती है।
–ओशो महावीर-वाणी, भाग—1 प्रवचन—नौवां दिनांक 26 अगस्त, 1971, पाटकर हाल, बम्बई
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