हाल ही में एक लेख पढ़ा, दीपक असीम का...। पाकिस्तानी डॉक्युमेंट्री फिल्म जिसे ऑस्कर मिला है, यह लेख उस पर आधारित है। पूरे तीखेपन के साथ इसके बासी विषय पर तीखी टिप्पणी की गई है लेख में। अवार्ड मिलने के पीछे भी पश्चिमी डायरेक्टर के होने की वजह और मुस्लिमों के प्रति पश्चिमी पूर्वग्रह को डॉक्युमेंट्री द्वारा पुष्ट करना वजह बताया गया है।
दीपक असीम का नवदुनिया में नियमित प्रकाशित होने वाला यह कॉलम यूं तो फिल्म पर आधारित रहता है, लेकिन वे भी चौकसे जी की (दैनिक भास्कर में प्रकाशित नियमित कॉलम.. परदे के पीछे के प्रसिद्ध स्तंभकार) की तरह ही समसामायिक विषयों पर टिप्पणी करते हैं। चौकसे व इनके कॉलम में जो बुनियादी अंतर मुझे समझ आता है वह यह है कि चौकसे जी मीठी छुरी से हलाल करते हैं, जबकि ये सीधा-सीधा नश्तर चुभाते हैं। इनके लेख में हरी मिर्ची जैसा करारा तीखा तेवर नजर आता है, जबकि चौकसे जी शहद में कुनैन घोलकर पिलाते हैं...। दोनों का अपना-अपना अंदाज है... जहां तक संवेदनाओं की बात, मुद्दों की समझ, जीवन के प्रति आग्रहपूर्ण होने की बात.... असीम भी गहरे उतरे मालूम पड़ते हैं। आलोचक चौकसे भी हैं, ये भी हैं, चौकसे की ताकत उनकी उपमा है, तो असीम का हथियार उनका तीखापन है.... वे सीधे कत्ल करते हैं। इन्हें पढ़ते-पढ़ते कभी-कभी परसाई की याद हो आती है...
आर्टिकल की लिंक नीचे है...http://hindi.webdunia.com/
दीपक असीम का नवदुनिया में नियमित प्रकाशित होने वाला यह कॉलम यूं तो फिल्म पर आधारित रहता है, लेकिन वे भी चौकसे जी की (दैनिक भास्कर में प्रकाशित नियमित कॉलम.. परदे के पीछे के प्रसिद्ध स्तंभकार) की तरह ही समसामायिक विषयों पर टिप्पणी करते हैं। चौकसे व इनके कॉलम में जो बुनियादी अंतर मुझे समझ आता है वह यह है कि चौकसे जी मीठी छुरी से हलाल करते हैं, जबकि ये सीधा-सीधा नश्तर चुभाते हैं। इनके लेख में हरी मिर्ची जैसा करारा तीखा तेवर नजर आता है, जबकि चौकसे जी शहद में कुनैन घोलकर पिलाते हैं...। दोनों का अपना-अपना अंदाज है... जहां तक संवेदनाओं की बात, मुद्दों की समझ, जीवन के प्रति आग्रहपूर्ण होने की बात.... असीम भी गहरे उतरे मालूम पड़ते हैं। आलोचक चौकसे भी हैं, ये भी हैं, चौकसे की ताकत उनकी उपमा है, तो असीम का हथियार उनका तीखापन है.... वे सीधे कत्ल करते हैं। इन्हें पढ़ते-पढ़ते कभी-कभी परसाई की याद हो आती है...
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