आप चकित होंगे जानकर—आपने पुरानी कहानियां पढ़ी होंगी, बच्चों की कहानियां, उनमें उल्लेख मिलता है। कि एक राज के प्राण तोते में थे। आज की नई कहानियों में ये उल्लेख लगभग खत्म हो गया है। क्योंकि इसके कोई कारण नहीं मिलते। पुरानी कहानियां कहती है। कि कोई सम्राट है, उसके प्राण किसी तोते में बंद है। अगर उस तोते को मार डालों तो सम्राट मर जायेगा। यह बच्चों के लिए ठीक है। हम समझते है कि ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन आप हैरान होंगे, यह सम्भव है। वैज्ञानिक रूप से सम्भव है। और यह कहानी नहीं है, इसके उपयोग किए जाते रहे है। अगर एक सम्राट को बचाना है मृत्यु से तो उसे गहरे सम्मोह न में ले जाकर यह भाव उसको जतलाना काफी है, बार-बार दोहराना उसके अन्तरतम में कि तेरा प्राण तेरे शरीर में नहीं है। इस सामने बैठे तोते के शारीर में है। यह भरोसा उसका पक्का हो जाए यह संकल्प गहरा हो जाए तो यह युद्ध के मैदान पर निर्भय चला जाएगा। और वह जानता है कि उसे कोई भी नहीं मार सकता। उसके प्राण तो तोते में बंद है। और जब वह जानता है कि उसे कोई नहीं मार सकता तो इस पृथ्वी पर मारने का उपाय नहीं, यह पक्का ख्याल। लेकिन अगर उस सम्राट के सामने आप उसके तोते की गर्दन मरोड़ दोगे तो वह उसी वक्त मर जाएगा। क्योंकि ख्याल ही सारी जीवन है। विचार है, संकल्प जीवन है।
सम्मोहन ने इस पर बहुत प्रयोग किए है। और यह सिद्ध हो गया है कि यह बात सच है। आपको कहा जाए सम्मोहित करके कि यह कागज आपके सामने रखा है, अगर हम इसे फाड़ देंगे तो आप बीमार पड़ जायेगे,बिस्तर से न उठ सकोगे। इससे आपको सम्मोहित कर दिया जाए, कोई तीस दिन लगेंगे। तीस सिटिंग लेने पड़ेंगे—तीस दिन पन्द्रह-पन्द्रह मिनट आपको बेहोश करके कहना पड़ेगा कि आपकी प्राण ऊर्जा इस कागज में है। और जिस दिन हम इसको फाड़ेगे,तुम बिस्तर पर पड़ जाओगे। उठ न सकोगे। तीसवें दिन आपको…..होश पूर्वक आप बैठे, वह कागज फाड़ दिया जाए। आप वहीं गिर जाएंगे। लकवा खा गए। उठ नहीं सकेंगे।
क्या हुआ? संकल्प गहन हो गया। संकल्प ही सत्य बन जाता है। यह हमारा संकल्प है जन्मों-जन्मों का कि यह शरीर मैं हूं। यह संकल्प वैसे ही जैसे कागज में हूं। यह तोता मैं हूं। इसमें कोई फर्क नहीं है। यह एक ही बात है। इस संकल्प को तोड़े बिना तप की यात्रा नही होगी। इस संकल्प के साथ भोग की यात्रा होगी। यह संकल्प हमने किया ही इसलिए है कि हम भोग की यात्रा कर सकें। अगर यह संकल्प के साथ भोग की यात्रा नहीं हो सकेंगी।
अगर मुझे यह पता हो की यह शरीर में नहीं हूं। तो इस हाथ में कुछ रस न रह गया कि इस हाथ से मैं किसी सुन्दर शरीर को छुऊं। यह हाथ मैं हूं ही नहीं। यह तो ऐसा ही हुआ जैसे एक डंडा हाथ में ले लें और उस डंडे से किसी का शरीर छुऊं। तो कोई मजा नहीं आएगा। क्योंकि डंडे से क्या मतलब है। हाथ से छूना चाहिए। लेकिन तपस्वी का हाथ भी डंडे की भांति हो जाता है। जैसे वह संकल्प को खीज लेता है। भीतर कि यह हाथ में नहीं हूं। हाथ डंडा हो गया। अब इस हाथ से किसी का सुन्दर चेहरा छुओ कि न छुओ यह डंडे से छूने जैसा होगा। इसका कोई मूल्य न रहा। इसका कोई अर्थ न रहा। भोग की सीमा गिरनी और टूटने और सिकुड़नी शुरू हो जाएगी।
–ओशो
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